निर्मला-'ठीक है तुम गुणी हो... पर इस बार चूक गए। यह साढ़े छह
हज़ार की लोहे की आरामकुर्सी है जिसे सुरेश पास ही के बाज़ार
से खरीद कर लाए थे। और यह तीन महीने से हमारे यहाँ है, जिस पर
हम लोग बैठते हैं। यह नीले रंग की थी और अब इसका रंग उतर कर
सुनहरा हो गया है। जान गए पूरी हकीकत या और कुछ पूछना है?'
धनंजय परेशान हो उठा- 'मैंने इतना बड़ा धोखा कभी नहीं खाया।
मैं इसका परीक्षण करता हूँ। दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।
परीक्षण करने का सामान लेकर अभी आया।'
एक घंटे बाद जब वह फिर लौटा तो सुरेश ड्यूटी से घर लौट आया था।
निर्मला ने उसे धनंजय की बातें बताई तो वह भी खूब हँसा था।
धनंजय लौटते ही कुर्सी की धातु के परीक्षण में जुट गया। और
अगले ही कुछ ही पलों में उसने हँसते हुए कहा-'जीजाजी, दीदी
मुझे बेवकूफ़ बनाना बंद करो। यह खरा सोना है। कुंदन। एक रत्ती
भी मिलावट नहीं। ऐसा खरा सोना मैंने पहले कभी नहीं देखा। आज के
बाज़ार में इसकी क़ीमत कम से कम पचास लाख रुपए होगी। यह एक
नायाब चीज है। यह कहाँ से आई, कैसे आई के किस्से में मैं नहीं
पडऩा चाहता। आप लोग कहें तो मैं इसके बिकने का इन्तज़ाम कर
देता हूँ। वरना मैं चलूँ।'
अब सकते में आने की बारी सुरेश और निर्मला की थी।
सुरेश-'धनंजय बाबू। आप ही देखिये इस मामले को.. जो दिला दीजिए
वही काफी है और पचास लाख तो हमारे लिए सपने जैसा ही है। बाक़ी
यह इतमीनान कर लीजिए कि सोना ही है न। वरना मैं नहीं चाहता हूँ
कि हम और आप दोनों धोखाधड़ी के मामले में फँस जाएँ।'
धनंजय-'जीजाजी। आप निश्चिंत रहिए। मैंने ठीक से परख कर ली है।
अलबत्ता चूँकि इसके पेपर वगैरह नहीं हैं इसलिए माल दो नम्बर का
हुआ और उसकी पूरी क़ीमत मिलने से रही फिर भी इसकी कीमत कम नहीं
मिलेगी क्योंकि यह एंटीक पीस है।'
और सुरेश तथा
निर्मला की रज़ामंदी से कुर्सी को दो चादरों की सहायता से
अच्छी तरह लपटकर धनंजय की बुलेरो में डाल दिया गया। धनंजय ने
कहा-'जैसे ही इसका खरीदार मिलेगा मैं इसे झाड़ दूँगा। आप
निश्चिंत रहे अधिक से अधिक दिलवाऊँगा।'
धनंजय की गाड़ी दरवाजे से गई और इधर सुरेश और निर्मला की आँखों
से नींद हवा हो गई। वे खुशी और आशंकाओं के सागर में
डूबने-उतराने लगे।... तो क्या उनके बुरे दिन अब दूर हो जाएँगे।
उनकी अधूरी ख्वाहिशें पूरी हो जाएँगी। दोनों ने सपना देखा जो
पचास लाख तक का था। एक आलीशान मकान, आलीशान कार.. और तमाम
सुख-सुविधाएँ।
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धनंजय अगले चार दिन काम पर नहीं गया। ज्वेलरी की दुकान से फ़ोन
पर फ़ोन आते देख उसने फ़ोन का स्विच आफ़ कर दिया। इधर एक बड़े
पूंजीपति की शादी के आभूषण बनाने का जिम्मा उसके ज्वेलरी हाउस
ने ले रखा था और उसकी डिजाइनें धनंजय को ही तैयार करनी थीं।
शादी की तिथि क़रीब आती देख और धनंजय की अनुपस्थिति के कारण
जेवरों के निर्माण का कार्य खटाई में पड़ता नजर आ रहा था। सेठ
पहले तो ज्वेलरी के कार्यालय में गया फिर वह धनंजय का पता लेकर
उसके घर जा पहुँचा।
उसने काफी गुजारिश की कि वह उनकी बेटी के आभूषणों को तैयार
करने के लिए काम पर जल्द लौटे। धनंजय से उसकी काफी दिनों से
पहचान थी क्योंकि वह उसके मालिक की दुकान का पुराना ग्राहक था।
धनंजय ने अपनी समस्या उसे बताई कि उसके पास एक नायाब सोने की
