उस
दिन सूर्योदय तो अपने समय पर ही हुआ था परन्तु आजादी के
सूर्योदय की प्रतीक्षा से हमारा सवेरा बहुत जल्दी हो गया।
हमारा मिशन महत्वपूर्ण था, हमारा जोश भी बुलन्दी पर था, हमें
कचहरी के प्रांगण में झण्डा फहराना था। पुलिस की चौतरफा
नाकेबन्दी को धता बताकर हम जोशीले लोग कचहरी के अहाते में
प्रवेश कर गये। निहत्थे लोगों पर पुलिस की लाठी कहर बन कर टूट
पड़ी। पता नहीं पति की संगति का असर था या फ़िजा में फैली
क्रान्ति की भावना का प्रभाव था कि बचपन की भीरु मैं ओज से भर
उठी थी। बरसती हुई लाठियों के बीच भी मैं पूरे जोश से नारे
लगाती हुई आगे बढ़ी, तभी तडातड़ मेरे सिर पर लाठी के दो-तीन
प्रहार पड़े और मैं बेहोश होकर गिर पड़ी।
जब होश आया तो स्वयं को अस्पताल के जनरल बार्ड में पाया।
अगल-बगल के पलँगों पर भी कुछ क्रान्तिकारी साथी घायल अवस्था
में पड़े थे। मैंने चारों ओर अपने पति को देखा किन्तु किसी पलंग
पर वे दिखाई नहीं दिये। तभी रामचन्द्र गौरा जी की पत्नी दुर्गा
भाभी आती दिखाई दीं।
“कैसी हो प्रभा ? देखो मैं तुम सबके लिये भोजन लायी हूँ।”
“ठीक हूँ भाभी।” मैंने उठने का प्रयास किया लेकिन चक्कर आने से
उठ न सकी।
“लेटी रहो...लेटी रहो...।” उन्होंने मुझे हाथ के
सहारे से लिटाते हुये कहा।
“भाभी! चक्कर सा आ रहा
है।”
“खून बहुत बहा है न, कमजोरी है, चिन्ता मत करो ठीक हो
जाओगी...तुम तो बहुत हिम्मती हो।” उन्होंने प्यार से मेरे
सिर पर हाथ फेरा।
“भाभी, ‘वो’ दिखाई नहीं दे रहे?” मेरी आँखों में जिज्ञासा और
चिन्ता एक साथ तैर गई।
कुछ पल मेरी ओर देखती रहीं दुर्गा भाभी, फिर बोलीं- “प्रभा!
हमारा मिशन कामयाब रहा। हमने कचहरी में ध्वज फहरा दिया।”
“अच्छा हुआ भाभी, हमारी यह छोटी सी विजय फिरंगियों को हमारी
ताकत का अहसास दिलायेगी...भाभी! लेकिन ‘वो’ कहाँ
हैं?” मैंने अपने दर्द को दबाते हुये पूछा।
“प्रभा, महेन्द्र भइया को फिरंगियों ने गिरफ्तार कर लिया है।”
भाभी ने सीधे मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा।
“क्या उन्हें चोट आयी थी?”
“हाँ!...लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं है।”
मैं आँखें मूँदकर लेट गई।
“प्रभा तुम घबराना नहीं। यह सब तो इस राह में बार-बार घटेगा।
हम सब हैं न तुम्हारे साथ।”
“जी भाभी, जानती
हूँ...अब आगे हमें क्या करना है?” मेरे स्वर की दृढ़ता से
भाभी को तसल्ली मिली।
“तुम ठीक हो जाओ फिर कुछ करेंगे। अभी तो तुम सब का ठीक होना
जरूरी है।” चारों ओर देखती हुईं भाभी बोलीं। दर्द से कराहते
क्रान्तिकारियों को देखकर उनकी आँखों मे ममता तैर गई थी।
मेरी चोट गम्भीर थी। मुझे ठीक होने में एक महीना लग गया। तब तक
मेरी बेटी की देख-रेख दुर्गा भाभी करती रहीं। अस्पताल से घर
आते ही मैंने अपने पति से मिलने जेल जाना चाहा।
“भैया! मैं उनसे मिलने जाऊँगी।”
“जरूर जाना प्रभा, लेकिन अभी नहीं...।”
“अभी क्यों नहीं?” रामचन्द्र गौरा भाई साहब की बात बीच में ही
काटकर मैं बोली।
“तुम्हारी मनः स्थिति मैं समझता हूँ बहन लेकिन राजनैतिक कैदी
के दर्जे की माँग को लेकर आन्दोलन इस समय तेजी पर है, भारत की
सभी जेलों में क्रान्तिकारी साथी अनिश्चित कालीन भूख हड़ताल कर
रहे हैं। इस समय मिलना नहीं हो सकता। मिलने पर रोक है।”
“उनकी चोट ठीक हो गई है?”
