कई
बार उनका घर और दफ्तर का जीवन मुझे विज्ञापन फिल्मों में दिखाए
जाने वाले हंसते और मौज करते परिवारों की तरह जान पड़ता। जबकि
अपना आकलन करता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे बच्चों के पास समय पर
फीस भरने और किताबें न खरीद पाने की शिकायतें हैं और पत्नी के
पास भी गृहस्थी की पुख्ता जिम्मेदारी न निभाने का आरोप।
मैंने एक बार चाहा भी कि लगातार स्नायुओं को तोड़ देने वाले
तनाव में जीने के बजाय अपने अधिकारी से साफ-साफ शब्दों में यह
पूछ लूँ कि आखिर मसला क्या है ? इसके लिए मैं टेबिल पर रखे फोन
तक गया भी। लेकिन रिसीवर उठाने के लिए बढ़े हाथ को मैंने बीच
में रोक लिया। ठीक इसी बीच, बैठक से रसोई की तरफ जा रही पत्नी
ने कनखियों से देखा और
ठिठक कर पूछा 'क्या बात है ?' परेशान दिख रहे हो ? वजह क्या है
?
'वजह है, ईमानदारी ! हाँ
मेरी ईमानदारी ! क्योंकि मैंने आदिवासी क्षेत्र में विभाग
द्वारा किये गये विकास के कामों के बारे में लगभग कच्चे-चिट्ठे
की तरह पूरी सचाई रख दी। नतीजतन दिल्ली को पच नहीं पायी।
दरअस्ल, दिल्ली को वे तमाम चीज़ें नहीं पचती, जिनमें सचाई हो।
क्यों कि सच्चाइयाँ उनका सफेद-गिरेबान पकड़ लेती हैं।' पत्नी
ने मेरी तरफ लगभग असहाय दृष्टि से देखा और सर झुका कर रसोई की
तरफ चली गई। वैसे मुझे भी कोई उम्मीद नहीं थी कि वह कोई
टिप्पणी करेगी। शुरू-शुरू में वह जरूर मुझे दफ्तर के
अधिकारियों और सहयोगियों द्वारा सताने की कोशिश में की जाने
वाली चालाकियों को देख कर घबड़ा जाती और रोने लगती थी। वह
बुरे-बुरे सपनों से भर जाती और भगवान को मनाने लगती थी।
धीरे-धीरे उसका रोना स्थगित होने लगा और वह अजीब-सी सहानुभूति
और दया में बदलने लगा। अब इतने सालों में उसने यह मान लिया है
कि मेरा और मेरे साथ षड्यंत्र का जन्म एक ही साथ हुआ है। इसलिए
यह खटपट तो बनी ही रहेगी।
मैंने सोचा कि उन तमाम फाइलों को एक बार मैं खंगाल डालूँ,
जिनमें एन.जी.ओ. और ठेकेदार के बीच के सम्बन्धों की पड़ताल
करते हुए मुख्यालय को रिपोर्ट भेजी थी, लेकिन जाने क्यों मेरे
भीतर अजीब-सा भय जगह बनाने लगा। मैंने मार्क किया कि पहली बार
मैं खुद को डरा हुआ और अकेला पा रहा हूँ। या अकेला कर दिया गया
हूँ। इस ख्याल से देह के
चप्पे-चप्पे में एक अपरिभाषित सी बैचेनी भर गई थी।
मैं बैठक से बाहर बरामदे में आ गया।
बरामदे में आकर मैंने एक लम्बी और भरपूर साँस ली। इस हरकत से
किचिंत राहत महसूस हुई। लेकिन यह क्षीण-सा एहसास, बाद इसके भी
बरकरार था जैसे कि वातावरण की हवा में समायी गैसों में से
प्राणवायु का प्रतिशत कम हो गया है।
मुझे तअज्जुब हुआ कि बाहर सड़क पर उसी तरह आमदरफ्त के साथ ही
लोग कहीं न कहीं जाने की ऐसी जल्दी में थे, जैसे उन्हंे अपने
