बाकी वक्त
में जब सारा आलम मायूस अंधेरे की गिरफ्त में होता है, दिन
जल्दी खत्म हो जाते हैं और ढिबरियों और लालटेनों की पीली
रोशनी में रातें बेहद बीमार और कमजोर नज़र आने लगती हैं।
जब सर्वेश्वर राय सपरिवार गाँव पहुँचे, अँधेरा छा चुका था।
सड़क से एक छोटी सीधी पगडंडी गाँव के अंदर चली गई है जो बीच से
मुड़कर टोलों की चहल-पहल के बीच खुले सहनों में तब्दील हो गई
है। मोड़ से लगा हुआ पहला मकान उन्हीं का है। दस्तक देने पर
भतीजों अमर और सुशांत ने छत पर आकर तस्दीक की और नीचे दौड़ कर
द्वार खोला। भाभी थोड़ा
घबराहट से पेश आईं, मिलते ही कहा - 'थोड़ा सौकरे ही नहीं चलना
था?'
सड़क जो कि इस अंचल के संचारतंत्र की खास धमनी की तरह गाँव से
लगी हुई है, गाँव के सार्वजनिक और दैनंदिन जीवन से भी अभिन्न
रूप से जुड़ी है, और अब चौपाल, और कुछ हद तक आँगनों का भी काफी
हिस्सा गाँव से लगे हुए इसके फैलाव, कगारों और पुलियों में
जज्ब हो चुका है। सुबह सर्वेश्वर राय भी बच्चों को लेकर
सड़क पर निकले तो वहाँ काफी जीवन नज़र आया। मालूम हुआ कि तड़के
भोर से बिजली भी आ चुकी है। सड़क की दूसरी ओर धान के खेतों के
बीच एक द्वीप बनाता निझावन सिंह का ट्यूबवेल है जिसके गिर्द
मौसमी सब्जी की क्यारियाँ हैं। ट्यूबवेल अपनी रफ्तार में था
और कई लोग प्रचुर जल में स्नान का आनंद ले रहे थे। उन्होंने
भी यहीं नहाने धोने का कार्यक्रम बनाया। बच्चे
खुश हो गए।
ट्यूबवेल तक जाने में उनकी कुछ लोगों के साथ दुआ-सलाम हुई। वली
सिंह उधर से ही लौट रहे थे, रोक कर राम-राम की, बोले - 'सुना,
आप रात में आए, सब ठीक है तो?' सर्वेश्वर राय ने कुशल बताई।
उन्होंने फिर टोह ली - 'अब तो तरक्की हो गई है? सुना है
अठारह-बीस हजार कमाते हैं?' उन्हें काफी अटपटा लगा, प्रसंग
बदलते हुए बताया कि किस तरह शहरों में मँहगाई ने हालत खराब कर
रखी है। उनका छोटा बेटा उँगली पकड़ कर खड़ा था, कौतूहल से उनकी
बातें सुन रहा था। वली सिंह उनके सिर पर हाथ फेरने लगे, बोले -
'यहाँ से तो अच्छा ही है। कम से कम चैन की नींद तो है। यहाँ
तो सुनेंगे कि आप महीने का बीस हजार पाते हैं, तो आपके बच्चे
को ही उठा ले जाएँगे। बहुत खराब हालत है।' बेटे ने अपनी कलाई
पर उनके पंजों का कसाव महसूस किया और हाथ छुड़ाना चाहा। वली
सिंह कोई धुन छेड़ते आगे बढ़ गए। सर्वेश्वर राय ट्यूबवेल पर
पहुँचे तो चर्चा गर्म थी। उनसे भी हाल-चाल होने लगी। बेचन
पांडे एक तरफ बैठे थे। खसखसी दाढ़ी और लाल आँखों में कुछ अशांत
लगे, खैनी ठोंकते हुए बोले - ' भैया, हम लोगों का भी कुछ वसीला
शहर में ही लगवा देते तो अच्छा रहता। यहाँ क्या है? न पानी
है, न खेती है। ऊपर से कब जान-जिंदगी पर बन जाए ये अलग?'
