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सोहाने को लगता कि यह पूरा शहर निराश और दुखी जनों का एक द्वीप है....सभी अपने जीवन से, अपने हालात से, अपने कर्म से, अपने भविष्य से निराश, भयभीत, ऊबे हुए और बेहद थके हुए।

वह सेठ पोमा ढनढनिया के किराना स्टोर में बेयरा का काम करता था। वह बी.कॉम. पास था। अपनी कामर्स डिग्री की विडम्बना पर उसे हँसी आती थी, जो इस्तेमाल हो रही थी चावल, दाल, आटा, चीनी, मसाला आदि तौलने और रैक से वस्तुओं के पैकेट निकालकर ग्राहक को सुपुर्द करने में।

दुकान का मालिक पोमा उसका एक और इस्तेमाल करता था, अपने बूढे माँ-बाप को प्रवचन स्थल तक छोड़ आने में। जहाँ कहीं भी प्रवचन हो, इन दोनों का वहाँ जाना सुनिश्चित रहता था। इस तरह सप्ताह में दो दिन उसकी यह ड्यूटी फिक्स थी। उसे कार की ड्राइवरी सिखा दी गयी थी। अगर कार उपलब्ध नहीं होती तो वह ऑटो में उन्हें बिठाकर पहुँचा आता। आते-जाते वह काफी कुछ प्रवचन के गणित और फंडा समझने लग गया था। उसने लक्ष्य किया कि ज्यादातर श्रोताओं में वे शामिल हैं जो खाये, पीये, अघाये और अनाप-शनाप माल से लदे-फदे निठल्ले लोग हैं। जो डेली कमाने-खाने वाले गरीब-गुरबा छोटे लोग हैं, उनका इस प्रवचन सभा से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। उसने कभी नहीं देखा कि कोई रिक्शाचालक या कोई कुली-रेजा प्रवचन सुनने आया हो। मतलब मुक्ति और भक्ति की तलब सिर्फ उन्हें थी जो कंठ तक भोग-विलास के चहबच्चे में डूबे हुए थे।

पोमा सेठ ने अपनी नजर के सामने गीता-सार टांग रखा था कि ‘क्या लेकर आये हो, क्या लेकर जाओगे.....।’ मगर ग्राहक को उल्लू बना देने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देता था और कृपण इतना कि नौकरों की तनख्वाह दो रुपये भी बढ़ाने के लिए तैयार नहीं। उसने दुकान में ही गल्ला पेटी के ऊपर एक मंदिरनुमा आकृति लटकाकर उसमें एक बाबा ‘तिलकराज कुंभ’ की प्रतिमा स्थापित कर रखी थी। दुकान की शुरुआत वह इस प्रतिमा पर धूप-दीप जलाकर ही करता था। तिलकराज की इस शहर में काफी धूम थी। ऐसे दर्जनों और लोग थे जिन्होंने अपनी दुकान या ऑफिस में उसे भगवान की तरह सजा रखे थे। सोहाने को इस धर्मांधता पर हँसी आती थी कि यह बाबा अभी जीवित है और उसके कई विरोधाभासी कृत्य खासे विवादास्पद रहे हैं, फिर भी उसे अवतार बना देने पर लोग तुले हैं। यह कंट्रास्ट उसे बहुत उलझन में डाल देता था कि ज्यों-ज्यों तकनीक और विज्ञान चरम पर पहुँच रहा है, लोग उसी अनुपात में ढोंगी और कर्मकांडी बन रहे हैं।

सोहाने देखता था कि जब प्रवचन का कहीं कार्यक्रम नहीं होता तो पोमा सेठ के बूढ़े माँ-बाप बाबाओं वाले किसी चैनल को खोलकर सामने बैठ जाते। कभी-कभी चैनल देखते-देखते इनकी आँखें दुखने लगतीं तो इनका मन कुछ और के लिए मचलने लगता। वे रामचरित मानस और श्रीमद्भागवत गीता वाचने लगते। जब वे खुद से पढ़ने लायक नहीं रह गये तो सोहाने का एक और इस्तेमाल पोमा ने शुरू कर दिया। उसने कहा, ‘‘अबे गड़ेरी, तू तो पढ़ा-लिखा ग्रैजुएट है, जरा माँ-बाउजी को कभी-कभी मानस और गीता सुना दिया कर, यार। पंडितों के बड़े नखरे होते हैं....ढूँढने से जल्दी मिलता भी नहीं।’’

पोमा उसे जब भी बुलाता था, सोहाने न बोलकर गड़ेरी ही बोलता था। शायद गड़ेरी बोलने से उसका मालिक का अहंकार जरा तुष्ट हो जाता होगा। ऐसे गड़ेरी कहे जाने से उसे आपत्ति नहीं थी, आपत्ति थी उसके बोलने के अंदाज से। सोहाने को पहले तो यह काम ठीक ही लगा कि चावल-दाल आदि तौलने जैसे अनपढ़-नीरस काम से तो यह अच्छा ही है कि गीता और रामायण पढ़ी जाये।

