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उसको...नहीं तो इतने साल हो गए उसकी शादी को ...कभी वह दस बारह दिन को उन लोगों के पास जाती थी और कभी वह लोग उसके पास...बस ऐसे ही। वह थोड़ा सा पूरा समय आतिथ्य में ही बीत जाता था। टुकड़ों में बीते वह थोड़े से दिन साथ रहने या किसी को जानने समझने जैसे कहाँ हो पाते हैं। अब लगभग पाँच महीने से हैं यहाँ...जानते हैं आगे भी यहीं रहना होगा...कमसे कम गीता के जीवन काल में। वे दोनों बड़े अधिकार से रह रहे हैं यहाँ...जैसे हमेशा से यहीं रहते रहे हों। बीमारी की पीड़ा के बीच भी गीता के चेहरे पर अजीब सा सुकून रहता है...जैसे अन्ततः अपने घोंसले में पहुँच जाने का चैन। उन दोनों की कोई भी इच्छा आवश्यकता उनके बोलने से पहले ही पूरी हो जाती है...कहीं से रूहानी ख़बर हो जाती है क्या इस लड़की को।

पर सारे आराम के बीच भी मिस्टर चौधरी बेचैन रहते हैं। अजय के लिए दिल अजब तरह से उलझा रहता है। बेहद लापरवाह ढीठपन से यह लड़का नौकरी कर रहा है। किसी का डर नहीं...न उनका...न साथ वालों की निगाहों का...न विजिलैन्स का। कोई शर्म नहीं। कई बार मन आता है अंजना से बात करें। पर क्या बात करें ? फिर सोचते हैं क्यों करने को कोई एक बात तो है नहीं...न जाने कितनी बातें हैं। पूछें उससे कि हर दिन ये एैरे ग़ैरे घर पर मिलने क्यों आते हैं ? आते हैं तो मिठाई, मेवा, फल क्यों लाते हैं साथ में? घर में चार चार ए.सी., यह बड़ा वाला फ्रिज, होम थियेटर कैसे अफोर्ड कर पाते हो तुम लोग? दफ्तर टाईम से क्यों नहीं जाता यह? पर अंजना से बात करने का साहस नहीं होता...कहीं नाराज़ हो गयी तो ? वैसे भी अंजना से बात करने का फायदा? अजय उसकी सुनेगा क्या ? सोचते हैं उन्होंने ही गीता की कब सुनी थी ? पर उन्हें किसी को कुछ बताने या सुझाने की ज़रूरत ही कब थी...उसूलों पर टिका एकदम नियमबद्ध जीवन। फिर भी...फिर भी गीता कभी कुछ कहती तो सुनते क्या?

नियम तोड़ कर कभी कुछ करने का तो प्रश्न ही नहीं था, मिस्टर चौधरी ने तो कभी किसी की सिफारिश तक नहीं सुनी। हालाँकि वह गुहार सबकी सुनते थे। कोई अपील करता तो फाईल पर पूरी मेहनत करते...पर्सनल हियरिंग देते...और पूरा न्याय करते...। आजकल उन्हें जीवन में बीते हुए न जाने कितने प्रसंग यों ही...अनायास ही याद आते रहते हैं। शायद एकदम ख़ाली समय है उनके पास इसलिए...अतीत याद करने के अतिरिक्त भला काम ही क्या है उनके पास ?

...अपने केस के सिलसिले में किसी ए.के.निगम ने मिस्टर चौधरी को पत्र भेजा था। उन्होंने उनकी अर्ज़ी पढ़ी थी। न जाने क्यों उनको लगा था कि उन्हें परेशान किया जा रहा है। पूरी बात की तह तक जाने के लिए उन्होंने निगम को बुलवा लिया था। पूरी बात उनसे समझी थी और उन्हें न्याय का भरोसा दिया था। निगम साहब उत्साहित हो गए थे और उसी उत्तेजना में कह बैठे थे कि ‘‘साहब वह प्रेम नारायण जी मेरे अच्छे दोस्त हैं।’’

