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					 लोग 
					उसे ऐसे देखें तब उसे क्या करना चाहिये। कोई खूबसूरत लड़की को 
					निहारे तो वो होंठ दबाकर मुस्कुरा दे या इतराती हुई पलके 
					झपकाये पर बदसूरत लड़की ऐसी सूरत में क्या करे। घूरती आँखों की 
					आँखो में आँखें डालकर तिरस्कार का सामना करे या नज़र चुराकर 
					अपनी बद्सूरती को कोसे। 
 “किसी का इंतजार कर रही हूँ।”- दो बार ऑर्डर के लिये मना करने 
					के बावजूद बार-बार उसी की तरफ देखते वेटर से काजल अचानक बोल 
					पड़ी।
 “जी”, पहले से काजल को देख रहे वेटर ने गर्दन इधर-उधर घुमा फिर 
					उसी की ओर देख चौंकने का नाटक किया, “कुछ कहा आपने।”
 “मैने कहा किसी का इंतजार कर रही हूँ…. जब वो आ जायेंगे तो 
					ऑर्डर कर दूँगी।”
 “पर मैने तो कुछ कहा भी नहीं।” - वेटर चेहरे पर बनावटी 
					मासूमियत बिखेरते हुये बोला।
 “आपको कुछ कहने की जरूरत कहाँ है। भगवान ने दो बोलती आँखों से 
					जो दी हैं आपको।”
 “जी मैं कुछ समझा नहीं।”
 “यही तो आपका बड़प्पन है 
					कि आप सब कुछ समझकर भी कुछ नहीं समझते।”- काजल ने वेटर को ताना 
					मारा।
 “जी....?”
 “जी....…. एक चाय।”
 “चाय…? ” – वेटर चौंका।
 “हाँ चाय….. चाय तो मिलती है ना यहाँ।”
 “जी बिल्कुल मिलती है।”
 “बस तो ले आईये।”– काजल ने चाय ऑर्डर कर देने में ही भलाई 
					समझी।
 “जी एक।”
 “तो दूसरी क्या अपने लिये लायेंगे।”
 “जी नहीं..... अभी लाया एक चाय।”
 “प्ली......ज।” - टेढ़ी मुस्कान के साथ वेटर बोला तो काजल ने 
					भी अपना जवाबी प्लीज़, ज़रुरत से ज्यादा लंबा खींच दिया।
 
 बाकियों को छोड़ो, यहाँ 
					तो दो कौड़ी का वेटर भी मुझे मेरी बदसूरती का एहसास दिलाने पर 
					तुला है। लोगों ने पंद्रह मिनट रेस्टोरेंट में बैठना भारी कर 
					दिया और ये विशेष भी तो इतना समय लगा रहा है। - काजल घड़ी 
					देखते हुये सोचने लगी। ज्यादा करके काजल भीड़-भाड़ वाली जगहों 
					से दूर-दूर ही रहना पसंद करती। पर हिंदुस्तान है, यहाँ कोई 
					भीड़ से भागकर जाये भी तो कहाँ। घर से कदम बाहर निकालते ही 
					भीड़ है। और खुद का घर ही किसी भीड़ से कम था क्या। काजल का 
					परिवार संयुक्त  परिवार है जिसका हर जोड़ तकरीबन रोज ही 
					दिखाई पड़ जाता। हाँ, कुछ-कुछ रोज ऐसे भी होते जब काजल की माँ 
					और ताई नहीं भी झगड़ते। अब देवरानी-झेठानी ही सही, पर थीं तो 
					दोनों इंसान ही, बेचारी कहाँ तक लड़तीं।
 “चाय।”
 “चाय..?”- काजल नें चौंककर वेटर की तरफ देखा तो उसे अपने 
					रैस्टोरेंट में होने का एहसास हुआ।
 “चाय ऑर्डर की थी ना आपने, मैडम।” - चौंकती काजल को उसी का 
					ऑर्डर याद दिलाते हुये वेटर बोला।
 “हाँ......चाय। चाय भी तो ऑर्डर की थी।”- अभी तक भी खयालों में 
					डूबी काजल चाय को यूँ देख रही थी जैसे पहली बार चाय को देखा 
					हो।
 “जी मैंने कहा चाय।”
 “ठीक है…. सुन तो लिया। अब क्या कुप्पी लगाकर मुँह में उड़ेल 
					दोगे...? टेबल पर रखो और जाओ।” -वेटर के बार-बार 
					चाय बोलने से काजल चिढ़ गई। 
					“यहीं खड़ा हो गया जैसे पूरी चाय पिलाकर ही जायेगा।” - काजल 
					बड़बड़ाई।
 
