अक्सर
मैं देखती, कभी-कभी मामी ऐसे माहौल में भी उदास हो जाया करतीं
फिर मौके की नज़ाकत देख कर अपने चेहरे पर मुस्कराहट का ग़िलाफ
चढ़ा लेतीं। मामा की फौज़ में नौकरी होने के कारण मामी हम लोगों
के साथ हमारे ही घर में रहा करतीं। मामा मामी के कोई सन्तान
नहीं थी। इस कारण भी वे लोग हमीं को अपनी सन्तान समझा करते। और
अपने प्यार में कोई भी कमी नहीं आने देते। . इस तरह वे लोग
हमारे घर का हिस्सा ही बन गये थे।
मेरी विदाई के समय सबसे ज्यादा मुझसे लिपट कर मेरी मामी ही
रोयीं थी।... मेरे विवाह के कुछ समय बाद मेरे बाबूजी के हाथ की
लिखी कोना फटी चिट्टठी आयी थी। उसमे उन्होंने मामा के न रहने
की बात लिखी थी और लिखा था कि मामा मेरे विवाह के समय से ही
अस्वस्थ चल रहे थे। फर्क सिर्फ इतना था कि मामा ने अपनी बीमारी
की बात किसी को भी नहीं बतायी थी। जब उनका बिस्तर से
उठना-बैठना मुश्किल हो गया तब जा कर मेरे माँ-बाबूजी को पता
चला कि मामा को केन्सर था। पर मामी को मामा की बीमारी के बारे
में शायद पता था।
अब मामी का उदास चेहरा
मेरी आँखों में तैरने लगा था क्यों वे मेरे विवाह के समय
कभी-कभी उदास हो जाया करतीं थीं। विवाह के माहौल में भी जब कभी
उन्हें फुरसत के कुछ पल मिलते थे तब वे एकान्त में रो कर अपना
मन हल्का कर लिया करतीं थीं। लगता है कि मामा ने ही उन्हें
मेरे विवाह होने तक किसी को कुछ भी अपनी बीमारी के बारे में ना
बताने के लिये कहा होगा। विवाह के कुछ वर्षों बाद ही मालूम हुआ
कि अभिषेक को कम्पनी के काम से कुछ समय के लिये अमेरिका जाना
पड़ेगा ना चाहते हुये भी हम लोगों को अमेरिका जाने का मन बनाना
ही पड़ा।
हम लोगों के न्यूयार्क जाने से कुुछ दिनों पहले अचानक मामी को
अपने दरवाजे़ पर खड़ा देख कर मैं हैरान रह गयी थी। मामी हफ्ते
भर मेरे पास रहीं थीं। इस एक हफ्ते में ही वे मेरे बच्चों के
साथ घुल मिल गयीं थीं । मामी ने मेरे यहाँ भी किचिन का सारा
काम सँभाल लिया था। उनके साथ बिताया हुआ एक हफ्ता कहाँ निकल
गया मालूम ही नहीं पड़ा। मामी मेरे मामा के साथ बहुत खुश नहीं
थीं ऐसा उनकी बातों से मालूम होता था। कई बार मामा का ज़िक्र
आने पर मामी अनमनी सी हो जाया करतीं थी। पर मेरे दोनो बच्चों
अभिनव एवं अविरल के बीच रहकर उन्होंने जैसे अपने सारे ग़मों को
भुला दिया था। मामी मेरे यहाँ आने के बाद बच्चों के स्वेटर
बुनने का काम भी कर दिया करतीं थीं। क्येां कि
मैं जानती थी मामी को स्वेटर बुनना तथा नयी-नयी डिज़ाइनें
डाल-डाल कर स्वेटर बनाना बहुत अच्छा लगता था। घर के काम करने
में उन्हें ज्यादा ही खुशी मिला करती थी ।
...मामी मेरे यहाँ एक सप्ताह बिताने के बाद . माँ-बाबूजी के