उनकी भृकुटि चढ़ गई थी ‘‘कौन...’’
‘‘जी प्रेम नारायण... आपके साले साहब।’’
मिस्टर चौधरी को लगा था कि निगम अपने केस की पैरवी नहीं सिफारिश कर रहे हैं। उनकी आवाज़ तेज़ हो गयी थी जैसे चिल्ला रहे हों ‘‘कोई तारीफ नहीं कर रहे हैं आप अपनी...आधी दुनिया उनको जानती है। आपने अपनी यह तारीफ पहले बतायी होती तो मैं आपको यह व्यक्तिगत समय नहीं देता।’’ निगम साहब घबड़ा कर उठ खड़े हुए थे...कुछ कहना चाहते रहे पर जैसे सही सही वाक्य न गढ़ पा रहे हों। बगल के कमरे से बड़े बाबू दौड़े हुए आए थे...और उन्होंने निगम साहब को जाने का इशारा कर दिया था।

शाम को प्रेम आए थे। सीधे गीता के पास अन्दर चले गए थे....दोनों में न जाने क्या बातें होती रहीं थीं...बीच बीच में अजय की आवाज़ आती रही थी। वह चुपचाप दूसरे कमरे में बैठे रहे थे...वह जानते हैं कि अन्दर किसी को उनकी ज़रूरत नहीं है...यह जानते हैं कि अब कुछ दिन तक गीता का उतरा चेहरा देख कर परेशान होते रहेंगे वह। बड़ी ईमानदारी से सोचते हैं कि कुछ भी तो गलत नहीं करता मैं...फिर यह रिश्तेदार...दोस्त और पड़ोसी आए गए दिन गीता के पास उनकी शिकायत ले कर क्यों पहुँच जाते हैं। गीता क्या करेगी...गीता की उन्होंने सुनी ही कब है। फिर भी..। सोचते हैं फिर भी क्या ? फिर भी जानते हैं कि वह गीता से सिर्फ प्यार ही नहीं करते उससे डरते भी हैं...यह बात गीता भी नहीं जानती शायद। वह तो जहाँ उनकी भृकुटि तनी देखती है वहाँ एकदम मौन साध लेती है।...और उनकी भृकुटि उनके अनचाहे भी आए दिन तन ही जाती है। वह नहीं समझ पाते कि वह अपने तीखे मिज़ाज़ का क्या करें। गीता चुप रहती है तो चाहे सारी दुनिया बोलती हो उन्हें सन्नाटा ही लगता रहता है। पूरी दुनिया न समझे उन्हें कोई बात नहीं...पर गीता क्यों नहीं समझती उनको।

बगल के कमरे से अजय का बड़बड़ाना सुना था उन्होंने...‘‘बहुत ईमानदार हैं...सो व्हाट...अपनी ईमानदारी का घमंड हो गया है पापा को...इससे तो हज़ार गुना अच्छा था कि होते बेईमान।’’उन्हें लगा शायद गीता नें डाँटा है उसे...वह उठते उठते रूक कर बैठ गए थे। वह गीता के सामने किसी संवाद में नहीं पड़ना चाहते थे। वह जानते थे कि एक बार मुँह खोला तो कुछ भी बोल जाएँगे...अपने आप को ज़ब्त कहाँ कर पाते हैं...और यह अजय....भूल जाता है कि वे उसके पिता हैं।

पूरे समय गीता ने उनसे इस बारे में कोई बात नहीं की थी। रात को सोने से पहले उसने एक बार उनकी तरफ देखा था ‘‘किसी भले आदमी का नुकसान सिर्फ इसलिए मत कर देना कि वह मेरे भाई का दोस्त है।’’ मिस्टर चौधरी हड़बड़ा गए थे ‘‘मैं किसी के कारण कुछ भी नहीं करता... न किसी का नफा...न नुकसान।’’ गीता ने एक बार तेज़ निगाह से उनकी तरफ देखा था ‘‘ख़ैर वही बेहतर है।’’