 वेटर ने चाय टेबल पर रखी और टेढ़ी मुस्कान देता हुआ जाने लगा। 
					काजल इस टेढ़ी मुस्कान का मतलब अच्छी तरह समझती थी। उसका बस 
					चलता तो इन सब टेढ़ी मुस्कान देने वालों का मुँह तोड़ देती पर 
					मुँह भी बेचारी कितनों का तोड़ती और किस-किस का तोड़ती क्योंकि 
					गैर तो गैर यहाँ तो अपने भी कम न थे। बचपन से ही काजल अपनी ताई 
					की जली-कटी सुन कर बड़ी हुई थी।
 
 “अरी सविता तेरी लौंडिया 
					तो और काली होती जा रही है। जैतून के तेल से मालिश करनी थी 
					तैने इसकी।”– ताई ने शक्ल तो यूँ बिगाड़ रखी थी जैसे किसी सूअर 
					के बच्चे को देख लिया हो। जबकी खुद की शक्ल किसी सूअर से कम ना 
					थी। जब देखो तब किसी फेयरनैस क्रीम के फालतू विज्ञापन की तरह 
					उसकी कालिख नापती रहती। कभी-कभी काजल सोचती कि अगर वो काली ना 
					होती तो ताई बात किस विषय पर करतीं।
 
 “भाभी जी, हमने तो सब करके देख लिया। जैतून के तेल से मालिश, 
					नारियल तेल में भीगी आटे की लोई, बेसन का लेप। इसपै तो उन 
					महँगी-महँगी क्रीमों का भी कोई असर ना है। इसका तो सुसरी का 
					रंग ही ऐसा है।”- माँ प्यार से सहलाती तो काजल यही सोचती रहती 
					कि माँ उसकी तरफ है या ताई की।
 
 “देखलै अब.... हम तो बस 
					कह ही सकैं। आगै तेरी मर्जी। इसके ब्याह मैं तुझे ही दिक्कत 
					झेलनी पड़ैगी। हमारी तो दो लौंडिया हैं और किसी की नजर ना लगै, 
					एकदम दूध जैसा रंग है दोनों का।” -आँखे मटका-मटकाकर ताई ऐसे कह 
					रही थी जैस अपनी कोख से मधुबाला और मीना कुमारी पैदा कर दी 
					हों।
 
 काजल से ज्यादा तो ताई की जबान काली थी। दरअसल, ताई को लड़का 
					ना था जबकि काजल को एक छोटा भाई था और इसीलिये ताई काजल की माँ 
					से थोड़ी खार खाती और जब तब काजल का कालापन बीच में घसीट कर 
					अपनी भड़ास निकाल देती। होने को तो काजल का छोटा भाई पिंटू भी 
					गोरा ना था पर लड़कों का काला होना और बात है और लड़कियों का 
					काला होना और। हिंदुस्तान में लड़कियों का काला होना किसी 
					अपराध से कम नहीं। सबको अपने बेटे के लिये गोरी बहू जो चाहिये।
 
 काजल की चाय अभी भी टेबल पर ज्यूँ की त्यूँ पड़ी थी। काजल ने 
					चाय की चुस्की ली तो चाय इतनी ठंडी हो चुकी थी चाय से हाथ धोकर 
					निकल लो। चाहती तो वो पूरी चाय एक ही घूँट में खत्म कर सकती थी 
					पर फिर भी काजल ने एक ही चुस्की लेकर गिलास वापस रख दिया नहीं 
					तो वेटर को फिर कोई बहाना मिल जाता उसका सर खाने का। विशेष का 
					अब तक भी कोई पता ना था। काजल ने मन ही मन वादा किया कि चाय 
					खत्म होने पर विशेष को एक एस एम एस डाल देगी और जान-बूझकर चाय 
					को और धीरे-धीरे पीना शुरू कर दिया।
 
