दीपाली
और गीता लगभग तीस बरस पश्चात सुयोग से कोलकाता में मिलीं। वैसे
दोनों का शैशव एवं कैशोर्य साथ ही बीता। यौवनावस्था की दहलीज
पर भी दोनों अंतरंग सखियों ने संग-संग ही पाँव रखा था। दोनों
अनेक खट्टी-मीठी स्मृतियों में समान भागीदार थीं।
गीता गाजियाबाद में दीपाली के पुश्तैनी विशाल बँगले से सटी
शरणार्थियों की बस्ती में रहती थी। दीपाली के माता-पिता दोनों
ही सुप्रसिद्ध चिकित्सकों में थे और गीता का परिवार बँटवारे
में सब कुछ गँवाकर शरणार्थी बन भारत आया था। उसके चाचा और पिता
वगैरह कपड़े आदि का व्यापार जमा रहे थे। पारिवारिक स्तर,
बौद्धिक एवं सामाजिक दृष्टि से भिन्न होने पर भी दोनों की
घनिष्ठता उदाहरण ही थी।
व्यस्त माता-पिता की इकलौती पुत्री के एकाकी सूनेपन को गीता की
जीवंतता ने भरा था। कई बार वह उसके घर जा कर मक्की की गरम-गरम
रोटी और सरसों का साग खाकर आती। गीता का परिवार दीपाली के
देखते-ही-देखते दिल्ली-गाजियाबाद के सुप्रसिद्ध कपड़ा
व्यापारियों में से एक हो गया था।
जहाँ दीपाली की दादी माँ अभावहीन जीवन में भी छोटे-छोटे
दुःख-दर्द ढूँढ़ कुछ-न-कुछ रोना रोती ही रहती थीं, वही गीता की
कर्मठ दादी—जिन्होंने विभाजन में अपने पति एवं ज्येष्ठ जवान
पुत्र को खो दिया था—दर्जनों आभावों में भी भावी अभाव-रहित
जीवन की कल्पना कर प्रसन्न होती रहतीं। सच पूछो तो उन्हीं के
कारण गीता एवं दीपाली की मैत्री-डोर बँधी हुई थी। गीता की दादी
दीपाली की दादी का हाथ बँटाने प्रायः ही आती रहती थी। दीपाली
के पितामह आदि ने इस शरणार्थी परिवार की वक्त-बे वक्त खासी मदद
की थी। गीता का परिवार इस बात का एहसान भी नहीं मानता था।
दोनों की मित्रता हमजोलियों की आँखों की किरकिरी तो थी ही,
अध्यापिकाएँ भी अचरज करती थीं। कहाँ तो सदैव पढ़ाई-लिखाई में
अव्वल रहने वाली कोमल, सभ्य, सुसंस्कृत, मृदुभाषी छात्रा
दीपाली और कहाँ खेल-कूद, रस्साकशी, दौड़ आदि में अव्वल आने
वाली और ग्रेस नंबरो से उत्तीर्ण होने वाली छात्रा गीता, जो
सुंदर गोरी होते हुए भी कठोर सुगठित देह-यष्टिवाली थी।
गीता ने घिसट-घिसटकर बारहवीं परीक्षा उत्तीर्ण की। दोनों
सखियाँ कालेज गईं और गीता ने बी.ए. प्रथम वर्ष में ही लुढ़ककर
पढ़ाई लिखाई छोड़ कर कुकिंग एवं सिलाई-कढ़ाई की कक्षा जॉइन कर
ली। धीरे-धीरे गीता का परिवार दिल्ली के साउथ एक्सटेंशनवाली
कोठी में ही जाकर रहने लगा था। कभी-कभी जब गीता मिलने आती तो
दीपाली उसे कम-से-कम ग्रेजुएट करने की सलाह देती। इस पर गीता
हँस कर कहती, ‘‘यार, पढ़ना-वढ़ना क्या है ! पापाजी बिजनेसवाला
मुंड् ढूँढ रहे हैं तो वही कौन सा ग्रेजुएट होगा। बस ठीक-ठाक
काम-काजवाला हो तो मैं उसकी बीवी बन सारी जिंदगी ऐश करूँगी।’
और एक दिन गीता की डोली सज भी गई। पंजाब के एक खाते-पीते
परिवार में उसका रिश्ता तय हुआ था। गीता की विदाई में भावुक
दीपाली फूट-फूटकर रोई तो गीता ने ही उसे चुप कराते हुए कहा था,
‘न रो, न, कुछ आँसू अपनी विदाई के लिए बचाकर रख।’ और दोनों
सखियाँ खिलखिलाकर गले लग गईं।
गीता ब्याही गई, परंतु उसके ब्याह की उमंग, रौनक और धूमधाम की
अशुचिता दीपाली को भी लग गई। उसका कोमल हृदय भावी सपनों के
राजकुमार के सपने दिखाने लगा था; परंतु दीवाली के माता-पिता तो
उसे डॉक्टर बनाने पर तुले हुए थे।
दीपाली माता-पिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरी, लिहाजा एम.एस-सी.
