मेरी उदासियों ने माँ को भी
चिंता में डाल दिया था लेकिन मैं क्या करती ? कुछ समझ नहीं आ
रहा था कि क्या हो रहा है नील मुझे बहुत चाहते है फिर भी मन का
एक कोना किरचा-किरचा सा रहता एक खालीपन जो किसी प्रयास
से भरता ही नहीं।
जब तक रही अभिधा आती रही लेकिन बार-बार पूछने पर भी मैं कुछ
बता न सकी हर सवाल का एक ही जवाब होता, ‘अच्छी हूँ सब
लोग बहुत अच्छे है बहुत खुश हूँ।’ मुझे मायूस देख कर कुछ देर
जानबूझ कर इधर -उधर की बातों से हँसाने की कोशिश करती लेकिन
इच्छानुरुप कुछ परिवर्तन न देख आप ही थक हार कर चली जाती एकांत
में उसके साथ किये अपने व्यवहार पर पछतावा होता लेकिन मन उन
उदास गलियों की पहचान न कर पाता।
कुछ दिनो बाद ससुराल लौट आई जीवन मंथर गति से चलता जा रहा था
काम करते-करते नजरें कही ठहर जाती
मन कुछ का कुछ सोचने लगता।
पुराने दिन,
वो चंचल उम्र जब चारों तरफ उमंग ही उमंग नजर आती थी मन की खुशी
तो जैसे छलक पड़ने को आतुर ही रहती, हो भी क्यों नहीं दिखने में
मैं बेहद सुंदर, गोरी सहेलियों की टोली की दुलारी थी ही पढ़ाई,
खेल और दूसरी गतिविधियाँ भी मेरे बिना पूरी न होती थी कॉलेज
में लड़कों की प्रशंसात्मक नजरें भी छुपी नही रहती थी लेकिन मन
तो अपने राजकुमार के इंतजार में रहता सोचती इतनी प्रतीक्षा
क्यों करा रहा है? झट से सपनों की चाँदनी की ओट से निकल सामने
निकल क्यों नहीं आता वो काल्पनिक सौम्य, शालीन चेहरा कहीं गहरे
तक पैठ चुका था मेरे मन में। ये एकाकीपन खोयापन किसी की आवाज
से भंग होता जब घर का कोई भी सदस्य अकेले में मुझे मुस्कुराता
देख कर अचंभित होता मैं झेंप जाती लेकिन वो तो ठगा ही रह जाता
कि मैं होश में होती हूँ तो कभी मुस्कुराती नहीं फिर ये
मुस्कुराहट कैसी?
वर्तमान में मुझे ऐसा कुछ
नजर न आता वही दिन, वही काम एक सी बोझिल उत्साहहीन, उमंगहीन
दिनचर्या लेकिन अतीत की गलियाँ मुझे रगं बिरंगी लगती जहाँ मैं
अक्सर भटकती रहती कही थाह न मिलती कहाँ टूटा है, क्या कमी है
कुछ समझ न आता नील दुकान जाने के लिये तैयार होते तो उदास सी
एकटक देखती आँखें भले नील पर रहती लेकिन मन उसका चेहरा लेकर
अतीत में घुसपैठ करता उन बीते सपनो में उसका चेहरा
प्रतिस्थापित कर खुश होता लेकिन इसकी परिणति डबडबाई आँखों से
होती क्षण भर में वर्तमान में आ इधर-उधर तकने लगती नील चिंतित
से होकर मेरा चेहरा हाथों में लेकर परेशान दिखाई देते लेकिन
मैं काम का बहाना कर वहाँ से हट जाती फिर बालकनी में खड़ी होकर
नील को स्कूटर पर जाते हुए देखती
और धीमे कदमों से अंदर आती
नील, शर्ट कमर पर पैंट के बाहर रखते मैं उन्हें आकर्षक युवकों