उसे क्या पता कि एक दिन ऐसा आयेगा कि यह काम भी उसे बेहद नीरस और बोरिंग लगने लगेगा। हुआ यों कि बूढ़ा-बूढ़ी का कभी भी मन कर जाता अखंड पाठ सुनने का। कभी वह सुबह से ही गीता पढ़ रहा है.....कभी बारह बजे दिन से तलब हो गयी.....कभी रात में फरमान जारी हो गया। वह जागकर पढ़ रहा होता और वे आँखें बंद कर सामने बैठे होते। सोहाने को खीज होती कि इस उम्र में इन्हें नींद नहीं आती तो इसका तो खयाल होना चाहिए कि वह जवान है और उसकी आँखों में नींद की कोई कमी नहीं है। कभी-कभी तो उसे लगता कि आँखें बंद किये हुए दोनों बूढ़ा-बूढ़ी नींद मार रहे हैं और वह नाहक बकबक किये जा रहा है। उसे इस बात से भी चिढ़ लगती कि आखिर एक ही चीज को बारबार सुनने में इन्हें मजा क्या आता है! एक-एक ग्रंथ को वह ढाई दर्जन बार तो पढ़ ही चुका होगा।


उसमें इस पुराण-वाचन से बढ़ती आजिजी के कारण यह विचार अंकुराने लगा था कि अब पोमा सेठ को आखिरी सलाम करके कहीं और चल देना चाहिए। जब माल ही तौलना है तो ऐसे कई सेठ और मिल जायेंगे। बूढ़ा-बूढ़ी के परलोक गमन का करीबी आसार होता तो वह इंतजार कर लेता, मगर वे अभी खासे तंदुरुस्त दिख रहे थे। वह अपना झोला-झक्कड़ समेटकर फुट लेने का इरादा पुख्ता कर रहा था कि तभी एक दिन पोमा सेठ की कॉलेज में पढ़ रही बेटी दामिनी ने उसे मुस्कराते हुए अपने करीब बुला लिया। उसने देखा कि उसकी आँखों में सम्मोहन के एक डोरे कंपकंपा रहे हैं। वह बोली, ‘‘सोहाने, कब से मैं तुम्हें यह कहना चाह रही थी कि तुम जब रामचरित मानस गाकर पढ़ते हो तो सुर और लय की मिठास सीधे दिल में उतर जाती है। तुम्हारे गाते हुए चेहरे पर एक ऐसी आभा उभर आती है जो तुम्हें और भी सुंदर बना देती है। सच सोहाने, तुम मुझे बहुत अच्छे लगने लगे हो।’’

लगा कि उसे एक दुर्लभ खजाना मिल गया। वह समझ रहा था कि निरर्थक ही वह झख मार रहा है। अपना गला और ऊर्जा बर्बाद कर रहा है। मगर इस झख मारने का ऐसा पुरस्कार पाकर उसका तो पूरा हुलिया ही बदल गया।

सोहाने आँख बचाकर उसे अक्सर देख लिया करता था। वह उसे भी खूब अच्छी लगती थी, लेकिन वह एक मामूली नौकर....कुछ भी कहने की हिम्मत कैसे कर पाता। अब तो उसे अपना पाठ व वाचन और भी मन से जारी रखना होगा। उसने कहा, ‘‘तुमने तो एक गरीब को अचानक ही बहुत अमीर बना दिया दामिनी। यह दौलत मेरे पास बनी रहे, यही कामना रहेगी।’’
‘‘तुम्हारी स्वीकृति ने मेरे अंदर के शून्य को भी भर दिया है सोहाने।’’

वह अब पाठ करने के लिए अपनी मरजी से सुर्खरू रहने लगा, पहले कन्नी काटने की फिराक में लगा रहता था।

उसकी बढ़ी हुई एकाग्रता और उत्साह से पोमा ने समझा कि अब इस काम में इसकी रुचि जाग्रत हो गयी है। उसने अपने बहुत सारे परिचितों और रिश्तेदारों में भी यह चर्चा फैला दी। फलतः दूसरी जगहों से भी पाठ के लिए बुलावा आने लगा। उसका मन फिर भन्ना गया। वह कैसे बताये कि उसकी दिलचस्पी सिर्फ इस घर तक ही सीमित है और वह भी इस वजह से कि उसे एक बहुत सुधी श्रोता मिल गयी है। उसने अन्यत्र जाने में आनाकानी का रुख अपना लिया तो पोमा ने एकबार उसे जोर से झिड़क दिया।

‘‘अबे गड़ेरी, शुक्र मना साले कि पंडितवाले काम में तेरी कायापलट डिमाँड होने लगी है। तेरी तरक्की हो रही है और तू ना-नुकूर कर रहा है? तेरे बाप दादा भेड़ चराते थे, तू तराजू में इस पलड़ा से उस पलड़ा करते हुए पंडित बन गया और क्या चाहिए? इतनी तेजी से तो सरकारी महकमों में सोर्स वाले को भी प्रोमोशन नहीं मिलता।’’

सोहाने को समझ में नहीं आता कि पोमा जिसे तरक्की कह रहा है, क्या वाकई वह तरक्की है! भेड़ पालने और चराने को जिस हिकारत से यह संबोधित कर रहा है, क्या वह पेशेवर पुराण-वाचन से घटिया काम था? इसे मालूम नहीं कि एक गड़ेरिये ने ही चुंबक का आविष्कार किया था और प्रभु यीशु भी एक गड़ेरिया ही थे। प्रवचन करने वाला वह बाबा जो सचमुच तत्त्ववेता और ज्ञान मर्मज्ञ है, वस्तुतः एक गड़ेरिया ही है, जिसके पीछे हजारों दोपाया भेड़ें मेंमें करती चली जा रही हैं....उठ तो उठ....बैठ तो बैठ....चल तो चल....।

