|
यों तो वे थे
मेरे दूर के रिश्ते के मामा ही पर, मेरी माँ ने ही उन्हें
पढ़ाया लिखाया या फिर यों कह लो उनकी सारी परवरिश ही मेरे
माँ-बाबूजी ने ही की थी। उसके बाद जब मेरे मामा विवाह योग्य
हुये तो उनका विवाह भी मेरे घर में ही हुआ। इस तरह मेरे
मामा-मामी ने मुझे इतना प्यार दिया कि वे लोग मुझे सगे
मामा-मामी जैसे ही लगने लगे। मेरी मामी बहुत ही सुन्दर थीं।
शायद थोड़ी बहुत पढ़ी लिखी भी। उनका सर्वश्रेष्ठ गुण यह था कि
उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कान खिली रहती थी। कोई भी उन्हें डाँट
लेता फिर भी वह हमेशा मुस्करा कर ही सबको खुश कर लिया करतीं।
उनके विवाह के समय मेरी उम्र बहुत छोटी थी। बस इतनी कि मैं हर
समय शैतानियाँ करती इधर से उधर फुदकती रहती। घर में कोई भी
शादी ब्याह का माहौल होता मामी ढोलक-हारमोनियम लेकर बैठ जातीं
और तरह-तरह के बन्ने-बन्नियां गा-गा कर घर में एक शादी का सा
माहौल बना देतीं। उन्हें होली-सावन के गीत सुर लय ताल के साथ
याद थे।
मेरी शादी का समारोह-उनके चेहरे
का उल्लास जैसे फूटा ही पड़ रहा था। एक के बाद एक नये-नये किस्म
के गाने वह गाये जा रहीं थीं, उनके गानों का भंडार जैसे समाप्त
होने को ही नहीं आ रहा था। साथ में बैठी मेरी चाची-ताई से कहती
जातीं ‘‘अरे! एक आध बन्नी आप भी तो गाओ जीजी...’’सब उनके आगे
कहाँ टिकतीं--आखिरकार मेरी मामी को ही समाँ बाँधना पड़ता। |