की तरह शर्ट पैंट में डाल कर रखने को कहती लेकिन वो कहते नहीं
दुकान में सामान उतारते हुए अंदर शर्ट ठीक नही रहता फिर क्या
फर्क पड़ता है इससे लेकिन मुझमें न जाने इतनी छोटी सी बात
से क्या दरक जाता नील चले जाते मैं उन्हें तकती रहती
रात तक लौटते तो तेल, हल्दी, गुड़, धनिया की मिली जुली गंध से
गंधाए हुए बातें भी सब्जी इतनी बिकी, तेल खतम होने को है, गुड़
तो आजकल बहुत कम निकलता आदि आदि सुनकर कान बंद करने का मन करता
उफ! ऐसी बातें क्यों करते हैं ये ? दूसरी कोई भी बात नही कर
सकते राजनीति, ज्ञान, दुनिया में हजारों हजार विषय पड़े है
लेकिन इनके लिये किरानी और किराणा दुकान ही सब कुछ है
कभी खाना खाते कहते ‘माँ! दुकान में नयी मिर्ची आई हुई है कल
ले आँऊगा ये जरा पुरानी हो गई है।’ तो लगता जैसे उठ जाऊँ
नील इससे ऊँचे दर्जे की कोई दूसरी बात करे, ऐसी मन ही मन कामना
करती।
जीने का जैसे उत्साह ही चुकता जा रहा था शादी के दिनो में
कितनी खुश थी मैं मन की खुशियाँ जैसे मेरे इर्द-गिर्द फूल से
बिखेरने लगी हो सुन्दर पति होगा, अच्छा घर, बढ़िया नौकरी पति जब
बन-ठन कर ऑफिस जाएगें तो मैं भी सज -सँवर कर उन्हें छोड़ने बाहर
तक जाऊँगी और जब तक ओझल न हो जाएगें हाथ हिलाते उन्हें ही
देखती रहूँगी।
नील सुबह आठ बजे ही निकल पड़ते है पहले स्कूटर धोते फिर उसे
चालू करने की मशक्कत करते कई्रं बार तो साइकिल की तरह
दौड़ाते और चालू होने के बाद उस पर चढ़ते ये दृश्य मुझसे देखा न
जाता उस आवाज से बचने लिये स्नान घर में जाकर नल पूरा खोल देती
और दीवार से सिर टिका कर कुछ सोचने लगती उस आवाज तले
स्कूटर की घर्रर्र-घर्रर्र दब जाती बहुत बाद दरवाजा खोल कर
बाहर आती सोचती अब वेा आवाज नहीं आएगी तभी हाथ में पेचकस और
दूसरे छोटे मोटे औजारों के साथ दिखाई देते यानि अब
मिस्त्रीगिरी भी की जायंगी सिर झुकाए मैं काम में जुट जाती
इतनी तल्लीनता से कि बाहरी दुनिया की आवाजें मुझ तक न पहुँचे
मेरी हरदम उदासी देख दो-तीन बार डॉक्टर को भी दिखा
आए लेकिन
कहीं कुछ दिखाई देने वाली बात होती तो पकड़ में आती न?
उस दिन कॉलेज की सहेलियाँ मुझसे मिलने आई देखते ही छाती धक् रह
गई खुशी की बजाय माथे पर पसीना चू आया खिलखिलाती तितलियाँ इस
आशा से चुपके से घर में प्रविष्ट हुई कि अचानक सब प्यारी
सहेलियों को सामने पाकर मैं झूम उठूँगी लेकिन एकदम विपरीत
देखकर उनका उत्साह भी सोडा के बुलबुले की भाँति बैठ गया यह सब
मैंने जाना लेकिन पोल खुलने का डर खुशी पर ज्यादा हावी हो गया
...लेकिन कैसी पोल? अपने आपसे पूछा मैंने कहाँ कमी है ?
