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घर के भीतर ओंकार जी कभी नहीं आये। जतिन के पिता का अनुशासन इस मामले में बहुत सख्त था जो उनके जाने के बाद भी निभ रहा है। मैं अक्सर खिड़की के बाहर जतिन और ओंकार जी को पार्क में बैठ कर बात करते देखती थी। हाल के दिनों में बोलते बोलते ओंकार जी अक्सर उत्तेजना में उठ कर खड़े हो जाते थे। वह पार्क घर से जरा दूर है, इसलिए सिर्फ उनका हाव भाव ही मेरे लिए संवाद संकेत होता था।

जिस दोपहर, सड़क पर एक ट्रैक्टर की लपेट में आकर जतिन लहू लुहान गिर पड़े, वहाँ इत्तेफाक से ओंकार जी का कोई स्टूडेंट मौजूद था। उसने भाग कर ओंकार जी को खबर दी कि कोई आदमी दुर्घटना में घायल हो गया है। अजनबी की भी पीर में कराहने वाले ओंकार जी दौड़े और पाया कि उनका दोस्त ही वहाँ दम तोड़ गया है।
उसके बाद सारी दौड़ धूप, सबको खबर, इंतज़ाम ओंकार जी के स्टाफ और स्कूल के बच्चों ने किया। जतिन के बड़े भाई भाभी दूसरे शहर से दौड़े आए... सबका आना मिथ्या रहा, जतिन तो विदा हो गए।
टोले मोहल्ले के लोगों ने और जतिन के भैया ने भी देखा कि शमशान में ही ओंकार जी ने किसी लड़के के बस्ते से कापी खींच कर उसमें से पन्ने फाड़े, वहीँ पेड़ के बैठ कर ढेर सा लिखा और एक लड़के को दौड़ा दिया।
जतिन की मौत को इन्हीं पन्नों ने एक अखबार में जगह दिलाई, जिसमें ओंकार जी की ओर से जतिन की मनःस्थिति और दफ्तर से जुड़े मानसिक तनाव को दुर्घटना का कारण बताया गया था।

इस खबर से सफ़ेद आकृतियाँ परेशान हो गयीं और अपनी फर्क चाल तलाशने लगीं... साथ ही मेरी शोक परिधि का दायरा तेज़ी से सिमटने लगा।

जतिन की मौत के दस दिन बाद से ही जतिन के दफ्तर से नर्म मुलायाम फोन मेरे पास आने लगे... छद्म सहानुभूति, जो दबाव रचने की नई जगह बना रही थी।

पता नहीं किस बातचीत में मैं बौराई अन्यमनस्क क्या कह गई, मैंने किस कागज़ पर सही कर दिया जिसकी फोटोकॉपी तक मैंने नहीं माँगी और एक दिन अखबार में मेरा बयान आ गया कि जतिन पहले से बीमार थे, उन पर बाहर का कोई दबाव तनाव नहीं था और कठिनाई के दौर में जतिन के दफ्तर वालों ने बहुत हमदर्दी दिखाई। इस बारे में अखबार में पहले जो छपा है, और जिस किसी ने बताया है वह सच नहीं है... अपने पति की मौत को मैंने हरि इच्छा मान कर किसी तरह सह लिया है।


जतिन के बड़े भाई इस खबर को पढ़ कर हतप्रभ रह गए थे, तो मेरी जेठानी ने कहा था,
'... ठीक है, अगर वह इतने ही मेहरबान हैं तो तुम्हें इतने बड़े मोहकमें में कहीं नौकरी दे दें...इसी शहर में इनके तीन ऑफिस हैं,'

मेरे कान में जतिन की आवाज़ गूँजने लगी थी, मेरे शोक को धकेल कर वहाँ एक नए राग ने जगह बनानी शुरू कर दी थी।

उसके बाद जतिन के दफ्तर से कोई न कोई अक्सर आने लगा। वे माँ से बात करते, मुझसे बात करते और हमारे इरादे टटोल कर वापस चले जाते।

आज दोपहर में जतिन के दफ्तर से कोई उपाध्याय नाम का आदमी आया था और पास के एक दफ्तर में मेरी नौकरी का नियुक्ति पत्र दे गया। ठीक ठाक तनख्वाह है, हफ्ते में पाँच दिन का काम है। तुम उस समय माँ की दवाई लेने गई हुईं थी अरुणा और माँ तटस्थ अपने कमरे में बैठी थी।