उसके बाउजी ने बताया था कि भेड़ पालन का उसका पुश्तैनी काम दादा के समय तक अच्छा चला। उसके दादा अपने आस पड़ोस के भेड़ पालकों के समूह के साथ अपनी भेड़ों के झुंड लेकर अमूमन अगहन महीने में निकल पड़ते थे सुदूर जंगल और पहाड़ की तरफ। उनके रोओं की कटाई आश्विन में हो जाती थी। घर के अन्य लोग उन रोओं से कंबल की बुनाई शुरू कर देते थे। कोई पाँच सौ भेडें उनके दादा के पास थीं। वे छह महीने बाद बैसाख में लौटते थे। इस बीच भेड़ों की संख्या बढ़ जाती थी। पुरानी पड़ गयी भेड़ों को वे बेचते हुए आते थे। वे इतने पैसे लेकर लौटते थे कि उनसे घर का चार-पाँच महीने का खर्च तो आराम से निकल आता था। वे विभिन्न गाँवों में रुकते हुए आते। गाँव के किसान अपने खेतों में भेड़ बिठाने के लिए उनका इंतजार करते होते। जैविक खाद के तौर पर उनका मल-मूत्र खेत की उर्वरा शक्ति को
काफी बढ़ा देता था। पारिश्रमिक के तौर पर उन्हें चावल, गेहूँ आदि मिल जाते। भेड़ के दूध की भी उन दिनों अच्छी खपत थी। एक तो दूध में निहित अधिकतम पौष्टिक तत्व के कारण इसे मरीजों को पिलाने का चलन था, दूसरा गाढ़ा होने के कारण खोवा बनाने हेतु भी हलवाईयों की पहली पसंद थी।

मगर जमाने ने इस तरह करवट बदल ली कि भेड़ पालन की प्रथा दम तोड़ती चली गयी। सिंथेटिक कंबलों की मिल फिनिशिंग और आकर्षण ने भेड़ के रोओं के सफेद और खुरदरे हस्तशिल्प को अपदस्थ कर दिया। रासायनिक खादों की उपलब्धता और तेज असर ने भेड़ बैठाने के अभिप्राय को भी स्थानांतरित कर दिया। पॉल्ट्री फार्म और डेयरी फार्म की क्रांति भेड़ के मटन और दूध पर बहुत भारी साबित हुई।

बाबूजी तक आते-आते सिर्फ पचीस-तीस भेड़ें रह गयीं और जब उसका समय आया तो वे भी लुप्त हो गयीं। उन्होंने शायद समय को सूँघ लिया था, इसीलिए उसे पढ़ाने पर पूरा जोर लगा दिया। वे बताते थे कि भेड़ चराने वाले का जीवन किसी साधू-संत से किसी भी मायने में कम नहीं था। वे प्रकृति के बीच सांसारिक राग-द्वेषों से एकदम असंपृक्त सरल और स्वच्छ जीवन जीकर संतुष्ट रह लेते थे। मगर अब तो धीरे-धीरे गड़ेरिया नाम ही लुप्त होने लगा है। गड़ेरिया पर अब न अंग्रेजी में कविता लिखी जायेगी और न हिन्दी में ‘भेड़ियाधसान’ मुहावरा रह जायेगा। पोमा जैसा काइयाँ सेठ अब इसे एक गर्हित पेशे के तौर पर उलाहना देने के उपयोग में लाएगा, जैसे मुनाफाखोरी और डंडीमारी का उसका धंधा बहुत श्रेष्ठ किस्म का है।

पोमा उसका मालिक था.....और अब उस बेटी का बाप भी था जिसके साथ उसका प्रेम ऊँची उड़ान भरने लगा था, अतः उसका कहा टालना सर्वथा अशुभ का संकेतक हो सकता था। अब वह अक्सर दूसरे-तीसरे घरों में पाठ और वाचन के लिए जाने लगा। इसके एवज में उसे अच्छी आमदनी भी होने लगी, लेकिन उसका माथा बुरी तरह चट जाता। एक ही कथा बार-बार पढ़ना....सुनाना, लगता जैसे वह एक यातना से गुजर रहा है। रामचरित मानस या गीता देखने से ही उसका रक्तचाप बढ़ जाता। इतना फायदा उसे जरूर हुआ कि सभी पौराणिक प्रसंगों और उद्धरणों की उसे जानकारी हो गयी। दामिनी उसकी इस मर्मज्ञता पर मुग्ध रहती।

एक दिन पोमा ने उसे दामिनी के साथ काफी घुल-मिलकर बातें करते हुए देख लिया और मामले की गहराई को भाँप लिया। कुछ दिनों तक अपनी खुफिया नजर दोनों पर लगाये रखी और संशय जब पुष्ट हो गया तो एक दिन क्रोधित नेत्रों से उसे किनारे ले जाकर चेतावनी थमा दी, ‘‘आइंदा अगर तुम्हें दामिनी के साथ बात करते देखा तो उसी दिन यहाँ से चलता कर दूँगा। मेरी बेटी के करीब जाने से पहले तुम्हें जरा अपनी औकात का खयाल कर लेना चाहिए। अबे उसे किसी करोड़पति घर की बहू होना है.....तूं साला एक मामूली गड़ेरिया....गीता और मानस पढ़ लेता है तो क्या समझता है तूं हमारी बराबरी का हो गया? खबरदार....तुझ पर अब मेरी कड़ी नजर रहेगी।’’