और देख रही हूँ मेरी सहेलियाँ कैसे सासू माँ से घुलमिल कर
बातें कर रही है एक बार मेरा रंग उड़ा जान चौंकी अवश्य कितु इन
तितलियों ने कितनी जल्दी वातावरण को एकदम ही रंग-बिरंगा,
हल्का- फुल्का बना दिया छोटे देवर -ननद से ऐसे हिल- मिल गई है
जैसे कब से ही जानती हो कोई घर देख रही है, कोई्र सासू माँ की
बनायी मठरी की तारीफ कर रही है, कोर्इ्र छोटे देवर को गोद में
उठा उसको अपने बचपन की हिन्दी कविता सुना रही है देखकर मन कुछ
हल्का हुआ सोच कर तसल्ली हुई और मैं धीरे-धीरे उनमें घ्ुालने
का प्रयास करने लगी कुछ ही देर में मन की कड़वाहट दब गईं
हँसी ठिठोली में मुझे ध्यान ही न रहा कि सासू माँ चाय की ट्रे
लिये एकटक मुझे देख ही देख रही है,
‘‘बहुत अच्छी है तुम्हारी सहेलियाँ नीति ! ओैर नीति तो बहुत ही
अच्छी बहू है जब से आई है घर रोशन हो गया हम तो इसका
हँसता चेहरा देखते ही खुश हो जाते हैं।’’
कहते-कहते सबको चाय दी लेकिन मैंने चौंककर उन्हें देखा और
अपराधबोध से मेरा सिर झुक गया तभी किसी ने सिर पर हाथ फेरा,
देखा सासू माँ ही हैं उस स्पर्श में जाने क्या था कि मन भर आया
थूक गटक-गटक कर आँसुओं को रोकने की सफल कोशिश की।
‘‘नीति तुम्हारे घरवाले तो बहुत अच्छे है इतनी ममतामयी सास
कहाँ मिलती है ? हमें तो सास के नाम पर ताने मारती फिल्मी सास
ही नजर आती है ये तो एकदम अपनी माँ सी ही है।’’
शालू ने गंभीर बात को हल्का रुख देकर फिर गहरे अर्थ पर खतम की
तभी जूही चहकी,
‘‘और देख घर कितना अच्छा हैं वैसे भी घरवालों से
घर अच्छा होता है निष्ठुर घरवाले हो तो महल भी मिट्टी है नहीं
तो देख तेरी अच्छी सास के साथ एक घंटा रहकर हमें ऐसा लगा जैसे
किसी मंदिर में बैठे हैं।’’
मन के घने बादल कुछ छितराने लगे तभी घड़ी देख कर दिव्या ने
इशारा किया और सब खड़ी हो गई जाने के लिये जाते-जाते जूही ने
मेरे हाथों को अपने हाथ में लेकर कहा,
‘‘ बहुत अच्छा है नीति! तेरा ससुराल सुख ,शांति जो दूसरी
भौतिक सुविधाओं से कहीं बढ़कर है इसे सँभाल कर रखना तुम्हें भी
सब कितना मानते है जीजू भी तुम्हें बहुत चाहते हैं ...मेरा मतलब
है... चाहते ही होगें सबके साथ अपना भी ध्यान रखना।’’
कहकर वह हाथ छुड़ाकर चली लेकिन मैं उसे अचंभित सी देखती रह गई
ऐसा लगा जैसे वो कुछ देखने आई थी और ‘सब
कुछ ठीक’ की तसल्ली कर के जा रही हो वो चली गई लेकिन मैं न
जाने किन विचारों में गुम गई।
कुछ दिनों से देखती हूँ कि सुनील दुकान से थोड़ा जल्दी घर आ
जाते है कबाड़ कमरे में पड़ी अपनी पुरानी किताबों में जा बैठते
और कुछ किताबें झाड़-पोंछ कर एक तरफ रखते जाते कुछ ही
दिनो में किताबों का एक बड़ा जत्था कमरे में स्थान पा गया जिस
पुरानी पढा़ई की मेज पर इस्त्री के कपडे़ रहते थे वहाँ फिर से
किताबें स्थापित हो गई शाम को थोड़ी देर बातें करते,
हँसते-हँसाते और लाड़ से मुझे सुलाकर खुद न जाने क्या पढ़ते फोन
पर भी अक्सर किसी से पढ़ाई-परीक्षा की ही बातें करते पूछने पर
कुछ भी न बताते मैं ऊहापोह में फँसी कुछ समझ न पाती सारा
माजरा समझने की कोशिश करती लेकिन उतनी ही असफल होती आखिर मैंने
खुद को समय के हवाले कर दिया सब घर वाले अब अधिकाधिक मेरा
ध्यान रखते मैं भी लगभग खुश ही रहती लेकिन कभी-कभी वही बात
हावी हो जाती और मैं खिन्न हो जाती कुछ दिनों के लिये नील ने
दुकान पर जाना कम कर दिया अधिकतर अपने दोस्त के यहाँ रहते कहते
दूसरा नया काम मिला है सोच रहा हूँ पहले उसके बारे में सीख लूँ
फिर ही वो काम शुरु करुं केवल सुबह-सुबह नहाने-धोने और सबसे
मिलने आते खूब-खूब प्यार करते मुझे मैं शिकायत करती कि मुझे
ऐसे अच्छा नहीं लगता को कहते बस कुछ दिनों की बात है बस फिर सब
ठीक हो जायेगा अपने लिये उनकी आँखों में असीमित प्रेम देखकर
निहाल हो जाती लेकिन ‘सब ठीक हो जायेगा’ वाली बात समझ न आती।
दो-तीन महीनों बाद एकाएक वो पहले की तरह घर पर रहने लगे और
नियमित रुप से दुकान जाते एक आदमी और रख लिया था दुकान पर इससे
क्या समझती? अचानक एक दिन घर वापस लौटे तो थामा हुआ अखबार
खोलाकर एक समाचार पर अंगुली फिराई समाचार था ‘पुलिस उप
निरीक्षक का परीक्षा परिणाम घोषित।’ मैंने धड़कते दिल से प्रश्न
वाचक नजरों से उनकी आँखों में झाँका तो उन्होंने इशारे से फिर
अखबार में देखने को कहा देखा। एक रोल नंबर पर पैन से गोला बनाया हुआ
था मैंने कहा तो उससे क्या?
