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					 मेरी 
					उस आदत से शायद घबराते भी हैं... इसलिये काफी देर डॉटकर एकदम 
					ढीले पड़ गए थे... ‘‘अरे भाई तुम्हें अपना कैरियर देखना है... 
					लखनऊ जाओ... किसी भी अच्छी जगह तुम्हारे रहने का इंतजाम करा 
					देंगे... मन न हो तो मत जाना चाचा के घर...’’ 
 उसके बाद मैं अपने कमरे में चली आई थी। मम्मी पापा बड़ी देर तक 
					चाची का नाम लेकर बड़बड़ाते रहे थे... ‘‘हद कर दी गार्गी ने। कोई 
					ऐसा भी कर सकता है... न अपना सोचा... न बच्चों का... न शिव 
					का... न घर की इज्ज़त का’’ पापा गुर्राए थे।
 मम्मी ने ताना दिया था... ‘‘आप ही को गार्गी बहुत शांत... बहुत 
					समझदार और न जाने क्या-क्या लगती रही है... हम तो हमेशा कहते 
					थे कि बहुत जिद्दी और अपने मन की है।’’
 पापा झुझंलाए थे... ‘‘ठीक तारीफ तो करता था... शिव जैसे इंसान 
					के साथ रहना आसान है क्या... ऊपर से अम्मा के तेवर...’’
 मम्मी चिड़चिड़ा पड़ी थीं... ‘‘यह भी कोई साथ रहना है... 
					अलग-अलग’’
 पापा ने टी.वी. आन कर दिया है... इसलिये आगे की बात मैं सुन 
					नहीं पायी।
 
 मुझे अजीब लगा था। कैसे लोग हैं यह... चाचा पर नाराज़ न होकर 
					चाची को दोष देते हैं। चाचा और चाची के चर्चे पहले भी इस घर 
					में अक्सर होते रहे हैं। जब तब पापा को कहते सुना हैं कि लाला 
					यह काम बड़ी अक्लमंदी का कर गए कि शिवेन्द्र की शादी गार्गी से 
					करा दी...’’ मुझे हर बार पापा की वह तसल्ली बड़ी कुटिल लगती। 
					सुना है चाचा के लिये बाबा ने चाची के घर खुद रिश्ता भेजा था। 
					बाबा शहर की जानी मानी हस्ती थे... इसलिये चाची के घर सबका खुश 
					होना स्वाभाविक ही था। मगर सच बात यह है कि घर के भंडार अंदर 
					से खाली हो चले थे... सब कुछ बाबा की शराब और रेसकोर्स की भेंट 
					चढ़ चुका था। पापा बाबा की दूरदर्शिता की तारीफ करते नहीं 
					थकते... ‘‘लाला जानते थे कि शिव कुछ खास कर नहीं पाएगे। गार्गी 
					भी बहुत समझदार निकली... अपनी नौकरी... घर के काम... पुरखों की 
					उस देहरी के स्टेटस... शिव और अम्मा के मिज़ाज... सबको खूब 
					संभाल लिया उसने।’’
 
 मुझे हमेशा लगता था कि चाची को इससे बेहतर जीवन और जीवन साथी 
					मिलना चाहिये था। एक बार मम्मी से कुछ ऐसा ही कह दिया था तो 
					चिढ़ गई थी वे... क्यों क्या कमी है शिव में... फिर ऐसी भी क्या 
					खासियत है गार्गी में... यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं तो क्या... 
					बहुत सी औरते करती हैं नौकरी... और अगर है भी खासियत तो यह तो 
					गार्गी के घरवालों की मुसीबत थी... उन्हें देखना तोलना चाहिए 
					था। हम लोग तो जाकर यह कहते नहीं कि तुम्हारी लड़की बेहतर है 
					हमारे लड़के से।’’
 मम्मी शायद कुछ गलत नहीं कहतीं... पर फिर भी उनकी सोच बहुत 
					असंवेदनशील लगती है मुझे। वैसे इस मुद्दे पर मम्मी से बहस नहीं 
					की जा सकती। मम्मी चाची की सुपिरियारिटी को स्वीकार नहीं कर 
					पाएँगी... शायद समझ भी नहीं पाएगी। चाची से मैंने कुछ दिन के 
					लिये अंग्रेजी पढ़ी थी... तब वे एक भिन्न रूप में मेरे सामने आई 
					थीं... जब वे पढ़ाती मैं मुग्ध भाव से उनको देखती सुनती रह 
					जाती। भाषा पर उनकी पकड़... भावों की गहराई तक उतर कर अर्थ को 
					समझाने की कला... किसी भी प्रसंग को उसके ऐतिहासिक संदर्भ के 
					साथ व्याख्या करने का ज्ञान... उनकी आँखों की चमक... चेहरे पर 
					आते वे उतार-चढ़ाव। मैं मुग्ध हो जाती। थोड़ी ही देर बाद उनको 
					किचन... घर के कामों में उलझा देखती तो लगता कैसे इतने शांत 
					सहज भाव से भिन्न-भिन्न भूमिकाओं का निर्वाह कर लेती हैं। चाची 
					जैसे मेरी रोल मॉडल बन गयी थीं। अजब सा अंतरंग मित्र भाव रहा 
					है मेरा उनके साथ। जब हम दोनो साथ होते हैं तो उम्र और रिश्तें 
					दोनो ही दूरियों को एकदम भूल जाते हैं।
 
 जब से लखनऊ आई हूँ तब से चाचा का घर... चाची... वे सब लोग 
					दिमाग में घूमते रहते हैं। इसी शहर में अपना घर... अपने लोग 
					हैं... फिर भी... मेरा मन भर आता है। तभी देखा गेट से चाचा की 
					गाड़ी अंदर आ रही हैं। लगा था सारा खून उछल कर सिर पर हथौड़े सा 
					चोट कर रहा है। चाची का सामना कैसे करूँगी? कैसी हो गई होंगी 
					वे अब?
 चाची मुझे देख हँसती हैं... वही पुरानी हँसी... बेहद प्यार और 
					अपनेपन से भरी। चाची भरी-भरी सी लगती हैं... एकदम स्वस्थ और 
					प्रसन्न । मुझे विस्मय का एक झटका लगता है। उनका पाँव छूने को 
					झुकी तो उन्होंने मेरी पीठ पर एक धैाल लगाकर मुझे बाँहों में 
					भर लिया था... ‘‘चलो तुम्हें लेने आई हूँ।’’
 मुझसे कुछ कहते नहीं बनता। चाची फिर हँसती हैं। ‘‘बिटिया रानी 
					अब इतनी बड़ी हो गईं कि अलग रहेंगी। एकदम अपनी मर्ज़ी की मालिक’’ 
					चाची मेरे माथे को अपनी उंगलियों के धक्के से हिलाती हैं... 
					‘‘क्यों मैडम?’’
 मैं अपने इंकार को शब्द नहीं दे पाती... अस्पष्ट सा बुदबुदाती 
					हूँ। पापा मम्मी के सामने जैसे स्पष्ट एलान कर दिया था कि चाचा 
					के घर नहीं जाऊँगी वैसा चाची के सामने नहीं बोल पाती। चाची कुछ 
					क्षण मुझे ध्यान से देखती हैं... जैसे मेरे मन के शब्द पढ़े हों 
					उन्होंने... ’’अमृता वह घर चाचा का ही नहीं चाची का भी हैं।’’
 मेरी साँसों में आँसू के बुलबुले अटकने लगते हैं... ‘‘इसीलिये 
					तो... इसीलिये तो चाची उस घर में जाने की हिम्मत नहीं होती।” 
					भारी हो गए माहौल को चाची अपनी हंसी से हल्का कर देती हैं... 
					‘‘क्यों भई... क्या वहाँ कोई शेर चीते रहते हैं... चलो तो।”
 