वह कागज़ पकड़ते हुए मैं यकायक ओंकार जी को याद कर के डर गई थी, इतना जितना शायद उन सफ़ेद आकृतियों से भी नहीं डरी। उपाध्याय के जाने के करीब पंद्रह मिनट बाद ओंकार जी एकदम पहली बार घर के खुले दरवाज़े से देहरी पार कर के भीतर आये थे। मैं अभी भी हाथ में वह चिट्ठी थामे चुपचाप बैठी थी।

वह आ कर, मौन , सामने बैठ गए।

" तुम्हें नौकरी दे दी न बेटी... ठीक है, हरि इच्छा।"

उस के बाद उनकी आवाज़ रुँध गई थी।

मैं काँप गई थी। उस दिन अखबार में भी मेरे बयान के साथ यही शब्द लिखे थे, 'हरि इच्छा...'

मैंने ओंकार जी का चेहरा अचकचा कर देखा।
मैंने उनका चेहरा अचकचा कर देखा। मुझे लगा कि वह मेरे हाथ से छीन कर वह चिट्ठी चिंदी चिंदी कर देंगे। सच कहूँ, मैं चाहती भी यही थी। मेरे चित्त में शोक की जगह अब यही द्वन्द चल रहा था लेकिन ओंकार जी के चेहरे पर आक्रोश, विरोध, या युयुत्सा के कोई संकेत नहीं थे।

फिर पता नहीं क्या हुआ कि वह बच्चों की तरह फूट फूट कर रो पड़े। माँ आ गई उनके पास। कुछ देर बाद तुम भी आ गईं अरुणा, और वह रोते रहे। रो चुकने के बाद कुछ सहजता उनके स्व भाव में लौटी।

"ठीक है बेटा, काम शुरू करो और जतिन का अभियान आगे बढाओ। मैं एक अध्यापक हूँ बेटा, सत्य और न्याय का पाठ पढ़ना मेरा काम है। इस में शक नहीं कि हत्यारे वह हैं और यह सहानुभूति उनका छद्म है, लेकिन सच शब्द का आग्रह मैं मानवीयता की कीमत पर कैसे चुन सकता हूँ...?

अब मैं जतिन के प्रसंग में उनके विरुद्ध कुछ भी नहीं कहूँगा... तुम निश्चिंत रहो बेटा..."

ओंकार जी यकायक उठे और वापस चल दिए थे और सांसारिक स्वार्थ के गलियारे में उतरते हुए मुझे एक निस्वार्थ भय से मुक्ति मिली थी...

मैं कल, उन हत्यारों को, यह नियुक्ति स्वीकारते हुए धन्यवाद पत्र भेजूँगी। इस आधी रात को यह सफ़ेद आकृतियाँ यह देखने आईं थीं कि उनकी यह छद्म मानवीयता मेरे हाथों में कहाँ है... इन हत्यारों ने जतिन की मौत के साथ ही मुझे खींच कर मेरी शोक परिधि के बाहर ला पटका था। लेकिन अब ये बताओ अरुणा, कि अगले हफ्ते जब मैं यह नौकरी शुरू कर दूँगी, तब तक क्या मेरा शोक मेरे इंतज़ार में उसी रूप में मुझे मिलेगा जिस रूप में वह जतिन की मौत के ठीक उसी पल उपजा था...? "

अपना प्रश्न अरुणा को सौंप कर दमयंती चुप हो गई। उसका सिर कुर्सी पर टिक गया और आँखें उनींदी होते हुए मुँदने लगीं।
अरुणा ने हौले से उठा कर दमयंती को उसके बिस्तर पर लिटा दिया।

लाईट बुझा कर अब अरुणा सीढ़ियों से नीचे उतर रही है और उसके भीतर प्रश्नों का गहरा चक्रवात है।

'क्या अब सचमुच दीदी को सफ़ेद आकृतियाँ दिखनी बंद हो जाएँगी ?'

'या उसी तंत्र में पहुँच कर वह सफ़ेद आकृतियों से और घिर जाएगी। ?'

'ऐसा भी तो हो सकता है,...' सोच कर अरुणा के पैर सीढ़ियों पर थम जाते हैं।
'ऐसा भी तो हो सकता है कि सफ़ेद साड़ी में लिपटी दमयंती एक दिन उन्हीं में एक और सफ़ेद आकृति हो जाय, किसी दूसरी दमयंती को डराने के लिए...?"

अब अरुणा को सीढियाँ उतरने में डर लगने लगा। अब तो आँगन में गिरा हुआ कोई रौशनी का टुकड़ा भी नहीं है।

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६ जून २०११

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