सर्वेश्वर राय ने पूछा - 'क्यों, किसी से अदावत चल रही है
क्या? उन्होंने दाँतों की जड़ में खैनी जमाते हुए तल्खी से
देखा। दो क्षण रुक कर थोड़ा सहज हुए, बोले - 'अब भैया, आपको भी
क्या खबर होगी, दो सालों पर तो फेरा लग रहा होगा इस बार?
जान-जोखिम के लिए जाती दुश्मनी वाली बातें अब पुरानी हो गईं।
अब तो बस जात चिन्हा दो और जान से जाओ। हे शंकर हे शंकर ...'
कहते हुए पांडे जी उद्विग्नता से घुटनों पर हाथ रख कर उठ खड़े
हुए और कछारों की ओर चल दिए। उनके कुछ दूर निकल जाने के बाद
घुरऊ सिंह ने सन्नाटा तोड़ा, आवाज नीची कर बोले - 'थोड़ा सनक
गए, दो महीने हो गए, बेटे का अपहरण हो गया है। हाकिम से लेकर
मिनिस्टर तक दौड़-धूप में परेशान हैं बिचारे ...' सर्वेश्वर
राय का कलेजा जैसे हलक में फँस गया, बोले - 'बेटा ...?' 'सयाना
बेटा है।' घुरऊ सिंह ने बताया। 'शादी-ब्याह की बातचीत चल रही
थी, सरेसाँझ कछार के पास जीप में कुछ लोग आए, जबर्दस्ती उठा
कर ले गए। इनका सूद-वूद पर भी तो काफी पैसा चलता है इधर दो-चार
गाँवों में।' मुन्ना शुकुल लुंगी में साबुन लगा रहे थे, हाथ
रोककर बोले - 'इधर नई लहर चली है। जात-कुजात, ऊँच-नीच का सब
पैमाना ही उल्टा हो रहा है। बड़ा टेंशन है। रात-बिरात सड़क पर
कोई नहीं निकलता, न किसी के पूछने पर कोई जात बताता है।' मड़ई
में खाट पर पड़ी थी। निजावन सिंह के बेटे ने कंबल हटा कर बंदूक
दिखाई, बोला - 'हर घड़ी बड़े इंतजाम से रहना पड़ता है, चाचा।'
सर्वेश्वर राय बच्चों सहित
यथाशीघ्र स्नान निपटा कर घर आ
गए।
सारे दिन उनका मन बहुत उचाट बना रहा। शाम को उन्हें चौधरी
लोगों की देहरी पर मिलने जाना था, उसे मुल्तवी कर दिया। छत के
ऊपर चहलकदमी करते रहे। बड़ भाई सदाशिव राय खलिहान से लौटे, तो
यह जानकार कि सर्वेश्वर जी छत पर हैं, वही आ गए। पूछा -
'तबियत कुछ ठीक नहीं है क्या?' सर्वेश्वर राय का ध्यान भंग
हुआ, बोले - 'ऐसा कुछ नहीं। चौधरी लोगों के यहाँ हो आना चाहता
था, सोचा, कल सुबह हो आऊँगा।' सदाशिव राय सिर झुका कर बोले -
'अब वहाँ कौन है? पिछले साल बड़े चौधरी को गोली मार दी गई।
दोनों छोटे भाई अब पटना में बस गए हैं, प्रापर्टी बिजनेस में
लग गए हैं। खेती-बाड़ी सब धीरे-धीरे खतम हो रही है।'
सर्वेश्वर राय आवाक् हो कर सुनते रहे। भाभी शाम का कलेवा लेकर
आई। दोनों भाईयों के लिए कलेवा लगा कर पंखा झलते हुए बोलीं -
'अब थोड़ी बहुत यहाँ की सुधबुध लीजिए, बबुआ जी। दो साल - तीन
साल पर एक बार मेहमान की तरह आ कर चले जाने से काम नहीं चलेगा।
महीने - दो महीने की छुट्टी ले कर आइए, कुछ खेती-गृहस्थी में
भी हाथ बटाइए। आपके भाई अकेले दम हलकान होते रहते हैं। आपका
