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					 मेरी 
					ऊब बढ़ती जा रही थी। रात की चहलकदमी फिर मधुमेह की वजह से जागने 
					के कारण से भूख। परेशानी दर परेशानी। इसी बीच बेटी के पास चली 
					गई कि कुछ दिन तो चैन मिलेगा। 
                    दिन बीता। शाम को शाश्वत बोला 
					चलो नानी एक खेल खेलते हैं। गेम्स में मेरी दिलचस्पी उसके साथ 
					ही जागती है। चार साल की उमर से वह मेरे साथ शतरंज खेलता है। 
					हम तो गोटी जमाते जमाते शतरंज सीख गए। पहली बार लगा मेरा नाती 
					मेरा गुरू बन गया है। उसी को शास्त्रीय संगीत सिखाने की कक्षा 
					में ले जाती और बैठी रहती तो याद आते रहते सुर और स्वर। छोटे 
					बच्चे को सिखाने लायक बेसिक जानकारी तो अक्सर दादी नानी के पास 
					होती है। उसी का फायदा उठाकर हम उन्हें बहला फुसला लेते हैं। 
					वरना अगर कोई हमारी परीक्षा ले तो ढंग से तरतीबवार कुछ भी याद 
					नहीं रहता। हमारी बढ़ती उम्र, ढलती देह, बीमारियाँ जैसे चारों 
					तरफ से कमजोर बनाने की साजिश चल रही हो और हम बेबस जीने की 
					अदम्य जिजिविषा लिए जूझते हुए अपने को साबित करने की होड़ में 
					लगे रहते हैं। कभी कभी लगता मन और देह का समंजस्य ही बिगड़ गया 
					है। अब ऐसी कौन सी दूकान ढूँढ़ें हम जहाँ इसकी मरम्मत हो सके। 
					जो दूकानें हैं उनका अब इतना विश्वास करने को जी नहीं चाहता। 
					हर बार दस बीस टेस्ट और उतने ही रुपयों की बलि। अपने पुराने 
					नुस्खे और पुरानी तरह का शुद्ध खाना पीना ही ठीक समझा। 
 कौन सा खेल... शतरंज? नहीं। फार्मविले। ये क्या है? चलो उठो 
					बताते हैं। उठी चल पड़ी..........वह ‘स्टडी की तरफ बढ़ रहा था। 
					मेरी सिट्टी पिट्टी गुम थी। पता नहीं आज यह क्या सिखायेगा और 
					मैं कितना सीख पाऊँगी।...कहीं आज मेरे दिमाग की पोल न खुल 
					जाये। वो तो कम्प्यूटर टेबल के पास रुका और मुझे प्यार से 
					पकड़कर कुर्सी पर बिठा दिया। अरे रे...मैं नहीं बेटा। ‘क्यों 
					नहीं‘ वह बिल्कुल कड़क मुद्रा में था लेकिन प्यार से। बेटा तेरी 
					मम्मी का नया कम्यूटर और मुझे ए. बी. सी. नहीं आती। खराब हो 
					गया तो? मैं उसे तर्क कुतर्क जो बने दे रही थी। वो बिना कुछ 
					सुने बोला। माउस को ऐसे पकड़ते हैं पकड़िये। काँपते 
					हाथ...पकड़ा...अब राइट क्लिक...मुझसे दब गया बाँया हिस्सा। बहुत 
					से चित्र आ गए स्क्रीन पर-मैं डर के मारे खड़ी हो गई... और 
					उल्टा चोर कोतवाल की मुद्रा में डाँटने लगी ‘खराब हो गया न‘।
 ‘कुछ नहीं हुआ‘ उसने फिर कुछ दबाया... ‘कुछ होगा भी नहीं।‘ ‘आप 
					भागिए नहीं समझने की कोशिश कीजिए। बहुत मजा आयेगा देखिए तो सही 
					दो चार क्लिक के बाद ही उसने जो खोला। देखकर तबियत खुश हो गई।
 ‘यह मम्मी का फॉर्म है।‘
 ‘अच्छा!’ मैं आश्चर्यचकित थी।
 ‘आपका भी फॉर्म ऐसे ही बन सकता है।‘
 ‘कैसे‘
 ‘देखिए मैं आपका एकाउन्ट खोलता हूँ। नाम नानी?’’ उसने ऐसे पूछा 
					जैसे कोई अजनबी हो’’।
 ’’पुष्पा तिवारी’’
 ‘ऐ क्या है अपना नाम बोलिए।’’
 “बरसों से मेरा यही नाम है बेटा’’। उसने मेरे वजूद को अंदर तक 
					हिला कर सोचने पर मजबूर कर दिया था कि मैं हूँ कौन। इस बीच 
					उसने मेरे नाम का एकाउन्ट बनाया और मुझे फिर खेल में ले गया। 
					आठ बाई आठ का एक चौखाना सामने...
 ‘यह कैसे बनेगा वैसा?‘
 ‘बस खेलना शुरू करिए बढ़ता चला जायेगा।‘
 उसने तरीके बताए..........और मैं मशीन वशीन का चक्कर भूल कब 
					क्लिक करने लगी मुझे पता नहीं चला। बस थोड़ी थोड़ी देर में 
					शाश्वत...शाश्वत मुझे सुनाई पड़ता। जहाँ अटक जाती या गलत कुछ दब 
					जाता... उस रात जैसे मेरा कायाकल्प हो गया। बस एक ही नशा 
					फार्मविले फार्मविले। उस समय तक पता नहीं था कि यह खेल फेसबुक 
					खोलने के बाद खुलता है। अब फेसबुक खोलना है तभी खेल खुलेगा। अब 
					नातीराम के बोलने का समय।
 