पास चली गयीं थीं। ...न जाने क्यों जाते समय अपनी आँखों के
आँसू नहीं रोक सकीं थी वह जाते जाते मेरे हाथ में एक सौ रुपये
का तुड़ा-मुड़ा नोट पकड़ा गयीं थीं। कहा था ‘‘शुभ्रा! बच्चों के
लिये मेरी तरफ से कोई मिठाई मँगा लेना ’’यह कह कर ... उन्होंने
अपना आँसू भरा चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था।
उनके जाने के बाद मैं तथा मेरे पति अभिषेक भी न्यूयार्क जाने
की तैयारी में व्यस्त हो गये थे... और कुछ दिन बाद ही हम लोग
सपरिवार न्यूयार्क के लिये रवाना हो गये थे। धीरे धीरे
न्यूयार्क में मेरे पति अभिषेक के एक के बाद एक प्रमोशन होते
चले गये और कुछ दिनों बाद ही अभिषेक एक कम्पनी में डाइरेक्टर
बन गये थे ।...धीरे धीरे परिवार के साथ समय बीतता चला जा रहा
था।हम लोगों को न्यूयार्क में रहते हुये लगभग पाँच वर्ष बीत
चुके थे। इघर अभिषेक के माँ-पिताजी भारत में स्वयं को अकेला
महसूस करने लगे थे और हम लोगों को भी भारत में ही स्थाई तौर पर
रहने के लिये बाध्य कर रहे थे। माँ पिताजी की मानसिक
परिस्थितियों को देखते हुये अभिषेक ने भारत आकर यहीं पर रहकर
किसी भी अच्छी कम्पनी में
नौकरी करने का मन बना लिया था।
अतः अभिषेक को अपना ट्रांसफर यू़. एस. ए. से भारत में करवाना
ही पड़ा। ...इसके बाद हम लोग पिछले वर्ष सितम्बर से देहरादून के
पौष इलाके में आकर रहने लगे हैं। बच्चों का यहाँ के एक पब्लिक
स्कूल में एड्मीशन करा दिया है। थोड़े दिनों तक तो यहाँ
देहरादून में अभिनव और अविरल का मन नहीं लगा। पर, कुछ दिन बाद
उन्होंने अपने दादा दादी के साथ मन लगा ही लिया। इस बीच बच्चों
के साथ मैं इतना व्यस्त हो गयी थी कि अब मुझे मामी का ध्यान कम
ही आया करता । माँ-बाबूजी से कभी- कभी मामी के हाल चाल मिल
जाया करते। न्यूयार्क में रह कर भी माँ से मामी के हाल चाल
मालूम कर लिया करती थी।
एक दिन बाबूजी का फोन आया था कि मामी की हालत विक्षिप्तों जैसी
हो गयी है।
इतना सुन कर मेरा मन बैचैन हो उठा था... और तुरन्त मैंने
बाबूजी के पास जाने का मन बना लिया। कहते हैं इन्सान सोचता कुछ
है और होता कुछ है ।
मेरे देहली
पहुँचने से एक दिन पहले ही मामी अर्द्वविक्षिप्त अवस्था में ही
घर छोड़ कर कहीं चलीं गयी थीं । बाबूजी ने समाचार पत्रों में,
टोलीविज़न आदि में भी ‘गुमशुदा की तलाश ’ कॉलम के अन्तर्गत आने
वाले सभी विज्ञापनों में उनके गुम हो जाने की सूचना दी पर,
मामी के बारे में कुछ भी पता न चला । अतः सभी लोग इस हादसे को
अपनी नियति मान कर चुप ही हो गये। मैं भी थक हार कर वापिस अपने
घर देहरादून आ गयी। मामी की याद हर पल मुझे सताती रहती। पर,
