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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से जयनंदन की कहानी— बाबा का चोला


‘संसार मिथ्या है....ईश्वर ही परम सत्य है’। सोहाने गड़ेरी को बहुत गुस्सा आता था यह वाक्य सुनकर....जब संसार मिथ्या है तो साले तू हिमालय की बर्फ में जाकर जम क्यों नहीं जाता! क्यों शहर-शहर जाकर लाखों की गुरू-दक्षिणा और चढ़ावा वसूलते रहते हो और अपने आलीशान आश्रम में संपूर्ण कुनबों के साथ अय्याशी करते हो ?
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शहर में बाबाओं की बाढ़ आ गयी थी। हर सप्ताह किसी न किसी कोने में बाबा हाजिर। विशाल पंडाल....भव्य मंच....पुष्पसज्जित नयनाभिराम राजसी सिंहासन.....बाबा विराजमान.....लंबी दाढ़ी, लंबे बाल या फिर पूरी तरह सफाचट, तन में गेरूआ चोंगा.....मुख मण्डल से प्रवचन रूपी अमृत वर्षा जारी....उसमें सामने बैठकर भींगते हुए भारी संख्या में श्रद्धालू भक्तजन। (प्रवचन को वह शब्दों की जुगाली और श्रोताओं को बुद्धि के द्वार बंद किये हुए एक निरीह प्राणी समझता रहा था।) पंडाल के चारों ओर छोटे-छोटे मंडप, जिनमें शोभायमान रुद्राक्ष, चंदन, अगरबत्ती, धूप-दीप, प्रवचनों के मुद्रित संकलन, आश्रम की पत्रिकाएँ, प्रवचनों के कैसे
ट व सीडी, गीता, रामायण, वेद, पुराण, उपनिषद, आयुर्वेद के भस्म, बूटी, चूर्ण, आसव......मतलब दुकानदारी के तमाम सरंजाम।
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प्रायः सभी बाबाओं का ऐसा ही प्रारूप और मिलते-जुलते प्रवचन का एक ही निहितार्थ, चाहे वे सखानंद ताऊ हों, महात्मा ब्रह्मदेव हों, हरिप्रेम सुधाकर हों, कृतार्थ पुष्प हों, अनन्य भ्रमर हों, नरोत्तम प्रभु हों, अंत्योदय दादू हों या रामजप तीर्थ हों।

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