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जब सारे इंजीनियरिंग की घनघोर पढ़ाई में जुटे होते, वह घंटे से ऊपर रोज टेनिस खेलता। और आधे घंटे से ऊपर नहाता, पहले जिम में, फिर हॉस्टल में, देर रात को। ’टू हॉट’ लोग कहते। वह हॉस्टल के डाइनिंग हॉल में अपना खाना ऐसे खाता, जैसे उसे कुश्ती लड़नी हो, जैसे वह ज्यादा फीस भर रहा हो, या जैसे खाना खास तौर पर उसके लिए पकाया गया हो, या कि उसे जैसे खाने न दिया जाए। दोनों एक साथ। ये सब एहसास की बातें थीं, उसी ने उसे बताया था। वो अपने कॉलेज के दिनों की बातें खुलकर किया करते थे। लोग, यानि इंजीनियरिंग की जैन्ट्री उससे अलग रहती थी, या कि वह उनसे अलग रहता था, पर वो अलग रहते थे, अलग बैठते थे, कम बातें करते थे। जहाँ लोग उत्तर में कम से कम इंजीनियरिंग के तीन इम्तिहान दिया करते थे, वह एक के बाद ही दक्षिण आ गया था। कुछ कम ऊँचाई के लेबल, अथवा ब्रान्ड, वाले एक कॉलेज का दाखिला उसने पास कर लिया था, और फिर उसके आगे उसने और दूर तक देखने की मेहनत नहीं की थी। उसका कहना था कि वह एक नौकरी के लिए, इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ रहा था। वह एक डोनेशन स्वीकारने वाला कॉलेज था, लेकिन उसमें मेरिट के भी कोटे थे। उसका कहना था कि दाखिले के लिए भीड़ बहुत थी। वह हमेशा अपने लिए बहुत महफूज कोने तलाश लिया करता था। बहुत बड़े और महफूज कोने।

सबकुछ उसकी बदौलत था। करुणा दक्षिण के उस शहर से थी, जहाँ उसे इंजीनियरिंग पास करते ही नौकरी मिली थी। दो साल वहाँ काम करने के बाद उसने विदेश में नौकरी ढूँढ ली थी, और हमेशा के लिए लेक ह्यूरोन के पास के एक शहर में आ बसी थी।

करुणा फूड जर्नलिस्ट थी। वे एक रेस्तराँ में मिले थे। करुणा लंच में एक बड़ी सी थाली खा रही थी। केले के पत्ते पर। चुनने का अवसर था कि आप थाली, थाली में खाएँगे या केले के पत्ते पर। करुणा को केले के पत्ते पर खाना बहुत पसन्द था। उसे रेस्तराँ में खाना बहुत पसन्द था। उसके पास जर्नलिज्म का डिप्लोमा था। उसे बढ़िया खाना पकाना आता था। हालाँकि वह खाना पकाती बहुत कम थी। उसे स्वाद को चखना, निखारना, बघारना आता था। वह एक मांसाहारी, दक्षिण भारतीय परिवार से थी। उसकी माँ केरल की थीं पिता कर्नाटक के। ये दक्षिण का एक तीसरा राज्य था, जिसमें वे रहते थे। इस तीसरे राज्य की भाषा की पढ़ाई उसने मिडिल स्कूल तक पढ़ी थी। उसे काम लायक मलयालम और कन्नडिगां आती थी। इतनी कि उसमें लाड़ किया जा सके। शब्द डुबोकर माता पिता से बातें की जा सकें।

दोनों बैंक में अधिकारी थे। करुणा की बाकी दो बहनें भी गणित से जुड़े व्यवसाय में थीं। दोनों बहनें देश में नए आए प्राइवेट बैंकों में नियुक्त थीं। करुणा अंग्रेजी अखबारों के लिए लिखती थी। सिर्फ फूड जर्नलिज्म के लेख। कॉन्वेन्टी नहीं, बिल्कुल मॉडर्न पब्लिक स्कूल की अंग्रेजी में। वैसी अंग्रेजी में दक्षिण भारतीय भोजन के जायके पर लिखे गए उसके लेख बहुत लोकप्रिय हो रहे था। वैसी अंग्रेजी में काली और पीली सरसों की छौंक के स्वाद के अन्तर को ऐसे बयान करना कि भोजन की सारी बारीकी कागजी, बादाम की कतरना की तरह सज जाए। आंशिक रूप से विज्ञापन का जोश लिए, उसके लेखन को अखबार वाले भी पसन्द करते, होटल वाले भी, खाने जाने वाले भी, और आश्चर्यजनक रूप से खाने न जाने वाले भी। ऐसी बहुत सी महिलाएँ थीं, जिन्हें करुणा की रिपोर्टिंग बहुत अच्छी लगती थी। जो दिन में ५६ पकवान पकाया करती थीं, और जिन्हें अखबार में भोजन वाले स्तंभ बहुत अच्छे लगते थे। शहर में नई सॉफ्टवेयर कम्पनियाँ आ रही थीं, जो इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़कर निकले नए लड़कों को फौरन नौकरी दे रहीं थीं। शहर में जिस रफ्तार से नए दफ्तर खुल रहे थे, लगभग उसी रफ्तार से रेस्तरां भी। नए कॉलेज भी भोजन व्यापार की मदद कर रहे थे।