मजबूरी के आगे कहाँ किसी का वश चलता है।
मामी कब मेरे
अन्तर्मन के कोने में छुप कर बैठ गयीं मालूम ही नहीं हुआ। रोज़
की दिनचर्या, काम की भागदौड़ में एक वर्ष जैसे पीछे ही छूट
गया।
बच्चों की
गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ी तो अभिषेक ने परिवार के साथ गोवा
जाने का मन बना लिया। गोवा में पर्यटन आनंददायक रहा। सभी
पर्यटन स्थल घूम लिये थे। चर्च भी देख लिया था। एक दिन हम लोग
मजोर्डा बीच पर घूम रहे थे और बच्चे समुद्र में अठखेलियाँ कर
रहे थे। तभी अविरल आया अैर कहने लगा ‘‘ मम्मी! बहुत जोरों से
भूख लग रही है ’’चारों तरफ नज़र दौड़ाई ...पर, कहीं भी खाने की
कोई उचित एवं साफ सुथरी जगह नहीं दिखाई दी। चारों तरफ नारियल
पानी, सीप के शो पीस आदि की दुकानों के अलावा कुछ भी नहीं था।
दूर एक ढाबा दिखाई दिया तो मेरी निगाह उसी ओर उठ गयी। वहाँ मैं
और मेरे पति बच्चों के साथ पहुँचे।
बड़े ही साफ
सुथरे तरीके से एक महिला फुर्ती के साथ पर्यटकों के लिये चाय-
नाश्ता तैयार कर रही थी। एक चौदह पन्द्रह बरस का लड़का भी था जो
उस महिला की मदद कर रहा था। एक तरफ गैस स्टोव पर चाय बन रही थी
तो दूसरी ओर वह महिला तवे पर गरम - गरम परांठे सेंक रही थी।
अभिषेक और बच्चों से रुका नहीं गया। हम सभी लोग उसी ढाबे में
जाकर बैठ गये। थोड़ी देर बाद वह लड़का आया और चार गिलास ठंडे
पानी से भर कर रख गया। थोड़ी देर बाद ही वह महिला हम लोगों के
लिये गर्म गर्म परांठे सेंकने लगी। जब उस महिला ने अचानक हमारी
ओर अपना चेहरा घुमाया तो एक बार तो मुझे विश्वास ही नही हुआ कि
जो महिला हम लोगों को परांठे बना बना कर खिला रही है वह और
केाई नहीं मेरी अपनी मामी हैं। अनायास ही मेरे मुँह से निकला
‘‘मा...मी ’’ वह महिला भी अचानक मुझे वहाँ देख कर सकपका गयी
थी। पर, शायद उनके पास भी कोई चारा नही था। तुरन्त उनके मुँह
से भी निकला ‘‘शुभ्रा आ...प . यहाँ ?...’’और इसके बाद न
तो उनके मुँह से कोई शब्द निकला और ना मैं ही उन्हें कुछ कह
पायी।
बच्चों ने
तथा अभिषेक ने पेट भर कर खाना खा लिया था। जब मैं पैसे
देने लगी तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और हम सब को अन्दर एक
छोटे से कमरे में ले आयीं। कमरे की दशा देख कर लग रहा था मामी
की आर्थिक दशा ठीक नहीं है। अतः बातों का सिलसिला मैंने ही
शुरू किया ।‘‘मामी अचानक आपने घर छोड़ने का फैसला क्यों ले
लिया? क्या माँ बाबूजी का मन दुखा कर आपको अच्छा लगा ?
मामी के चेहरे के भावों को देख कर मुझे लगा मामी को मेरा इस
तरह प्रश्न पूछना अच्छा नहीं लगा ...उसके बाद मामी ने जो बताया
उस पर तो जैसे मुझे विश्वास ही नहीं हुआ।
‘‘शुभ्रा!