 नानी अब सीखो नेट खोलना नहीं तो खेल बंद। बड़ा कड़क मास्टर मिला 
					जिन्दगी में मेरी हालत तो उस नशेड़ी की तरह जो दूसरी खुराक दवाई 
					के लिए हाथ पैर तो क्या जोड़े। चोरी चकारी के लिए भी तैयार। बस 
					उसी समय से दिमाग पर जोर डालकर, याददाश्त पर जबरिया कब्जा कर 
					एक एक चीज रटना शुरू। कई बार खोला बंद किया।
 
 खेल तक जब मैं खुद पहुंचने लगी और खेलने लगी तभी तक शाश्वत 
					अपने कम्प्यूटर में बैठे बैठे हिदायत देता रहा। फिर तो मैं रात 
					में भी उठकर खेलने लगी। मेरी आई. डी. पासवर्ड कम्प्यूटर को याद 
					करवा दिया गया था। झट से खोल बंद कर लेती। खेल के बढ़ते लेवल 
					मेरा उत्साह थामे रहते। हरियाली, तरह तरह की खेती मुझमें 
					उत्साह जगाते रहते। मैं पशु पक्षी, जानवरों, फूल पौधों, 
					सब्जियों के बीच अपनी ऊब उम्र, कमजोरी, बीमारी सब भूल चुकी थी। 
					मन गणित लगाता रहता कि कैसे लेवल बढ़े। कुछ ट्रिक्स शाश्वत ने 
					बता दी थीं। कुछ खुद मैंने खोज लीं। आज मेरा फार्म छब्बीस बाई 
					छब्बीस का है। लेवल तो बहुत ज्यादा।
 
 यह खेल मुझसे निराशा, हताशा सब झटक ले गया। मुझमें बढ़ी शक्कर, 
					ताप सब बैलेंस किये है। डॉक्टर पूछते हैं बहुत दिनों से दवा की 
					खूराक नहीं बढ़ाना पड़ी। क्या खा पी रही हैं। घर वाले परेशान 
					हैं। मुझे व्यस्त देखकर। मेरा सारा ध्यान अपने लैपटॉप पर है। 
					उसके इन्टरनेट कनेक्शन पर है। वे नहीं जानते कि मैं फिर से 
					सपने देखने लगी हूँ। इस खेल ने मुझे सपने दिखाकर मेरी कल्पना 
					को कैसी उड़ान दे दी।
 