बायो-केमेस्ट्री कराकर डॉक्टर साहब को ब्याह दी गई।
गीता आसन्न प्रसवा होते हुए भी अपने हँसमुख गोल-मोल,
गोरे-चिट्टे आनंदी पति देव और दो वर्षीय पुत्र को गोद में लेकर
उसके ब्याह में सम्मिलित होने आई थी। उसकी जुबान पर बस अपने
पति चोपड़ा साहब का ही नाम था और चोपड़ा साहब दिलोजान से गीता
पर फिदा थे।
जाते-जाते उसके आँसू पोंछते-पोंछते गले मिलकर बोली, ‘‘आखिरकार
बन ही गई तू डॉक्टरनी। देखें, अब कब मिलना होता है।’’
वही इन दोनों अंतरंग सखियों की अंतिम भेंट थी और उसके पश्चात्
तीस वर्ष न जाने कहाँ हवा हो गए। दीपाली पंद्रह वर्षों तक तो
विदेशों में ही धूमती रही। जब भी मायके जाती तो विस्मृत मित्र
परिचितों के समाचार मिल ही जाते। इसी दौरान ज्ञात हुआ कि गीता
के पति ने कोलकाता में व्यापार जमाया, जो खूब फूल-फल रहा है,
वगैरह-वगैरह।
दीपाली की दोनों बेटियाँ पढ़ लिख कर ब्याही गईं। उसके पति ने
भी विख्यात हृदय चिकित्सक बन काफी नाम कमा लिया था और सुयोग
कुछ ऐसे बने कि दीपाली के पति को कोलकाता के एक प्रसिद्ध
अस्पताल के प्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ का प्रधान पद मिला और
अंततः दोनों सहेलियों ने एक-दूसरे को ढूँढ ही लिया।
दीपाली को आज
भी याद है—एक वर्ष पूर्व की भाद्रपद की स्वेद बिंदुओं से
ओत-प्रोत, प्रखर रवि रश्मियों से आप्लावित वह दोपहरी। मध्याह्न
के दो बजे थे। वह अस्त-व्यस्त, हैरान-परेशान अपने अकर्मण्य
परिचरों से पैकिंग खुलवा सामान व्यवस्थित करा रही था कि देखा,
एक भरी-पूरी गत यौवना, कर्तित केश, रंग पुते मुखड़े, भारी
जेवरात एवं आधुनिक पतली शिफॉन की चमकीली साड़ी में दहलीज पर आ
खड़ी हुई। साथ में फलों और मिठाइयों के टोकरे थे। दीपाली
सकपकाकर भीतर खिसकने का प्रयत्न कर रही थी कि आगंतुका गले से
लिपट गई।
‘‘अरे, शरमा क्यों रही है ? मुझे तो पैल्ले से ही पता था कि तू
मुझे इसी गत में मिलेगी। तेरा साफ-सफाई का नशा ही ऐसा है।
चेहरा चाहे चमके या न चमके, घर जरूर चमक जाना है। चल,
कपड़े-वपड़े बदल। सूरत ढंग की कर, फिर बातें होंगी।’’
‘‘अरे गीता, तू !’’ दीपाली ने गीता की नॉन स्टाप सुपर फास्ट को
तुरंत विराम दिया।
‘‘हाँ, मैं ! बड्डे आदमी की मैडम है तू तो, अखबारों में फोटो
सहित समाचार पढ़ा और समझ गई कि डॉ. पौलुत्य वर्मा और कोई नहीं,
मेरी सहेली के ही श्रीमानजी हैं। इतना कठिन नाम और किसी का हो