 मैं खिड़की के बाहर देखने लगती हूँ। सुबह से हल्का-हल्का पानी 
					बरस रहा हैं। मौसम का भारीपन मन को और बोझिल बना देता है। चाची 
					पलंग पर बैठ जाती हैं... उनके सामने की कुर्सी पर मैं। इस समय 
					मन में कितना कुछ घुमड़ रहा है। इतने दिनों से मन ही मन चाची से 
					न जाने कितने सवाल... कितनी बातें... कितने झगड़े करती रही 
					हूँ... ‘‘चाची आपने ऐसा क्यों किया?’’ अपने इस सीधे सवाल से 
					मैं स्वयं अटपटा जाती हूँ।
 ‘‘क्या अमृता ?’’ चाची सीधी निगाह से मुझे घूरती हैं।
 ‘‘आपको पता हैं मैं क्या पूछ रही हूँ।’’ मैं अपनी निगाहें झुका 
					लेती हूँ।
 
 चाची फींका सा हँसती हैं... ‘‘हाँ अमृता पता हैं क्या पूछ रही 
					हो... पर एक बात बताओ... सब लोग... सारा खानदान हमसे ही 
					पूछेगा... शिव से कोई कुछ नहीं पूछेगा।’’
 ‘‘चाची’’ मैं एकदम से अचकचा जाती हूँ। चाची जैसे मुझे दिलासा 
					देती हों। ‘‘नहीं अमृता मैं तुम्हारी बात नहीं कर रही... छोटी 
					हो तुम... भला तुम क्या कर सकती हो... पर मैं तो बाकी सबकी बात 
					कर रही हूँ... अम्मा, दादा, भाभी, दीदी... वे सब... हमसे ही 
					सवाल... हमसे ही नाराज़गी कि ऐसा क्यों किया। शिव से अगर कुछ 
					कहा भी गया होगा तो हमारे सामने नहीं कहा गया। फिर कहा भी 
					क्यों होगा... यदि कहने ही वाले होते तो आज...’’ चाची अपनी बात 
					बीच में छोड़ देती हैं। वे बड़ी देर चुप रहती हैं... उनकी 
					निगाहें खिड़की के बाहर भटकती रहती हैं... वे उदास नजरों से 
					मेरी तरफ देखती हैं, उनके स्वर में थकान हैं ‘‘अमृता तुम्हारे 
					इस चार शब्दों के सवाल का जवाब दो वाक्यों में नहीं दे 
					पाउँगी।’’ वे फिर चुप हो जाती हैं... कुछ सोचती रहती हैं...‘‘ 
					शादी हो कर आई तो मन में एक अजब सा रोमैन्टिसिस्म था... पति के 
					लिये... पति के घर वालों के लिये... उस घर की दीवारों तक के 
					लिये।’’ चाची खिसियाया सा हँसतीं हैं... कुछ सोचती रहती हैं और 
					मेरी तरफ देखती रहती हैं... बोलती हैं तो उनकी आवाज भर्रा जाती 
					है... ‘‘सब खत्म कर दिया शिव ने... तुम्हारे घर वालों ने...’’
 
 चाची के चेहरे पर वीरानगी है। कितनी तरोताजा और प्रसन्न सी आई 
					थीं वे... मैं चाची के पास खड़े होकर उनके कंधे पर हाथ रख देती 
					हूँ... ‘‘चाची छोड़िए... मत करिए वह सब बात।’’ मैं गिड़गिड़ाती 
					हूँ।
 
 और मैं चाची के घर चली आई थी। चाची एकदम पहले जैसी ही हैं। 
					उतना ही प्यार... उतना ही अपनापन... चेहरे पर वैसा ही शान्त 
					भाव पर फिर भी कहीं लगता है कि चाची बदल गई हैं। अव्यक्त ही 
					सही स्वर में एक स्पष्ट ’’अधिकार’’ है, जो पहले नहीं था।
 
 घर आई तो हमेशा की तरह दादी अपनी खटुलिया पर बैठी थीं। मैं 
					उन्हें प्रणाम कर उनसे वहीं बात करने लगी थी। एक अन्जान 
					लड़की... यहीं कोई छब्बीस सत्ताईस साल की... एक ट्रे में चाय 
					नाश्ता लेकर आ गई थी। शायद यही छोटी है। मैं अचकचा जाती हूँ। 
					चाची अपने कमरे की तरफ मुड़ गई थीं, ’’अमृता मेरे कमरे में ही 
					चाय पियेंगी।’’ दादी ने अपना वाक्य बीच में ही अधूरा छोड़ दिया 
					था... छोटी ट्रे उठा कर उधर ही चल दी थीं। मैं भी कमरे में आ 
					गई थी। चाची मेरी चाय छानने लगी थीं। कमरे के बाहर जाती छोटी 
					की पीठ की तरफ चाची देखती रहती हैं।
 
 चाची की आवाज थकी सी लगती हैं’’ शिव ऊँची-ऊँची बातें करते... 
					आदर्शों की... पारिवारिक मूल्यों की, निष्कपटता और सच्चाई की। 
					मुझे शिव का उपदेश सा देता महानता भरा स्वर... बात करने की वह 
					शैली अच्छी नहीं लगती। पर फिर यह भी लगता कि शिव और मैं दो अलग 
					तरह के इंसान हैं। पर उन बातों को सच मान मुझे शिव के एकनिष्ठ 
					प्यार पर भरोसा था।’’ चाची फीका सा मुस्कराती हैं, ’’फिर जब 
					कभी शिव की बातों से......उनके व्यक्तित्व से ऊब बढ़ जाती तो 
					लगता जैसे गले में शिव के प्यार का फंदा पड़ा हो... मेरा दम 
					घुटता...’’ चाची की आवाज़ काँपने लगती है।’’ लगता अगर शिव मुझे 
					इतना प्यार न करते होते तो कितना सरल हो जाता मेरे लिये... मैं 
					छुटकारा तो पा लेती... चली जाती छोड़कर।’’ चाची फिर खिसियाया सा 
					हँसती हैं ‘‘इंसान अपने आप को ही कितना कम जानता है अमृता... 
					जब सामने इतना बड़ा जीता जागता सवा पाँच फीट का कारण आ कर खड़ा 
					हो गया तब भी मैं यह घर छोड़कर कहाँ गई।’’ चाची झुक कर अपने 
					पैरों को देखती रहती हैं। मेरी आँखें भर आती हैं... मन करता 
					हैं उनके दुखते मन को सहला दूँ... मैं धीमें से उनके घुटने पर 
					अपना हाथ रखती हूँ... चाची चौंक कर मेरी तरफ देखती हैं उनके 
					स्वर में आज़िज़ी है, ‘‘उन बातों के भ्रम में एक दो नहीं चौदह 
					साल गुज़र गए थे अमृता, मैंने कुछ और देखने समझने की ज़रूरत ही 
					महसूस नहीं की... शिव की बातों को ही असली शिव समझने की भूल 
					करती रही मैं।’’ चाची अचानक चुप हो जाती हैं... उनका चेहरा 
					सफेद पड़ने लगता है और होंठ काँपने लगते हैं।
 
 मैं घबरा कर खड़ी हो गई थी, ‘‘चाची आप ठीक तो हैं?’’
 चाची ने मुझे हाथ के इशारे से बैठा दिया था ......उनका भीगा 
					स्वर, ‘‘फिर अचानक शिव की बातें बड़ी खोखली लगने लगी थीं 
					मुझे... अपने और शिव के बीच में और औरतों की गंध आने लगी थी... 
					यह भी समझ आने लगा था कि कुछ भी नया नहीं हैं... बस मैं ही 
					बेखबर थी।’’ चाची फिर खिसियाया सा हँसती हैं, “मुझे दुखी देखता 
					तो बंटी समझता मैं पापा से बहुत ज्यादा की उम्मीद कर रही 
					हूँ... मेरा बेटा था इसलिये समझाता भी... कहता... पापा जैसे 
					हैं... वैसे हैं... उससे ज्यादा की उम्मीद रखना उन पर ज़्यादती 
					करना है...शायद वह जो कहना चाहता था एकदम सही था... पर बात शिव 
					जो हैं उनके वह होने की...या न होने की... या जो वह नहीं थे 
					वैसा होने की उम्मीद करने की नहीं थी... बात शिव जो कुछ कर रहे 
					थे उसकी थी... पर मैं बंटी से क्या कहती... वैसे भी मेरे पास 
					कोई सबूत तो था नहीं।’’ चाची जैसे फुसफुसा रही हों... ‘‘बड़ी 
					अकेली हो गई थी मैं। उसकी नजर में भी शिव नहीं मैं गलत थी 
					क्योंकि नाराज़ मैं थी शिव से... वे तो पूरी तरह से प्रसन्न 
					थे... एकदम परितृप्त।’’
 