 तरह तरह के दोस्त बनने लगे। दोस्त माने नेबर। इस खेल में बढ़ती 
					खेती की जगह अपने साथ दोस्तों की जरूरी गिनती का खास नंबर याद 
					रखती है। कैसे बिना सोचे समझे खटाखट हर नेबर रिक्वेस्ट पर 
					क्लिक। कम पड़े तो दूसरों के नेबर को रिक्वेस्ट भेजो। एक जुनून। 
					जरा सा पता भर चले कि इतने पैसों में आप फॉर्म बढ़ा सकते हैं। 
					उसके पहले भी बढ़ा सकते थे लेकिन फॉर्म कैश से। वह सचमुच का 
					अपनी टेट का पैसा है। उसे मेरी जैसी सतर्क गृहणी नहीं खर्च कर 
					सकती। झूठमूठ की खेती से कमाए झूठमूठ के पैसों से जब जो चीज 
					मिल सकती है वही सपना मैंने अपना उद्देश्य रखा। देखिए... सपना, 
					कीजिए कल्पना। मैनेजमेन्ट, खर्च की उठापटक, कमाने के तरह तरह 
					के जरिए... भले ही एक खेल में सीख रही थी। मतलब तो यही हुआ न 
					कि शरीर में दिमाग अच्छी खासी हालत बता रहा है। हाथ स्वस्थ 
					हैं। बस पैरों के स्वास्थ्य के लिए चलना फिरना जरूरी है।
 
 मेरा ब्लडप्रेशर संतुलित, चक्कर गायब। कारण जुनून के साथ मैं 
					किसी काम में लग गई थी। मार्केटिंग का जलवा देख रही थी। उसे 
					समझने की कोशिश कर रही थी।
 
 यह कुछ इस तरह की बात हो रही थी जैसे कि एक सफेद कागज पेन्सिल 
					के साथ मै निस्तब्ध खड़ी हूँ । क्या और कैसे बनाऊँ.....कब तक 
					केवल पेन्सिल से चित्र बनाए जा सकते हैं। रंगों का डब्बा और 
					ब्रश.....कुछ तो और हो पर नहीं है कुछ। छोटे बच्चे के विश्वास 
					को भी नहीं तोड़ना है। मैं बनाऊँगी अपना सारा कुछ लगा दूँगी और 
					नाती को बताऊँगी तभी तो मै खुद को साबित कर पाऊँगी मन भी 
					क्या-चाहता है। चित्र अच्छे बने तो फिर उन्हे कोई देखे, कुछ 
					कहे, अच्छा या बुरा। दिल को तसल्ली तो तभी मिलती है जब लिखे को 
					कोई पढ़े। अच्छा बुरा कुछ कहे। अभिस्वीकृति की तलाश हर किसी को 
					है... मुझे भी। उम्र के बढ़ने पर कितना मुश्किल है यह... 
					भाग्यवानों को ही मिलती है अभिस्वीकृति... बाकी की तलाश जारी 
					रहती है...।
 
 कुछ ही देर में मेरा यह खेल मेरी जिंदगी बन गया। नित्य नई 
					चीजें, एवार्ड, गिफ्ट्स, कमेंट्स नया नया अनुभव जीवन में फिर 
					से उघड़े रंगों को सुधारने लगा।
 