उसके बाद वह काफी दिन चुप चुप और उखड़ी सी रही थी। मिस्टर चौधरी से टक्कर लेने के गीता के अपने हथियार हैं...जिनसे वह सच में बहुत पराजित और अकेला महसूस करने लगते हैं। कभी कभी वह बहुत परेशान हो जाते हैं..आए दिन यह गीता पीड़ित जैसी मुद्रा क्यों बना लेती है...क्यों होता है ऐसा...यह सोच पाने और समझ पाने जैसी दृष्टि उनके पास नहीं थी...उन्होंने तो ज़िदगी को हमेशा अपने नज़रिए से देखा...समझा...और जिया था।

मिस्टर चौधरी आजकल अजब तरह से डरे हुए से रहने लगे हैं। कभी कभी लगता जैसे व्यक्तित्व का सारा तेज...अन्तर का आत्म विश्वास पूरा का पूरा हिल गया है। घर में किसी तरफ से भी अपने कमरे में आते हैं तो बीच की उस पतली सी गैलरी में एक तरफ स्टोर रूम बना हुआ है जिसका दरवाज़ा निकलवा कर अंजना ने उसे पूजाघर बनवा दिया है ताकि गीता को सुविधा रहे। उधर से बीसियों बार निकलना होता है...हर बार लगता है जैसे मन ही मन गिड़गिड़ा रहे हों...‘‘हे प्रभु रक्षा करना’’। हर बार लगता जैसे और नीचे गिर गए हों। भगवान से किसकी रक्षा की भीख माँग रहे हैं ? बेटे के सम्मान की? पर क्यों ? क्योंकि वह उनका अपना बेटा है ?

अपनी अड़तिस साल की नौकरी में अपने सत्य और सिद्धान्तों के साथ सीधे तन कर चलते रहे...अब लगता है जैसे कन्धे लटक गए हैं। कभी कभी जैसे वह सिर धुनते हैं...अपने ही बेटे को कोई संस्कार नहीं दे पाए। कहाँ ग़लत हो गए...कैसे ग़लत हो गए समझ ही नहीं पाते। उनसे कुछ भी नहीं सीखा इस लड़के ने...एकदम अपने मामाओं पर गया है। वैसा ही खानपान...वैसा ही अनियमित जीवन...न सोने का कोई टाइम, न जगने का। वैसी ही सुखवादी सोच...‘‘जब तक जीओ सुख से जीओ’’...और सुख का भी कितना ग़लत अर्थ है इसके लिए...एकदम जानवरों की तरह। कभी कभी अपने आप को धिक्कारते हैं, फिर चुप क्यों है? अपने ही सवाल पर मन ही मन झल्लाते हैं...तब...तब क्या करें ? जब अजय नौकरी में आया था तो अपनी होम स्टेट न मिलने के कारण गीता बहुत दुखी हुयी थी। पर आज मिस्टर चौधरी सोचते हैं चलो अच्छा हुआ कि अपने प्रांत से इतनी दूर हैं वे...नही तो साथ वालों का सामना कैसे कर पाते...और उनके जूनियर्स जो अब निश्चय ही अजय के अफसर होते, उनसे कैसे निगाह मिला पाते वे।