कुर्सी है और वह उसे बेचने की फिराक में लगा हुआ है इसलिए अभी
किसी और काम पर वह अपना ध्यान एकाग्र न कर सकेगा। जब कुर्सी
पूंजीपति ने देखी तो वह कुर्सी का दीवाना हो गया और उïसने साठ
लाख रुपए में खरीदने की पेशकश कर दी... और मामला पट गया।
सारा लेन-देन ब्लैक में था। सेठ ने यह कुर्सी अपनी बेटी को
शादी में देने की योजना बना डाली थी। उसने सोचा यह बेटी के लिए
एक अनमोल तोहफ़ा होगा और बाकी आभूषणों की समस्या हल हो गई
क्योंकि धनंजय काम पर लौटने को राजी हो गया। वह जिस कार्य के
लिए काम पर नहीं जा रहा था वह पूरा हो चुका था।
धनंजय ने प्राप्त राशि में से दस लाख रुपए निकाल लिये और पचास
लाख रुपए अपनी बहन व जीजा के यहाँ पहुँचा आया। उन दोनों को तो
जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था लेकिन यह सच था।
अगले ही कुछ दिनों में सुरेश ने बना बनाया एक आलीशान सुसज्जित
मकान खरीद लिया और एक कार भी। और वह सब कुछ जिसकी उसके परिवार
ने तमन्ना की थी। धनंजय खुश था कि उसकी बहन की ज़िन्दगी भी
संवर गई और एक अच्छी-खासी रकम उसे भी मिल गई।
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सेठ के यहाँ बेटी का शादी की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी थीं।
अब गिने -ने दिन ही बचे थे कि वह मुश्किल में फंस गया। आयकर
वालों ने उसके यहाँ छापा मारा। पहले से ही वे सेठ को टारगेट
किये हुए थे। उन्हें पता था कि बेटी की शादी के वक्त़ उसकी
काली कमाई सामने आएगी। और वही हुआ। सबसे बड़ी मुश्किल उस
आरामकुर्सी को लेकर हुई। बाकी मामलों में तो आयकर वाले मोटी
रकम ले- देकर मान गए लेकिन वे कुर्सी अपने साथ ले जाने पर अड़
गए। उन्हें विश्वास था कि कोई और बहुत बड़ी मछली हाथ आने वाली
है। और सेठ से मूल स्रोत को लेकर पूछताछ में जुट गए। आखिरकार
सेठ ने धनंजय का नाम बताकर मुसीबत से छुटकारा पाया।
धनंजय धर लिया गया लेकिन वह बेंतों की धुनाई के आगे नहीं टिक
पाया। मरता क्या करता, उसने अपने जीजा का नाम ले ही लिया।
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पुलिस और आयकर विभाग का संयुक्त छापा सुरेश के घर पड़ा। पहले
वे उसके पुराने जीर्ण-शीर्ण मकान में गए जहाँ से पता चला कि वह
तो अपने नए मकान में चले गए हैं। उसके नए मकान के चप्पे-चप्पे
की तलाशी ली गई। बाथरूम टायलेट तक देखा गया लेकिन वहाँ सोने की
कोई और वस्तु बरामद नहीं हुई। उसकी पत्नी के कुछ आभूषण जरूर
मिले जिन्हें आयकर वालों ने अनदेखा कर दिया। उन्हें तो सोने की
आरामकुर्सी जैसी ही किसी अन्य भारी-भरकम वस्तु की तलाश थी,
जिसमें उन्हें विफलता हाथ लगी। सुरेश को वे अपने साथ लेते गए।
निर्मला और बच्चे भयातुर होकर रोने लगे थे। उन्हें आश्वासन
दिया गया कि वे सुरेश से कुछ पूछताछ करेंगे फिर छोड़ देंगे।
सुरेश ने इस सम्बंध में निर्मला से किसी वकील से सम्पर्क करने
को कहा और उनसे साथ चला गया।
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सुरेश की रिहाई आसान नहीं थी। वह तमाम पूछताछ के बाद भी कुछ
ऐसा नहीं बता पाया जिससे पूछताछ अधिकारियों को सोने की
आरामकुर्सी बनाने वाले या उससे जुड़े रैकेट का कोई सुराग मिले।
सुरेश कुर्सी के बारे में जो कुछ बता रहा था वह एक किस्सा भर