अपनी दीन-हीन हालत पर तड़प कर रह गया सोहाने। पोमा ने शायद दामिनी को भी कड़ी फटकार लगायी। बूढ़ा-बूढ़ी को किसी बाबा के सत्संग में छोड़ने गये सोहाने को दामिनी ने कॉलेज से निकलकर पंडाल में ही ढूँढ लिया और उसे एक किनारे बुला लिया। उसकी मायूसी और उदासी को पढ़ते हुए वह कहने लगी, ‘‘इस तरह पस्त होने से दुनिया नहीं चलती सोहाने। बंद करो अब तुम तराजू-बटखरे का खेल और अपनी मेधा को पहचानो। देखो इस बाबा को जो प्रवचन कर रहा है, मेरा दावा है कि तुमसे कतई यह ज्यादा ज्ञानी नहीं है, लेकिन देखो, कैसे-कैसे नामी-गिरामी और धनी-मानी लोग आज इनके अनुचर और अनुयायी हैं। सौदा-सुलुफ तौलते हुए तुम कुछ नहीं बन सकते.....सरलता और शराफत से कुछ नहीं मिलता....मुझे प्यार करते हो....मुझे पाना चाहते हो तो जाओ बन जाओ एक ऐसा गड़ेरिया, जिसके पीछे इसी तरह जमाना चल पड़े। तुम इसी तरह एक ऊँचे आसन पर बैठो और लोग तुम्हारी जय-जयकार करें। जाओ सोहाने, जाओ, मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी।’’
दामिनी ने जैसे उसकी चेतना को झकझोर कर रख दिया। वहाँ से वह सीधे स्टेशन की ओर कूच कर गया।

जिस शहर में उतरा, वहाँ आसपास के सुदूर एकांत में दो-तीन बाबाओं के आश्रम थे। इनमें एक सखानंद ताऊ का चुनाव कर वह उसके विशाल आश्रम में दाखिल हो गया। ८०-९० एकड़ में फैला आश्रम भव्य था। जहाँ-तहाँ फैली हुईं छोटी-छोटी अनेक कुटिया बनी थीं और मुख्य हिस्सा एक आलीशान तीन मंजिली इमारत में स्थित था। इसी इमारत के एक भूमिगत कक्ष में बाबा निवास करता था। हरेक कुटिया में दस-बीस साधू या बाबा के चेले-चपाटी टिके हुए थे। इन्हीं में से एक
कुटिया में वह भी टिक गया। सबका लंगर एक साथ ही चल रहा था।

आश्रम में बाबा के आशीर्वाद के आकांक्षी दुखी और परेशान लोगों का आना-जाना लगा रहता था। वे बाबा के दर्शन करके और उनसे समाधान मंत्र लेकर दान-पेटी में दान डालते और चले जाते। घुमक्कड़ साधू-सन्यासी दो-चार दिनों का डेरा जमाते....भजन, कीर्त्तन और सत्संग में भाग लेते....फिर अगले किसी पड़ाव के लिए कूच कर जाते। ताऊ के दो-तीन उद्बोधन सुनकर सोहाने ने तजबीज कर ली कि यह बाबा ज्ञान के मामले में भीतर से कुछ ज्यादा ही खोखला है। तत्त्वज्ञान के नाम पर इधर-उधर की कुछ कथाओं, सुभाषितों और श्लोकों को दिमाग में डम्प कर लिया है, जिन्हें वह उलट-फेर कर भाषा की कसीदाकारी के साथ बोलकर लोगों को फँसाये रखता है। प्रायः बाबाओं को सुनते हुए उसने ऐसा ही पाया लेकिन यह ताऊ उन सबमें फिसड्डी महसूस हुआ। खैर इससे उसे कुछ लेना-देना नहीं था। वह ताऊ के सत्संग में रोज आँखें बंद कर बेहद अनुशासित और ध्यानमग्न मुद्रा में बैठ जाता, फिर किसी कुटिया में जाकर पड़ जाता।

ई दिन जब इसी तरह बीत गये तो आश्रम की व्यवस्था पर नजर रखने वाला एक कार्यकर्ता ने उससे पूछ लिया, ‘‘तुम कौन हो, कहाँ से आये हो और क्या चाहते हो?’’

उसने अपना नाम-ग्राम बताते हुए कहा, ‘‘इस दुनिया से विरक्त होकर मैं ताऊ के चरणों में ही अपना पूरा जीवन अर्पण कर देने के लिए आया हूँ। ताऊ का अमृत वचन मैंने कई जगहों पर सुना और धन्य-धन्य हो गया। अब मैंने सोच लिया है कि बाबा ही मेरा उद्धार कर सकते हैं।’’
अगले दिन ताऊ के सामने उसे उपस्थित कराया गया। वह उनके चरणों पर गिर पड़ा, ‘‘बाबा, अब आप ही मेरे तारणहार हैं, मुझे अपने शरण में ले लीजिए, इस दुनिया में मेरा अब कोई नहीं है।’’
ताऊ ने उसे ध्यान से देखा और अनुमान लगा लिया कि एक फक्कड़-फकीर किस्म का लड़का है और मुफ्त के लंगर उड़ाने के लिए कामचोर यहीं जम जाना चाहता है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा प्रसाद लेकर तुम अपने घर चले जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा। यहाँ रहने की कोई जरूरत नहीं है। जीवन से भागना नहीं लड़ना सीखो। कर्म ही पूजा है, अपने हिस्से का क
र्म किये बिना किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती।’’