अलावा किसी और के बारे में सोचने की फुर्सत तक नहीं है।
'सुनिए आपका फोन है।` भीतर से रसोई में काम करती पत्नी की आवाज
आयी।
मैं बरामदे से वापस बैठक में आ गया। फोन की घण्टी अभी भी बज ही
रही थी। मैंने रिसीवर उठाया। दूसरी छेार पर वीरेन्द्र यादव था।
वह दफ्तर में मेरा सहायक था। उसने कहना शुरू किया। उसकी आवाज
दबी हुई और रहस्य भरी थी जैसे किसी भेद को मुझ तक पहुँचाना
चाहता है, 'सर! मुझे पता चला है कि आपके खिलाफ डिपार्टमेंटल
इन्क्वारी बैठने वाली है। इसके पहले आपको मुख्यालय में कुछ खास
लोगों के दबाव में बुलाया जा रहा है। सर! मैं तो कहता हूँ कि
आप पंगा मत लो। सच की ऐसी लड़ाई से क्या फायदा, जिसमें जान से
हाथ जाना धोना पड़े। सर! आपके भी छोटे-छोटे बच्चे और पत्नी है।
हलो सर! बस... इतना ही कहना था। और हाँ सर! यह आप मत बताना कि
'मैंने आपको यह सूचना दी हैं।' सर! लोग बड़े जालिम हैं, वे
मेरे भी पीछे पड़ जायेंगे। हलो-हलो, हाँ सुनिए सर एक बात और
कुछ खास दस्तावेज यदि रिपोर्ट से संबंधित आपके पास हों तो उनको
किसी और के यहाँ रखवा दो। अच्छा अब मैं फोन रख रहा हूँ।'
फोन कट गया। शायद फोन उसने उधर से रख दिया था।
कुछ क्षणों तक मैं रिसीवर को हाथ में थामें अवसन्न सा बैठा
रहा। बाद में बहुत धीमे से रिसीवर को क्रेडल पर रख दिया।
बहरहाल, अब धीरे-धीरे मेरे भीतर एक खतरनाक दहशत आकार लेने लगी,
जो मेरे वजूद को निगलती जान पड़ी। मैं तेजी से उठा और बेडरूम
में रखी अटैची, जिसमें कि मैं हरदम खास-खास दस्तावेजों की फोटो
प्रतिलिपियाँ रखता आ रहा हूँ- खोली। खोलो तो देखा अटैची में
उसी प्रकरण से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज भी थे। उन्हें
छांटने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। मैंने उन्हें निकाल कर बैग
में रख लिया, जिन्हें मैं दिल्ली की यात्रा में अपने साथ ले जा
रहा था।
मैंने याद करने की कोशिश की कि इस समय दिल्ली जाने वाली
गाड़ियाँ कौन-कौन सी है और जिनमें 'तत्काल' में रिजर्वेशन मिल
सकता है। शायद राजधानी ही थी, जिसमें सीटिंग में जाया जा सकता
था। जल्दी से दो शर्ट, दो पैंट रख लिये। टॉवेल और शेविंग के
सामान के लिए बाथरूम की तरफ दौड़ा और अब बैग लगभग तैयार था।
साथ में रखे गये दस्तावेजों के बारे में सोच कर लगा, वे झीने
और पीले कागजों के बंडल नहीं, बल्कि जैसे मेरी कुमुक का सामान
हों। जैसे वे कुण्डल और कवच हो। मुझे लग रहा था, यह एक नये
महाभारत की शुरूआत हो रही है।
दीवार पर लटकी घड़ी की तरफ देखा, जो कह रही थी कि कूच करने के
लिए ज्यादा समय शेष नहीं है। रसोई से पत्नी थाली में खाना ले
आयी थी। देखते ही सवालिया शक्ल बनाते हुए बोली ''कहीं जाना था