 चाची मेरी तरफ देखती भर हैं ‘‘अमृता मैंने उन पिछले सालों में 
					बहुत अच्छी औरत बनने की कोशिश में कब कहाँ और कैसे अपने अंदर 
					की ऊर्जा...अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने की वह ताकत... अपने 
					अंदर की आग खो दी थी... मैं जैसे मैं नहीं रही थी। शिव की तरफ 
					से मोहभंग हुआ तो लगा श्रीहीन होकर जी रही हूँ। सीधे शब्दों 
					में आत्म सम्मान खोकर जीना लगने लगा था। अपने ऊपर झुँझलाहट 
					होती... मैं किसके लिये... कैसे लोगों के लिये सहनशील पत्नी... 
					आदर्श बहू... चुपचाप कष्ट सहकर जी रही हूँ...’’ चाची अपने स्वर 
					को संयत कर सुस्त सा मुस्कुराती हैं... वे मेरी तरफ देखती रहती 
					हैं... ‘‘सच बात यह है अमृता कि मैं इनमें से कुछ भी नहीं रह 
					गई थी... न प्रेम करने वाली पत्नी... न आदर्श बहू... न मुझमें 
					धैर्य ही रह गया था। बस इतने वर्षों से झुके-झुके सीधे हो पाने 
					की हिम्मत खो दी थी मैंने। अपने अंदर की उस आग को जगाने के 
					प्रयास में मेरे अंदर का क्रोध जिंदा होने लगा था... उतने 
					वर्षो का अन्याय... झूठ... आदर्शों के वह नाटक... ओढ़ा हुआ वह 
					बड़प्पन... सब कुछ। मेरे अंदर, एक ज्वालामुखी धधकने लगा था। उसी 
					बीच एक दिन सबेरे-सबेरे दरवाजे पर आकर छोटी खड़ी हो गयी थी। शिव 
					इलाहाबाद गए हुए थे। सोचा कोई क्लाइन्ट होगी शिव की... पर न 
					जाने क्यों मैं उससे बात करने के लिये खड़ी हो गई थी... डरा 
					सहमा सा चेहरा। वकील साहब घर पर नहीं हैं सुन कर भी खड़ी रही 
					थी। जैसे लौटना संभव ही न हो। मैंने उससे उसकी परेशानी का कारण 
					जानना चाहा था... बताया था कि वकील साहब की पत्नी हूँ। अगर उसे 
					कुछ मदद चाहिए हो तो बताए... और, उसकी आँखों से जैसे आसुँओं का 
					बाँध फट पड़ा था। मैंने उसे अंदर बुला लिया था। जो उसने बताया 
					था... और जो वह नहीं बता पाई थी उससे टुकड़े-टुकड़े में इतना 
					समझी थी कि वह शिव की क्लाइंट हैं... विधवा... पट्टीदारों से 
					प्रापर्टी का मुकदमा चल रहा है। वह मेरे सामने जैसे सफाई में 
					गिड़गिड़ा रही थी ‘‘वकील साहब ने मुझे यह नहीं बताया था कि उनकी 
					पत्नी हैं... भरा पूरा परिवार है...’’ चाची क्षण भर को अटकती 
					है।... ‘‘बात उतनी सीधी नहीं थी अमृता... अपने घर से चले आने 
					के अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं बचा था।’’ चाची चुप हो जाती 
					हैं।
 ‘‘फिर ?’’ ‘‘मुझे पता हैं फिर क्या हुआ था। फिर भी मेरे मुँह 
					से अनायास प्रश्न निकला था’’ ‘‘फिर’’
 
 चाची के चेहरे पर कातर सी मुस्कान आती है ‘‘फिर मैंने गैस्ट 
					रूम के बगल वाला कमरा ठीक करा दिया था।”
 ‘‘बंटी ने एतराज नहीं किया था?’’
 चाची फिर फींका सा मुस्कुराती हैं ‘‘पूछा था यह कौन है...? 
					क्या बताती कि वह कौन है। पर हर बात हर किसी को सिलसिलेवार 
					बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती अमृता... सच टुकड़ों-टुकड़ों में अपने 
					आप उजागर हो जाता हैं... पूरा का पूरा... सबके सामने।’’ चाची 
					जैसे आत्मलाप कर रही हैं, ‘‘और ऐसे किस्से तो अपरिचितों तक के 
					लिये चर्चा की बात बनते हैं।’’
 
 चाची की आँखों से आँसू गिर रहे हैं... “अगले दिन शिव लौटे 
					थे... छोटी को बैठा देखकर एकदम सकबका गए थे... मेरे पीछे-पीछे 
					मेरे कमरे में आए थे। ‘‘ पूछा क्यों आई है यह औरत यहाँ पर।’’ 
					बात की तो मेरे ऊपर गुर्राए भी, मुझे धमकाया भी, आँखे भी 
					तरेरी... फिर मनाया भी... गिड़गिड़ाए भी। कहा ‘‘झूठ बोलती है यह 
					औरत... फिर भी तुम्हारी तसल्ली के लिये तुमसे माँफी माँग सकता 
					हूँ। तुम्हे ऐसे लगता ही है तो मेरी सफाई देने से नहीं मानोगी 
					तुम। चलो अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करते हैं। आगे जेसे चाहोगी 
					रहूँगा मैं।’’ चाची का थका हुआ स्वर जैसे मीलों चलकर..., 
					‘‘कितनी आसानी से शिव कुछ भी कर... कुछ भी सोच सकते थे पर मेरे 
					लिये जिंदगी ताश की बाजी नहीं थी कि पत्ते ग़लत बट गए तो गड्डी 
					मिलाई... दुबारा बाँटा और नई बाजी शुरू कर दी। उनके लिये जीवन 
					सस्ता सा खेल था जिसे मन चाहे ढँग से खेला जा सकता था।’’
 
 सबको पता चला तो परिवार में एक कोहराम-सा मच गया था। मेरठ से 
					दादा, भाभी, भोपाल से दीदी दौड़ी चली आई थीं। छोटी की पेशी की 
					गई थी...कहा गया था इसे निकाल फेंको घर से। पर मैं अड़ गई थी। 
					अपने निणर्य के साथ पहली बार तुम्हारे घर वालों के सामने विरोध 
					में खड़ी हो गई थी। बताओ न अमृता उस हाल में मैं उसे कहाँ फेंक 
					देती।’’
 मैं बेचैन हो जाती हूँ... ‘‘कैसे सह पाईं आप इतना? कैसे कर 
					पाईं आप इतना बड़ा त्याग?’’
 