 काजल को चाय पीने का बड़ा 
					शौक था। ये आदत उसे अपनी माँ से ही लगी थी। बचपन में जब कभी 
					काजल अपने काले होने पर खुद को कोसती तो माँ प्यार से उसे 
					समझाती कि बेटा तू तेरी वजह से काली थोड़ी है। ये तो तू जब 
					मेरे पेट में थी तब सबके मना करने के बाद भी मैं इतनी चाय पीती 
					थी, इसीलिये तो तू चाय की तरह काली हो गई।
 काजल छोटी थी पर इतनी अक्ल तो थी कि जान ले कि माँ बस उसका दिल 
					रखने के लिये ये सब बातें बोल रही है। वरना चाय और दूध से 
					बच्चे काले-गोरे पैदा होने लगे तो हिंदुस्तान की आधी से ज्यादा 
					जनता क्या झक मारकर काली पैदा होती। लोगों की बातें सुन-सुन कर 
					काजल के मन में गोरे होने का भूत इस कदर घर कर गया था कि वो 
					हरदम बस शीशे के सामने खड़ी रहती और गोरे होने की दुआ माँगती 
					रहती। भगवान भी ऊपर बैठे-बैठे सोचते होंगे कि इंसान क्या फालतू 
					की इच्छाओं को लेकर खुद भी परेशान होता है और उसे भी परेशान 
					करता है। हाँ, लेकिन अगर यही फालतू इच्छायें ना हों तो किसको 
					पागल कुत्ते ने काटा है कि वो भगवान को याद करे। काजल ने कभी 
					सुना था कि भगवान और किसी की सुने ना सुनें पर बच्चों की जरूर 
					सुनता है। बस इसी विश्वास के साथ काजल भी दिन-रात लगी रहती 
					भगवान की खुशामद में। अब भगवान थोड़ी ना किसी सरकारी दफ्तर के 
					बाबू थे जिनके आगे बस टेबल पीटते रहो। कब 
					तक नहीं सुनते। यूँही प्रार्थना 
					करते-करते एक रोज काजल ने गौर किया तो उसकी खुशी का ठिकाना ना 
					रहा।
 
 “माँ। मैं गोरी हो रही हूँ।” - काजल खुश होते हुये माँ से 
					बोली।
 “कहाँ सपनों में...?”– माँ ने मजाक उड़ा दिया।
 “नहीं, सच में।”
 “देखती रह सपने। कोयले को घिसने से वो हीरा नहीं हो जाता। तू 
					काली है काली ही रहेगी।”
 “पर मैं सच कह रही हूँ। मैं धीरे-धीरे गोरी हो रही हूँ।”
 “क्या…?”
 “हाँ।”
 “क्या बकवास कर रही है।”
 “बकवास नहीं है। ये देखो गरदन पर।” - काजल उंगली के इशारे से 
					अपनी गरदन दिखाते हुये माँ से बोली। “भगवान ने मेरी सुन ली है। 
					ये देखो मेरी गरदन पर से खाल का रंग सफेद हो गया है। ये 
					धीरे-धीरे बढ़ रहा है। जब पूरी गोरी हो जाउँगी तब ताई को जाकर 
					जलाऊँगी।”
 “दिखा तो जरा।”
 “आअअअअ... ।” – माँ ने दाग को रगड़ा तो काजल के मुँह से चीख 
					निकल गई। “क्या कर रही हो माँ… खाल है.... उतर 
					जायेगी। गोरे होने के लिये आटा 
					नहीं लीपा है मैंने…।”
 “कब से है ये सफेदी…?”
 “जब से भी है धीरे-धीरे बढ़ रही है। एक-दो साल में पूरी गोरी 
					हो जाऊँगी।” – माँ के फालतू सवाल-जवाब काजल को अच्छे नहीं लग 
					रहे थे।
 “और कहीँ भी है क्या….?”
 “आ जायेगी बाकि जगह भी। धीरे-धीरे बढ़ रही है। इतनी जल्दी भी 
					क्या है।”– काजल खुशी से चहकते हुये बोली। उसे यकीन था कि वो 
					एक बार गोरी हो गई तो ताई और बाकी की दुनिया का खुल कर सामना 
					करेगी।
 “दिखा जरा।”– कह माँ ने काजल की कमीज ऊपर कर पीठ पर नजर 
					दौड़ाई, चार-पाँच जगह पर छोटे-छोटे सफेद चकत्ते 
					से आ गये थे।
 