“हाँ! हमारे कई साथी उससे मिलकर आये हैं।”
“जी!”
“प्रभा! तुम्हें गोंडा जाना होगा।” कुछ पल ठहर कर वे बोले।
“क्यों?”
“तुम्हारा स्थानान्तरण
गोंडा कर दिया गया है।”
“लेकिन...वो...यहाँ जेल में हैं मैं...।”
“प्रभा! तुम हिम्मत से काम लो, फिरंगी तो इस तरह के दबाव डालकर
हमें तोड़ना चाहते हैं। परन्तु हम परेशानियों से नहीं घबराते।
तुम्हारे जाने की पूरी व्यवस्था कर दी गई है। प्रकाशवती भाभी
तुम्हें वहाँ व्यवस्थित कर देंगी।” गौरा भाई साहब ने मुझे
समझाया।
मैं गोंडा पहुँचकर अपनी छोटी सी गृहस्थी के साथ अपने छोटे से
घर मे व्यवस्थित हो गई। क्रान्तिकारियों की भूख हड़ताल इक्कीस
दिन चली। जैसे ही भूख हड़ताल समाप्त होने की सूचना मिली, मैं
छुट्टी लेकर इलाहाबाद की ट्रेन में बैठ गई।
इलाहाबाद स्टेशन पर जब
मैं उतरी, मूसलाधार वर्षा मेरा स्वागत कर रही थी। अपनी साल भर
की बेटी को सीने से चिपकाये एक हाथ में बेटी के लिये दूध व
कपड़ों की कंडी लिये किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी थी। कुछ ही देर में
स्टेशन की भीड़ छँटने लगी। मैं भी भीड़ के पीछे चल पड़ी। एक
रिक्शे को इशारे से बुलाकर जैसे ही मैं पोर्टिको से बाहर
निकलने लगी, कीचड़ में मेरा पैर फिसला और कंडिया दूर जा गिरी।
बड़ी मुश्किल से स्वयं को चारोखाने चिŸा होने से बचाया। बिटिया
डरकर रोने लगी। आगे बढ़कर रिक्शेवाले ने मेरा सामान उठाया। मैं
झटपट रिक्शे मे बैठकर बेटी के ऊपर से पानी की बूँदों को पोंछने
लगी।
“कहाँ जाये के बा बिटिया ?”
“अँ...नैनी...” चौंककर मैंने जबाव दिया।
“नैनी ?”
“हाँ...हाँ भइया, नैनी जाना है।”
“बड़ी दूर है बहन।”
“थोड़ा ज्यादा पैसा ले लेना।”
शायद रिक्शेवाले को हम माँ-बेटी की हालत पर तरस आ गया था, या
फिर अधिक पैसे के मोह में वह बिना बोले पानी में भीगते हुये
रिक्शा चलाने लगा। पैबन्द लगे उसके कपड़े उसकी आर्थिक हालत का
खुलासा कर रहे थे। झमाझम
बरसते पानी से धुलते पेड़-पौधों का देखते हुये हम मंज़िल की ओर
बढ़ चले। सर्द हवा कपड़ों को बेधती हुई अन्दर प्रविष्ट हो रही
थी। मुझे रिक्शेवाले पर तरस आ रहा था। पेट इंसान से क्या-क्या
कराता है। पुल पार करने के बाद रिक्शेवाले ने पूछा-
“बिटिया! नैनी मा कहाँ जाये के वा...?”
“नैनी जेल...।”
“जेल...?...”
“जेल काहे बिटिया...?”
“मेरे पति वहाँ हैं।”
“का जेल मा काम करत हैं...?”