 चाची आँखे पोछ कर फींका सा हँसती है... ‘‘नहीं अमृता झूठ नहीं 
					बोलूँगी... वह त्याग नहीं था। बहुत अचानक हो गया था वह... 
					अन्याय के विरुद्ध किसी को न्याय दिलाने जैसी चेष्टा।’’ चाची 
					जैसे कुछ सोचती हैं... ‘‘नहीं खाली वह भी नहीं... शायद... शायद 
					वह एक प्रतिशोध भी था... शायद मैंने छोटी को तुम्हारे चाचा के 
					विरुद्ध... पूरे राठौर परिवार के विरुद्ध एक हथियार की तरह 
					इस्तेमाल किया था... शायद... शायद...’’ चाची अपने सिर को झटका 
					देती हैं, ‘‘मुझे नहीं पता अमृता मैंने क्यों और कैसे इतना बड़ा 
					निर्णय ले लिया था... शायद मैं उस समय कुछ समझने-बूझने-सोचने 
					की मनः स्थिति में ही नहीं थी।’’
 ‘‘बंटी को...’’ मैं अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाती, हकला जाती 
					हूँ।
 
 चाची मेरी बात बीच में काट देती हैं... ‘‘हाँ अमृता... बंटी को 
					मैंने बहुत बड़ी चोट दे दी थी... उसके कोमल मन के लिये वह बोझा 
					बहुत बड़ा था... पर कहा न वह सब अचानक हो गया था... मेरे मन के 
					पास कुछ सोचने का समय ही नहीं था...’’ चाची बड़ी देर तक चुप 
					रहती हैं’’ पर उस ताप में वह खरा ही हुआ था शायद। दादा, भाभी, 
					दीदी सब हार कर वापिस चले गए थे। बंटी के इम्तहान चल रहे थे। 
					मैं एकदम टूट चुकी थी... स्थितियों से, घर के लोगों से... अपने 
					आप से जूझते मैं पस्त हो चुकी थी। मुझे लग रहा था बंटी की 
					अपराधी हूँ मैं... एक अकेले उसकी अपराधी। इसलिये उससे बात करना 
					ज़रूरी था। उसके कमरे में गई थी। वह अचानक बड़ा हो चुका था... 
					बेहद समझदार। मैं उसके पास जाकर खड़ी हो गयी थी... मैंने उससे 
					‘‘सारी’’ बोला था।’’
 ‘‘तुम क्यों सॉरी कह रही हो?‘‘ वह उठ कर खड़ा हो गया था।’’ और 
					तुम परेशान मत हो... मैं एकदम ठीक हूँ। वह मुस्कुराया था, 
					तुम्हारा बेटा हूँ न।’’ बंटी मेरे गले से लग गया था, ‘‘मुझे 
					गर्व है तुम पर माँ’’ इतना बड़ा होने के बाद वह पहली बार मेरे 
					गले से लगा था वैसै। बंटी आहत था... पर मुझे संतोष था कि वह 
					सत्य के साथ जीना सीख चुका था। बंटी ने मेरे निर्णय को 
					स्वीकारा और सराहा था... जो थोड़ी बहुत ऊहापोह मन में रह भी गई 
					हो वह समाप्त हो गई थी।
 ‘‘चाची आप घर छोड़कर...’’
 ‘‘हाँ अमृता... यूनिवर्सिटी में अनु ने भी यही कहा था... क्यों 
					रह रही हो उस घर में... कैसे रह पा रही हो? पर इतने वर्षो ने 
					मेरी सोच को बदल दिया था... स्थितियों से जूझने के मेरे तरीके 
					को भी। लगा था क्यों छोडूँ यह घर। लगा था गलती आदमी करता है घर 
					औरत क्यों छोड़ती हैं? क्यों छोड़ना पड़ता है उसे घर...? घर तो 
					वही बनाती संवारती हैं न... हमारे कानून बनाने वाले... हमारी 
					महिला संस्थाएँ क्यों नहीं करते कुछ। खैर छोड़ो। पर मुझे लगा था 
					मैं इस घर के बिना नहीं जी सकती। शिव से... शिव के घर वालों से 
					मैं उबर चुकी थी... पर यह घर... इस घर की एक-एक दीवार... एक-एक 
					कोना मेरा बिम्ब था... घर छोड़ने की सोच से मेरा दिल फटने लगा 
					था।’’ चाची अपने दोनों हाथों का क्रास बना कर अपने सीने पर रख 
					लेती हैं। ‘‘आई कूड फील दैट लॉस... दैट पेन हिअर’’... चाची 
					मेरी तरफ को झुक जाती हैं... मेरे चेहरे पर टिकी उनकी आँखें और 
					बड़ी लगती हैं... ‘‘समझ रही हो न अमृता...’’ चाची की आवाज में 
					थकान हैं... ‘‘मैं अपने आपको और बंटी को और तकलीफ नहीं देना 
					चाहती थी इसलिये घर छोड़ने की बात दिमाग से निकाल दी थी। सच 
					कहूँ तो मैंने वैसा करने की जरूरत ही महसूस नहीं की थी। कभी यह 
					लगा ही नहीं कि यह घर मेरा नहीं शिव का है। यह भी नहीं लगा था 
					कि शिव से टूट कर मुझे घर छोड़ देना चाहिये। बन्टी मेरे पास 
					था... मेरे साथ था। घर छोड़ने की माँग उसने भी नहीं की थी... बस 
					अपने पापा से कतराने लगा था... अपनी दादी से भी। वह मेरे 
					इर्द-गिर्द रहने लगा था और मैं उसके।’’ चाची चुप हो जाती 
					हैं... बड़ी देर तक चुप रहती हैं।
 
 चाची अपनी आँखें पोंछ मेरी तरफ देखती हैं... ‘‘अगर शिव सच में 
					किसी अन्य के साथ हो जाते तो टूटती मैं तब भी... पर शिव को 
					खोने का दर्द तो रह जाता दिल में।‘‘
 इस बार चाची के पास आकर सम्बन्धों के अलग-अलग आयाम परत दर परत 
					मेरे सामने कितने भिन्न ढँग से खुलते गए हैं। इन कुछ महीनों 
					में मेरी सोच को कितना परिपक्व... कितना गहरा बना दिया है। 
					चाची से मुझे हमेशा प्यार महसूस हुआ है... वह मुझे हमेशा अच्छी 
					लगी हैं... पर इस बार वह मुझे भिन्न ढंग से अपनी सी लगने लगी 
					हैं... बेहद आत्मीय। लगता हैं जैसे मैं उनके अकेलेपन में शामिल 
					हूँ। और छोटी...? उसके लिये मन में कितना क्रोध लेकर इस घर में 
					आई थी मैं। पर उनको देख कर तमाम भाव आते हैं मन में... पर 
					उसमें क्रोध नहीं होता... कतई भी नहीं।
 
 सुबह से घर में छोटी की पुकार शुरू हो जाती हैं... और वह घर 
					में चकरघिन्नी की तरह दौड़ती रहती हैं। दादी की आवाज में तीखी 
					हिकारत होती हैं। घर में थोड़े से लोग हैं पर सुबह सात बजे से 
					ग्यारह बजे तक सबका अलग-अलग किश्तों में नाश्ता बनता और लगता 
					रहता हैं... दादी अपनी खटुलिया पर बैठी अपनी दमखम भरी आवाज में 
					उन्हें क्षण-क्षण निर्देश सुनाती रहती हैं... छोटी... छोटी... 
					छोटी। जिस नाते वे इस घर में रह रही हैं वे भी चाची ही होती 
					हैं। उनका असली नाम क्या हैं मुझे पता नहीं... पता करने की कोई 
					जरूरत भी महसूस नहीं होती। छोटी के अलावा उनके लिये कोई संज्ञा 
					मन में आती ही नहीं। सभी तो उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं... 
					घर की बूढ़ी महाराजिन तक। चाची के कितने नाम हैं... गार्गी... 
					बहू... माँ... ममा... मालकिन... मिसेज राठौर।
 