सोहाने के मन में एक गंदी गाली आयी, ‘हरामी, तुम्हारे कर्म क्या हैं? लोगों से चरणवंदन करवाना और उन्हें उल्लू बनाकर माल ऐंठना!’ वह अपनी याचक मुद्रा कायम रखते हुए घिघिया उठा, ‘‘नहीं बाबा, मुझे जाने के लिए मत कहिए। अब इस मृत्युलोक से मेरा मोहभंग हो गया है, मैं आपके चरणों में ही पड़ा रहना चाहता हूँ।’’
‘‘जो कहता हूँ सुनो,’’ एक स्वयंसेवक को उन्होंने इशारा किया, ‘‘इसे आज ही किसी स्वयंसेवक को भेजकर स्टेशन छोड़वा दो.....।’’
शाम में उसे तीन स्वयंसेवकों ने पकड़कर लगभग जबरन स्टेशन छोड़ दिया।
सुबह वह फिर हाजिर हो गया। पहले से ही विशेष निर्देश प्राप्त दरवान ने उसे बाहर ही रोक दिया। वह बिना कुछ कहे द्वार के बाहर ध्यान की मुद्रा में आसन जमाकर बैठ गया। दो दिनों तक भूखे-प्यासे बैठा रहा, जैसे ताऊ की भक्ति में यहीं प्राण विसर्जित कर देगा। तीसरे दिन सुबह ही सुबह एक आदमी आकर उसे ताऊ के पास ले आया। उसने फिर उनके चरणों पर माथा टेक दिया। ताऊ ने जरा पसीजते हुए कहा, ‘‘तो तुम मानोगे नहीं?’’

वह
सर झुकाये विनय भाव से चुपचाप खड़ा रहा। बाबा ने आगे कहा, ‘‘लेकिन यहाँ भी तुम्हें कर्म से छुटकारा नहीं मिलेगा, कड़ी मेहनत करनी होगी। खेतों में काम करना होगा, गौओं को चारा डालना होगा, उनके गोबर आदि साफ करने होंगे, जूठे पत्तल और बर्तन उठाने होंगे, झाड़ू-पोछा करना होगा.....।’’
‘‘आप जो भी कहेंगे, करूँगा बाबा, सिर्फ आपके चरणों की छाया बनी रहे।’’
‘‘ठी
क है, ले जाओ इसे, जलपान देकर काम में लगा दो।’’

सोहाने को एक प्रमुख स्वयंसेवक ने इन्हीं सब कामों में जोत दिया। मन से गंदी गाली देते हुए वह विनीत भाव से काम में जुट गया.....कभी गेहूँ के खेतों की गोड़ाई कर रहा है....कभी फूलों की क्यारियों की सिंचाई कर रहा है....कभी साधुओं के जूठे पत्तल उठा रहा है....कभी लंगर के बर्तन माँज रहा है....कभी गौओं का गोबर साफ कर रहा है, कभी उन्हें चारा डाल रहा है....।
कई सप्ताह वह ऐसे ही कामों में लगा रहा और जरा भी घिन या कोताही नहीं दिखायी।
एक दिन उसे तीन-चार मुस्टंड किस्म के स्वयंसेवक एकांत में ले गये और उस पर दोषारोपण करने लगे। कहने लगे, ‘‘तुम बाबा के प्रति अच्छी भावना नहीं रखते और उन्हें गालियाँ देते हो।’’
वह विस्मय में पड़ गया....ऐसा उसने कब किससे कहा? पूछने पर उसे बताया गया, ‘‘तुमने कहा नहीं, लेकिन मन ही मन ऐसा करते रहते हो। बाबा ने तुम्हारे मन की बात जान ली है। तुम बाबा के अपराधी हो, उनके साथ गद्दारी कर रहे हो, तुम्हें इसकी सजा मिलेगी।’’

इतना कहकर बिना कोई सफाई का मौका दिये वे उसे डंडे और लात-मुक्के से पीटने लगे। वह ना-ना कहता रहा, पर उन्हें कोई दया नहीं आयी और उसके निडाल पड़ जाने तक वे चालू रहे। उसे अपने आप पर संशय होने लगा कि जिसे वह पाखंडी और धूर्त समझता रहा, क्या सचमुच वह इतना अन्तर्यामी है कि मन की बात जान लेता है? यह तो सच है कि वह मन ही मन हर पल उसे गलियाता और कोसता रहा। लेकिन वह अन्तर्यामी होता तो पहले दिन से उसे परख लिया हो
ता। घृणा का भाव तो हृदय में शुरू दिन से ही था।

मार खाने के बाद वह कई घंटे तक बदहवास पड़ा रहा। जब किसी ने उसे झकझोर कर हिलाया तो उसकी आँखें खुलीं। देखा प्रधान स्वयंसेवक उसे गुस्से से घूर रहा है। उसने कहा, ‘‘अभी तक गौओं को चारा नहीं पड़ा और तुम लेटे हुए हो।’’
कराहते हुए वह उठा और गोहाल की तरफ चल पड़ा। इच्छा हो रही थी कि सालों को लात मारकर यहाँ से चल दे। मगर उसे दामिनी याद आ गयी। धैर्य और संयम बरतते हुए वह अपने रोज के काम में पूरी मुस्तैदी से जुट गया। तिल भर की नाराजगी भी अपने चेहरे पर आने नहीं दी। गाली जरूर एक करारी आयी होठों पर, यह सोचते हुए कि जा साले अन्तर्यामी के नाती मन की बात पढ़ता है तो पढ़ता रह।