 उस दिन माँ बड़ी परेशान हुई जबकि काजल अपने गोरे होने की 
					संभावना से ही बड़ी खुश थी।
 “अरी सविता, राधा कह रही थी कि तेरी लौडिया गोरी हो रही है।”– 
					बात ताई के बड़े कानों तक भी पहुँच गई थी। कुत्ते की तरह खड़े 
					कान पाये थे ताई ने।
 “हाँ भाभी जी। पता नहीं कुछ सफेद-सफेद चकत्ते से तो आ रहे 
					हैं।”
 “हैं ….. भला ऐसे भी कोई गोरा होता है कहीं। बुलईयो तो जरा। 
					मैं भी तो देखूँ। कहीं कोई बिमारी तो नहीं हो गई है।”
 
 हाँ बुढ़िया हम गोरे हों तो बीमार, तेरे बच्चे गोरे हों तो 
					सुंदर। ताई को जलता देख काजल मन ही मन मुस्कुराने लगी। अब काजल 
					को बस उस दिन का इंतजार था जब वो पूरी गोरी हो जायेगी। फिर 
					किसी गोरी मेम से कम नहीं लगेगी। फिर तो ताई और ताई की दोनों 
					बेटियाँ जल-जल कर बिल्कुल ही राख हो जायेंगे।
 
 काजल ने चाय के गिलास को देखा तो उसमें अभी भी दो-तीन घूँट 
					बाकि थे मतलब मुश्किल से चार-पाँच मिनट और खींचा जा सकता था। 
					हाँलाकि दबी नजरों से वेटर ने उसे देखना शुरु कर दिया था। वेटर 
					को शायद शक हो रहा था कि काजल से मिलने कोई नहीं आने वाला..... 
					और वेटर को क्या अब तो खुद काजल को भी शक हो रहा था कि विशेष 
					आयेगा भी कि नहीं। विशेष ने इसी रैस्टोरेंट पर ग्यारह बजे 
					मिलने के लिये कहा था। पर ग्यारह तो कब के बज चुके थे। 
					विशेष को कब एस एम एस डालना है 
					इसका फैसला काजल ने चाय पर ही छोड़ दिया।
 
 “नाम क्या है बेटे आपका ?”- टॉर्च से सफेद चकत्तो का मुआयना 
					करता हुआ डॉक्टर बोला।
 “अंकल, काजल।”
 “अंकल काजल, ये कैसा नाम है…?” - डाक्टर ने घिसापिटा जोक मारकर 
					हँसाने की कोशिश की।
 “जी अंकल नहीं। अंकल तो आपको बोला। नाम तो काजल है।”
 “काजल। बड़ा प्यारा नाम है।”
 “उम्र क्या है बेटे आपकी।”
 “बारह साल।”
 “भई वाह। बड़ी प्यारी उम्र है।”
 “डाक्टर साहब क्या हुआ है मेरी बेटी को।”– डाक्टर की फालतू 
					तारीफ को काटते हुये काजल की माँ बीच में बोली।
 “घबराने वाली कोई बात नहीं है।”- अपनी डाक्टरनुमा हैन्डराईटिंग 
					में कलम घसीटता हुआ डॉक्टर बोला।
 काजल की माँ जानती थी कि जब कभी डाक्टर बोले कि घबराने की कोई 
					बात नहीं है मतलब घबराने वाली बात जरूर है। नफरत थी उसे 
					डॉक्टरों के इस डॉयलाग से। उनके हिसाब से दुनिया में घबराने 
					वाली तो कोई बात ही नहीं है। वो होते कौन हैं दुनिया को ये 
					बताने वाले कि बात घबराने वाली है कि नहीं। तुम तो बस मसला 
					बताओ, घबराना है कि नहीं 
					ये तो लोग खुद भी सोच सकते हैं।
 
