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पार्थ। अभी
भी, कभी-कभी वह आधी रात को, बीच रात को, भयानक अँधेरे में,
सुबह होने से पहले, तीन बजे के आसपास चौंककर जागती, उसे
टटोलती, जैसे प्यार अंधा हो, तलाशती, पुकारती, खामोशी से।
पार्थ। वह कब का जा चुका था। पसीने की कुछ ठंडी बूँदे, एक झीनी
सी परत, उसकी बाहों के नीचे तैर आती। यहीं तो सारी लड़ाई थी,
पार्थ अब भी प्रिय था, पार्थ बहुत प्रिय था, प्रिय था तो तलाक
क्यों? तलाक के बाद प्रिय क्यों ? ये विरोधी खेमे के सवाल थे।
करुणा के सवाल थे कि वह इतना मौजूद क्यों था ? कोई प्रिय होकर
भी दूर हो सकता है उसके जाने के बाद सबकुछ खत्म क्यों था? कि
सबकुछ उसी से क्यों था? कि वही सबकुछ क्यों था ? कि अब कुछ भी
पाने के लिए उसे उससे लड़ना क्यों था ? लड़ना नहीं विकराल युद्ध।
पार्थ अब भी प्रिय था-सबसे ज्यादा अपनी गैर हाजिरी में। लेकिन
उसकी सारी हस्ती उसके होने न होने के दरमियान सिमट गई लगती थी।
पार्थ बेशक प्रिय था। पार्थ हमेशा मित्रवत था।
उसने आँखें बन्द कीं। पार्थ। सब उसे वृहन्नला कहकर चिढ़ाते, वह
घंटों टेनिस खेलता, ठंडे पानी के शावर के नीचे, जिम के बाथरूम
में नहाता, दक्षिण की गर्मी में। दक्षिण की तीखी, तेज, चिपचिपी
गर्मी में। उसने खुद उसे बताया था। उसने वहाँ से इंजीनियरिंग
की पढ़ाई की थी। |