गीता सोयी रहती है और मिस्टर चौधरी कमरे में उसके आस पास बने रहते हैं...कभी अख़बार या किताब लेकर कुर्सी पर बैठे हुए...कभी यों ही चुपचाप भी बैठे रहते हैं...गीता की तरफ देखते हुए। गीता तो आजकल प्रायः सोती ही रहती है...शायद दवाओं के कारण...या शायद बहुत ज़्यादा कमज़ोरी के कारण। गीता जगी भी हो तब भी उससे मन की चिन्ता बाँट कहाँ सकते हैं ? अजब सी बेचैनी मन पर हावी रहती है...कभी कभी यों ही निरुद्देश्य से अन्दर बाहर करते रहते हैं। सोचते हैं गीता नहीं होगी तो ज़िदगी कैसी होगी...पता नहीं। वे कहाँ होंगे यह भी तो नहीं पता। बेटे की ज़िदगी में तो जो भी थोड़ी बहुत जगह उनकी है, वह गीता के ही कारण तो है। गीता नहीं होगी तो क्या करेंगे इस घर में...कैसे रहेंगे यहाँ। वही कहाँ रहना चाहते हैं वहाँ। वह तो वैसे भी न जाने कब से इस घर से छुटकारा चाहते रहे हैं। यहाँ तो अक्सर जैसे उनका दम घुटता रहता है। गीता के कारण ही तो पड़े हैं यहाँ। पड़े ही तो हैं...जहाँ मन विद्रोह करता रहे उसे रहना थोड़े ही कहते हैं।

उनका तो कई बार मन करता है कि अपना सामान बाँधें...गीता को साथ लें और कहीं चले जाए...कहीं भी। रिटायर्ड हैं तो क्या इतनी पेंशन तो मिलती ही है कि पति पत्नी आराम से रह सकें... फन्ड ग्रैच्यूटि और बचत के रुपए भी हैं ही...कम से कम उन दोनों के लिए इज़्ज़तदार ढँग से रहने के लिए काफी हैं। पर क्या करें... गीता की कैसी तो हालत हो गयी है...दिन ब दिन गिरती ही जा रही है। उसे सिर्फ रोटी कपड़ा और घर ही नहीं चाहिए...उसे तो बहुत प्यार और बहुत सेवा चाहिए... खाली वैसा मन का प्यार नहीं जैसा मिस्टर चौधरी करते हैं उसे... उसके अलावा भी बहुत कुछ...उसका परहेजी खाना...थोड़ी थोड़ी देर में रस, सूप...बालों में तेल लगाया जाना... आस पास कुछ लोगों का बने रहना। इतना सब वे अकेले कहाँ जुटा सकते हैं...वह भी इस उम्र में। अब वे वृद्ध हो गए हैं... हड्डियों में इतनी ताक़त कहाँ है रात दिन सेवा करने की...आदत भी तो नहीं... सारी ज़िदगी एक गिलास पानी कभी स्वयं उठ कर नहीं लिया। रिटायर हो जाने के बाद बाहरी सुविधाएँ भी वे भला कितनी जुटा सकते हैं। सो तो वे शायद रिटायर होने के पहले भी नहीं जुटा सकते थे। गीता के लिए जितना कुछ हो रहा है उसमें बहुत कुछ उनके उसूलों के ख़िलाफ है। अजय के आधीन आजकल दो पब्लिक सैक्टर आर्गेनाइज़ेशन भी हैं...बहुत लंबा चौड़ा स्टाफ...कई कई गाड़ियाँ। भरपूर उपयोग करता है सबका...। उपयोग कहाँ...वह तो दुरूपयोग कर रहा है अपनी अथारिटी का।

दो औरतों की उसने सरकारी नियुक्ति कर ली है... जो घर पर रह कर क्रम से दिन रात गीता की सेवा करती हैं... रस निकालना...बालों में पैरों में तेल लगाना... उसका बदन दबाना। मिस्टर चौधरी को सत्ता का यह दुरूपयोग अच्छा नहीं लगता... पर चुप रहते हैं। सारे जीवन उन्होंने अपने प्रशासन के बीच किसी को बोलने नहीं दिया... अब बेटे के राज में मौन साध लिया है। पर चुप हो जाने से चारों तरफ जो कुछ है वह अघटित तो नहीं हो जाता... वह घटता भी है और दिखता भी है...। फ्रिज में भरी रहने वाली मिठाईयाँ और फल... हर कमरे में ए.सी... चारों तरफ फैला वैभव। उन्होंने तो अपने उसूलों के साथ कभी किसी को समझौता नहीं करने दिया... न घर वालों को... न साथ वालों को... न स्टाफ को। उनके इस कड़े स्वभाव के कारण ही उनके पास मित्र रहे ही कितने थे ? गिनती के दो... शिरीष सहाय और मोहन लाल गुप्ता।