 
 यह खेल पूरे विश्व में खेला जाता है। बूढ़े बच्चे जवान, ऑफिस 
					में काम करने वाले ढेरों लोग। गिनती आज तो पक्की नहीं बता सकते 
					लेकिन पिछले हफ्ते चार करोड़ से कुछ ज्यादा लोगों की गिनती थी। 
					पूरे विश्व के नामालूम देशों, शहरों और कस्बों, गाँवों के लोग 
					अपने अजीब अजीब नामों के साथ खेल रहे हैं। मेरे खुद के चार सौ 
					के करीब नेबर हैं। इसमें अपने देश के विभिन्न शहरों, कस्बों और 
					गाँवों से और दो सौ विदेशी । पाकिस्तान, चाइना से लेकर 
					न्यूजीलैंड, अमेरिका, ब्रिटेन और हॉलैंड तक। उन सब नामों का तो 
					मैं ठीक से उच्चारण भी नहीं कर सकती। अगर कभी वे सशरीर मिल 
					जाएँ तो। लेकिन इन सबका कोई डर नहीं। वे सब फेसबुक में हैं। 
					उनका चेहरा है। उनकी तरह तरह की फोटो है। उनकी जिन्दगी के कई 
					रंग हैं। उन्हें देखकर अपनी कल्पना से मैं उन्हें अपनी दुनिया 
					में समझती हूँ। सच कहूँ तो केवल फेसबुक में देख समझकर जो कमेंट 
					दिए लिए जाते हैं वे वाकई आपको खुश करते हैं। दुखी करते हैं। 
					बिना किसी पूर्वाभास के, बिना किसी दुराग्रह के। शायद सही सा 
					लगता है यह आकलन।
 
 एक दिन रात एक बजे अचानक दाहिनी तरफ की खिड़की 
					खुली.....हाई.....हाई
 
 यह बात करने की खिड़की है बातें भी एक अलग चैटिंग की खिड़की के 
					जरिए हो सकती हैं। जो भी नजर आये उसकी फोटो पर क्लिक करो। बस 
					खुल गई खिड़की। जैसे पड़ोस में हम बाउंड्री वाल के पास खड़े होकर 
					बात कर सकते हैं। पर करते कहाँ हैं। सब घरों में ऐसे बंद हो 
					गये हैं। सुरक्षा का भय। ज्यादा बड़ा स्टेटस हो तो बिना तैयार 
					हुए बाहर निकलना तो कई लोगों के लिए शान के खिलाफ है। चलते 
					फिरते बात करते। हम जैसे बातूनी लोगों की मुसीबत उस पर उम्र का 
					तकाजा। बातें किये बिना दम ही घुटता है। रोज का आना जाना भी 
					कहाँ.......। कोई कार्यक्रम या उत्सव में सब सज धज कर जायेंगे। 
					एक इंच मुस्कान का आदान प्रदान होगा। हैलो, हाय, ठीक तो हो न 
					बस.....आगे बढ़ते पहचान के लोगों के दर्शन। फिर खाना और फिर 
					खाना....
 
 ये कभी भी खुल जाने वाली खिड़कियाँ खतरे से खाली नहीं हैं। ऐसा 
					जानकार लोग कहते हैं। जब आप किसी को जानते नहीं, पहचानते नहीं 
					तो दोस्ती कैसी। फिर कहीं वह आतंकवादी निकला या कोई ठग.....तो 
					क्या कर लेंगे। तो हम भी कहते हैं कि भइया अपनी तिजोरी तक बात 
					करने की क्या जरूरत है। और आतंकवादी को न मुझमें दिलचस्पी होगी 
					और हमें तो भगवान ने कुछ ऐसी पहचानने की शक्ति दे दी है कि 
					जितने भी दोस्त बने हैं वो हमेशा मदद ही मदद करते आये है।
 