थोड़ा सहारा हो, तो इनके लिए बहुत हो।' सदाशिव राय सिर झुकाकर
खाने में लगे थे, हाथ रोककर बोले - 'रामाशीश राय के घर की हालत
तुमने देखी ही थी। कल उनके यहाँ होकर आना। जबसे भाईयों ने मिल
कर नया ट्रैक्टर खरीदा है, खेती और घर की दशा बिलकुल बदल गई
है। अगर एक जेटर ट्रैक्टर यहाँ मेरे पास हो जाए, तो मेरे खेत
उनसे बीस साबित हों। लड़कों का मन पढ़ने-लिखने में बिल्कुल
नहीं है। ट्रैक्टर हो, तो ऑफ-सीजन में ईंटों वगैरह के काम में
बहुत आमदनी है।' बात पूरी कर सदाशिव राय ने थाली में हाथ धो
लिए। सर्वेश्वर राय कलेवा पहले ही खत्म कर चुके थे। मुंडेर
से लगे, शून्य में देखते रहे। नीचे दूर तक गाँव एक आँगन की
तरह फैला हुआ था। ये वो गलियाँ थीं, विद्यार्थी-जीवन में
छुट्टियाँ होते ही जहाँ लौटने की उनकी हुलस बनी रहती, और आज भी
शासकीय सेवा में देश-विदेश
घूमते समय जो उनकी रगों से जोंक
की तरह चिपकी रहती हैं।
रात को सोने से पहले
सर्वेश्वर राय की पत्नी दूध का ग्लास देने आई, तो पास बैठ
कर बोली - 'आज दिन भर कई घरों की औरतें आती-जाती रहीं। अपने
यहाँ के हाल-चाल सुने? हमें तो बेहद डर लगने लगा है। इन
छुट्टियों में बच्चों को कंप्यूटर कोर्स करवा देते। लौटने का
कब प्रोग्राम बना रहे हैं?'
अगर वाराणसी को इस अंचल का सिर कहें तो मुगलसराय का दर्जा दिल
से कम नहीं है। रेलवे जंक्शन होने के कारण इसका खास
व्यावसायिक महत्व है। देश का प्रमुखतम व्यावसायिक मार्ग
जी.टी. रोड़ इस जंक्शन से होते हुए गुजरता है और इस अंचल की
उक्तियों, कहानियों और चुटकुलों में समा चुका है। कपड़े,
फल-सब्जियाँ और गृहस्थी की आम आवश्यक चीजें यहाँ प्रचुर और
सस्ती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के आसपास के तमाम गाँवों
की रोजमर्रा की खरीदारी का प्रमुख बाज़ार होने के साथ-साथ
ब्याह-शादी और तीज-त्यौहार के समवेत अवसरों पर इसकी शक्ल
में एक निजी सांस्कृतिक रंग चढ़ जाता है और इसकी हाटों और
गलियों में रंग-बिरंगे ट्रैक्टरों में भरे नौजवानों और
नव-विवाहितों की जोडि़यों की रेलमपेल हो जाती है। इस अंचल का
आधुनिकता और नवप्रवृत्तियों का प्रवेश द्वार भी यही है। सजावटी
सामानों, इलेक्ट्रानिक वस्तुओं और परिधानों का बंबई और
दिल्ली का नवीनतम फैशन यहीं से होकर इस अंचल के गाँवों
की ओर रुख करता है।
ये गर्मी की छुट्टियाँ थीं और ब्याह-शादी के लगन परवान पर थे।
सदाशिव राय को कुछ रस्मी खरीदारियाँ निपटानी थीं, तो तय हुआ
कि वे और सर्वेश्वर राय मुगलसराय हो आएँ। सुबह पाँच बजे की बस
से वे चले गए। दोपहर तक खास-खास खरीदारी कर लेने के बाद अभी