“नहीं...। वे क्रान्तिकारी हैं। आजकल जेल में है...।”
“का नाम वा उनका...?”
“श्री महेन्द्र पसाद...।”
“भगवान भला करे उनका...देशप्रेम से बड़ा कौनो काम नाहीं
बिटिया।”
रिक्शावाला शेष रास्ते में मुझे अत्याचारों के अनेक किस्से
सुनाता रहा...अचानक ऊँची दीवार के पास आकर बोला-
“ला बिटिया, अपन लोग जेल पहुँच गये...।”
“भैया, मुझे यहाँ ज्यादा समय नहीं लगेगा...तुम इस सामने की
गुमटी पर बैठकर चाय पियो...मैं उनसे मिलकर आती हूँ।
तुम्हारे रिक्शे से ही वापस इलाहाबाद चलूँगी।”
“हाँ...हाँ...बिटिया जावा...अऊर ता हम कुछ कर नांही
पावत...कम से कम तू ही लोगन की सेवा कर लेही....।”
मैंने अन्दर से वृद्ध हो चले रिक्शेवाले की ओर देखा। उसकी
पवित्र भावना महसूस करती हुई मैं जेल के द्वार की ओर बढ़
चली। कई छोटे कर्मचारियों से कह
सुनकर मैं जेल सुप्रिंटेण्डेंट कर्नल भण्डारी से मिली।
“नमस्ते...”
“कहिये...?” रूखा सा जबाव मिला।
“जी! मैं श्री महेन्द्र प्रसाद की पत्नी हूँ। उनसे मिलना चाहती
हूँ।”
“आज नहीं मिल सकतीं...।” सपाट लहजे में वे बोले।
“लेकिन मैं गोंडा से आई हूँ...और मुझे आज ही वापस जाना
है।” मैंने अपनी मजबूरी बताई।
“तो आप जाइये...आज नहीं मिल सकतीं...”
“लेकिन मैं आज क्यों नहीं मिल सकती हूँ...?”
“मैंने कह दिया...क्या इतना काफी नहीं है...?”
“मैं आज ही मिलूँगी...मेरा मिलना अभी वाकी है...।” मैं भी
तैश में आ गई।
“क्या करेंगी आप...?”
“मैं...?...मैं आपकी शिकायत कलेक्टर से करूँगी। वो मुझे
मिलवायेंगे।” मैंने धमकी दी।
“ओके......ओके....., तो आप मेरी शिकायत कीजिये और कलेक्टर से
लिखवा कर ले आइये। फिर मैं आपको मिलवा दूँगा...जाइये।”
...उसे गुस्से से देखती
हुई मैं जेल से बाहर आ गई। मुझे देखकर रिक्शेवाला अपना रिक्शा
लेकर मेरे पास आ गया। प्रसन्नता से बोला-
“भेंट हो गई ना बिटिया...?....कैसे हैं बाबू?”
“नहीं भैया...जेलर ने नहीं मिलने दिया।”
“काहे...? रिक्शेवाला आश्चर्य से बोला।”
“ ‘क्यों’ क्या भैया...परेशान करने का तरीका है।...कहते हैं
कलेक्टर से लिखवाकर लाओ।”
“फिर...?”
“मिलना तो है ही...मैं कलेक्टर के पास जाऊँगी। जेल
सुपिरटेण्डेंट समझता है, मैं अकेली हूँ, घबरा जाऊँगी...।”
मैं गुस्से से बड़बड़ाये जा रही थी।
“नाहीं बिटिया...अकेली काहे!....हम हैं न तुहरे
साथ...जहाँ कहबू, हम चलिवे...पैसन की चिन्ता जिन
करिह...बइठा...।” मैं आज्ञाकारी बच्ची सी रिक्शे में
बैठ गई। रिक्शावाला मुझे जाने क्या-क्या समझाता रहा। हम पुनः
दस किलोमीटर की यात्रा कर इलाहाबाद पहुँचे। एक आलीशान कोठी की
ओर इशारा करके वृद्ध रिक्शेवाला बोला-
“बिटिया! जेही बड़े साहब की कोठी बा....।”
मैंने देखा
‘श्री रैना’ की नेमप्लेट द्वार पर ही चमचमा रही थी। बड़े-बड़े
अक्षरों में लिखा ‘कलेक्टर निवास’ मुझे अपने गंतव्य पर पहुँचने
की सूचना दे रहा था। मैं उतर कर अंदर चली गई। रैना साहब बैठे
हुए थे। भूख और ठंड ने मेरी बेटी ने अब रोना आरम्भ कर दिया था।
“नमस्ते!”