 समझ में नहीं आता इस घर में कितने काम हैं जो हर समय छोटी 
					दौड़ती रहती है और उनकी पुकार होती रहती हैं... नौकर चाकर ऊपर 
					से हैं ही। यह भी समझ नहीं आता कि वे जब घर में नहीं थी तो यह 
					घर कैसे चलता था... पर अब तो सब कुछ बहुत सरल, सधे ढंग से चलता 
					रहता है। छोटी के चेहरे पर कोई भाव नहीं आता। कोई प्रतिक्रिया 
					मैंने नहीं देखी... न कोई खुशी... न उत्साह... न दुख... न 
					क्रोध। एकदम सपाट चेहरा हैं उनका। कभी-कभी घण्टों छोटी का 
					चेहरा मेरे दिमाग में घूमता रहता हैं... मन में अजब सी पीड़ा 
					होती हैं उन्हें देखकर। कैसे रहती हैं वे यहाँ।
 
 आजकल लगभग रोज़ ही छोटी से बातचीत हो जाती है। लंबी छुट्टी पर 
					गई मिसेज पाल लौट आई हैं... वे बाद की कक्षाएँ लेती हैं इसलिये 
					दो बजे तक मैं वापिस आ जाती हूँ।
 उस दिन लौट कर आई तो घर में सन्नाटा पड़ा है । दादी अपने कमरे 
					में सो रही हैं... चाची, बंटी और चाचा अभी लौट कर नहीं आए हैं। 
					लौटते पर काफी भीग गई थी इसलिये चाय की इच्छा होने लगी। चौके 
					में जा कर चाय का पानी चढ़ाया तो शायद खटर-पटर की आवाज सुन कर 
					छोटी दौड़ी हुई आ गई थीं... किचेन में मुझे देखकर चौंकी थी... 
					‘‘अरे आप ?’’
 
 ‘‘हाँ चाय बना रही थी। आप पीजिएगा चाय तो पानी बढ़ा दूँ ?’’
 शायद उन्होंने मुझसे इस सद्भाव की अपेक्षा नहीं की थी... शायद 
					उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आई थी... ‘‘नहीं आप 
					पीजिए... मेरा तो आज व्रत है ’’
 मै अपनी चाय लेकर डाइनिंग टेबल पर आ गई थी। वे ट्रे में 
					दालमोठ, और बिस्किट निकाल लाई थीं... ‘‘थैंक्यू। नहीं मैं कुछ 
					खाऊँगी नहीं’’
 वे असमंजस में खड़ी रही थीं... मैंने उनकी तरफ देखा था और पास 
					पड़ी कुर्सी पीछे को सरकाई थी ‘‘बैठिए।’’
 चेहरे पर छाए उसी असमंजस के भाव के बीच वे धीरे से मुस्कराई 
					थीं और बैठ गई थीं।
 मुझे बातचीत का सूत्र पकड़े रहना अनिवार्य लगता है...‘‘आज कौन 
					सा दिन है?’’
 ‘‘आज बृहस्पति है।’’
 ‘‘ओ हाँ...आज तो गुरुवार है... आज का व्रत किस चीज के लिये रखा 
					जाता है?’’ मैं हँसती हूँ... मेरे स्वर में चुलबुलाहट आ गई 
					थी... ‘‘आज का व्रत तो भई अच्छा पति पाने के लिये रखा जाता 
					है।’’ वाक्य मुँह से निकलते ही मैं धक्क से रह जाती हूँ... मैं 
					संवाद को जीवित रखना चाहती थी और अन्जाने ही मैंने जैसे उन्हें 
					चिढ़ाया हो। वे खिसिया जाती हैं। उनसे अधिक मैं... ‘‘माफ 
					करें... मेरा मतलब वह नहीं था...’’ अनायास मेरे मुँह से निकलता 
					है। फिर मुझे लगता है कि मैंने तो बात और भी अधिक फूहड़ कर दी।
 वह फीका सा मुस्कुराती हैं... ‘‘नहीं कोई बात नहीं...’’ फिर 
					बड़ी देर तक हम दोनों में से कोई कुछ नहीं बोलता। वह मौन 
					उन्होंने ही तोड़ा था... उनका स्वर रुआँसा हो जाता है...... 
					“मैं यह व्रत अपने बेटे की याद में रखती हूँ... आज ही के दिन 
					वह पैदा हुआ था और हफ्ते भर बाद आज ही के दिन चला गया।’’
 मैं स्तब्ध रह जाती हूँ। उनकी तरफ देखती हूँ... उनकी आँखों में 
					आँसू हैं... मैं उनके हाथ पर अपना हाथ रख देती हूँ... मेरा 
					स्वर अभी भी खिसियाया हुआ है... ‘‘क्या हो गया था उसे?’
 
 ‘‘पता नहीं। शायद बहुत समझदार था वह... हफ्ते भर में मुझे और 
					अपने आप को आगे के झंझट से मुक्त कर गया।’’
 ‘‘अरे ऐसे क्यों कहती हैं आप?’’ मुझे समझ नहीं आता कि उन्हें 
					दिलासा देने के लिये क्या बोलूँ। फिर बड़ी देर तक हम दोनों में 
					से कोई कुछ नहीं बोलता। मैं उनके पास से उठने का साहस नहीं कर 
					पाती... पर मन ही मन मनाती रहती हूँ कि चाची या बंटी के आने से 
					पहले वे मेरे पास से उठ कर चली जाएँ। शायद वह भी समझती हैं यह 
					बात। थोड़ी देर बाद काम का बहाना करके उठ कर चली गयी थीं वे।
 
 दूसरे दिन मै फिर उसी टाईम पर लौटी थी। घर में वैसा ही सन्नाटा 
					था। मैं बड़ी देर तक डाइनिंग रूम में अकेले खड़ी रहती हूँ 
					निरुद्देश्य-सी। सब कुछ बरसों पहले की तरह वैसा ही है पर इस 
					कमरे में एक अजब सा उजाड़ वीरानापन लगने लगा है। पहले चाची के 
					घर का यह कमरा गतिविधियों और रौनक का केन्द्र रहता था। बड़ा 
					वाला टी.वी. इसी कमरे में रखा है... छुट्टियों में आते तो सारा 
					दिन हम सब बच्चों की धमा-चौकड़ी इसी कमरे में होती। चाची के घर 
					का हर लंच और डिनर दावत की तरह खास होता... हर दिन कुछ न कुछ 
					स्पेशल... और उसको मेज पर लगाए जाने का तरीका भी स्पेशल। चाची 
					का पूरा घर अब भी उसी स्टाइल से चलता है... गुलदस्तों में लगाए 
					जाने वाले ताज़ा फूल...बैठक खाने और गैलरी में होती गमलों की 
					अदला-बदली...लॉन में टेराकोटा के सुन्दर पाट...पेड़ों पर लटकी 
					टेराकाटा की घण्टियाँ। पर अब चाची के घर का डाइनिंग रूम वीरान 
					हो गया है...पहले की तरह साथ बैठकर लंच-डिनर और चाय-नाश्ता अब 
					नही किया जाता...थोड़े से लोग अलग-अलग किश्तों में अकेले खा पी 
					लेते हैं। चाची भी किचन और खाने के कमरे में व्यस्त नहीं 
					दिखतीं अब। अन्यथा जिंदगी से भरी...घर के रख-रखाव, साज-सज्जा 
					में व्यस्त। बस किसी हाई पैडस्टल पर खड़ी लगती हैं अब वे। उस 
					दिन हास्टेल में उन्होने ने मुझसे कहा था ”अमृता वह घर चाची का 
					भी है...“ बड़ी अजीब बात है कि अब यह घर चाची का ही अधिक लगने 
					लगा है... जैसे अन्य सबकी भूमिका बदल गई हो। एक अमूर्त सा 
					एहसास है इस घर में फैला हुआ जैसे सब लोग चाची से डरने लगे 
					हों...चाचा ही नहीं...दादी तक। जिनका आतंक कुछ वर्ष पहले तक घर 
					में छाया रहता था।
 