ही नहीं सकता। याद हैं न, इस नाम का शादी में मैंने कितना मखौल
उड़ाया था।’’
तीस वर्ष का अंतराल अंतरंगता को और भी प्रगाढ़ बना गया था।
दोनों सखियों की मैत्री की डोर दोनों के पतियों ने भी थाम ली
और दोनों परिवारों के पारिवारिक संबंध बन गए। गीता एवं चोपड़ा
साहब उन दोनों का बहुत ख्याल रखते।
रात के खाने पर दीपाली अपने पति को भोजन परोसते हुए बोली,
‘‘गीता का फोन आया था, करवाचौथ का बता रही थी।’’
‘‘अरे हाँ, गीता का नाम लेने से याद आया कि चोपड़ा साहब आए थे
चेकअप कराने। सब ठीक है, बस परहेज करें और लम्बी सैर करें। फोन
करो तो बता ही देना।’’
करवाचौथ से एक दिन पहले रात्रि को दोनों पति-पत्नी रात्रि भोज
के लिए बैठे ही थे कि धड़धड़ाते हुए गीता और चोपड़ा साहब आ
धमके। दोनों सरगई लेकर आए थे।
‘‘वाह भाभीजी, यह तो आपने बहुत अच्छा किया। आपकी सहेली रानी तो
हमें यही ताने-उलाहने दे रही थी कि परदेश में तो कोई सरगई देने
वाला भी नहीं है।’’ डॉक्टर साहब प्रसन्न हो बोल उठे।
‘‘ल्ये भैन की याद नहीं आई। भैन लगती हूँ तेरी उम्र में तुझसे
कुछ बड़ी ही निकलूँगी।’’ गीता की बात सुन दीपाली अभिभूत हो
उठी।
‘‘लीजिए चोपड़ा साहब, रिपोर्ट लीजिए अपनी। सब ठीकठाक है, बस
परहेज और सैर लंबी करिएगा। भाभीजी यह आपकी ड्यूटी है।’’ डॉ.
वर्मा ने अपनी ड्यूटी निभाई।
‘‘परहेज न सुआ कि परेज कराऊँ, सुक्खी रोट्टी तो साड्डे गले विच
फसेंदी है। और मरे इस कलकत्ते में जब तक सो के उट्ठो तो धूप ही
निकल आती है।’’
गीता के साथ डॉक्टर साहब की मीठी नोक-झोंक सदा की भाँति चल रही
थी और चोपड़ा साहब सदा की भाँति नाश्ते पर टूटे हुए थे।
गीता ने जैसे-तैसे उन्हें उठाया, ‘‘अब चलिए भी, कल सुबा जल्दी
भी तो उठना है। अच्छा दीपा, मैं चली, तू सरगई टैम से कर कल
जल्दी घर आ जाना, जरा सज-धज के ।’’
दूसरे दिन गीता के निर्देशानुसार दीपाली मध्याह्न दो बजे ही
गीता के घर पहुँच गई। विशाल हॉल धवल चाँदनियों, बालिशों एवं
बेलफूलों की लड़ियों से लकदक कर रहा था।
यह सजावट तो औपचारिक ही थी वरन् गीता के घर की उष्णता ही
अतिथियों को सहज कर देती थी।
गीता दीपाली को देखकर खिल उठी, परंतु सदा की आपादमस्तक
शृंगारिका गीता आज हलके मेकअप, हलकी-फुलकी साड़ी में बड़ी फीकी
सी लग रही थी। वैसे भी गीता थकी-थकी और बीमार-सी ही दिख रही
थी।
कल तो सरगई देने आई तो ठीक ही थी। अब लगता है, व्रत का प्रभाव
है। चोपड़ा साहब की भक्त गीता ने एक घूँट पानी, चाय, कॉफी कुछ