गुप्ता के बेटे की फाईल पर जिस दिन सस्पैंशन आर्डर साईन किया था उस दिन उनके बड़े बाबू फाईल को आगे रख उसे खोलने से पहले ठिठके से खड़े रहे थे...‘‘सर...सर...वह’’और वह अपना वाक्य आधा छोड़ कर चुप हो गए थे। उन्होंने अपनी निगाहें ऊपर उठाईं थीं ‘‘हाँ नेगी...क्या है बोलो ?’’ नेगी की आवाज़ में कंपन था...उन्हें लगा था कि उसकी आँखें भी नम हैं ‘‘सर...सर वह गुप्ता सर दो तीन बार दफ्तर आ चुके हैं... पर आपसे मिलने अन्दर नहीं आए...शायद। सर वे बहुत परेशान लग रहे थे।’’नेगी बहुत तोड़ तोड़ कर अपना वाक्य पूरा कर पाए थे। गुप्ता इसी विभाग में मिस्टर चौधरी से पहले सैक्रेटरी थे। अपने ढाई साल के कार्यकाल में उन्होंने यहाँ वालों का सम्मान ही नहीं प्यार भी बटोरा था। मिस्टर चौधरी ने अपना पैन नीचे रख दिया था...‘‘नेगी मैं गुप्ता का शुक्रगुज़ार हूँ कि वह अन्दर नहीं आए... दोस्त की बात को पलटने में मुझे तकलीफ होती। सुनील गुप्ता का बेटा है... मैंने उसे गोदी में खिलाया है... तकलीफ मुझे भी कम नहीं है... पर बताओ उसे सिर्फ इसलिए छोड़ दूँ कि वह दोस्त का बेटा है ?’’ और उन्होंने पैन उठा लिया था। नेगी ने काँपते हाथों से फाईल खोल दी थी।

उस दिन शाम को गुप्ता के घर गए थे। घर में एक उदास सन्नाटा फैला हुआ था। मिसेज़ गुप्ता एक सभ्य सा नमस्कार करके घर के अन्दर चली गयी थीं...फिर बाहर नहीं आई थीं। थोड़ी देर में नौकर चाय बिस्किट और नमकीन रख कर चला गया था...। माहौल में कुछ ऐसा बेगानापन था कि हमेशा की तरह चाय का प्याला उनसे स्वयं नहीं उठाया गया था। गुप्ता ने चाय छान कर उनके सामने बढ़ा दी थी...और वे उसे चुपचाप पी गए थे। किसी ने उनसे कुछ कहा नहीं था किन्तु वे समझ गए थे कि उनके बीच के रिश्ते पूरी तरह दरक चुके हैं। लौटते समय उनके मन में एक अजब सी पीड़ा ही नहीं झुंझलाहट भी भरने लगी थी...जैसे उनके साथ कोई अन्याय हुआ हो। क्यों होता है हमेशा ऐसा उनके साथ कि वे कुछ भी ग़लत नहीं करते पर लोग उनसे रूठ जाते हैं...उनसे दूर चले जाते हैं। लौटते पर सोचते रहे थे कि क्यों गए थे वे गुप्ता के घर ? उन लोगों को सम्वेदना देने के लिए ? उनके दुख में शामिल होने के लिए ? उनको समझाने मनाने के लिए ? पर उन्होंने तो कुछ भी नहीं कहा, चुपचाप बैठ कर चले आए। गुप्ता की...गुप्ता परिवार की पीड़ा वह समझ रहे थे इसलिए कुछ कहने का साहस नहीं हुआ था।.....पर आज इतने साल बाद वह सोचते हैं कि नहीं समझी थी वह पीड़ा उन्होंने....समझी होती तो शायद सुनील के सस्पैंशन आर्डर पर इतनी आसानी से दस्तख़त न कर पाए होते...समझी होती तो अपने निर्णय पर यों अडिग न रह पाए होते....एक बार भी हाथ नहीं काँपा था उनका। पर फिर जिन औरों को उनके अपराध के लिए दंडित करते रहे थे...वे ? वे उनके या उनके किसी मित्र के बेटे नहीं थे तो क्या किसी के बेटे किसी के पति...किसी के कुछ तो थे ही न ? मिस्टर चौधरी अजब तरह से गड़बड़ाने लगते हैं। सारे जीवन गीता उन्हें समझाती रही...उनको शांत रहने की सलाह देती रही...उनसे मध्यम मार्ग,...बीच का रास्ता अपनाने के लिए कहती रही। क्या है यह बीच का रास्ता...यह मध्यम मार्ग...वह तो आज भी नहीं समझ पाते।