 मैंने चैट शुरू की पहली बार- हिन्दी नेट पर लिखना अभी तक नहीं 
					सीख पाई, एक उंगली से हिन्दी को अंगरेजी में लिखने की कोशिश 
					करती रही हूँ। इस बार तो अंगरेजी लिखना था। कोई विदेशी था। 
					एँड्रियास.....स्वीडन का .......खेल में सबसे आगे। तरह तरह की 
					ट्रिक उसे ही सबसे पहले पता चलती है। ऐसा मुझे लगता है। क्या 
					पता वह कोई खेल की किताब पढ़ता है या फॉमव्हील में ही अपना सारा 
					दिमाग लगाता है। बहरहाल उसका लेवल देखकर और उसके फॉर्म में 
					जाकर हर खेलने वालों का मन उत्सुकता से सब जानने की कोशिश में 
					लगा रहता है। मैं भाषा के संकोच में इन नये दोस्तों से कोई बात 
					खुद से शुरू नहीं करती। खिड़की खुले और लिखा हो ‘आई लव गनेशा‘ 
					क्या जवाब होगा इसका.....यह स्वीडन का एँड्रियास पूछ रहा है 
					कोई आपसे बात करे.....शुरूआत इस तरह करे तो.....‘क्या आप जानते 
					हैं गनेशा को‘ मेरा उत्तर ‘एक दोस्ताना बच्चा‘
 
 बातें शुरू हो चुकी थीं। उसके अंगरेजी न जानने के बावजूद जो 
					लिखा गया उससे मैंने यही समझा कि उसे अध्यात्म में रुचि है और 
					गणेश को हम भगवान मानते हैं। इससे आश्चर्य चकित है वह। वह 
					हिन्दी लिपि देखने को उत्सुक और मैं उसे हिन्दी में सब लिख कर 
					दे रही हूँ। एन्ड्रियास.....स्वीडन में रहने वाला चवालीस साल 
					का अविवाहित लड़का जो मेरे बेटे से तीन साल बड़ा होगा। मुझे अपनी 
					बिल्ली की फोटो भेजता है। गर्लफ्रेन्ड के बारे में बात करता 
					है। क्या बुरा है अगर दो देशों के लोग अपनी अपनी सांस्कृतिक 
					गतिविधियों और अनुभूतियों के बारे में बातें करते हैं। एक साथ 
					अलग अलग जगहों से (दोनों के दिन रात अलग मौसम अलग लेकिन) 
					मनुष्य होने के एहसास को जीते हैं। मैं किसी की ग्रेंड माँ हूँ 
					तो वह अपने दोस्त के ट्रांसफर हो जाने के दुख को मुझसे साझा 
					करता है। कोई पुराना गाना दोस्ती पर कहीं से लेकर फेसबुक में 
					लोड कर देती हूँ। अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का माध्यम 
					बन जाती हूँ। फेसबुक और फिर उस दोस्त का चेहरा.....यानी चेहरों 
					की किताब। दूसरा आंटी कहता मुझसे प्रश्न करता है.....तीन दिनों 
					तक आप दिखीं नहीं। क्या तबियत खराब थी। घर में सब व्यस्त। 
					किसके पास समय जो मामूली बातों के लिए बरबाद करें।
 
 अभी दस दिन पहले मेरा जन्मदिन था। एक सौ पचास बधाइयाँ पाकर 
					निहाल हो गई। इतनी बधाइयाँ तो जीवन में पहले कभी नहीं आईं। तरह 
					तरह के शब्द, फूलों के गुच्छे, कार्ड और केक के साथ गाने, 
					ग्रेट सेलिब्रेशन। कहाँ सम्भव है हमारे असल जीवन में। लेकिन हम 
					कितने भी अस्त व्यस्त क्यों न हों.....एक मधुर संदेश हमें अंदर 
					तक खुशी से भर देता है, यह स्वीकार करने में मुझे कोई 
					हिचकिचाहट नहीं है।
 
 भले ही खेती बाड़ी वाले पौधों और जानवरों के साथ। कुछ ज्यादा 
					मिल जाने से खुश कुछ नहीं मिल जाने का मलाल लिए सारे मानसिक 
					उतार चढ़ाव। न कुछ अपने पास का बढ़ता है न घटता है। सब वायवी... 
					पर सुन्दर... परियों जैसा... कागज पर चित्रों के साथ 
					रंगीन.....मौसम का एहसास दिलाते हुए जीवन में भी तो किसी खाली 
					कोने को भरता है।
 