नहीं पिया होगा, जबकि रक्तचाप और शुगर की दवाइयाँ भी वह ग्रहण
कर रही थी।
‘‘यह क्या गीता, मुझसे तो बोल रही थी कि लाल बनारसी पहनकर आना
और स्वयं क्या शृंगार किया है तूने !’’ दीपाली रुष्ट सी होकर
बोली।
‘‘ठीक है, ठीक है। अब पिंकी के सजने-धजने के दिन हैं।’’ गीता
झेंपकर बोली।
‘‘अच्छा-अच्छा, पहन ले, पहन ले जब तक बहू नहीं।’’ दीपाली को
गीता को छेड़ने में ही आनंद आ रहा था।
‘‘तूने तो बड़ा इंतजाम कर लिया।’’
‘‘हाँ, भई, पहले दोनों बहुओं के वक्त भी किया, पर क्या सिला
मिला। दोनों बड़े बेटों पर जितना मैंने और चोपड़ा साहब ने
ध्यान दिया उतना शायद ही कोई ध्यान दे पाए। उनके टेस्ट होते तो
किट्टी-शिट्टी सब छोड़ देती। पढ़ाई, कोचिंग में दिन-रात को एक
कर देती है। खैर, उन दोनों ने भी हमें निराश नहीं किया। बड़ा
बना आई.आई.टी. इंजीनियर और छोटा बना डॉक्टर। पर फिर क्या, बड़े
ने निकलते ही बंगाल की जादूगरनी ब्याह ली और छोटा एम.डी. करने
वास्ते लंदन क्या गया उसे वहाँ की डायना ने ही उड़ा लिया।
दोनों ही बाहर बस गए। तुझे तो पता है न कितना बड़ा त्योहार है
यह हम लोगों का ! मेरा शुरू से ही दिल करता था कि पंजाब सोहणी
कुड़ी आए और साथ-साथ सरगई करें। चन्न चणे तो पाणी पिएँ, पर
बड़ी बंगालन ने तो मछली चाप खाकर सरगई की माछी झोल खाकर व्रत
खोला। दूसरी को खास दीपावली और करवाचौथ के वास्ते बुलावाया
गया। पाँच फीट आठ इंचवाले मेरे बेटे की छह फीट की अंग्रेजन को
देखने सारी सोसाइटी इकट्ठी हुई। करवाचौथ पर बनारसी साड़ी पहना
सजा-धजा थालियाँ बंटाने बैठाया तो बड़े चाव से बैठी; लेकिन
साड़ी एक ओर तथा थाली लोटा दूजी ओर। और जानती है, मैडम ने
ब्लाउज व पेटीकोट में ही जैसे-तैसे अर्घ्य दिया।’’
गीता के सुनाने के ढंग से ही दीपाली हँसते-हँसते दोहरी हो गई।
‘‘अब चन्न चणे ते पाणी क्या पीना था, जब सारे दिन सोमरस के
घूँट पीती रही थी। उसके बाद से तो आई नहीं।’’
‘‘ठीक है गीता, अब आ गई न तेरी मनपसंद बहू।’’
‘‘हाँ, वैसे तो पहले दोनों का हश्र देख तीसरे को मैंने ज्यादा
पढ़ाया ही नहीं। बी.काम. करते ही बिजनेस में लगा दिया। ऐसा
बढ़िया चला रहा है कि चोपड़ा साहब भी दंग हैं। आज्ञाकारी भी
बहुत है। पिंकी भी खूब अच्छी है; पर देखो आगे क्या बनता है। अब
सरगई भेजी थी, सुना है सोत्ती ही रै गई, खाई नहीं।’’
गीता ठंडी साँस भरकर बोली।
‘‘भेजी थी मतलब तुम सबने साथ बैठ कर नहीं खाई ?’’