तो सुबह नहीं बता सकते थे'' मैंने कहा कुछ नहीं। लगा जैसे उसकी
चिढ़चिढ़ी टिप्पणी पर की कोई मीमांसा करने की शक्ति नहीं रह गई
है। उत्तर में मैंने सिर्फ यही कहा 'देखो उषा, अचानक दिल्ली
जाना पड़ रहा है। जाने की तो तारीख आज की है और लौटने की तारीख
के बारे में मैं नहीं जानता।'
वाक्य का आधा हिस्सा बोलते हुए मुझे लगा कि आगे बोलने पर गला
पूरी तरह भर आयेगा। कहने के बाद भीतर कहीं दूर से कौंधती एक
आत्मदया सी मुझे घेरने के लिए बढ़ रही थी। पत्नी बेतरह घबरा
उठी थी। घबराहट उसके चेहरे में छुप नहीं पा रही थी।
चुपचाप खाना खाया गया। और एक भी शब्द नहीं बोला गया। रोटी
मांगी नहीं और उषा ने आगे रह कर परोसी भी नहीं।
तेजी से उठ कर मैंने वॉश बेसिन में हाथ धोए और सोचने लगा
अपराधियों के पास भी अपने-अपने वॉश बेसिन हैं, जहाँ वे हाथ
धोते रहते हैं। तमाम तरह के अपराध करने के बाद। दीवार पर टँगी
घड़ी के कांटे आज शायद कुछ ज्यादा ही तेज चल रहे थे। मुझे लगा
कि बाहर रिक्शा नहीं मिला या फिर खड़खड़िया रिक्शा मिला तो
गाड़ी चूक भी सकती है।
अब कपड़े पहन कर मैं जूतों के तस्में बाँध रहा था।
जूतों के तस्में बाँधते हुए जाने क्यों याद आया जैसे मैं सन्
दो हजार दस में जूते नहीं बाँध रहा हूँ, बल्कि जैसे एन.सी.सी.
की परेड में जाने वाला हूँ। जैसे ये जूते ही मेरे नहीं है।
किसी फौजी के जूते हैं। जो मोर्चे के लिए निकल रहा है। पता
नहीं जब कंधे पर उठाऊंगा अपना बैग तो उसमें रखे दस्तावेज,
हथियार की शक्ल में बदल जायेंगे या बारूद की ? मैंने पत्नी के
चेहरे की तरफ देखा, जो पानी का गिलास भर कर ले आई थी। चलने के
पहले घर से पानी पीकर निकलने वाले टोटके के पीछे पता नहीं जाने
कितनी शताब्दियों का कोई कमजोर यकीन था, जिसमें पत्नी का अटूट
विश्वास था।
बहरहाल, पानी पीकर बाहर निकला तो पत्नी ने फोन के पास रखे रहने
वाले मेरे परिचय-पत्र को लाकर हाथ में थमा दिया। सहसा याद हो
आया तत्काल में जाना पड़ा तो रेलवे टी.टी. तो परिचय पत्र
मांगता है। परिचय-पत्र को हाथ में लेते हुए पहली बार मैं उदास
हो आया। क्या एक व्यक्ति की पहचान सिर्फ इतने से छोटे टुकड़े
में सिमट जाती है। मन अवसाद से भर आया। अवसाद से भरे-भरे मन और
उदास आँखों से परिचय पत्र को ऐसा देखा जैसे यह मेरा नहीं किसी
और का है। और नौकरी से निकाल दिया गया तो सबसे पहले मुझसे यही
वापस लिया जायेगा। -मैंने सोचा, यह परिचय पत्र नहीं, जैसे मेरे
कार्यालय ने मेरा सारा स्वत्व निकाल कर इस छोटे से कागज में
सिमटा दिया है।
मुझे मेरी ही तस्वीर ऐसी लगी जैसे मैं नहीं कोई और ही व्यक्ति
है, जिसे मैं करुण आँख से देख रहा हूँ।
परिचय पत्र को आँखों के निकट लाकर गौर से देखा, मोटे और काले
हरफों में मैंने अपना नाम पढ़ा, सत्यदेव दुबे, आत्मज