 चेहरों के ऊपर कितनी किताबें छपीं। शत्रुघ्न सर एक स्केचिंग की 
					किताब लाये थे। विक्टोरियन, यूरोपियन, हब्शी, अमेरिकन और न 
					जाने कितने रंग रूप बने थे। आज उसी किताब की याद आ रही है। तब 
					मेरे बच्चों ने उस किताब से चेहरे बनाना सीखा था। और मैं अपना 
					चेहरा भूलकर खेल के जरिये फेसबुक यानी कि चेहरों की किताब में 
					खो रही हूँ। ढूँढ़ रही हूँ असली चेहरे। मेरे पास वहाँ विकल्प 
					हैं। अच्छे को दोस्त बना लो-जो पसन्द न आये उसे मिटा दो.....
 
 काश जिन्दगी भी कुछ चेहरों को मिटा देने का मौका देती।
 
 अलग अलग चेहरों की बात तो समझ में आती थी। और इससे अलग हटकर 
					कोई चेहरा चौंका देगा और सोचने पर मजबूर कर देगा ऐसा मैंने 
					ख्वाब में भी नहीं सोचा था। अपने एक दोस्त के सुझाव पर मैंने 
					राधारानी को दोस्त बना लिया। खूब अच्छा व्यवहार। सब कुछ ठीक 
					ठाक लगता रहता है। रोजमर्रा खेल आगे बढ़ाने में। लेकिन ये क्या 
					रात दो बजे नींद न आने की वजह से नेट खोल फेसबुक देखने लगी। 
					कुछ नई फोटोज़ राधारानी ने डाले थे। नये नये कपड़ों में.....कई 
					रूपों में नई दुल्हन की तरह सजी संवरी अपने दोनों हाथों की 
					उँगलियों से पल्लू थामे दाईं, बाईं तरफ से बड़ी सुन्दर, गोरा 
					कोमल गहनों से परिपूर्ण वह.....पर यह क्या। एक और फोटो जिसने 
					मुझे अंदर तक हिला दिया। फिर एक और फिर एक और। मेरा हाथ तेजी 
					से क्लिक कर रहा था। पूरा प्रोफाइल। फिर उसकी फ्रेन्ड लिस्ट। 
					फिर फ्रेन्ड्स की प्रोफाइल.....
 
 मैं सन्न। डर से कांप रही थी। शर्म और घबराहट से मैंने कुर्सी 
					पर सिर टिका दिया। आंखें बंद। दिमाग व्याकुल। किसी को पता 
					चलेगा तो मेरे बारे में क्या सोचेंगे लोग। मैं पसीना पसीना हो 
					रही थी। पहले तो घर वालों का ख्याल आया। कैसे बताऊँगी। क्यों 
					बताऊँगी। मेरे मन का चोर और साहूकार वाद विवाद में उलझे मुझे 
					घंटों चैन से बैठने नहीं दे रहे थे। पूरी रात बीत गई। मैं कब 
					सो गई पता नहीं। सुबह फिर वही दहशत। हे राम क्या करूँ। इतनी 
					बड़ी अनहोनी-फिर क्या था। दो तीन दिन बेचैनी में-अब मन को 
					समझाना भी तो था।
 