....तब उनकी शादी को कुछ की साल हुए थे...गीता सारे ख़ाली समय लिखने पढ़ने में व्यस्त रहती थी। उसने उन्हें आफिस फोन किया था कि उसके पैन की स्याही ख़तम हो गयी है सो वे लंच पर आते समय एकाध बॉल पैन लेते आएँ...और मिस्टर चौधरी को गुस्सा आ गया था और वे फोन पर ही उसके ऊपर बरस पड़े थे...गीता ने बीच में ही फोन काट दिया था। लंच के बीच गीता ने एक बार सख्त निगाह से उनकी तरफ देखा था ‘‘तुमने अपनी ईमानदारी को अपनी बीमारी बना लिया है हरी। तुमको क्या लगता है तुम्हारे अलावा सारी दुनिया बेईमान है ...मैं भी’’

‘‘तो फिर मैं...मैं...’’ वह हमेशा की तरह हकलाने लगे थे...पता नहीं गुस्से से...पता नहीं अपने निरूत्तर हो जाने से...‘‘तो...तो मैं क्या करता...मेज़ से उठा कर पैन जेब में रखता और ले आता घर ?’’ गीता ने फिर एक बार तेज़ निगाह से उनकी तरफ देखा था ‘‘मैंने यह तो नहीं कहा था। बाज़ार से भी ला सकते थे...नहीं तो शांति से न कर सकते थे। इतनी ज़ोर से चिड़चिड़ाना...दफ्तर में उस समय न जाने कौन कौन रहा होगा...और उन सबने न जाने क्या सोचा
होगा।’’

वह चुप हो गयी थी और मिस्टर चौधरी गीता से आँख चुराए चुपचाप खाना खाते रहे थे। काफी लम्बी चुप्पी के बाद वह धीमे से बोली थी...जैसे आत्मालाप कर रही हो.. ‘‘हरी तुम्हारी ईमानदारी की बहुत से लोग कदर करते हैं...मैं भी’’ वह जैसे फुसफुसा रही हो..‘‘पर...पर इसे अपनी और अपने परिवार की समस्या मत बनाओ। डोन्ट बी सिनिकल हरी। ईमानदार होने में कुछ भी ऐसा सुपर नार्मल नही है कि उसे सबके मुँह पर फेंक कर मारा जाए। ईमानदारी के साथ भी दुनियादारी के कुछ बीच के रास्ते हो सकते हैं...होने चाहिए।’’

मिस्टर चौधरी ने आंखों के कोने से गीता की तरफ देखा था...बहुत चाहा था एक बार ‘सॉरी’ बोल दें ...आँख मिला कर ज़ोर से नहीं तो कम से कम गीता की ही तरह थाली पर निगाह झुकाए बुदबुदा कर ही सही...। पर नही कह पाए थे। गीता से बहुत कुछ सीखना चाहते हैं...पर कहाँ...वह तो अपनी ही तरह के बने हुए हैं...अपनी आदत से लाचार।

