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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से किरन राजपुरोहित नितिला की कहानी— छँटा कोहरा


‘‘कॉलेज से आते ही माँ ने जैसे ही खबर दी कि नीति आई हुई है तो जैसे मुझे तो पर ही लग गए। सीधी तुझ से मिलने चली आई...और बता न कैसी है तू....सब लोग कैसे हैं...’’ चहकते हुए अभिधा ने बोलना शुरु किया लेकिन बात पूरी न हुई उससे पहले ही उसे ये एहसास भी हो गया कि मेरे चेहरे पर वो खुशी नहीं प्रकट हुई जो कि उसे देखने पर होती थी । वो भी एकाएक बुझ सी गई। एकटक देखते हुए सोचने लगी कि क्या बात है?

‘‘नीति क्या हुआ? इन आठ महीनों में ही तूने क्या हालत बना ली। नई शादीशुदा लड़कियाँ भला ऐसे मुरझाती कब है? उनकी खुशी तो सँभाले नहीं सँभलती है। तुझे क्या हुआ बता न! मेरा दिल बैठा जा रहा है सब ठीक तो है ना।’’

अभिधा ने मेरा हाथ पकड़ गहरे अपनत्व से अपनी आँखों में मेरी पीड़ा लेने की कोशिश की लेकिन मैं क्या बताती? कुछ भी तेा नहीं था। लेकिन मन इस बात से सहमत न हुआ। कुछ तो था जो बहुत था और अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।

‘‘अरे! अभिधा आ गई ,बहुत अच्छा किया। अब तू ही सँभाल अपनी प्यारी सहेली को। इतने दिनों बाद मायके आई है। लेकिन चेहरे पर खुशी ही नही दिख रही। आई तबसे-गुमसुम-है, तू-ही-कुछ-पूछ, मैं-तो-पूछ-कर-हार-गई।’’ नीति की माँ ने कहा।

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