‘‘अब क्या बताऊँ...’’ वह अपनी बात पूरी कर पाती कि तभी कोलकाता
में ही रहने वाली उसकी रिश्ते की ननद आशाजी सिर से पाँव तक
गहनों, कपडों से लकदक, स्थूल काया साथ में दुबली-पतली सीक-सी
आठ-नौ बरस की उनकी पौत्री ने प्रवेश किया। हाँफती-हाँफती सोफे
पर धँस गई।
‘‘अस्सी तो थल्ले बैठेंगे नई।’’ उनके लिए चाँदनी के ऊपर छोटे
स्टूल की व्यवस्था तुरत-फुरत की गई। इसी बीच साटनी सूट,
जालीदार जरेदाजी के दुपट्टों से सुसज्जित चार-पाँच सरदारनियों
के हुजूम का आगमन हुआ।
“अभी कोई नहीं आया, सूरज तो छिप जाना है, भई!” उनकी मुखिया
बेचैनी से इधर देखकर बैठने की जगह खोजने लगी।
दीवार से सटी बैठी दीपाली ने कहा, “बैठिए।”
“कित्थे...ए ?”
“यहीं बैठिए न, नीचे ही संब इंतजाम है।”
समूह की मुखिया के लिए तत्काल ही एक नीची सी कुरसी रखी गई।
उनकी अन्य साथिनें इधर-उधर खड़ी रहीं, बैठीं नहीं।
“कपूर भैनजी नी आए?”
“आते ही होंगे।”
“ले...ए दूरवाले कब्बी के आ गए, सामनेवाले अब्बी सोत्ते ही
हैं।” सरदारनियों के दल की नेता चहकी।
“अब बी ब्लॉकवाले भी कुछ बंदे रै गए सीगे।”
“ल्यो लंबी, छरहरी सुदृढ़ काया और अपने लंबोतरे गोरे मुखड़े को
लंबे-लंबे कान के झुमेकों से और भी लंबी बनाती हुई, कठोर
मुखमुद्रावाली समझदार सी कपूर भैन प्रविष्ट हुई। हाथ में दो-दो
थालियाँ थालपोश से ढँकी हुई। उनके आते ही महिला समुदाय एकाएक
सक्रिय हो उठा। सामने ही बैठी एक नवयौवना की और मुखातिब हो
श्रीमती कपूर मर्दाने स्वर में गुराई-
“क्यों स्वीटी, बीजी नई आए त्वाडे।”
“जी आंटीजी, वो बॉव सैम सो रहे हैं न, उठते ही दूध, बिस्किट
माँगेंगे। मैं जीजी की थाली उठा लाई हूँ।”
“ठीक है। कब्बी-कब्बी सास को भी फुरसत दिया कर, बेचारी तेरी
गृहस्थी ही सँभालती है।”
उस यौवना का मुँह फुल गया। बिना प्रत्युत्तर दिए वह अपनी अन्य
हमउम्र सखियों के संग कपूर भैनजी की आलोचना में व्यस्त हो गई।
“अपनी सास की तो वो गत बना रखी है कि पूच्छो ही नई।”
“हाँ जी, अस्सी बरस की सास बेचारी बालकनी में ही पड़ी रहती है
भूखी-प्यासी।”
“नाप-तौलकर खाने को देती है और बहू भी मुट्ठी में है। बेटा तो
नॉन फेमीली स्टेशन पर है, बहू बेचारी इसके चंगुल में। कभी-कभी
पीछे की खिड़की से बात करती है। अपना दुःख-दर्द बताती है।”
“होर कपूर साहब, जिनके लिए आज सती-सावित्री बनी घूम रही है,
बेचारे को बस साल में एक दिन ही पूछा जाता है और ढंग से रोट्टी
मिलती है, बाकी दिन तो बस बेचारे...”
और सब खिलखिलाकर हँस पड़ी। शायद यह वधुओं का समूह था।
उनकी बातचीत में सरदारनियों का हुजूम भी शामिल हो गया। तभी
बुजुर्ग सरदारनीजी ने तुरूप चली-
“होर त्वाडी नू कित्थे है ?”