‘‘एक बात कहूँ? ’’ गंभीर होकर उन्होंने जैसे ही कहा, उत्सुकता से मेरी
धड़कनें बढ़ गई, ‘‘तुम जल्दी ही सब इंसपेक्टर
की पत्नी कहलाओगी।’’
मैं आँखें फाड़े कभी अखबार को, कभी इनको देखती खुशी, क्षोभ,
पश्चाताप से भरी रो पड़ी। अब तक की मेरी
पीड़ा, अवसाद, शर्मिंदगी सब कुछ आँसुओं में बहने लगी अचानक एहसास
हुआ मेरे कारण सभी परेशान थे इतने दिनों तक मैं सबकी परेशानी
का कारण बनी रही लेकिन किसी ने मुझे इसका एहसास भी न होने दिया
मेरे आने के बाद शायद घर का संतुलन बिगड़ गया था।
सोच कर ही अपराधबोध से भर उठी
‘‘मुझे माफ कर दीजिये मैं मैं .बहुत बुरी हूँ , आपको खुश
नही रख सकी अपने में ही उलझी रही , आपके प्यार को भी समझ
न सकी .लेकिन मुझे बताइये आप अचानक दुकान छोड़कर पढ़ाई कैसे करने
लगे थे ?’’
‘‘तुम्हें बड़े ऑफिसर से पति की कामना थी ना!’’
ऐसा लगा जैसे आत्मा के अंदर धँसी बात को नील ने खींच कर मेरे
हाथ में धर दिया हो आश्चर्य, विस्मित सी इन्हें देखने लगी कि
इन्हें कैसे पता चला? मेरे भीतर की सुगबुगाहट को तो मैं भी
कुछ नाम न दे पाई इनको कैसे भनक पड़ी? फिर तो इनकी आँखों का
सामना करने की मुझमें ताब न रही।
‘‘अरे! घबराओ मत कोई पहाड़ नही टूट पड़ा सुनो सब
बताता हूँ तुम्हें। याद है हम साइकेट्रिस्ट के पास गए थे उसके बाद
दो- तीन बार और बुलाया था चौथी बार उन्होंने मुझे अकेले ही
बुलाया था मैंने तुम्हारे पूरे व्यवहार और मनोस्थिति के बारे
में विस्तृत चर्चा की थी सारे विचार विमर्श के बाद हम इस
निर्णय पहुँचे थे कि तुम्हें सुन्दर, सौम्य अफसर पति की चाह थी
सगाई के दिनो में मैं सी.ए. कर रहा था लेकिन बाद में मुझे
पिताजी की बीमारी के कारण न चाहते हुए भी पढ़ाई छोड़ दुकान
सँभालनी पड़ी तुम्हारे मन में मेरी सी.ए. वाली छवि पैठ गई थी
यही मन में लिये तुम इस घर में आई थी मैं देखता था तुम
शुरु-शुरु में तो बहुत खुश रहती थी मेरे दुकान आने-जाने
को तुम ‘ऑफिस से कब आओ्रगे ? ऑफिस से जल्दी आना’ यही कहती थी
लेकिन मैं यही समझता था कि तुम यूँ ही कहती होगी
धीरे-धीरे तुम्हें पता चला होगा कि मैं किसी ऑफिस नही बल्कि
किराणा की दुकान जाता हूँ तो तुम्हारा दिल टूट गया होगा, सपने
बिखर गए होगें...’’ मैं भौचक्की सी पति को बस ठगी सी देखती रही
जिसने मेरे हदय में उतर कर मुझसे भी अधिक मुझको पहचान
लिया।
‘‘...सचमुच नीति मैं सोचता ही रहता कि तुम्हें एकाएक ये क्या हो