“नमस्ते...बैठिये।”
“आप बैठने के लिए कह रहे हैं और आपके जेल सुप्रिंटेंडेण्ट साहब
हमें परेशान कर रहे हैं।” मैंने बैठते हुए कहा।
“अरे! क्या हो गया?”
“देखिये, मेरी बेटी भूख से परेशान है और आपके कर्नल साहब हमें
यहाँ से वहाँ दौड़ा रहे हैं।...मुझे मेरे पति से मिलने नहीं
देते।”
“बेबी के लिये हम बिस्कुट मँगाता है। कर्नल आपको क्यों नहीं
मिलने दिया?” - सहज ढँग से रैना साहब ने पूछा।
“कहते हैं कलैक्टर से लिखवाकर लाओ।”
“अरे!...तो मैं लिखकर देता हूँ, आप मिल लीजिये।”
“आप सज्जनता से लिख दे रहे हैं। लेकिन साहब हमें कितनी परेशानी
होती है। इस बरसते पानी में दस किलोमीटर
जाना, दस किलोमीटर वापस आना फिर
लिखवाकर दस किलोमीटर जाना।...रिक्शे का किराया कौन देगा? हम
लोग बहुत रईस लोग नहीं हैं।”
“सॉरी...सॉरी...हम कर्नल को बोलेगा। आप जाइये। ये लेटर दे
दीजियेगा...वो आपको मिला देगा।”
“धन्यवाद।”
मैं बाहर निकली तो पानी बहुत हल्का हो चुका था। रिक्शा वाला
मुझे देखते ही बोला-
“का भवा बिटिया?”
“रैना साहब ने लिखकर दे दिया है।”
“चला बइठा ।” प्रसन्नता के साथ वह बोला।
एक बार फिर हम नैनी जेल के सामने थे। रास्ते में दूध लेकर बेटी
को पिला दिया था। वह शान्ति से मेरी गोद में सो रही थी। मुझे
देखते ही जेल सुप्रिंटेंडेंट की भृकुटी चढ़ गईं।
“अभी आप गईं नहीं?”
मैंने बिना कुछ बोल कलेक्टर का पत्र उसकी ओर बढ़ा दिया।
पत्र पढ़कर वह कुछ पल मुझे गुस्से से घूरता रहा फिर किसी
कर्मचारी के साथ मुझे मिलने भेज दिया।
जब मैं जेल से बाहर आयी तो मैं बहुत प्रसन्न थी। फिरंगियों के
चापलूसों को मैं एक शिकस्त दे आयी थी।
“मिल आई का बिटिया?”
“हाँ भैया!...आज आप
ने बहुत मदद करी। मेरी हिम्मत बढ़ाई...अब मुझे स्टेशन
पहुँचा दीजिये।”
पूरे रास्ते रिक्शेवाला कुछ न कुछ बोलता रहा। स्टेशन पहुँच कर
मैंने पूछा-
“भैया कितना पैसा हुआ तुम्हारा?”
“कछु नाहीं बिटिया?...कैसा पईसा...? हम अऊर तउ कछु
करि नाहीं सकत हईं...पर हम क्रान्तिकारियन सइ पईसा नाहीं
लेत।”
“भैया! ये तो तुम्हारी रोजी-रोटी है।”
“अरे बिटिया!...लोगन तौ देश के खातिर अपन जान की कुर्बानी
देत हईं न.......हमें तौ बस एक दिन भूखे ही ना सोवै कै
परी...जा बिटिया सुखी रहा।” कहता हुआ वह अपना रिक्शा चलाता
हुआ चला गया।
मैं आँखों से ओझल होने तक उस महान इंसान को जाता हुआ देखती
रही, जो एक छोटी सी किन्तु बहुत बड़ी कुर्बानी देकर देश के लिये
कुछ करने के मेरे हौसले को कई गुना बढ़ा गया था। |