“उसका तो जी चौथा मीन्ना (महीना) चल रहा हैगा।” और धीर-धीरे
सिर जोड़ दोनों गुप्त मंत्रणा में तल्लीन हो गई।
“मैं तो जी उसे जमीन पर पाँव ही नहीं रखने देती। दूध, मलाई,
अंडा जो मरजी खाए। जब चाहे खाए-पीए, कोई रोक-टोक नहीं है। घर
है उसका।”
इसी बीच सी ब्लॉकवाली विज, मल्होत्रा, चड्ढा, धींगड़ा खन्ना,
सेतिया आदि महिलाएँ भी सजी-धजी छोटी-बड़ी थालियों समेत आ
उपस्थित हुई। वह सभी अपने ऑर्थराटिस, स्पांडिलाइटिस या फिर
ऑपरेशन आदि के कारण नीचे बैठने में असमर्थ थीं, लिहाजा सोफासेट
बाहर से भीतर रखवाया गया। दीपाली को भद्र महिलाओं के चोंचले
देख हँसी एवं धवल चाँदनियों की दुर्दशा देख रोना ही आ रहा था।
सरदारनियों का हुजूम अधीरता-मिश्रित खीझ से गुनगुनाया-
“कपूर भैनजी, जरा जल्दी करो जी, दिन तो छिप ही जाना है।”
सपाट सी कठोर मुखमुद्रावाली कपूर भैनजी बोलीं, “सब्व टेम से हो
जाना है, सबर तो रक्खो। सुहाग-शगुनोंवाला त्योहार है, सब काम
कायदे से होगा।”
तभी एक और महिला चहकी, “ अरे गीता, गौर कित्थे है, गौर नी
बनाई।”
“गौर, अरे...”
“आटे की बनेगी।”
“ओ हा, आटा गूँधना होना है।”
“ला, मैं बना देती हूँ।” दीपाली उठते हुए बोली।
“बैट्ठ चुप्प करके, कोई गुड़िया रख देंगे।” गीता ने दीपाली को
समझाते हुए कहा।
“अरे मिंटी, जा तो अपनी बार्बी डॉल ले आ, बेटा।” एक नवयौवना ने
अपनी पाँच वर्षीया बिटिया को गुड़िया लेने दौड़ाया।
चूँकि गुड़िया रानी पश्चिमी लिबास में सुसज्जित थीं, अतः उन्हें
माता रानी की चुनरी पहना एक थाल के मध्य में सुशोभित किया गया।
आधुनिका गौरा माता की स्थापना के बाद सभी सक्रिय हो गई।
किसी-किसी ने छोटे-मोटे गोटेदार दुपट्टे ओढ़ लिए, किसी ने सिर
पर रूमाल डाल लिया। श्रीमती कपूर सबको निर्देश दे रही थीं।
गीता ने ही बताया था कि यह दुबली-पतली कठोर सी कपूर भैनजी अपनी
समझदारी, चतुराई एवं कर्मठता के बल पर घर-बाहर सबको अपनी
तर्जनी पर नचाती हैं। घर में बेटा, बहू, बूढ़ी सास एवं पति की
नाक में दम किए रहती हैं। बहुत कानून-कायदे की अनुयायी हैं।
“चलो जी, शुरू करो। हुजूम में से किसी की पुकार सुनाई दी,
“प्यास लगदी है।”
“चन्न चढ़ेगा तो ई तो पूजा के ही बाद मुँह जूठा कर लेते हैं।
वैसे पानी तो चंदा देखकर ही पीते हैं।”
“अच्छा!” कुछ पतिव्रताएँ अचरज से बोलीं।
सभी कुरसी, स्टूल, सोफे और जमीन पर घेरा बनाकर दीपक प्रज्वलित
कर बैठ गई।
“अरे गीता, तेरी बहू रानी कित्थे है?”
“बस्स, अभी आ जानी है।” गीता खिड़की के बाहर झाँककर बोली।
दीपाली उसके पास उठकर गई, “आज ऐन वक्त पर कहाँ भेज दिया उसे,
बाजार गई है या ब्यूटीशियन के पास?”