ही था जिस पर यकीन करना नामुमकिन था। भला यह कैसे सम्भव है कि
कोई लोहे की कुर्सी सोने की कुर्सी में तब्दील हो जाए।
पुलिसकर्मियों ने सुरेश की धुनाई भी की ताकि वह भयवश सच उगल दे
लेकिन वह अलग- अलग शब्दों में एक ही बात कहता रहा। अपनी बात पर
ऐसा टिका रहने वाला आदमी पूछताछ अधिकारियों ने दूसरा न देखा
था। सुरेश का पिछला रिकार्ड भी बेदाग था। किसी बड़े अपराध की
क्या कहें कोई छोटा-मोटा अपराध भी उसने कभी नहीं किया था। एक
ईमानदार मास्टर का बेटा था जो खुद साहित्य और आदर्श की दुनिया
में जीता था। घर से काम पर जाना और काम से घर पर आना ही उसकी
दिनचर्या थी।
सुरेश ने अपने पर ढाए जाने वाले जुल्म से तंग आकर पूछताछ
अधिकारियों को सुझाव दिया कि क्यों न उसे किसी मनोवैज्ञानिक को
दिखाया जाए क्योंकि स्वयं उसे भी लोहे की कुर्सी के सोने की
कुर्सी में बदलने की घटना पर यकीन नहीं है। संभव है कि कुछ ऐसी
घटना घटी हो जिसकी स्मृति उसके दिमाग से किन्हीं कारणोंवश निकल
गई हो क्योंकि कुर्सी में जो बदलाव आए हैं वे उसकी आँखों के
सामने नहीं आए। रात में वह कुर्सी पर बैठा तो उसमें किसी तरह
का परिवर्तन उसने नोट नहीं किया। वह उस पर बैठकर सोचता रहा और
कविता लिखी तथा सो गया। सोने के बाद उठा तो कुर्सी सोने की हो
चुकी थी। इसका यह आशय हुआ कि उसके सोने के बाद और नींद से उठने
के पहले कोई घटना घटी जिससे उसकी लोहे की कुर्सी सोने की
कुर्सी से बदल गई। हो सकता है यह बदलाव का घटनाक्रम उसके सामने
ही हुआ हो लेकिन किन्हीं मनोवैज्ञानिक कारणोंवश घटना याद न आ
रही हो।
अधिकारियों को चूंकि कोई और विकल्प नजर नहीं आ रहा था,
उन्होंने सुरेश की बातों पर अमल करने का मन बना लिया।
मनोवैज्ञानिकों की टीम ने सुरेश से गहन पूछताछ शुरू की। उन्हें
भी यह लगा कि संभव है कि किन्हीं कारणवश वह आंशिक स्मृति-लोप
का शिकार हो गया हो। उन्होंने सुझाव दिया कि सुरेश को उन्हीं
परिस्थितियों में ले जाया जाए जिसमें यह घटना घटी। संभव है कि
इससे सुरेश को कुछ याद आ जाए।
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मनोवैज्ञानिकों के निर्देशानुसार सुरेश को उसके पुराने घर ले
जाया गया। उसके घर के बाहर चारों ओर तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था की
गई। उसे आवश्यक निर्देश दे दिये गए कि वह उस विशेष रात की तरह
की सब कुछ करे। उसे बीच में टोका नहीं जाएगा। उस पर बाहर से
निगरानी रखी जाएगी। रात हुई। फिर उसी रात सा अंधेरा था। लालटेन
की रोशनी में निर्मला ने उस रात जैसी कुछ जली-जली सी रोटियां
बनाई और नमक-मिर्च कुछ अधिक डालकर आलू-बैंगन की तरकारी। हल्की
रोशनी में ही पीढ़े पर बैठकर सुरेश ने भोजन किया। उसके बाद वह
उस आरामकुर्सी पर बैठ गया, जो अब सोने की हो चुकी थी। वह
कुर्सी विशेष तौर पर यहाँ लाई गई थी ताकि वह खोज में सहायक हो
सके।
पूर्व मिले निर्देश के अनुसार वह कागज कलम लेकर कविता लिखने की
कोशिश करने लगा। काफी देर तक मन में कोई भाव नहीं आए। उल्टे
उसके शरीर का पोर-पोर दुख रहा था। पुलिस ने उसे इस बेरहमी से
पीटा था कि उसने उस वक़्त भगवान से मनाया कि उसकी जान चली जाए
तो बेहतर। कम से कम तकलीफ़ों से तो मुक्ति मिलेगी। असह्य यातना
से दुबारा गुजरने की कल्पना मात्र से ही उसका रोम-रोम सिहर