‘बीच के रास्तों’ की यह बात उन्हें हमेशा चकित करती रही है...मगर उस बारे में गीता से कभी बात नहीं की। अब मन करता भी है तो उतने लम्बे चौड़े सम्वाद के लायक गीता कहाँ है भला। मिस्टर चौधरी के लिए तो रास्ते केवल दो ही हो सकते हैं ...सही या ग़लत।....सोचते हैं यह किस रास्ते पर पहुँच गया मैं....इस पर चलना नहीं चाहता...फिर भी...फिर भी...चल तो रहे ही हैं। कभी कभी अजब सा अकेलापन लगने लगा है इन दिनों। गुप्ता, मिसेज़ गुप्ता और सुनील बहुत याद आते हैं ...अक्सर उन लोगों के चेहरे आँखों के आगे खिंच जाते हैं। उन्हें तो यह भी नहीं पता कि वे लोग आजकल कहाँ हैं...पता होता तो भी क्या करते भला।

...मन मे बेचैनी भरने लगती है। अब रिटायर होने के इतने साल बाद अपनी ईमानदार आस्था से डिगना नही चाहते...उस पर सिर नही धुनना चाहते... फिर भी... फिर भी। फिर भी लगता है क्यों होता है ऐसा कि ग़लती एक आदमी करता है और सजा कितने लोग भुगतते हैं। अगर ‘‘क्या किया जाए’’ जैसे छोटे से वाक्य में बात को निबटाया जा सकता है तो फिर वे क्यों डरते रहते हैं कि किसी दिन अजय किसी विजिलैन्स या डिपार्टमैन्टल एक्शन के चक्कर में न फँस जाए...तब क्या होगा अंजना और बच्चों का...गीता कैसे बर्दाश्त करेगी...वे ही कैसे सह पाएँगे उस अपमान को। सही सजा मिली सोंच कर शांत कर पाएँगे क्या अपने मन को ? क्यों मन ही मन बेटे के बचाव के रास्ते ढूँढते रहते हैं ? क्यों अपनी वसीयत को बार बार अलग अलग शब्दों के जाल में बाँधते रहते हैं ताकि किसी दिन उनके बाद भी आवश्यकता पड़ने पर अजय के बचाव का रास्ता बन सके। क्यों सुझाव दिया था उस दिन अंजना को उन्होंने कि ‘‘कमर्शियल आर्ट्स मे पी.जी. किया है तुमने, अपने आप को आर्टिस्ट की तरह रजिस्टर क्यों नहीं करातीं ?’’ अपने अनजाने में ही मिस्टर चौधरी जैसे हर समय अजय के बचाव के लिए अलग अलग रास्ते सोचते और खोजते रहते हैं।

अंजना ने उलझन भरी निगाह से उनकी तरफ देखा था। उन्हें अचानक याद आया था कि शादी के समय साफ शब्दों में उन्होंने अंजना से कहा था कि यदि अपनी पढ़ाई से तुम्हारी अपनी कोई महत्वाकांक्षा हो तो फिर शादी के लिए हाँ मत करना। अजय की ट्रान्सफर वाली नौकरी है...वह संभव नहीं हो पाएगा।’’

अंजना कुछ क्षण तक उनकी तरफ देखने के बाद सहज भाव से हँसी थी...‘‘पापा बच्चे अब बड़े हो रहे हैं...मैं भी बहुत
दिन से सोच रही थी यह बात।’’

उन्होंने अख़बार में अपना चेहरा गढ़ा दिया था...अच्छा हुआ अंजना ने उनकी बात के आशय को नहीं समझा...नहीं तो कई दिन तक उससे निगाह नहीं मिला पाते। छिः अपने ऊपर अजब शर्म सी आती है...सारी उम्र सही को ग़लत से अलग बीनते रहे...उसके साथ कोई समझौता नहीं किया....और आज ?...आज क्या हो गया है उनको...आज अपने ऊपर से अपनी ही आस्था डिगने लगी है। कभी ऐसे हो जाऐंगे...कब सोचा था उन्होंने। इतना कमज़ोर था उनका आदर्शवाद कि अपने आप पर बीतते न बीतते झीझने लगा।