 क्या हुआ-कम्प्यूटर के अंदर है यह सब। कोई हाथ तो पकड़ नहीं 
					लेगी राधारानी। और कहीं उसकी सारी दोस्त आकर मुझे घेर लें 
					तो-नहीं वह कहाँ मुझे ढूँढ़ पायेगी.....कहीं किसी और दोस्त को 
					पता चल गया तो। आखिर हिम्मत कर मैंने अपना पक्ष मजबूत करने पति 
					को ही सबसे पहले दिखाना उचित समझा। आओ तुम्हें नेट खोलना 
					सिखाऊँ। मैं उनकी प्रतिक्रिया देखना चाह रही थी। वे तो नेट की 
					ए बी सी डी से अपरिचित.....अपने दोस्तों की लिस्ट.....ये देखो 
					यहाँ ऐसा करने पर ऐसे फेसबुक खुलता है। वैसे फेसबुक से आगे भी 
					है एकाउन्ट ट्विटर.....अच्छा यह मेरा फेस बुक है। यानी इस 
					कम्प्यूटर की किताब में मेरा चेहरा.....वो हँसे। फिर कल का 
					स्टेटस दिखाया। जो जो खबरें आईं थीं स्क्रोल करती गई। राधारानी 
					के नाम के आगे चार फोटो छपे थे। यहाँ आकर रुक गई......अब फोटो 
					इस तरह से क्लिक करते हैं तो खुल जाते हैं। स्टायलिश राधारानी 
					घुँघराले बालों वाली.....खड़ी थी सामने साड़ी में। ये निर्विकार 
					ऐसे देख रहे थे। एक के बाद एक। कोई उतार चढ़ाव नहीं इनके चेहरे 
					पर। मैं डर के मारे मरी जा रही थी कि अब कुछ घटित होगा। 
					अरे.....मैं तो आगे बढ़ रही थी। ये बिल्कुल नॉर्मल। रहा नहीं 
					गया तो पूछ ही लिया। ‘कैसी लगी?‘ कुछ खास नहीं लगा?
 
 शिखंडी है बेचारी, प्रकृति की मारी। मेरे डर पर जैसे किसी तेज 
					बारिश की बौछार पड़ी हो। मेरा डरा मन शरीर को तीन दिन से कमजोर 
					बना रहा था। आज सिहरन पुलक से कमजोर मन ने इन्हें पकड़ लिया। 
					‘सच बोलो तुम्हें बुरा नहीं लगा।‘ इसमें बुरा लगने वाली क्या 
					बात है। बल्कि अच्छा लगा उनकी तरक्की देखकर।‘
 
 सोच का अंतर स्पष्ट था। मेरा घरेलू होना, बात बात पर डर जाने 
					का स्वभाव। हमेशा द्वन्द्व में घिरे रहना। आखिर क्यों.....मन 
					को मैंने डर का घर बनने ही क्यों दिया। पहले तो मैं ऐसी नहीं 
					थी। पढ़ी लिखी। हॉस्टल में शैतानियों का अम्बार लिए। कितनी 
					शिकायतें वॉर्डन से होती। न जाने कितनी डाँट खाती मैं मिस पवार 
					से। कोई असर नहीं होता। फिर फिर वही बनी रहती उनकी प्यारी 
					दुलारी। ‘ये लड़की कभी नहीं सुधरेगी। अपनी हरकतों से बाज़ भी 
					नहीं आयेगी। मैं शायद मन ही मन बुदबुदाती। बनी रहना इतनी चंचल 
					खुशमिजाज बच्ची।‘ ऊपर से कठोर अंदर से कोमल। बहुत बरसों के बाद 
					हमारी मिस पवार डाँटतीं फिर.....एक बार मैं मिलने गई तो सिंधू 
					ताई को याद दिला रही थी मेरी शैतानियाँ। वो मुस्करा रही थीं। 
					मैं डर रही थी इनके सामने यह सब।
 
 अब समझ पा रही हूँ। बिन्दास जीवन में दूसरे के आ जाने से पता 
					नहीं कितने झूठे आवरण अपने आप घेर कर कब्जा करते जाते हैं और 
					हम कठपुतली बनते जाते हैं समय और परिस्थितियों के। चेहरे भी 
					बदल जाते हैं। कोमलता जैसे धीरे धीरे तनी नसों के नीचे छुप 
					जाती है। सब कुछ में तो छुपाव दुराव आने लगता है। घूँघट उतरकर 
					अन्य प्रवृत्तियों पर पड़ने लगता है। मैं कितनी शिद्दत से एक एक 
					चेहरा पढ़ने की कोशिश करती हूँ। मनुष्य प्रवृत्तियों पर जैसे 
					शोध कर रही हूँ। लेकिन कोई नतीजा नहीं निकाल पाती। आज जो ठीक 
					लगता कल वही अपनी कलई खोल देता। निष्कर्ष निकलते निकलते रह 
					जाता। मित्रों से बातें, बहस होती तो गच्चा खा जाती। वो कहते 
					तुम समझ नहीं रही हो। एक और एक दो ही नहीं होता हर दम ग्यारह 
					भी हो जाता है। मिलने का तरीका आना चाहिए। मेरी समझ उस तरीके 
					को खोजने में लगी है।
 