 मैं चुपचाप चौके की तरफ बढ़ लेती हूँ। चौके में भी उतना ही उदास 
					वीरानापन है। मैंने गैस जला कर दो प्याला चाय चढ़ा दी थी...सोचा 
					चाय बन जाए तो छोटी को बुला लूँगी...पर आहट सुन कर वह पिछले 
					दिन की तरह ही चौके मे आ कर खड़ी हो गयी थीं, “आप हटिये ...मैं 
					बना देती हूँ।“
 ”क्यों भई...मुझे भी चाय बनानी आती है।“ मैं हँसी थी।
 वे भी हँसी थीं। मैंने दो प्यालों में चाय निकाल कर ट्रे में 
					रख ली थी। ट्रे में दो प्याले देखकर उनके चेहरे पर सहज सा मधुर 
					भाव आया था... मुझे अच्छा लगता है...उनके लिये अजब-सी ममता 
					उमड़ती है दिल में।
 अनायास चाय का यह समय दिनचर्या बन गया था हम लोगों की।
 
 रात के करीब ग्यारह बजे हैं। डाइंनिंग रूम में खटपट की आवाजे़ 
					आ रही हैं। शायद छोटी मेज़ और चौका समेट रही हैं। मैं फ्रिज से 
					बोतल लेने के लिये उधर ही बढ़ ली थी। अचानक चाचा का आदेश भरा 
					कठोर स्वर सुनाई दिया था । ‘‘काम निबटा कर आज रात में थमर्स 
					में ठण्डा पानी और गिलास रखना भूलना नहीं।’’... अभिसार का 
					निमंत्रण वह भी इतनी हिकारत भरी डाँट से। कैसे आदमी हैं यह... 
					कोई शर्म नहीं... इंसानियत नहीं। कैसे सहती हैं छोटी। छोटी की 
					सत्ता के इस पक्ष के बारे में तो मैंने कभी सोंचा ही नहीं 
					था...
 
 कुछ क्षण को मैं चुपचाप गैलरी में खड़ी रही थी... मेरी आँखे 
					धुँधलाने लगी थीं। मेरी आँखों में वे आँसू किसके लिये थे? चाची 
					के लिये... छोटी के लिये... या घर में जो कुछ हो रहा था उसके 
					विरुद्ध लाचार क्रोध के लिये।
 मैं कमरे में लौट आई थी। चुपचाप अपने पलंग पर बैठ गई थी... 
					बहुत देर तक वैसे ही बैठी रही थी।
 ‘‘क्या सोच रही हो अमृता‘‘ चाची पूछ रही हैं।
 ‘‘कुछ नहीं चाची, मैं अपनी गरदन हिलाती हूँ, ‘‘मैं... मैं सोच 
					रही थी..., मैं चाची की तरफ देखती हूँ...... ‘‘छोटी को इस घर 
					का हिस्सा बना कर आपने क्या पाया चाची?’’
 ‘‘क्या पाया?’’ वे काफी देर तक चुप रहती हैं। बोलती हैं तो 
					उनकी आवाज पराई सी लगती हैं... ‘‘शायद पाया ही है अमृता। बहुत 
					कुछ पाया है... इस घर में अपना एक वजूद पाया हैं... अपना भूला 
					हुआ आत्म विश्वास पाया है, छोटी को... एक अनजान लड़की को इस 
					राठौर खानदान की देहरी पर न्याय दिला पाने का संतोष पाया है... 
					बंटी को एक सही...
 मैं इस समय बेहद बेचैन हूँ। मैं जैसे तड़प कर उनकी बात बीच में 
					काट देती हूँ... ‘‘चाची बंटी बिगड़ भी तो सकता था... वह 
					विद्रोही भी तो बन सकता था... वह घर से अपना मुँह मोड़ भी सकता 
					था...’’
 
 चाची मुझे तेज निगाहों से देखती हैं... ‘‘ऐसा नहीं हुआ न? वैसे 
					भी अमृता जो नहीं हुआ...जो हो सकता था...और जो नहीं भी हो सकता 
					था उसे सोच कर मैं अपना दिल और दिमाग और खराब नहीं कर सकती... 
					प्लीज़ अमृता...प्लीज़...जो संतोष मेरे पास हैं उसे साबुत रहने 
					दो।’’
 
 मैं एकदम खिसिया जाती हूँ... ‘‘आई एम सॉरी चाची’’ लगता हैं ठीक 
					ही तो कह रही हैं। चाची का चेहरा पिघलता सा लगता हैं। उनकी 
					आवाज नरम पड़ जाती हैं- ‘‘नहीं अमृता’’ वे सोच में पड़ जाती 
					हैं... बोलती हैं तो आवाज में अजब सी अटकन होती है जैसे 
					रुक-रुक कर बोल रही हों...‘‘तुम पूछ रही थीं मैंने क्या 
					पाया... ? पाया। इस घर में अपने लिये एक अलग बेडरूम पाया है... 
					तुम्हारे चाचा से मुक्ति पायी है। उस आदमी से पूरी तरह 
					मुक्ति।’’
 
 मैं सन्न रह जाती हूँ। एक ही स्थिति के कितने आयाम हैं। मेरी 
					खुली आँखों के सामने किसी चलचित्र की रील की तरह चाचा के कमरे 
					में छोटी की लाचार उपस्थिति घूम जाती है। इतनी देर से रुका हुआ 
					बाँध मेरी आँखों से बह निकलता हैं। चाची हड़बड़ा जाती हैं... 
					‘‘अरे अमृता... अरे क्या हुआ...’’ वे उदास हो जाती हैं। ‘‘तुम 
					बच्चों को लेकर बड़ा अपराध बोध महसूस करती हूँ बेटा... कितनी कम 
					उम्र में जीवन के कितने बदसूरत पक्ष से तुम लोगों का 
					साक्षात्कार हो गया... मेरी, हमारी वजह से।’’ चाची मेरी तरफ 
					देखती रहती हैं... ‘‘एक बात कहूँ अमृता... जो कुछ तुम्हारे 
					इतने नजदीकी लोगों के साथ हुआ है... या हो रहा है उससे दुनिया 
					को लेकर कोई निगेटिव नज़रिया मत बना लेना। यही बात बंटी को भी 
					समझाती हूँ। जो कुछ मेरे साथ हुआ वह मेरा भाग्य था। पर सबके 
					साथ तो ऐसा नहीं होता न। बहुतों के लिये जिंदगी बहुत सुन्दर भी 
					होती है। सच कह रही हूँ अमृता इस सबके बावजूद मेरा, मानवीय 
					मूल्यों पर से विश्वास नहीं डिगा... एक क्षण को भी नहीं। आज भी 
					शैली, बायरन, कीट्स पढ़ाते समय... रोमैन्टिसिस्म डिस्कस करते 
					समय मुझे उतना ही आनन्द मिलता है... प्रेम की... दर्द की 
					कविताएँ मुझे उतनी ही गहराई से छूती हैं। किसी भी प्रेमी जोड़े 
					को देखकर बड़ा मधुर सा एहसास होता है... ‘‘चाची का चेहरा 
					पिघलता-सा लगता है। मैं उन्हें मुग्ध भाव से देखती रहती हूँ। 
					वे बार-बार नए रूप में मेरे सामने आती हैं। चाची मधुर सा हँसती 
					हैं। तुम तो साहित्य की विद्यार्थी हो। समझ रही हो न मेरी 
					बात।’’
 ‘‘हाँ, चाची...’’
 वे हँसती हैं और हँसते हुए स्विच बोर्ड की तरफ बढ़ जाती है... 
					‘‘अच्छा अब सो जाओ... नहीं तो बातें करते हुए हम लोग आज भी आधी 
					रात कर देंगे...’’
 