पांच दिन बाद उसे एक स्वयंसेवक ने खबर दी कि ताऊ उसे बुला रहे हैं।
ताऊ ने उसे जरा प्यार से देखा और कहा, ‘‘तुम इम्तहान में खरे उतरे। तुम्हें तकलीफ हुई इसके लिए हमें खेद है। दरअसल कई बार ठग और नकली किस्म के लोग हमें धोखा दे गये हैं, इसलिए हमें जरा कड़ाई से पेश आना पड़ता है। तुम अब इस मुख्य प्रभाग में ही रहोगे, मेरे आसपास। स्वयंसेवक बता रहे थे कि तुम काफी पढ़े-लिखे हो और पौराणिक ग्रंथों का तुम्हें अच्छा अध्ययन है। खुशी हुई जानकर, तुम्हें अब तुम्हारी योग्यता के अनुकूल ही काम दिया जायेगा। ऐसा पढ़ा-लिखा यहाँ एक भी नहीं है और हमें वास्तव में इसकी जरूरत थी। तुम इस प्रभाग की प्रभारी साध्वी प्राची को सहायता करोगे, जो वह कहेंगी, तुम्हें करना है।’’
आदेश को उसने शिरोधार्य कर लिया।
इस मुख्य प्रभाग में कई कमरे, कई हॉल और कई देवताओं के मंदिर थे। पुराने और विश्वसनीय स्वयंसेवक इन्हीं कमरों में रहते थे, जो गौओं, खेतों, जड़ी-बूटियों, मंदिरों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, सत्संगों, अतिथियों, लंगरों, बाहर के दौरों, गायकों-वादकों आदि के प्रबंधन संभालते थे। किसी ने बताया कि यहाँ के अधिकांश स्वयंसेवक और कार्यकर्ता उनके दूर या नजदीक के संबंधी है।

प्राची ने उसे सुबह के पूजा-पाठ और शाम की आरती का जिम्मा सौंप दिया। उसने माथा पीट लिया. ...जितना वह इन लफड़ों और आडम्बरों से दूर रहना चाहता है नियति उतना ही उसे उसके करीब ठेल देती है। इससे तो अच्छा गौओं को चारा देना था। वह कभी-कभी ताऊ के तलवे सहलाने और सर में तेल लगाने के लिए भी भेज देती। उसकी बत्तीसी रगड़ खाकर रह जाती....यही काम है मेरी योग्यता के अनुकूल! उसका मन करता कि तलवा सहलाने की जगह गला ही दबा दे इस लुमेड़े का। ऐसे मानसिक उत्पीड़न के वक्त दामिनी और उसकी दी हुई चुनौती विशेष रूप से उसे स्मरण हो आती। क्या पता उसका कोई और इम्तहान बाकी हो!

अपने नजदीक पाकर बाबा उससे रामायण, महाभारत या वेद-उपनिषद आदि से कोई प्रसंग पूछ लेता। दिखाता तो ऐसा जैसे वह उसके ज्ञान भंडार को टटोल कर उसकी आजमाइश कर रहा है, लेकिन वह ऐसा करके दरअसल अपना ही ज्ञान बढ़ा
ने की जुगत कर रहा होता। सोहाने इसे खूब समझता था। उसके हाजिरजवाब पर वह अचम्भित रह जाता।

धीरे-धीरे सोहाने ताऊ के बारे में काफी कुछ जानने लगा। गुजरात के एक गाँव में उसका पैतृक मकान था, जहाँ उसकी पत्नी और दो जवान बेटे रहते थे। पत्नी और उसके बेटे अक्सर पैसे लेने आश्रम आ जाया करते थे। कहते हैं शेयर मार्केट और स्विस बैंक में इनलोगों ने अथाह धन लगा रखे थे। पत्नी जब आती थी तो प्राची आश्रम के किसी गुप्त कक्ष में छुप जाती थी। प्राची और ताऊ के रिश्ते से आश्रम के सभी लोग अवगत थे। कहते हैं दो-तीन बार प्राची और उसकी पत्नी में जबर्दस्त मार-पीट हो चुकी है। प्राची जब कभी-कभी मूड में आ जाती या ताऊ से किसी बात को लेकर कुढ़ी रहती तो उसके दबे-ढँके किस्से उधेड़ने लग जाती। एक बार बताया कि शुरू से ही सखानंद के अपराध और अपराधियों से गहरे रिश्ते रहे हैं। जायदाद बँटवारे के झगड़े में उसने अपने चाचा की हत्या कर दी थी। फरार रहते-रहते एक बाबा की शरण में यहाँ आकर गुर्जर लुक्खा राम, बाबा सखानंद ताऊ बन गया। उसने आगे बताया कि इस सूबे के एक बाहुबली मंत्री से उसकी गहरी साँठगाँठ है। इस पर जब कुछ आक्षेप लगता है तो मंत्री पूरा बचाव करता है। मंत्री जब चुनाव लड़ता है तो ताऊ भरपूर आर्थिक मदद करता है और आश्रम के सारे स्वयंसेवकों को हथियार देकर चुनाव जिताने भेज देता है।


