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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
नीलम राकेश की कहानी— उनसे मिलना


महात्मा गाँधी के बजाये क्रान्ति के बिगुल से हर दिल में स्वतंत्रता की ज्योति जल उठी थी। एक अजब सा आलम था चारों ओर। कुछ कर गुजरने की तमन्ना हर दिल में थी। क्या स्त्री क्या पुरुष हर एक के हृदय में स्वतंत्रता की चिनगारी भड़क रही थी। हर इंसान बड़ी से बड़ी कुर्बानी के लिये तैयार था।

यह बात सन १९४२ की है, इलाहाबाद में कर्फ्यू लगा दिया गया था। परन्तु हमारे जोश और उत्साह में कोई कमी नहीं थी। हम बीस-पच्चीस लोग एकत्र होकर सड़क पर निकल पड़ते और सूनी पड़ी सड़कें हमारे बुलन्द नारों से गूँज उठतीं।
‘इंक्लाब...ज़िन्दाबाद...’
‘इंक्लाब...ज़िन्दाबाद...’
पुलिस तुरन्त हमारी ओर दौड़ती किन्तु उन्हें देखते ही हम अगल-बगल की पतली गलियों में तितर-बितर हो जाते। अधिकांश घरों में हमें कुछ पल की शरण आसानी से मिल जाती या यूँ कहिये कि देश के लिये इतना करने के लिये हर कोई तैयार था। पुलिस के जाते ही हमारा कोई साथी निकल कर सड़क का निरीक्षण करता और सुरक्षित देखकर बिजली के खम्बे पर ‘टन......टन......’ की आवाज निकालता। उसकी टन....टन...की आवाज से हम पुनः बाहर आ जाते और आगे बढ़कर फिर नारे लगाने लगते, परन्तु पुलिस के हाथ नहीं आते। सामूहिकता की एक मजबूत भावना से हम सब जुड़ गये थे। देशप्रेम सबके सिर चढ़कर बोलता था।

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