करुणा का मानना था कि उसके लिखे में विज्ञापन कहीं नहीं था, खाना पकाने की बातें थीं। कुछ एक लेखों के छप जाने के बाद ही, उसने एक फूड फेस्टिवल आयोजित किया था। माँसाहारी दक्षिण भारतीय फूड फेस्टिवल। दक्षिण के हर प्रदेश, प्रान्त, कस्बे भाषा लोगों की विभिन्नता लिए स्वादों की प्रदर्शनी, मिलती, जुलती, विधि से पके बारीक अन्तरों वाले व्यंजनों का उत्सव। दक्षिण में माँसाहारी और शाकाहारी की लड़ाई बहुत बड़ी थी। वैसे ही जैसे वैष्णव और शाक्त समुदाय की लड़ाई। करुणा ने देशी भोजन से शुरुआत की थी, एक टेलिविजन चैनल को भी बुलाया था समाचार देने के लिए। फौरन बाद उसने एक ब्राजिलियन फेस्टिवल ऑर्गेनाइज किया था, और फिर एक कॅरिबियन भोजन का त्यौहार। वह बिल्कुल अपने शीर्ष पर थी, पार्थ अपने शीर्ष पर था। उसके पेपर्स बन रहे थे।

वह इडली को पूरी तरह तोड़ मरोड़ कर खा रही थी। उसे गोश्त के गोलमिर्च डले शोरबे में मिलाकर, उँगलियाँ डुबोकर, तेजपत्ते की डंठलों को अलग करते हुए। खाने से पहले उसने थाली की डिजिटल कैमरे से तस्वीर ली थी। केले के पत्ते से सजी कटोरियाँ, साँभर, साबूदाने की खीर। और ढेरों कटोरियाँ। रसल और नारियल डली तरकारियाँ। पार्थ उसके आगे आ बैठा था, ’’हैलो हाथ से खाना खाने में ज्यादा मजा है?’’ उसने चम्मच से नारियल के दूध वाली मछली की तरी खाते हुए पूछा था। करुणा ने बाद में सोचा था कि शायद उसने उसे पहचाना हो, अखबार में कहीं उसकी रपट देखी हो या टेलिविजन पर उसे देखा हो। उस वक्त वह सिर्फ मुस्कुरा दी थी। हँसना उसने बाद के लिए रख छोड़ा था। पार्थ ने उसे एक चाइनीज बफे के लिए आमंत्रित किया था। उसने उसे चौपस्टिक से खाने की चुनौती दी थी।

करुणा ने ऑथेन्टिक फिल्टर कॉफी की जगह पर बुलाया था। उसने उसे कई बहुत ऑर्थेन्टिक जगह पर मिलने को बुलाया था। फिर पार्थ ने खाने और पीने के दायरे से बाहर, पार्क में, फिर थिएटर में उसे बुलाया था। उन्होंने आने, जाने, बुलाने और मिलने का सिलसिला बनाए रखा था, नई-नई जगहें ढूँढकर, नए-नए बहाने ढूँढकर। और फिर बिना बहाने, पुरानी जगहों पर। थोड़े समय बाद, पार्थ के कागज आ गए थे, और उसने करुणा से कहा था कि वह ढेर सारे फल और गहनों से सजकर उससे शादी कर ले। फूल करुणा के कंधों पर बिखर कर एक लम्बी चोटी के आवरण में नीचे तक उतर आए थे। फूल उसके हाथों में भी बँधे थे। फूलों की खुशबू में लिपटे, वो उस शहर आ गए थे, जहाँ उन्हें आना था।