ताऊ महीने में आठ-दस दिन विभिन्न शहरों में प्रवचन कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित होता। उसके पीछे-पीछे आश्रम का पूरा लाव-लश्कर जाता....तम्बू, कनात, माइक और दुकानों के सामान से लेकर भजन-मंडली तक। कुछ जगहों पर वह उसे भी ले जाने लगा। रिवाज था कि उसके मंच पर अवतरित होने के पहले उसका कोई सहायक माहौल निर्मित करेगा। उसी की शैली में अध्यात्म और दर्शन का कोई राग छेड़ेगा, जैसे मुख्य गायन के पहले आलाप लिया जाता है। सोहाने का नाम बदलकर ताऊ ने अचूकानंद कर दिया था। उसने अपनी दाढ़ी और बाल बढ़ा लिये थे और पूरी तरह गेरुआ चोंगा पहनकर घनघोर बाबा जैसा थोबड़ा अख्तियार कर लिया था। वह खुश था कि उसका अभिप्राय अपनी सही पटरी पर अग्रसर हो रहा है। आश्रम में चिरकुट साधुओं के बीच उसका एक-दो बार रिहर्सल हो चुका था। इस रिहर्सल को उसने जरा और पुख्ता कर लिया ताकि दस-पन्द्रह मिनट के शुरुआती संबोधन में एक गहरी छाप पड़ जाये। ऐसा करने में वह सफल रहा। ताऊ उससे बहुत प्रभावित हुआ। उसे दामिनी की फिर याद आ गयी। काश, उसके शहर में यह आयोजन संपन्न हो पाता और वह उसे देख पाती!

ताऊ के अगले सारे दौरों में सोहाने प्रवचन का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया। श्रद्धालुओं की आस्था और अंधभक्ति पर उसे हैरानी होती। ताऊ के चरण-स्पर्श के लिए आपाधापी मच जाती। अब तो लोग उसके भी पैर छूने लगे थे। उसका हृदय कराह उठता इस पाखंड पर। लगता जैसे चीख कर बता दे सबको, ‘‘अरे अंधों, जिनके पैर छूकर तुमलोग अपने दुखों और पापों से छुटकारा की उम्मीद कर रहे हो, वह एक हत्यारा, बहुरूपिया और अपराध संरक्षक भेड़िया है और मैं एक गड़ेरी हूँ जिसने तुमलोगों की धर्मभीरूता को भँजाने के लिए बाबा का रूप बना लिया है। तुम सब ठगे जा रहे हो....छले जा रहे हो......।’’ वह मन मसोसकर खुद को जब्त कर लेता।
 
ताऊ उसे अब वैसी जगहों पर अपने स्थानापन्न के रूप में भी भेजने लगा, जहाँ व्यस्तता के कारण उसका जाना संभव नहीं होता। तात्पर्य यह कि वह दो दिवसीय या तीन दिवसीय प्रवचन कार्यक्रमों को भी संभाल लेने में सक्षम हो गया। वह कहता कि भवसागर पार करने के लिए एक खेवनहार का होना जरूरी है। गुरू और महात्मा ही खेवनहार हो सकता है। इसलिए गुरू के बताये मार्ग का अनुसरण करो।

इस काइयाँ संवाद में अन्तर्निहित ध्वनि पर वह अपनी हँसी बमुश्किल रोक पाता। इस वाक्य का अभिप्रेत होता कि गुरू पर ज्यादा से ज्यादा चढ़ावा समर्पित करो।

ताऊ पर उसका प्रभाव गाढ़ा होता चला गया। अब आश्रम में उसका दर्जा काफी ऊपर हो गया। एक दिन उससे बातचीत में जरा ज्यादा अंतरंग होते हुए ताऊ ने उससे पूछ लिया, ‘‘सोहाने, तुम सच-सच बताना.....तुम्हारी असलियत क्या यही है जो तुमने हमें बताया है? क्या तुम वास्तव में इस दुनिया से थक-हार कर आये हो यहाँ?’’
उसने प्रति प्रश्न किया, ‘‘ऐसा आप क्यों पूछ रहे हैं ताऊ?’’
‘‘इसलिए कि मैंने महसूस किया कि तुममें तो खुद ही इतना प्रकाश है कि अनंत अँधेरे उससे जगमगा जायें। फिर तुम्हें किस प्रकाश की कामना है?’’

सोहाने को ऐसा लगा कि बाबा सखानंद ताऊ नहीं बल्कि लुक्खाराम गुर्जर उससे यह सवाल पूछ रहा है। ताऊ उसे इतना निश्छल और इतना मासूम कभी नजर नहीं आया। अब उसके लिए मुश्किल था किसी भी तरह का रहस्य बनाकर रखना। उसने खुद को पारदर्शी बनाते हुए अपना पूरा किस्सा बयान कर दिया और कहा, ‘‘एक धनपशु बाप ने अपनी दौलत के अहंकार से मुझे रौंदने की कोशिश की और उसकी प्यारी बेटी ने मेरे सामने एक चुनौती रखकर अपने प्यार का वास्ता दे दिया। हम उस शीर्ष को छूना चाहते हैं ताऊ जहाँ से उसका अहंकार तुच्छ नजर आये। वह लड़की दामिनी मेरा इंतजार कर रही है।’’