“अब क्या बताऊँ, एयरपोर्ट के पास ही चोपड़ा साहब ने नया ऑफिस
खोला है, वहीं ऊपरवाला फ्लैट ले लिया है। दोनों पिछले महीने
उधर ही चले गए हैं। पिंकी ऑफिस भी देखती है। बड़ी प्यारी,
हुश्यार बंदी है।”
“हाँ, होशियार तो है ही, आते ही अलग हो गई। एयरपोर्ट कौन सा
दूर है, हजारों लोग इधर-से-उधर काम-धंधे के लिए जाते ही हैं।”
दीपाली को रोष आ रहा था।
“न, न, पिंकी को मैं दोष नहीं देती, वो तो हमारा बेटा ही पीछे
पड़ गया तो चोपड़ा साहब बोले-ठीक है, हँसी-खुशी ही अलग रहे तो
प्यार बढ़ता है। ठीक है, रोज तो मिलते-बैठते ही हैं। कभी वो
इधर, कभी हम उधर।”
वह बात खत्म कर पाती कि कपूर भैनजी गरजीं, “बायना-शायना तो बीच
में रख, गीता।”
मेवे, मिष्टान, फलों, मट्ठियों, फेनी के बड़े-बड़े थाल गीता के
पास रखी बड़ी सी मेज पर सजवा दिए। साड़ी-सूट व जेवरों के डिब्बे
भी साथ थे। महिलाएँ पूजा-वूजा छोड़ सूक्ष्म निरीक्षण में लग गई।
दीपाली बायने को विस्फारित नेत्रों से देख रही थी। यह सब
दिखावे के लिए उसकी प्रिय सखी ने स्वयं ही जुटाया है, परंतु
अन्य महिलाओं के वृत्तांत से तो यही आभास हो रहा था मानो उन
सभी के यहाँ से तो बहुत कुछ आया था, यह तो कुछ भी नहीं है।
“ले, आ गई, पिंकी।” गीता का चेहरा अपनी श्रृंगारिका पुत्रवधू
को देख फुल-सा खिल उठा।
पिंकी का भोला-लुभावना मुखड़ा देखकर तो दीपाली का भी सब रोष धुल
गया।
“चल्लो जी, शुरू तो करो।”
“कपूर भैनजी, कहानी बोलो।”
“आंटी, कैसेट भी है, मैं दिल्ली से लाई थी।” पिंकी उत्साहित सी
बोली, परंतु गीता के संकेत से चुप हो गई।
क्हानी आरंभ हुइ-”इक सात भाइयों की प्यारी बहन सीगी...”कहानी
चल रही थी। थालियाँ बटाई (घुमाई) जा रही थीं।
“वीरो प्यारी वीराँ चन्न चणे तो पाणी पीना।”
अतंतः अनेक मतभेदों के पश्चात् पूजा हुई। किसी ने कहा-सात फेरे
हो गए। किसी के अनुसार अभी छह ही हुए थे। किसी के दीपक की लौ
बीच में ही दम तोड़ गई थी। आशंकित महिला को सभी सांत्वना दे रही
थीं।
इसी बीच कपूर भैनजी के घर से दो बार सूचना आ चुकी थी कि उनकी
बहू की तबीयत कुछ खराब हो रही है; परंतु उनके अनुसार, “सब ठीक
है, ऐसे में ऐसा ही होता है।”
हाउजी राउंड आरंभ हुआ। किसी-किसी ने नींबू, पानी, शरबत, जूस व
चाय से मुँह जुठाया। कुछ पतिव्रताएँ तो पति के हाथ से पानी
पीने का निश्चय कर प्यासी बैठी थीं और अनेक बार अपनी कष्टकर
तृष्णा की दुहाई दे रही थीं। कुछेक तो बेहोश-सी हुई जा रही
थीं; परंतु मानो सभी में होड़ लगी हुई थी अपने को एक-दूसरे से
सच्ची पतिव्रता दिखाने की।
“टू फैट लेडीज एट्टी एट।”
“उलटा-पुलटा सिक्स्टी नाइन।”
“बाय इटसेल्फ नंबर फोर, मेरी तो लाइनें हो गई।”
“तुस्सी तो बड़े लक्की हो।”
“लो जी, मेरा तो हाउस भी हो गया।”
क्पूर भैनजी की तन्मयता हाउजी में भी देखने योग्य थी। किसी भी
प्रकार का व्यवधान उन्हें नापसंद था। उनकी नौकरानी फिर आई।
कपूर भैनजी की भृकुटि तन गई।
“की गल्ल है?”