 मुझे आधी रात तक नींद नहीं आती। चाचा चाची की जिन्दगी से जुड़े 
					कितने प्रसंग कितनी बाते याद आती रहती है। चाचा की जब शादी हुई 
					तब मैं १०-११ साल की रही होंगी पर वह शादी... चाची का घर में 
					प्रवेश... बाबा के घर में मनने वाला जश्न... मुझे सब याद हैं। 
					शहर में इस शादी के चर्चे थे क्योंकि बारात में केवल ग्यारह 
					लोग गए थे... हर रस्म पर एक रुपए से शगुन किया गया था। बाबा 
					बेहद बुद्धिमान थे... चाची के घर से किसी भव्य आयोजन की 
					अपेक्षा वे कर नहीं सकते थे अतः आदर्श का नाम दे कर उन्होंने 
					उस सादे आयोजन को अपनी महानता का सुन्दर जामा पहना दिया था... 
					उस छोटी उम्र में भी मैं पापा और बाबा के बीच होने वाली वार्ता 
					के अर्थ पूरे के पूरे समझ सकी थी। चाची और उनका परिवार बाबा के 
					अहसान तले दब सा गया था।
 
 चाची के व्यक्तित्व में एक अजब सा माधुर्य था... शांत चेहरे पर 
					बड़ी-बड़ी आँखे और मीठी सी मुस्कान। नौकरी के बीच भी उन्होंने 
					थोड़े ही दिनों में घर... घर की सजावट... बाग बगीचे... रसोई की 
					व्यवस्था सब संभाल ली थी। बाबा इस शादी से बेहद खुश थे... 
					मुक्त कंठ से चाची के सामने भी और उनके पीछे भी उनकी प्रशंसा 
					करते नहीं थकते। बाबा की बात काटने का साहस किसी के पास नहीं 
					था पर दादी, मम्मी, बुआ सब के मुँह बिगड़ जाते। साधारण घर से आई 
					चाची की इतनी प्रशंसा सबके लिये असह्य हो जाती। सिर्फ पापा 
					बाबा की हाँ में हाँ मिलाते। दादी पीछे बड़बड़ाती... ’’ सठिया गए 
					हैं... बस एक वही पढ़ी लिखी विद्धान दिखती हैं... यहाँ तो बड़ी 
					बहू भी एम. ए. है... लता तो एम. एस. सी. हैं... करना चाहती तो 
					यूनिवर्सिटी में नौकरी उस की भी लग गई होती।‘‘
 
 चाची बाबा के बीच एक अजब सा रिश्ता था अपनेपन से भरा। बाबा के 
					निधन पर चाची बहुत रोई थीं । महीनों उनके चेहरे पर एक उदास 
					वीरानगी छाई रही थी... जैसे इस घर में वे अकेली छूट गई हों।
 
 शायद चाची सच में अकेली ही छूट गई थीं । बाबा के जाने के बाद 
					चाचा का आधिपत्य और अहंकार और अधिक मुखर हो उठा था। शायद चाचा 
					जान बूझकर कुछ नहीं करते पर उनका खुरदुरापन बिना किसी अंकुश के 
					और फूहड़ हो गया था। चाची ने घर में अपनी सारी आमदनी... सारी 
					ऊर्जा झोंक दी थी। घर में स्टाइल दिखने लगा था। चाचा 
					शुक्रगुजार नहीं हुए थे बल्कि उनके नखरे और बढ़ गए थे। कभी मेज 
					पर क्राकरी ठीक से न लगी हो... कभी नाश्ते खाने में कोई कभी 
					महसूस हो तो चाचा नौकरों पर चिल्लते... चाची को घूर कर 
					देखते... कभी-कभी लगता जैसे चाचा अपना शासन दिखाने के लिये 
					गलती खोजते। दादी, मम्मी, बुआ किसी को चाचा के जंगलीपन से कभी 
					परेशान या हैरान होते नहीं देखा। मुझे अजीब लगता... मुझे दुख 
					लगता। घर वाले शायद यही चाहते हैं कि चाचा चाची पर हावी रहें। 
					चाचा कभी भी... कहीं भी... किसी के सामने भी कैसे ही बात कर 
					देते। चाची का खिला चेहरा उतर जाता। चाचा अपनी ही रौ में मस्त 
					रहते, चाची के उतरे चेहरे या नम आँखों की तरफ भी कभी उनका 
					ध्यान नहीं जाता। चाचा के तौर तरीकों से चाची कभी-कभी बेहद 
					अस्थिर और परेशान सी लगती। अभी चीखा-चिल्लाया, डाँटा फटकारा 
					...। अभी ठहाके लगाने लगे... क्षण भर में प्यार से बातें करने 
					लगे। पर चाची को एक मूड से दूसरे मूड में आने में घण्टों... 
					कभी कभी दिनों लग जाते। पर वैसे चाचा हर समय चाची के आस-पास 
					मँडराते रहते... हर समय गार्गी की पुकार करते रहते। चाची की 
					गैर हाज़िरी में चाचा अधूरे से लगते।
 
 कितनी योग्य थीं चाची, कितना कुछ मिलना चाहिये था उन्हें और 
					कैसे लोगों के बीच आ गईं। असंवेदनशील... पाखंडी। सब कुछ करने 
					के बाद वे अच्छी पत्नी साबित नहीं हुई क्योंकि खुशी उन दोनों 
					के सम्बन्धों के बीच नहीं थी... अभी ही नहीं, बहुत सालों से 
					नहीं थी। चाचा के पास... दादी के पास... या पूरे परिवार के पास 
					चाची से शिकायत का मुद्दा ही क्या था सिवाय इसके कि उन्हें पता 
					था कि वे खुश नहीं हैं। दूसरा चाहे जो कुछ करे पर वे पत्नी हैं 
					तो उन्हें पति से... ससुराल से खुश रहना ही चाहिए... दुखी होना 
					उनकी सबसे बड़ी ख़ता हो गयी। न जाने कितनी बार दादी और मम्मी को 
					बात करते सुना है मैंने। दादी बड़बड़ातीं कि ऐसा क्या कर देता है 
					शिव। मर्द औरतों को न जाने कितना सताते हैं’’... पति और परिवार 
					के लिये कुछ न करने वाली मम्मी दादी की अंतरंग बन जाती हैं 
					क्योंकि वे राठौर परिवार की बहू बन कर बेहद खुश थीं। दिन रात 
					आने पाई का हिसाब लगाती मम्मी... पापा के कमाए पैसों को पापा 
					से छुपा कर रखती हुई ... जेवर कपड़ों में व्यस्त एक साधारण सी 
					दुनियावी औरत। पर इस घर ने उन्हें सही और चाची को गलत साबित कर 
					दिया। जिंदगी कितनी अजीब कितनी उलझी हुई चीज हैं... इसका कोई 
					अंकगणित समझ नहीं आता... इसका कोई न्याय भी नहीं। कुछ न करने 
					वाले। या छीनने वाले सफल हो जाते हैं और प्यार में अपनी खाल तक 
					काट कर देने... दे सकने वाले निहायत असफल। कोई ऐसी अदालत... 
					ऐसी जगह हैं जहाँ जा कर यह जिरह की जा सके कि बेहतर इंसान होने 
					के बाद भी वे ग़लत साबित क्यों हो रही हैं... संम्बन्धों की इस 
					बिसात पर मात क्यों खा रही हैं। अंततः इंसान की अच्छाई नहीं 
					उसकी सफलता उसको सही या ग़लत क्यों बना रही है।
 
 छोटी के प्रति अपनी आत्मीयता चाची के प्रति एक अपराध जैसा बोझा 
					देती हैं मन को। मैं क्या करूँ... मेरे कुछ समझ नहीं आता... बस 
					छोटी को लेकर एक अजब सी बैचेनी रहती हैं मन में। छोटी अकेली 
					हैं और अपने भोगे हुए अकेलेपन को शब्द भी नहीं दे पाती... 
					माँ-बाप, भाई-बहन, सगा संबंधी कोई नहीं। और इस घर में भी एक 
					फालतू सामान की तरह पड़ी हुई। मैं समझ नहीं पाती कि इस तरह से 
					कोई इंसान अपनी स्वतंत्रता, सम्मान और आत्म विश्वास को नष्ट 
					करके कैसे जीवित रह सकता हैं... यह दासता है... यह अपना नाश 
					स्वयं करना हैं। बिना किसी इच्छा... किसी आवेश या प्रतिक्रिया 
					के इंसान होने का मतलब भी क्या हैं।
 