‘‘शीर्ष पर तो तुम्हें पहुँचा दूँगा सोहाने, तुम्हारे लिए एक नया आश्रम स्थापित करवा दूँगा, लेकिन क्या तुम एक लड़की के लिए इतना कुछ कर रहे हो? फर्ज करो वह तुम्हें मिल जायेगी......फिर ?’’
सोहाने ने तपाक से कहा, ‘‘फिर मैं यह काम छोड़ दूँगा ताऊ....मैं इस काम से घृणा करता हूँ.....ईश्वर, परलोक, मोक्ष, मुक्ति, पुनर्जन्म.....ये सारे उलझाने वाले तत्त्व हैं......जिस संसार को बार-बार मिथ्या बताया जाता है, मेरे लिए वही सबसे बड़ा सत्य है......।’’
‘‘तुम पागल हो सोहाने! सत्संग-प्रवचन का ऊंचा आसन छोड़कर क्या दुकान में फिर आटा-दाल तौलोगे? कोई अच्छी नौकरी तो तुम्हें मिलने से रही। मेरी मानो, सोहाने गड़ेरी को पूरी तरह भूल जाओ और अचूकानंद का चोला स्थायी कर लो। संसार का सच तुम्हारे सैद्धान्तिक जीवन को नून-रोटी भी नहीं दे सकेगा। दामिनी को सोहाने नहीं अचूकानंद जीत पा रहा है, इसलिए अचूकानंद को बना रहना होगा।....और तुम अचूकानंद बने रहोगे तो ऐसी कितनी दामिनियाँ तुम्हारे लिए कतार में खड़ी मिलेंगी।’’


सोहाने सन्न रह गया सुनकर। ताऊ के वाक्यों की गूँज-अनुगूँज एक आँधी बनकर प्रवेश कर गयी उसके भीतर। उसे पूरी तरह सहमत करने और विश्वास में लेने के लिए ताऊ अपने अतीत के वे सारे पन्ने खोलने लगा जिन्हें प्राची और दूसरे स्वयंसेवक पहले ही खोल चुके थे। उपसंहार करते हुए उसने कहा, ‘‘फैसला मैं तुम पर छोड़ता हूँ कि मेरा लुक्खाराम गुर्जर बनकर जेल में रहना उचित है या सखानंद ताऊ बनकर इस आश्रम का बाबा बनकर ? तुम तो काफी पढ़े-लिखे हो सोहाने, मैं तो काला अक्षर भैंस बराबर था, जो कुछ सीखा, इस आश्रम के स्वर्गवासी बाबा ने ही मुझे सिखाया।’’

सोहाने रात भर बेचैन रहा....ताऊ के शब्द उसे मथते रहे.....‘तुम अचूकानंद बने रहोगे तो ऐसी कितनी दामिनियाँ कतार में खड़ी मिलेंगी.....दामिनी को सोहाने नहीं अचूकानंद जीत पा रहा है।’ उसके सपने में एक दृश्य उभरने लगा।

वह पोमा के शहर में अचूकानंद बनकर प्रवचन करने गया है। पंडाल खचाखच भरा है....श्रद्धा और भक्ति की फुहारें चारो ओर बरस रही हैं। वह आसन पर बैठा है और उसके चरणवंदन करने के लिए दर्जनों लोग लाइन में खड़े हैं। इन्हीं में सेठ पोमा ढनढनिया भी है। वह सोहाने को पहचान नहीं पाता।

अपने प्रवचन से वह सबको अभिभूत कर देता है.....घड़ी-घड़ी उसकी जय-जयकार गूँजने लगती है।

प्रवचन के बाद अपने विश्राम स्थल पर वह एक आदमी भेजकर पोमा और दामिनी को बुलवाता है। वे धन्य-धन्य होकर हुलसते हुए आते हैं....बाबा ने बुलाया है, इतने लोगों में उन्हें बुलाया है, कैसे जानते हैं वे उन्हें? सोहाने पोमा को देखता है, फिर उसकी नजर दामिनी पर टिक जाती है....उसके चेहरे के किसी कोने में ठहरे हुए उस इंतजार को, जिसका उसने वादा किया था, वह ढूँढने की कोशिश करता है।

अपनी गंभीरता को झटक कर स्वर में अपने पूर्व का मामूलीपन लाते हुए वह कहता है, ‘‘मैं सोहाने गड़ेरी.....आपने शायद पहचाना नहीं.....दामिनी, मैं आ गया हूँ।’’

कुछ पल दोनों उसे भौंचक देखते रह जाते हैं। फिर पोमा सँभल जाता है। अपने बनिया वाले विवेक-स्विच ऑन कर लेता है, ‘‘मैं नहीं मानता......अगर आप सोहाने हैं तो कल मंच से सरेआम अपना नाम घोषित करके प्रवचन कीजिए, मैं मान लूँगा। सोहाने को मैं अच्छी तरह जानता हूँ, वह अचूकानंद बनना कभी स्वीकार नहीं कर सकता। उसे ऐसे कामों से सख्त चिढ़ थी।’’

ताज्जुब का भाव अब सोहाने के चेहरे पर आ गया है। वह फरियादी शक्ल बनाकर जैसे घिघिया उठता है, ‘‘दामिनी, विश्वास करो मेरा, मैं सोहाने हूँ। तुमने कहा था कि बन जाओ एक ऐसा गड़ेरिया, जिसके पीछे जमाना चल पड़े। देखो, आज मुझे चाहने-सुनने वाले कितने लोग हैं। तुमने कहा था कि तुम मेरा इंतजार करोगी।’’
दामिनी कहने लगती है, ‘‘मुझे माफ कीजिए बाबा.....मेरी परीक्षा मत लीजिए.....सोहाने का मुझे आज भी इंतजार है।’’
‘‘चलो बेटी।’’ पोमा कहता है और दामिनी उसके पीछे चली जाती है।

सोहाने की नींद खुल गयी और वह पसीने से तरबतर हो उठा

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११ जून २०१२

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