लगा कि काफी फुटकर चीजें रह गई हैं और वापसी की बस का वक्त
हाथ से निकलता जा रहा है। गाँव से कुछ लड़के यहाँ रहकर पढ़ते
थे, वहाँ रुकने का इंतजाम था, लेकिन सर्वेश्वर राय की मनोदशा
रुकने की बिलकुल नहीं थी। बच्चे गाँव की रवायत से बहुत वाकिफ
नहीं थे और उन्हें उनकी जरूरत पड़ सकती थी। अत: तय हुआ कि वे
घर लौट जाएँ, सदाशिव राय सारी चीजें ले-लिवा कर कल आ जाएँगे।
इस बातचीत में यू.पी. बार्डर के लिए डेढ़ बजे एक लॉरी
मिलते-मिलते छूट गई। कोई पन्द्रह मिनट बाद दूसरी बस आकर लगी।
सर्वेश्वर राय को जगह मिल
गई और वे बैठ गए। पाँच बजे तक
बार्डर पहुँच जाने के लिए अभी काफी वक्त था।
दिन भर की थकान से सर्वेश्वर राय की देह टूट रही थी। उन्हें
झपकी आ गई। बीच-बीच में लगता कि बस चल रही है, कभी रुक जाती
है। सवारियाँ बुरी तरह ठुँसी हुई थीं और काफी शोरगुल था। शोर
एकरस हो तो पार्श्व संगीत का रूप ले लेता है। उन्हें मजे की
नींद आ रही थी। करीब घंटे भर बाद वे चैतन्य हुए। यह जायजा
लेने के लिए कि बॉर्डर कितनी दूर रह गया है, उन्होंने खिड़की
से बाहर झाँक कर देखा और बुरी तरह घबरा गए। यह तो मुगलसराय ही
है। बस जी.टी. रोड़ पर थी। आगे जहाँ तक दृष्टि जाती थी, रुकी
हुई ट्रकों, बसों और ट्रैक्टरों का कारवाँ था। बस ट्रैफिक-जाम
में फँस गई थी। कई खोमचेवाले इर्द-गिर्द जमा हो गए थे और
यात्रियों में उनकी चीजें बिक रही थीं। बस देर-देर बाद दो-चार
मिनटों के लिए चलती, फिर रुक जाती। जब मुगलसराय की सीमा से वे
बाहर निकले तो पाँच बज रहे थे। ट्रैफिक-जाम का प्रभाव
अभी तक था। स्वाभविक आवागमन अभी
शुरू नहीं हुआ था। बस काफी धीरे चल रही थी।
कुछ-एक सवारियों ने उनकी परेशानी को भाँपा। एक बुजुर्ग ने पूछा
- 'कहाँ जाना है?' यह सुन कर कि उन्हें बिहार की बस पकड़नी
है, आगे के यात्रियों ने तुरंत पलट कर पीछे देखा। बुजुर्ग ने
शंका की - 'अब तो अबेर हो गई है। बस कहाँ मिलेगी?' किसी ने राय
दी - 'अभी मुगलसराय बहुत पीछे नहीं छुटा है, यहीं से वापसी
लॉरी पकड़ लीजिए। किसी होटल में रुक जाइए।' वे विचलित होने
लगे। सोचा - रुक गया होता तो ठीक था। बच्चों का ख्याल आया,
मन में दृढ़ता आई। उन्होंने कहा - 'देखें, कुछ न कुछ साधन तो
मिलेगा ही। जाना जरूरी है।' कई लोग उन्हें कौतूहल से देखने
लगे। 'कहीं बाहर से आ रहे हैं? बिहार में रिश्तेदारी है? इधर
कहीं गाँव-कस्बे में कोई पहचान है? बॉर्डर पर कोई जानता है?
... ' सर्वेश्वर राय प्रश्नों से परेशान होने लगे। बोले,
'मेरे लिए चिंता की बात नहीं है। यहीं का हूँ। जरूरी हुआ तो
पैदल भी जा सकता हूँ।' और
उनके खुद के शब्द उनके कानों में देर तक गूँजते रहे। |