यहाँ बिल्कुल अलग किस्म के फूल थे। अलग गुलदस्ते, अलग बगीचे। उसने उत्साह से भरकर, कारनेशन्स का एक गुलदस्ता खाने की मेज पर सजा दिया था। लाल कारनेशन्स का एक गुलदस्ता। पार्थ अपने काम में कुछ ऐसा तल्लीन हो गया था, जिस तल्लीनता से वह टेनिस खेला करता था। बात ये नहीं थी कि सौंधे, सिंके हुए भोजन का जायका बताना मुश्किल था, बात थी कि बार-बार-क्यूँ नब्ज फिसली जाती थी। नया देश, नए रिबाज, नया खाना, तारीफ के नए अंदाज। भाषा वही, अदाएँ नई। हालांकि करुणा को मिश्रित खाना बहुत पसन्द था, इतालवी खासतौर से, उसके साथ गुनगुनाना, लेकिन गीतात्मक ढंग से उस पर लिखना अलग बात थी। बात थी कि यहाँ स्पेशलाइजेशन था। बात थी कि यहाँ पैमाने बड़े थे। फूड एन्ड लिविंग नामक एक पत्रिका से वह जुड़ सी गई थी। पार्थ ऐसे कागजों पर आया था, जिन पर वह भी काम कर सकती थी। ऐसे में, एक कैरेबियन फूड फेस्टिवल में वह धीरे-धीरे समझ रही थी कि भोजन की पारंपरिक पहचान किसको कहते हैं। करुणा के पास भी प्रस्ताव थे। पारंपरिक पहचान थी। शहर में भारतीय रेस्तराँ थे। और शहर से बाहर भी। शहर में मसालों की दुकान थी। उसमें हर किस्म के मसाले मिलते थे। और मसालों के अलावा भी सबकुछ। पापड़, अचार, घी, गुड़।

जमेकन फेस्टिवल के बाद हवायन फेस्टिवल था, और फिर जापानी। ऐसे में ढेरों ढेर, खुशबुओं से घिरी एक शाम को, किसी ने झुककर उसे चूम लिया। इन आयोजनों की मैनेजमेंट टीम बहुत बड़ी हुआ करती थी। वह उनमें से एक था। ऑर्किड्स के ढेरों फूल थे। करुणा ने पूरी रात उसके कहने पर उसके साथ बिता डाली थी। कैसे, जाने कैसे ? नए लोग, नई बातें, काम का नया पैमाना। पुरानी बातों का भूलना, भुलाना। पार्थ का देर से घर आना। उसके गुलदस्ते को कभी नहीं देखना।

उसे वह पत्रिका छोड़नी पड़ी थी। हादसा गुजर गया था। उस घटना के पूरी तरह बीत जाने पर पार्थ ने उससे कहा था कि वह दूसरों के साथ सोना छोड़ दे। जैसे औरों के साथ सोना उसकी आदत हो। आदतन सोना गैर मर्दों के बिस्तरों में। एक तिलमिलाहट उसके गले में अटक गई थी। उसने चाहा था कि सूटकेस समेत घर से बाहर निकल जाए। लेकिन उनके बीच काफी कुछ शेष था। पुराने स्वादों का जायका। देर से आने का उलाहना। उसने सोचा था कि वो दुबारा बातें करेंगे। उनके बीच काफी कुछ नया भी था। एक ओहदे का अन्तर। एक ओहदा अपने आप में।

काफी शिद्दत से ऐसे आयोजन करने वाली एक कम्पनी में उसने नौकरी तलाशी थी। लिखेगी, वह बाद में। यहाँ का इंडियन खाना बिल्कुल अलग था। जिसे कहते हैं कस्टमाइज्ड। वह जानना चाहती थी कि और जगहों के खानों का क्या हाल था। काफी पहचान बतानी पड़ी थी उसे। सबसे बड़ी पहचान खुद पार्थ की। कि वह पार्थ के साथ आई थी। पार्थ की पत्नी थी।

पार्थ दफ्तर में हर कहीं, हर दिन मौजूद होता था। लगभग हर बात में। कार्यक्रम आयोजित करने की अपनी राजनीति थी। किसको बुलावा, किसको नहीं। दुनिया में बहुत विख्यात शेष थे, होटलों का क्या कहना। उससे भी ज्यादा, किन ब्रान्ड्स के फूड प्रोडक्ट्स को प्रश्रय देना, किनको शामिल करना, किन को आयोजक बनाना। जान-पहचान की भयानक सीढ़ी थी। कुछ ऐसे ब्रान्ड्स थे, लेबल्स थे, जिनका नाम आयोजन के साथ जोड़ने के लिए लम्बी कतार थी, कई दरवाजे थे, ताले और चाभियों वाले।

