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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से पुष्पा तिवारी की कहानी— फेसबुक वाया फार्मविले


समय ऐसे गुजरा कि कब हाथ पैर ढीले पड़ने लगे और समय शरीर में पसर गया, पता ही न चला। आलस्य बेतरतीबी ले आया। दिनचर्या सुस्त हो गई, सुबह उठने का दिल न करता, सोई अलसाती रहती। नहाना धोना सब घड़ी में खसकता रहता। रात आती तो थोड़ी सी फुर्ती आती। सब आस पड़ोस... घर सोया रहता। यहाँ तक कि वस्तुएँ निर्जीव लगने लगतीं। अँधेरा घबराहट भर देता। रोशनी कुछ करने ने देती। अब रात को क्या करूँ। कहाँ तक पढ़ूँ लिखूँ मन नहीं लगता। ऊब होने लगी...

यह सब बिटिया से फोन पर शिकायत करती रहती। वह कहती इसीलिए तो कहती हूँ ‘नेट सीख लो। अपन फ्री में खूब सारी बातें करेंगे।‘ नेट का मतलब कम्प्यूटर और उसका भी मतलब एक मशीन। मशीनों में मेरी दिलचस्पी बातें करने तक ही सीमित रही। घर में माइक्रोवेव से लेकर वॉशिंग मशीन तक है। सब मैं ही लाई हूँ। घर में होना तो चाहिए। सब चलती हैं। रोज उपयोग होना है। भभका तो मेरा ऐसा कि एक एक कलपुरजे के बारे में जानती ही नहीं ऐसे बतियाती हूँ जैसे एक्सपर्ट हूँ। क्या मजाल जो एक रात भी खराब रहने की जुर्रत कोई मशीन करे। पर मेरे हाथ उनके नॉब, बटन, स्विच कभी नहीं छूते। कँपकँपी आती है। पर मैं होशियार बंदी किसी पर जाहिर नहीं होने देती। खैर...मशीनों से मेरी एलर्जी ही नेट तक मुझे नहीं पहुँचने दे रही थी।

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