हरिश्चन्द्र दुबे। जन्म तारीख १२.१२.६५। पैंसठ का सन् पढ़ते ही
याद आया यही तो साल था, युद्ध का। देश के ऊपर लाद दिये गये
युद्ध का। क्या लड़ाइयों के साल में जन्म लोगों की जिन्दगी
हमेशा युद्धक्षेत्र ही बनी रहती हैं।
मैंने धीरे से बेग की चेन खोली और परिचय पत्र को बेग के अंदर
जेब में रख लिया और एक झटके से घर की सीढ़ियाँ उतर कर सड़क पर
आ गया। एक बार इच्छा हुई कि आँखों में ढेर सारा प्यार भर कर
अपनी पत्नी उषा को देखूं, ठीक उसी तरह जैसे सैनिक मोर्चे पर
जाने के पहले विदा होते हुए देखता है। जैसे शादी के बाद की
सुहागरात के बाद पहली बार दफ्तर जाते समय मैंने अपनी पत्नी उषा
को देखा था।
तेज कदमों से चलता हुआ मैं सड़क़ के मोड़ पर आ गया, जहाँ
रिक्शा स्टेण्ड था। वहाँ दो तीन रिक्शा भी और भी खड़े थे।
उनमें से एक लपक कर मेरे पास आ गया।
'कहाँ चलना है बाबूजी ?` जितने बेसाख्ता ढंग से उसने पूछा उसका
उत्तर देने में मैं किंचिंत् गड़बड़ा गया। लगा मस्तिष्क शून्य
हो गया है और मैं क्षण भर के लिए लोगों, जगहों, शहरों के नाम
भी भूल गया हूँ। मैंने तनिक-सा सिर झटका और कहा-'रेलवे स्टेशन
!'
...
स्टेशन पहुँचा तो लगा जैसे अभी तक घेरे रहने वाली चिंताओं का
बोझ और अधिक बढ़ गया है। क्योंकि अब टिकट मिलने न मिलने का
संकट भी उसमें जुड़ गया था। टिकट मिल गया तो भी उसमें
निर्विघ्न ढंग से चढ़ने का संकट। 'तत्काल की' बुकिंग वाली
खिड़की बंद हो चुकी थी। इसलिए, मैंने जनरल बोगी में चढ़ सकने
के लिए एक सामान्य टिकट लिया और प्लेटफार्म पर आ गया।
प्लेटफार्म की बैंचों पर यात्री आने वाली गाड़ियों की
प्रतीक्षा में अपने सामान के साथ बैठे थे, जिन्हें बैंचों पर
जगह नहीं मिली थी वे अपने-अपने सामान के साथ खड़े थे। कुछ
इधर-उधर टहल भी रहे थे। एक यात्री शायद सामान ढोने की मजदूरी
को लेकर कुली से झगड़ रहा था। उन दोनों के झगड़ों से अलग हाथ
में केटली थामे कम उम्र के बच्चे ने जोर से मुनादी की तरह कहा,
'चाय गरम'। और आगे निकल गया।
मैंने पत्रिकाओं का ठेला धका रहे न्यूज पेपर वेंडर से पूछा,
'राजधानी की सामान्य बोगी कहाँ लगेगी?' उसने मुझे यात्री से
ज्यादा एक ग्राहक की नजर से देखा, तो मैंने उससे एक
सांध्यकालीन अखबार की प्रति देने को कहा। उसने कहा, 'ठीक ओवर
ब्रिज के नीचे बोगी लगेगी।' यह उत्तर उसने यात्री को नहीं,
अपने ग्राहक को दिया था। भुगतान के रूप में दो रूपये देकर मैं
अखबार लेने को हुआ, तो उसने कहा, 'बस पच्चीस मिनट में गाड़ी आ
जायेगी। दिल्ली ठीक पाँच बजे छोड़ देगी, ऐन भोर में।' जाने
क्यों मुझे उसका वाक्य सुनकर फाँसी देने के वक्त की याद आयी।
जब रात का वक्त खत्म होता है और सुबह की शुरूआत अर्थात् फाँसी
देने का वक्त। |