 कलम की घिसाई बंद कर डॉक्टर ने इशारा किया तो कंपाउंडर बहलाता 
					हुआ काजल को क्लीनिक के बाहर ले गया और माँ का दिल डर के मारे 
					वहीं बैठ गया।
 “ल्यूकोडर्मा।”
 “लूको...।”– दसवीँ पास माँ, बीसवीं पास डॉक्टर की बराबरी कर 
					रही थी। और फिर इन अंग्रेजी बिमारियों के नाम भी तो इतने 
					खतरनाक होते हैं कि आधा तो मरीज नाम सुनकर ही मर जाये।
 “यूँ समझो कि हमारी बॉडी की रक्षा करने के लिये हमारी बॉडी कुछ 
					एंटी-बॉडीज़ बनाती है जो बैक्टीरिया और दूसरे खतरनाक फॉरिन 
					पार्टीकल्स को नष्ट करते हैं। ल्यूकोडर्मा एक ऐसी स्टेट है 
					जिसमें हमारे ही एंटी-बॉडी हमारे पिगमेंट – मैलनिन को नष्ट कर 
					देते हैं।”
 सविता ऐसे सुन रही थी जैसे डॉक्टर का एक-एक शब्द समझ रही हो।
 “तो इसका इलाज..?”
 “इसी की वजह से इसमें ये सफेद चकत्ते से बन जाते हैं और 
					धीरे-धीरे बड़े होते जाते हैं, कुछ इस तरह से।” डाक्टर ने एक 
					मोटी बुक में से कुछ भद्दे- चितकबरे दिख रहे लोगों की तस्वीर 
					दिखाते हुये कहा – “धीरे-धीरे ये बढ़ते ही जायेंगे।”
 
 “तो इसका इलाज।”– माँ ने एक पल बुक में झाँका और वापस काम की 
					बात पर आ गई।
 “कोई इलाज नहीं। क्यों हो जाता है इसकी भी कोई जानकारी नहीं। 
					किसी को भी हो सकता है। मुझे, आपको। बस आप मरीज को थोड़ी कम 
					टेंशन दें तो ये धीरे-धीरे बड़े होंगे। उसे ये एहसास ना होने 
					दें कि उसके साथ क्या हो रहा है। बाकि सब कुछ नॉरमल रहेगा। 
					किसी तरह के परहेज की कोई जरूरत नहीं। कुछ दवाईयाँ लिख रहा 
					हूँ, इससे इन चकत्तों को कंट्रोल करने में हेल्प मिलेगी।”
 वैसे तो काजल क्लीनिक के बाहर थी पर उसने सब सुन लिया था। वापस 
					लौटते समय जहाँ माँ परेशान थी वहीं काजल खुश थी कि इसका कोई 
					इलाज नही। डॉक्टर सही था इसमें वाकई घबराने वाली कोई बात नहीं 
					थी। उसे यकीन हो गया था कि खुद भगवान उसे गोरा कर रहे हैं। अब 
					भगवान थोड़ी ना एक ही रात में गोरा कर देंगे। नहीं तो बाकी लोग 
					कैसे जानेंगे कि ये वही काजल है जो कल तो काली थी और आज अचानक 
					गोरी। काजल ने फैसला कर लिया कि वो दवाईय़ा खाकर भगवाने के 
					फैसले के खिलाफ कोई कदम नहीं उठायेगी। डॉक्टर को क्या पता कि 
					उसे गोरा होने की कितनी जरुरत है। उस बेवकूफ को तो ये भी नहीं 
					पता कि उसे ये हुआ ही क्यों। काजल डॉक्टर की अनभिज्ञता के बारे 
					में सोचकर मन ही मन हँस 
					पड़ी।
 
 गिलास को पूरा आड़ा करने पर भी जब काजल के मूँह में कुछ नहीं 
					आया तो उसे एहसास हुआ कि चाय अब बिल्कुल खत्म हो चुकी थी। काजल 
					ने अपने चारों तरफ नजर दौड़ाई तो रैस्टोरेंट में कुरसी-टेबल और 
					वेटरों को छोड़कर सब कुछ बदल गया था। खाली टेबलें भर गई थीं, 
					भरी टेबलें खाली होकर फिर से भर गईं थी। जैसे-जैसे लंच का समय 
					नज़दीक आ रहा था रैस्टोरैंट में भीड़ बढ़ती जा रही थी। 
					रैस्टोरैंट में सारे लोग छोटे-छोटे ग्रुप में ही बैठे थे सिवाय 
					तीन के। बराबर की टेबल पर बैठा बूढ़ा जो सुड़क-सुड़क की आवाज 
					निकाल कर चाय पी रहा था और अखबार छानने में मशगूल था, सामने की 
					टेबल पर बैठा छब्बीस-सत्ताईस साल का एक लड़का जो लगता था कि 
					काफी देर से फोन से चिपका बैठा था और काजल जिसकी चाय खत्म हो 
					चुकी थी। काजल ने गिलास को अपने एक हाथ से इस तरह पकड़ लिया 
					ताकि वेटर को उसके खाली होने का अंदाजा ना हो और दूसरे हाथ से 
					विशेष को एस एम एस भेज दिया – “आशा है कि तुन आ रहे हो- काजल”. 
					सामने की टेबल पर बैठा लड़का अभी भी फोन पर ही लगा था। एक बार 
					को काजल को लगा कि कहीँ ये ही विशेष तो नहीं पर उसके हाव-भाव 
					से बिल्कुल नहीं लगा कि वो किसी का इंतजार कर रहा है। बूढ़े के 
					विशेष होने का सवाल ही नहीं उठता था। काफी देर तक भी जब एस एम 
					एस का कोई रिप्लाई नहीं आया तो मजबूरन काजल ने एक 
					चाय और मँगा ही ली।
 