नौकरानी घबराकर भाग गई।
पिंकी धीरे से अपना टिकट दीपाली को थमा उठ गई। जब वापस आई तो
हाउजी लगभग समाप्ति पर ही थी।
“कित्थे चली गई थी? हाउजी तो लगभग खत्म ही हो गई।”
“मैं कपूर आंटी के घर गई थी। रिचा भाभीजी की तबीयत खराब हो गई
थी। नींबू, पानी, लिमका पिलाया तो एकदम फिट हो गई।” पिंकी
उत्साह से बोली।
“क्या...आ...” कपूर भैनजी मानो आसमान से गिरीं, “ऐ तूने की कर
दित्ता ?” कपूर भैनजी अपने फ्लैट की ओर दौड़ीं।
“अरे-अरे, कपूर भैनजी, अपने पैसे तो लेती जाओ।” हाउजी की
संचालिका बोली।
“भाड़ में जाएँ पैसे!” कहती हुई कपूर भैनजी तेजी से बाहर
निकलीं। पीछे-पीछे उनके साथ उनकी हिमायती महिलाओं का झुंड भी
संग हो लिया।
“सुहा,”गीता सिर पकड़कर बैठ गई। गीता की हमदर्द सखियाँ गीता को
दिलासा दे रही थीं। कुछेक पिंकी को समझा रही थीं कि...
“क्यों दूसरे के फड्डे में पाँव दिया?”
“न जाने क्या होगा! वैसे ही आजकल कपूर साहब का बेटा करगिलवाले
बॉर्डर पर है। दामाद है, वह भी एयरफोर्स में है। हे भगवान्!
ठनका साल बस अच्छी तरह कट जाए तो मातारानी को भेंट कराऊँगी,
हनुमानजी को चोला चढ़ाऊँगी, काली घाट-दक्षिणेश्वर में पूजा
दूँगी।”
गीता का बैन चल रहा था। गीता की हमदर्द सखियाँ धीरे से कपूर
भैनजी के फ्लैट में खिसक गई तमाशा देखने, मानो अभी कुछ घटित
होने जा रहा है।
“सब ठीक ही होगा, मम्मीजी। रिचा दीदी के पति वहाँ कारगिल
बॉर्डर पर ठंड में रम-पर-रम पी रहे होंगे और वह बेचारी क्या
नींबू-पानी भी नहीं पी सकती। जबकि वह बेचारी तो उनके पोते की
माँ भी बनने वाली है। उन्हें तो कपूर आंटी को पहले ही दूध
वगैरह देना चाहिए था। मैंने तो आप कोक, लिम्का, जूस सभी पिया
है। जब चन्न चढ़ेगा तो पानी मैं इन्हीं के हाथ से पिऊँगी।”
“उसने पिया तो ठीक है, उसे जरूरत थी, तू क्यों नहीं एक दिन ढंग
से व्रत रख सकी?” गीता रुष्ट सी बोली और मुँह फेर लिया।
“क्या मम्मीजी!” पिंकी गीता के घुटनों के पास बैठ उसे मनाते
हुए बोली, “मैं भी तो अब...”और पिंकी का गोरा मुखड़ा बीरबहूटी
हो गया।
“सच, पहले क्यों नहीं बोली?” गीता ने पिंकी के सिंदूरी मुखड़े
को चूम लिया।
“अब तुम दोनों सास-बहू लाड़-प्यार करो। मैं तीन कप चाय बनवाती
हूँ।” दीपाली प्रसन्न होकर बोली।
“अरे, मेरी नू के वास्ते गरम-गरम दूध ला मलाईवाला। वैसे पानी
तो, चन्न चढ़ेगा तभी पिएगी, मेरे संजू के हाथ से।”
दीपाली मुसकरा उठी। सच, उसकी स्नेही सरल सखी को अब मिली है
मनपसंद बहूरानी |