वह बेहद व्यस्त होती जा रही थी। लेबल्स की राजनीति में उलझती जा रही थी। पार्थ उससे बहुत दूर होता जा रहा था। जमाना हो गया था उसे घर में घरेलू खाना पकाए। जिस समय वो घर पर साथ होते, यानि कि रात, पार्थ बहुत व्यस्त होता। वह खुद भी बहुत व्यस्त होती। कम्प्यूटर के आगे बैठी, ब्रान्ड्स की एकदम नई दुनिया से साक्षात्कार करती हुई। उनका निरीक्षण करती हुई। वह हल्का फुल्का कुछ तल भुन लेती। फ्रोजेन फूड्स के डब्बे खोलकर। उन पर भी लेबल लगा होता। बगैर लेबल न खाना पकता, न कोई ख्याल आता। न कोई बात होती। रफ्तार की, नाम की, प्रतियोगिता की उस लय में प्रवेश पाना, पहचान बनाना, करुणा को संभव जान पड़ रहा था।

किसी शाम वह सिर्फ लजान्या का एक डब्बा माइक्रोवेव कर देती। एक शाम बाहर से मँगाए गए चीनी खाने का पैकेट खोलते हुए उसे लगा था कि अगर वो ये सबकुछ छोड़ देती, तो पार्थ करीब आता। उसे पार्थ की व्यस्तता से समानांतर खाली समय रखना था। उसे पार्थ की व्यस्तता का ख्याल करना था। अगर वो बिल्कुल खाली होती, कि पार्थ उसके पास कभी भी लौट सके, तो ये दूरी नहीं होती। अगर वो ये छोड़ देती, खानों के उम्दा विदेशी लेबल्स, तो पार्थ उसके करीब आ जाता। कुछ यों कि जैसे सिर्फ वह हो। घरेलू भोजन, ताजी सब्जियाँ, कोई लेबल नहीं, किसी और का नाम नहीं।

एक आयोजन के लिए सारे शेक्स उसने चुने थे। शाम बहुत शानदार रही थी। इंडोनेशियाई खाने का जलसा था। सबकुछ बहुत करीने से था। फल और फूल की बगल में, हल्की गर्माहट पके तैयार खाने, कुछ पर्दों पर, कुछ भोजन की बगल में, लेबल्स के नाम। बतौर, किसी ने झुककर उसे चूम लिया था। प्रशंसा में। या शायद प्रशंसा से ज्यादा कुछ कहते हुए, किसी ने उसे चूम लिया था। रात फिर साथ गुजरी थी। प्रस्ताव उधर से आया था। उसे न कहना था।

शादी टूट गई थी। करुणा ने ही तोड़ी थी। पार्थ उसे एक मौका और देना चाहता था। लेकिन बात वहाँ खत्म नहीं हुई थी। बात वहाँ से शुरू हुई थी। करुणा को कहीं कोई नौकरी नहीं मिल रही थी। उसने अपने सबसे अहम रेफरेन्स को छोड़ दिया था। लेकिन अंजाम अविश्वसनीय था। कहीं भी जाने पर उससे इंतजार करने को कहा जाता। फिर उसे एक अदृश्य लम्बी लाइन की सूचना दी जाती। प्रार्थना पत्र और परिचय जमा करने से पहले भी, और उसके बाद भी। एक सामाजिक मापदण्ड उसके आगे खड़ा किया जा रहा था, सामाजिक भी और राजनैतिक भी। एक ऐसा मापदण्ड जो सबके लिए बराबर नहीं था। यानि मूल बाशिन्दों के लिए अलग मापदण्ड थे, और आप्रवासियों के लिए अलग। आप्रवासियों के जीवन साथियों के लिए और भी अलग।

वह पार्थ पर मुकदमा कर सकती थी। पार्थ ने उनके बीच अंतहीन दीवारें खड़ी की थीं। पार्थ ने उसे इन रिश्तों में धकेला था। पार्थ ने उसे खुद से दूर किया था। वह पार्थ का खात्मा कर सकती थी, मुकदमें में। उसे उस मुकदमें की तैयारी करनी थी। यानि मुकदमा भी तैयार करना था और खुद को भी। पर ये तैयारी बहुत मुश्किल जान पड़ रही थी। खात्मे का मुकदमा। पूरा खात्मा नहीं, अधूरा खात्मा। कुछ अपना भी खात्मा। और उस सबकुछ का खात्मा जो कभी उनके बीच था। पेशी। समाधान नहीं, स्पष्टीकरण।

