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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
अशोक गुप्ता की कहानी— शोक वंचिता


उस समय रात के डेढ़ बज रहे थे...
कमरे की लाईट अचनाक जली और रौशनी का एक टुकड़ा खिड़की से कूद कर नीचे आँगन में आ गिरा।

लाईट दमयंती ने जलाई थी। वह बिस्तर से उठी और खिड़की के पास आ कर बैठ गई। उसके बाल खुले थे, चेहरा पथराया हुआ था लेकिन आँखें सूखी थीं।
दमयंती ने खिड़की के बाहर खिड़की के बाहर अपनी निगाह टिका दी। चारों तरफ घुप्प अँधेरा था, लेकिन दमयंती को भला देखना ही क्या था अँधेरे के सिवाय? एक अँधेरा ही तो मथ रहा था उसे भीतर तक...

नीचे आँगन में दमयंती की सास के पास दमयंती का पाँच बरस का बेटा सोया हुआ था। वहीं, अपने घर से आई हुई दमयंती की छोटी बहन अरुणा भी सोई हुई थी।

अँधेरे को भेद कर देखते हुए दमयंती ने सीढियों पर क़दमों की आहट सुनी। अरुणा का आना जान कर भी दमयंती ने सिर नहीं उठाया। निरंतर बाहर ही देखती रही।
अरुणा बे आहट आकर कुर्सी पर बैठ गई।

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