 डॉक्टर की दी हुई दवाईयों का कुछ खास असर काजल पर नहीं पड़ा। 
					पड़ता भी कैसे, वो दवाई लेती कहाँ थी। उसे गोरा होने की जल्दी 
					जो थी। लेकिन बुलबुला चाहे कितना ही ऊपर क्यों ना उठ जाये उसकी 
					किस्मत में फूटना ही लिखा होता है। काजल के साथ भी कुछ ऐसा ही 
					हुआ। काजल की बीमारी ने न तो काजल को काला ही छोड़ा और न गोरा। 
					बल्कि ऐसा कर दिया जैसे किसी बच्चे ने काले कैनवास पर सफेद रंग 
					छिड़क दिया हो या सफेद कैनवास पर काला। काजल चितकबरी हो गई थी। 
					बाँयी आँख गोरी, दाँयी काली। ऊपर वाला होंठ सफेद और निचला 
					काला। खुद का चेहरा इतना डरावना लगता कि उसने दर्पण तक देखना 
					छोड़ दिया। लेकिन सच से कोई कब तक भागे और कितना भागे, खासकर 
					उस सच से, जो आपके चेहरे पे दिखे और आपके चेहरे से कहीं ज्यादा 
					दूसरों के चेहरे पे। काजल बड़ी हो गई थी और उसकी बद्सूरती उससे 
					भी बड़ी। कॉलेज में काजल किसी को ना दिखती पर उसकी बद्सूरती 
					सबको नजर आती। दो साल की पढ़ाई में सिर्फ एक बार काजल ने किसी 
					से बात की थी, जब उस दिन उस लड़के ने उससे चाय के लिये पूछा।
 “चाय पीने चलेंगी।”
 “क्यों ?” पहली दफा किसी लड़के ने पूछा तो लड़की होने के नाते 
					अचानक काजल के मुँह से निकल ही पड़ा पर फिर जैसे ही उसे अपनी 
					बद्सूरती का खयाल आया तो ये सोचकर कि उसे कोई क्या लाईन मारेगा 
					काजल खुद ही बोल पड़ी, “दूसरी 
					मंजिल पर अच्छी मिलती है।”
 
 काजल तो कहकर आगे चल दी पर लड़का बेचारा वहीँ खड़ा यही सोच रहा 
					था कि ये हाँ है या ना।
 “इरादा बदल दिया क्या ?” काजल ने मुड़कर पूछा तो हल्का सा 
					मुस्कुरा कर लड़का काजल के साथ चल पड़ा।
 “आप ?”
 “काजल ।”, बिना देखे ही चाय पीते हुए काजल ने जवाब दिया, “और 
					तुम ...?”
 “संदीप।”
 इससे ज्यादा बात उनके बीच न हो सकीं। कैंटीन के बाकी लड़के 
					लड़कियों ने उन्हें देखना शुरू कर दिया था और इतनी ज्यादा 
					अटैंशन से घबराकर शायद संदीप कुछ तेजी से पीने लगा और कुछ चाय 
					कम पड़ गई। नतीजतन चाय भी खत्म हो गई और बातचीत भी। काजल खैर 
					संदीप के जाने के बाद भी आराम से चाय पीती रही, उसके लिये ये 
					अटैंशन तकरीबन रोज की बात थी। बाद में संदीप का काफी मजाक 
					उड़ाया गया और लड़कियों ने उसे डैस्पो कहना शुरू कर दिया। मजाक 
					संदीप का उड़ा और बात काजल को लग गई। कॉलेज में फिर किसी ने 
					काजल की बद्सूरती नहीं देखी। काजल ने 
					घर से बाहर निकलना छोड़ दिया।
 