लोगों को यह बहुत मंजूर होता। अगर ऊपरी तौर पर नहीं भी, तो अन्दर से। कि अगर कुछ हुआ था, तो क्यों हुआ था? कैसे हुआ था? किसकी गलती थी? कि अगर कुछ न निभा, और न निभने की प्रक्रिया में और भी विस्फोटक हादसे हुए, तो जिम्मेदार कौन था ? एक अगर दूसरे को दोषी ठहराए तो लोगों की हुकूमत बनी रहती है समाज की हुकूमत। व्यवस्था की हुकूमत। ये सबकुछ वह अपने इर्द गिर्द महसूसस कर रही थी जबकि शादियों के टूटने की गति पचपन से ऊपर थी। उसे लग रहा था कि बगैर उस वृहत लड़ाई के लोग उसे जीने के साधन उपलब्ध नहीं कराएँगे। उसे उनका दरवाजा खटखटाना होगा। बात रजा दफा नहीं हो सकती। उसे नौकरी नहीं मिल सकती।

पार्थ के बगैर जीना मुमकिन था। पार्थ का खात्मा कर जीना मुमकिन नहीं। पार्थ उसे प्रिय हो, पार्थ औरों को भी प्रिय था, लेकिन बात की सफाई जरूरी भी। सत्ता लोगों की थी, लोगों की सत्ता को जवाब चाहिए थे। आप ऐसे नहीं जी सकते, कि जैसे आप लाजवाब हों।

लगभग लोगों की अव्यक्त माँग पर उसने कोर्ट में याचिका दायर की। तलाक बड़ी खामोशी से हासिल हो गया था। याचिका डीफेमेशन कोर्ट में दायर हुई थी, आरोप कि पार्थ उसके कार्यक्षेत्र पर कब्जा किए था, कि पार्थ ने उसके बारे में अफवाहें उड़ाई थीं, इत्यादि, इत्यादि। पार्थ का वकील एक बहुत पहुँचा हुआ वकील था। पार्थ करुणा को पूरी तरह परास्त करने के इरादे से आया था।

पार्थ करुणा से काफी दूर और काफी आगे जा चुका था। उसकी एक प्रेमिका थी, जिसके वह करीब था। करुणा का दावा था कि पार्थ की उसके काम में, यहाँ तक कि उसके दफ्तर में, बहुत दबंग उपस्थिति थी। करुणा का दावा था कि पार्थ ने उसके दफ्तर में सम्पर्क किया था। करुणा का दावा था कि पार्थ ने उसके दफ्तर में अपने नाम के हस्ताक्षर किए थे, प्रतीकात्मक रूप से। नौकरी जैसे उसकी बदौलत थी। करुणा का दावा था कि पार्थ की वजह से उसे नौकरी नहीं मिल रही थी, पार्थ से अलग होने की वजह से।

पहली सुनवाई के बाद ही पार्थ ने उसे एक मित्रवत प्रस्ताव दिया था, वह पीछे लौटने की बजाए, आगे क्यों नहीं देखती ? किसी को ढूँढ क्यों नहीं लेती ? दूसरी सुनवाई में दफ्तर और पार्थ के बीच के सम्पर्क सूत्रों की खुदाई शुरू हुई। एक हस्तक्षेप की तहकीकात। जिनसे पार्थ ने सम्पर्क किया था, वो करुणा के अनन्त इम्तहान ले रहे थे। पहले सेशन की जिरहों के बाद, पार्थ ने उसे दोस्ताना अंदाज में घर पहुँचाने का न्यौता दिया। डिवोर्स सेटलमेंट के मुताबिक एक गाड़ी करुणा की थी। लेकिन वह पार्किंग में खड़ी थी, करुणा के पास पेट्रोल के पैसे नहीं थे।

पार्थ हमेशा की तरह गाड़ी तेज चला रहा था। गाड़ी को धक्का पीछे से लगा था। धक्का इतना जबरदस्त था कि पीछे से न होकर बगल से भी हो सकता था। धक्का ड्राइवर की ओर लगा था। बाईं तरफ। धक्का लगाने वाला बाईं तरफ की लेन से रफूचक्कर हो गया था। करुणा का ये आखिरी ख्याल था। उसे ये देखना, ये सोचना याद था कि एक गाड़ी सरसराती हुई निकल गई थी, और फिर अचानक अँधेरा। पार्थ की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई थी। करुणा महीनों से एक कोमा में थी, जिससे निकलने की उम्मीद फिफ्टी-फिफ्टी थी। मुकदमा रुका था। एक सच था, जिस तक पहुँचना मुश्किल था।

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१७ सितंबर २०१२

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