 ग्लेन्डा का फॉर्म देखकर मुझे हमेशा लगता है कि जिन्दगी को 
					देखने का नजरिया क्या सम्पूर्णता में होता है। क्या हमारे 
					पैरों का होना भी जरूरी है। या अगर हम अपंग हैं तो सुन्दरता के 
					मायने बदल जाते हैं। उसका फॉर्म भरा पड़ा है सारी वस्तुओं से। 
					जैसे वो एक भी चीज को छोड़ना नहीं चाहती। खेती बिल्कुल दस 
					प्रतिशत जगह में। जबकि पैसे तो खेती से ही आते हैं। क्या खाने 
					पीने की जरूरत इतनी ही कम होना चाहिए। जीने के लिए खाना न कि 
					खाने के लिए जीना। कितनी वस्तुएँ खाने पीने की नित्य बाजार में 
					आ रही हैं। मेरा लालच बढ़ता जा रहा है। अरे यह नहीं चखा वह नहीं 
					खाया। कितना कुछ बचा रह गया है मेरे खाने को। शाकाहारी हूँ तो 
					वैसे ही आधी चीजें बच गई हैं और उसमें भी पता नहीं कितना जेब, 
					दूरी और न जानने की वजह से बच गया है। कोई कह रहा था सब जानना 
					जरूरी भी नहीं। कुछ को बिना समझे ही समझने का नाटक कर लिया 
					करो। अपनी अज्ञानता को मत प्रदर्शित करो। ठीक है भाई। बताऊँगी 
					नहीं। लिख कर तो मन शांत ही कर सकती हूँ।
 
 कितने विकल्प हैं कम्प्यूटर में जिन्दगी की तरह। लेकिन क्लिक 
					एक है कम्प्यूटर में और है, सही परिणाम। लेकिन जिन्दगी ट्रायल 
					और एरर के खेल में है। काश हम सब विकल्पों को केवल देखकर सोच 
					सकते। और फिर सही जगह पर क्लिक कर सकते। वह सही जगह है जिसे हम 
					ढूँढ़ते रहते हैं। सोच, उम्मीद, निर्णय, अनिर्णय में उलझे रेशमी 
					धागे की तरह जिन्दगी को सुलझाने के प्रयास में ही उम्र बीतती 
					है। जब तक ऐसा लगता है कि समझ गए सब, तब तक चला चली की बेला आ 
					जाती है।
 
 मैं उलझी हूँ जिन्दगी का गणित सुलझाने। माध्यम बना है फॉर्म 
					विले खेल। इसमें सब कुछ हासिल कर सकते हैं लेकिन जूझना पड़ेगा 
					उसे पाने के लिये। दिमाग लगाने योजना बनाने, संयोजित करने और 
					थोड़ा ज्यादा समय देने पर, थोड़ी बहुत दूसरों से नकल कर लेने 
					में। थोड़ा जमा और थोड़ा खर्च करने पर सीखा जा सकता है। लेकिन 
					पैसा रुपया अगर साथ भी दे तो उससे अहम एक और बात समझ में आई 
					‘संबंध।‘ रिश्ता.....मनुष्य का मनुष्य से और मनुष्य का मतलब है 
					चेहरा। जिसे फेस कहते हैं और उन चेहरों के विवरण को फेसबुक।
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