अंजना खाने के लिए बुला रही है...वे मेज़ पर आ कर बैठ जाते हैं। अजय अपनी माँ के कमरे मे है...वह तो रोज़ ही दफ्तर से आ कर देर तक गीता के पास बैठता है...उससे ढेर सी बातें करता है। अपनी माँ के साथ वह बचपन से ऐसा ही था...बहुत प्यार करने वाला...और उस प्यार का ढेर सा प्रदर्शन करने वाला। अपने सारे उग्र स्वभाव के बावजूद अपनी माँ के लिए मोम सा नरम है। गीता आजकल ज़्यादा देर बैठ नहीं पाती जो अजय के सिर को अपनी गोदी में लेकर थपथपा ले...तब भी जब तब अजय लेटी हुई गीता के कन्धे पर अपना माथा टिका देता है...गीता की आँखें भीगने लगती हैं और चेहरे पर ममता का उल्लास झलकने लगता है।...तब अजब सा ख़ालीपन मिस्टर चौधरी को भरने लगता है। वे कभी किसी को इस तरह से प्यार का भरोसा क्यों नहीं दिला पाए...न अपनी माँ को न गीता को ही। सारा जीवन ही रूखा सूखा सा बीत गया।...क्या कभी गीता भी समझ पाएगी इस बात को कि उसके बग़ैर बिल्कुल अधूरे हैं वे। अब इस उम्र में तो नए सिरे से कुछ भी बता पाने या समझा पाने का कोई तरीका ही नहीं समझ पाते वे। अब यह बूढ़ी ज़़़ुबान नए ढंग से बोल पाना कैसे सीखेगी भला।

अंजना बच्चों की प्लेट लगा रही है। उन्होंने दाल का डोंगा अपनी तरफ को सरकाया था...तभी शिरीष का छेड़ना याद आया था ‘‘यार थोड़ी अपनी झक कम करो। वैसे भी तुम्हे पता है क्या कि तुम्हारे अपने ही पेट में कितनी रोटी नम्बर दो की पड़ी हैं...। इतनी जगह खाना खाते हो...पता होता है क्या कि आटा कैसे पैसे से ख़रीदा गया था...ईमानदारी के या बेईमानी के।’’

मिस्टर चौधरी ने खाना शुरू कर दिया था। उन्होंने अंजना की तरफ देखा था...मन आता है पूछें उससे कि ‘‘तुम ख़ुश तो हो ’’...पर चुप रहते हैं। वैसे भी क्यों पूछना चाहते हैं उससे यह...जवाब में उससे क्या सुनना चाहते हैं....यह भी तो पता नहीं।

उन्होंने तो ज़िदगी बहुत सीधे सादे ढंग से जी थी...नियमों में बँधी हुयी....एकदम स्ट्रेट लाइन में...फिर भी लगता है जैसे शतरंज की कोई बिसात बिझी थी जहाँ दूसरों की चालों के जाल में फँस गए हैं...अपना अगला मूव तो तय ही नहीं कर पाते हैं। गीता न होती...अंजना और बच्चे न होते.....तब...तब शायद। तब शायद क्या करते वह? पता नही।...क्यों नहीं पता? जैसे अपने आप से सवाल पूछते हों, जैसे अपने आप को लताड़ते हों। मन में इतना उलझाव।...ऐसे तो नहीं थे वे।

याद आता है कि अम्मा जब कभी उनके सख्त स्वभाव से तंग आ जाती थीं...या जब कभी गीता का चेहरा उतरा देखतीं तो हँसते हुए उससे कहती थीं ‘‘इंसान अपनों से ही मात खाता है बहू।’’ आज अम्मा होतीं तो जान पातीं क्या कि इंसान अपनों से ही नहीं अपने आप से भी मात खाता है।

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२३ अप्रैल २०१२

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