उठा। उसके साथ जिस गाली-गलौज की भाषा में बातचीत की जा रही थी,
वह सोच कर ही शर्म से गड़ गया। उसने अपने मन की थाह ली। मन में
तमाम कड़ुवाहटें थीं इस व्यवस्था के खिलाफ, इन लोगों के
खिलाफ... जो उसे प्रताडि़त कर रहे थे। खिड़की से आती हवा उसके
जख्मों में और जलन भर रही थी। बाहर निकली चांदनी उसके बदन को
भी छू रही थी और लग रहा था कि उसमें शीतलता नहीं तपिश है।
उसने पहली बार जाना कि कविता जबरन नहीं लिखी जा सकती और न
लिखाई जा सकती है। उसे कविता लिखने की ड्यूटी लगाई गई है.. वह
इसका निर्वाह कैसे करे! उसे याद आया कि यदि उसने कविता नहीं
लिखी तो उसे लाल मिर्च की धुनी से फिर गुजरना पड़ेगा। बर्फ़ की
सिल्लियों पर भी दुबारा सुलाया जा सकता है।
उसने अपने मन को खुला छोड़ दिया और लिखने लगा... वह सब जो उसके
मन में आ रहा था। उसने पहली बार अपने मन की भड़ास जम कर
निकाली। क्रोध, नफ़रत, हिंसा, निराशा, बदला लेने की इच्छा और
यहाँ तक कि गालियां उसकी कविता में व्यक्त हुईं। उसे अच्छा
लगा... मन का बोझ कुछ कम हो रहा था। धीरे-धीरे वह आरामकुर्सी
पर कब सो गया..पता न चला।
सुबह फिर पड़ोसी के मुर्गे ने बांग दी और खिड़की से आती सूर्य
की किरणों ने उसके चेहरे पर दस्तक दी तो उसकी नींद खुली। वह
कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। कुर्सी पर निगाह पड़ी तो उसका मुँह
खुला का खुला रह गया। वह नीली आरामकुर्सी सामने थी.. जो उसने
अपने पिता के लिए खरीदी थी। उसने प्यार से उस पर हाथ फेरा जैसे
बहुत दिन बाद उससे मिल रहा हो। इस कुर्सी से उसके पिता की
कितनी ही यादें जुड़ी थीं और जिस पर बैठकर उसने कई बेहतरीन
कविताएँ लिखी थी। फिर एकाएक उसे याद आया कि वह यहाँ किस
उद्देश्य से लाया गया है! उसने जोर से पुकार कर पूछताछ
अधिकारियों को बुलाया। वे जब कमरे में आए तो उनके हाथों से
तोते उड़ गए।
सोने की आरामकुर्सी कमरे में कहीं-नहीं थी। सुरक्षाकर्मी रात
भर बाहर तैनात थे। ऐसे में सोने की कुर्सी कहाँ और कैसे गई?
आनन-फानन में पूरे कमरे की जमीन गहराई तक खुदवाई गई कि कहीं
ऐसा न हो कि उसे जमीन में गाड़ दिया गया हो लेकिन वह नहीं मिली
तो नहीं मिली। सुरेश समझाता रहा कि यही वह कुर्सी है जिस पर
मैं रात भर बैठा रहा और सो गया फिर क्या हुआ उसे याद नहीं.. वह
एकदम नहीं जानता कि सोने की कुर्सी फिर कैसे लोहे की कुर्सी
में बदल गई।
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अगले दिन उसे आयकर विभाग के अधिकारियों व उन्हें सहयोग दे रहे
पुलिसकर्मियों ने रिहा कर दिया और उससे माफी भी मांगी। कहा-'अब
किसी मानवाधिकार कर्मी या वकील को हमारे पीछे मामला-मुकदमा के
लिए न लगा देना। तुम तो जानते ही हो कि क्या चमत्कार हुआ है।
कुर्सी के लोहे से सोने में बदलने और फिर सोने से लोहे में
बदलने की घटना पर कोई यकीन नहीं करेगा। तुम्हें तो लोग सिरफिरा
कहेंगे ही हम पर भी आँच आएगी। जाओ ऐश करो। तुम तो मालामाल हो
ही गए हो.. हम सस्पेंड नहीं होना चाहते।'
यह कहानी हालाँकि यहीं खत्म होती है। जो लोग इस घटना से वाकिफ़
थे उन्होंने इसका ज़िक्र किसी और से नहीं किया इसलिए वैज्ञानिक
इस शोध से वंचित रह गए कि आदमी के मन की उच्च भावनाएँ उसके
शरीर में ऐसा कौन सा रासायनिक परिवर्तन लाती हैं जिससे देह के
स्पर्श से लोहा सोने में बदल सकता है। |