गया झरने सी खिलखिलती मेरी नीति गुमसुम कैसे रहने लगी
माँ से कहा तो उन्होंने तुम्हारा ज्यादा ध्यान रखना शुरु किया
तुम्हारा उदास चेहरा मुझसे देखा न जाता तुम्हें बहलाने की
कोशिश करता लेकिन तुम्हारे मन में जाने कौन-सा काँटा था जो मेरे
इतने प्यार के बावजूद न निकला फिर मै अभिधा से मिला उसने भी
यही सवाल किया मैं क्या कहता? मैं तो खुद उलझन में था उसने
तुम्हारे कॉलेज की बातें बताई तो मुझे तुम्हारे मन की सही
स्थिति का भान हुआ फिर हमने तुम्हारी सभी सहेलियो को तुम्हारे
पास भेजा जिससे कहाँ कमी है वो एक लड़की के नजरिये से बल्कि
लगभग तुम्हारे नजरिये से देख सके माँ से, सब घरवालों से
मिलकर पूरी तरह सन्तुष्ट हो कर गई बस तुम ही खोई सी थी
तब मुझे विश्वास हो गया कि कमी मुझ में ही है और उसके बाद कई
छोटी -छोटी घटनाएँ याद आई नतीजा यह निकला कि मुझे मेरी नीति के
लिये चाहे कुछ भी करना पड़े करुँगा पर नीति का मनचाहा अवश्य
बनूँगा उसे वैसे ही वापिस खिलखिलाता देखना जैसे मेरी जीवन का
लक्ष्य बन गया। देखता था कि तुम सबसे घुलने - मिलने का प्रयास
करती कभी किसी को शिकायत का मौका न देती फिर तो मैंने
ठान ही लिया कि कुछ बनना है। सी. ए. की पढ़ाई तो वापिस संभव
नहीं थी सोचा दूसरी प्रतियेागी परीक्षाओं में ही सफल होकर
तुम्हारे सपने को सच करुँ इस काम में परिवार का
पूरा सहयोग रहा और दोस्त के यहाँ मैं काम सीखने नहीं बल्कि
पढ़ने जाता था बस! परिणाम तुम्हारे सामने है...’’
नील ने
मेरी ओर देखा। मेरे पास आँसुओं की लड़ियों के सिवा कुछ न था...वो
नासमझ सहेलियाँ कितनी समझदार निकली और...माँ-पिताजी, नील की
अच्छाई को बखान करने के शब्द ही नही थे...सोनू-मानसी जो कोई बात
बताए बिना चैन न पाते थे वो इतनी बड़ी बात कैसे पचा गए। एक ही
वाक्य मेरे मुँह से निकला, ‘‘मुझे
माफ कीजिये।’’
लेकिन नील बोले, ‘‘मुझे तो तुम्हारा शुक्रगुज़ार होना चाहिये कि
तुम्हारे प्रेम के बल पर यह काम कर पाया नहीं
तो हमेशा वैसा ही
रह जाता।’’
‘‘फिर भी आप जैसे सज्जन, स्नेहशील घरवालों के बीच रहते हुए भी
ओहदे जैसी तुच्छ चीज के पीछे भागती रही मैं इसका मुझे बहुत दुख
हो रहा है, लेकिन ये सोच कर सन्तुष्ट हूँ कि ये सब नही होता तो
आप सबके मेरे प्रति असीमित प्रेम को मैं कभी जान न पाती...’’
कहकर मैं अपनी प्यारी सासू माँ, पिताजी और ननद-देवर की ओर दौड़
पड़ी मन के हर कोने से कोहरा छँटते ही जैसे प्यार, अपनत्व, संतोष की सुहानी धूप किलक पड़ी। |