 कहते हैं कि बात बराबर वालों में अच्छी जमती है। काजल की भी 
					काजल से खूब जमने लगी, दोनों बराबर की बदसूरत जो ठहरी। घरवालों 
					को लगता कि शायद काजल पागल हो गई है जो खुद से बात करती रहती 
					है। पर काजल पागल नहीं थी वो बस बदसूरत थी। काजल ने लिखना शुरू 
					कर दिया और लोगों ने पढ़ना। विशेष जिसे आज काजल मिलने आई थी, 
					उसके ब्लॉग के कई फॉलोअर्स में से एक था। वो काजल की कविताओं 
					को बहुत पसंद करता था खासकर उसकी वो कविता “मैं काली परी हूँ।” 
					कविता पढ़कर पहला कमैंट उसी ने डाला था “ऑटोग्राफ प्लीज।” काफी 
					समय से मिलने के लिये कह रहा था। पहले तो काजल उसे टालती रही 
					पर धीरे-धीरे काजल को भी उसे चैटिंग करना अच्छा लगने लगा था। 
					इस बार जब फिर से विशेष ने काजल से मिलने के लिये बोला तो काजल 
					मान गई। अब शायद काजल भी उसे मिलना चाहती थी। पर विशेष का तो 
					कुछ पता न था। काजल ने मोबाइल उठा कर देखा तो उसमें विशेष का 
					कोई जवाब नहीं आया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि विशेष आया हो फिर 
					उसे देखकर वो बिना बताये ही वहाँ से चला गया हो। आखिर वो भद्दी 
					भी तो कितनी थी। नहीं-नहीं विशेष ऐसा नहीं करेगा। और फिर काजल 
					ने उसे पहले ही बता दिया कि वो कैसी दिखती 
					है। पर सुनना और बात है देखना और।
 
 “ये कॉपी किसकी है।” - अभी काजल सोच ही रही थी कि सामने की 
					टेबल पर पड़े कागजों के बंडल को उठाकर वेटर चिल्लाया।
 “देख कहीँ नाम लिखा होगा।” - किसी को कुछ खास ध्यान ना देता 
					देख मैनेजर खुद ही बोला।
 “किसी काली परी की है शायद।”- बड़ी कोशिश से दो शब्द पढ़कर 
					वेटर ने मजाक बनाया।
 “परी भी कहीं काली होती हैं।”, मैनेजर हँसा – “ला इधर ला 
					....।”
 अभी मैनेजर ने बात पूरी भी न की थी कि काजल ने आगे बढ़कर कॉपी 
					वेटर के हाथ से छीन ली। वो कॉपी नहीं, कम्प्यूटर प्रिंट आऊट्स 
					का एक गठ्ठर था। काजल ने एक दो पन्ने पलटे फिर गठ्ठर वापस रख 
					चुपचाप काऊंटर की तरफ बढ़ गई।
 “दो चाय का कितना हुआ।”
 “बारह रूपये….. वो कॉपी आपकी है क्या ?”
 मैनेजर को जवाब देना काजल ने जरूरी नहीं समझा और काऊंटर पर 
					पेमैंट कर, मन ही मन अपनी कविता दोहराती 
					चुपचाप रैस्टोरैंट से चली गई।
 
 तुम्हारी किताबों के/ उन गोरे पन्नों पे बिखरी, काली अक्षरी/ 
					वो परी- हाँ नहीं हूँ/पर मैं परी हूँ/ किस्मत की खाली तख्ती 
					पे/ काली, बेढंगी, बेतुकी, चितकबरी, कोई कृति ही सही हूँ/पर 
					मैं परी हूँ।/चमड़ी में मेरी, वो रंगत नहीं कि/तिमिर चीर भानू 
					सी चमकती कहीं /तुम्हारे सवेरे के परे के अंधेरे में/ पली, मैं 
					बढ़ी हूँ/ पर मैं परी हूँ।/मैं काली हूँ तो क्या/ मैं भद्दी 
					हूँ तो क्या/मैं दिखने में कितनी बुरी भी हूँ तो क्या।/ मैं 
					खयाली नहीं हूँ/मैं काली परी हूँ।
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