 चाची की उपस्थिति में मैं छोटी की तरफ पहचान भरी निगाह से नहीं 
					देख पाती... उनसे कोई बात भी नहीं करती। सतर्क शायद वे भी उतना 
					ही रहती हैं। सबके सामने हम एक दूसरे से उतने ही अजनबी की तरह 
					पेश आते हैं... पर चाची के पास तीसरी आँख हैं शायद... शायद 
					इसीलिये उन्होंने एक दिन छोटी की बात स्वयं छेड़ी थी। मैं भरसक 
					उस प्रसंग को टालती रही थी और मूक श्रोता की तरह बिना किसी 
					टिप्पणी के बैठी रही थी... पर मैं बहुत देर चुप नहीं रह 
					पाती... ‘‘कुछ भी कहिए चाची मुझे तरस आता हैं उस पर।’’
 
 चाची प्रश्न भरी निगाह से मुझे देखती हैं... ‘‘छोटी मशीन की 
					तरह रात-दिन काम में दौड़ती रहती है उसकी बात कर रही हो? अमृता 
					इस घर में अपनी जगह बनाए रखने का उसका अपना तरीका हैं। मुझे 
					मानना पड़ेगा कि उसने बहुत बुद्धिमानी से अपने आप को इस घर और 
					घर के लोगों के लिये उपयोगी बना कर अपना जीना आसान कर लिया 
					हैं...’’
 ‘‘नहीं मैं सिर्फ काम की बात नहीं कर रही चाची।’’ बहुत कोशिश 
					करने के बाद भी अपने स्वर को मैं आवेश से नहीं रोक पाती... 
					अपने अनजाने में, मैं जैसे छोटी की वकालत करने लगती हूँ, 
					‘‘इतने लोगों के बीच रहकर भी एकदम अकेली हैं वे... एकदम आपने 
					आप के अकेलेपन में जी रही हैं वे... एक अपराध की इतनी बड़ी सजा 
					चाची।’’ मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं।
 
 चाची मुझे तीखी निगाह से घूरती हैं ‘‘तुम क्या सोचती हो... 
					क्या चाहती हो कि मैं छोटी को बाहों में भर... सीने से लगा 
					दूसरी औरत होने के लिये उसकी पीठ सहला कर उसका दुलार करूँ?’’ 
					चाची की आवाज आवेश से काँपने लगती है, ‘‘बताओ अमृता मैं क्या 
					करूँ... या मुझे क्या करना चाहिए। मैं उसे चौबीस घंटों की 
					कम्पनी दूँ। उसे साथ लेकर गंजिंग करू... अपने और बंटी के साथ 
					घुमाने ले जाऊँ।’’ चाची की आवाज भर्राने लगती है, ‘‘यह मेरे 
					लिये संभव नहीं हैं... मैं नहीं कर पाऊँगी यह... मुझसे उतने की 
					उम्मीद रखना भी मत।’’
 
 चाची मुझे वैसे ही देखती रहती हैं। मैं अचकचा कर अपनी निगाहें 
					झुका लेती हूँ। मैं सच में नहीं जानती कि इस स्थिति में मुझे 
					क्या कहना चाहिए... मेरे पास चाची के सवाल का कोई उत्तर नहीं 
					हैं। चाची की आवाज काँपती सी लगती हैं- ‘‘तुमने कहा कि छोटी के 
					एक अपराध की इतनी बड़ी सजा। कैसा अपराध ? सच बात तो यह है कि 
					मैंने अमृता छोटी को कभी अपराधी नहीं समझा... मगर इस सच को 
					नहीं झुठलाया जा सकता कि वह मेरे जीवन में दूसरी औरत है ... और 
					सजा..., चाची कुछ देर सोचती रहती हैं, ‘‘सच कहो अमृता सजा क्या 
					मैंने नहीं पायी। दूसरी औरत के साथ एक घर में रहना... बहुत कुछ 
					देखकर, सुनकर अनदेखा... अनसुना करते रहना... सजा नहीं है क्या? 
					बोलो तो, मेरा अपराध क्या था ?’’ चाची चुप हो जाती हैं।
 
 ...और मेरे पास बोलने के लिये कुछ भी नहीं है। मैं मन ही मन 
					अपना सिर धुनती हूँ जैसे... मैंने... छोटी का प्रसंग क्यों 
					छेड़ा। चाची को कैसे समझाऊँ कि छोटी की वकालत में चाची से जो 
					कुछ कहा हैं उसमें मेरा आशय चाची पर आरोप लगाना... या किसी भी 
					तरह से उन्हें आहत करना नहीं था। चाची मेरे लिये बेहद आदरणीय 
					और बेहद-बेहद प्रिय हैं। उन जैसा बड़प्पन मैं सोच भी नहीं सकती। 
					पर कुछ भी कहने के लिये मैं शब्द नहीं जुटा पाती... खिसियायी 
					सी चुपचाप बैठी रहती हूँ।
 
 बड़ी देर तक हममें से कोई कुछ नहीं बोलता। चाची उठकर अलमारी में 
					से अपनी नाइटी निकाल कर बाथरूम की तरफ चली जाती हैं। थोड़ी देर 
					में बेसिन का नल खुलने की आवाज़ आती हैं... शायद चाची ब्रश कर 
					रही हैं। मैं जानती हूँ चाची अपने आप को स्वस्थ, सहज करने तक 
					का समय लगाएँगी। मैं बेचैन होने लगी हूँ... मेरे कुछ समझ में 
					नहीं आता क्या करूँ। अपने पलंग से उठ कर मैं चाची के पलंग के 
					बगल में नीचे कालीन पर बैठ अपना सिर चाची की पाटी से टिका लेती 
					हूँ।
 
 काफी देर बाद वे बाथरूम से निकली थीं... मैंने उनकी तरफ गरदन 
					उठा कर देखा था। मुझे लगा था मेरी आँखों का माफीनामा पढ़ा हैं 
					उन्होंने... वे धीमें से हँसी थीं। हाथ की शीशी से क्रीम निकाल 
					अपनी हथेली पर रख उन्होंने खुली शीशी मेरी तरफ बढ़ा दी थी... 
					‘‘अच्छा चलो सो जाओ अब’’ स्लिपर्स उतार कर वे पलंग पर बैठ गई 
					थीं... बहुत देर तक चुपचाप बैठी रही थीं... ‘‘भाग्य की दी हुई 
					सजा से बाहर निकलने का रास्ता इंसान को स्वयं निकालना होता है, 
					वे जैसे बुदबुदाती हैं, ‘‘छोटी को वह रास्ता निकालने में अगर 
					तुम उसकी मदद करना चाहोगी या करोगी तो मैं बुरा नहीं मानूँगी 
					और उस रास्ते में रुकावट नहीं बनूँगी। इतना विश्वास तो मुझ पर 
					कर सकती हो न अमृता।’’ चाची उस संवाद पर वहीं पूर्ण विराम लगा 
					चुपचाप लेट जाती हैं।
 
 मैं सन्न रह जाती हूँ। क्या चाची ने यह वाक्य सिर्फ एक बात की 
					तरह बोल दिया हैं या वह मुझे कोई राय देना चाह रही हैं।... 
					क्या कुछ इंगित कर रही हैं वे, मुझसे क्या आपेक्षित हैं?
 
 मैं देर रात तक सो नहीं पाती। मेरे मन में धीरे-धीरे एक निर्णय 
					पनपने लगता हैं। छोटी को जब सिर के ऊपर छत की ज़रूरत थी तब चाची 
					ने उन्हें इस घर में आश्रय देकर उनके साथ न्याय किया था। अब इस 
					घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का रास्ता और संबल मैं दूँगी 
					छोटी को।
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