तुम्हें तो मालूम ही है कि तुम्हारे माँ बाबूजी यानि कि दीदी-
जीजा जी ने हम लोगों को कितने लाड़ प्यार से पाला था। यहाँ तक
कि तुम्हारे मामा के निधन के बाद तो दीदी जीजा जी ने कोई भी
कमी ही नही रहने दी थी। जब मेरी तबियत ख़राब रहने लगी और मैं
अपने आपको काम करने में असमर्थ समझने लगी तब मुझे अहसास हुआ कि
मैं दीदी जीजाजी के ऊपर बोझ बनती जा रही हूँ। दीदी बात बात पर
अपनी खीझ मेरे ऊपर उतारा करतीं। मुझे इलाज़ तक के पैसे उनसे
माँगने पड़ते यहाँ तक कि एक दिन तो उन्होने घर छोड़ने के लिये भी
कह डाला था। ...’’मामी की आँखों से आँसुओं की अविरल धारायें
बही जा रहीं थीं। लग रहा था आज आकाश में बादलों का पानी जैसे
सूख ही जायेगा। ‘‘शुभ्रा! जब मुझे लगा कि अब मेरा दीदी जीजा जी
के पास रहना मुश्किल है तब मैंने अपने दूर के भाई जिसे तुम
शायद जानती भी हो गौरव नाम है उसका, उस से जब अपनी परेशानियों
के बारे में बताया तो वह मेरी परेशानी समझ गया और उसने ही मेरा
इलाज़ कराया और फिर वह यहाँ मेरे साथ रहने लगा। कुछ दिनों पहले
वह भी एक नौकरी के सिलसिले में पण जी चला गया है। पर वह हर
हफ्ते आ कर मेरा हाल चाल मालूम कर लिया करता है। और उसी ने
मुझे यहाँ गोवा में रह कर यह ढाबा चलाने की सलाह दी थी। पहले
यह ढाबा गौरव ही चलाता था अब उसके बाद इस काम को मैं सँभाल रही
हूँ।’’
थोड़ी देर तक
तो मुझे मामी की बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। माँ बाबूजी के
बारे में तो मैं ऐसा स्वप्न में भी नही सोच सकती थी यह सब
सुनने के बाद तो हम सभी लोगों के बीच एक खामोशी ही फैल गयी थी।
अभिषेक ने ही खामोशी तोड़ी ‘‘मामी ! अब आपने आगे के बारे में
क्या सोचा है?’’क्या इसी तरह यहीं गोवा में ही अपना जीवन बिता
देंगी? आप हमारे साथ देहरादून क्यों नहीं चलतीं ? आपका भी मन
लग जायगा और बच्चे भी आपके साथ खुश रहेंगे ’’मामी ने एक
निःश्वास छोड़ी और कहा ‘‘अभी मेरा देहली वापिस दीदी - जीजा जी
के पास जाना तो बहुत मुश्किल है। और फिर अब तो मेरा यहाँ मन भी
लग गया है।’’ हम लोग उनके कमरे में और अधिक देर रूक नहीं पा
रहे थे एक बैचेनी थी जो वहाँ के माहौल में घुटन पैदा कर रही
थी। अभिषेक ने भी मुझे वापिस अपने होटल चलने के लिये इशारा कर
दिया था। थोड़ी देर बाद हम लोग वहाँ से चलने के लिये उठ ही गये
थे। मामी बाहर के दरवाजे तक हम लोगों को छोड़ने आयीं थीं।
उनकी
निगा़हें दूर तक मेरा पीछा करती रहीं थीं। इसके बाद हम लोग
अपने होटल में आ गये थे। समझ नही आ रहा था कि माँ बाबूजी को
क्या कहूँ या क्या ना कहू ।मन में एक अनुत्तरित प्रश्नों के
बीच घमासान युद्व छिड़ा हुआ था। फिर इसके बाद मेरा गोवा में मन
नहीं लगा। अगले दिन ही हम लोग देहरादून के लिये गोवा से रवाना
हो गये थे। वहाँ मामी के साथ साथ छोड़ आये थे कई
अनुत्तरित प्रश्न |