रंजन
बच्चों को डाँटते कि शाम के समय यह दोनो घर के अंदर घुसे क्यों
बैठे हैं? उन्हें पुकारते। बच्चे बाहर आकर कुछ क्षण को खड़े
होते... कोई उल्टा सीधा जवाब देते और अंदर चले जाते। रंजन बाहर
बड़बड़ाते रहते और बच्चे अंदर। मैं रंजन को शांत करने की कोशिश
करती... बच्चों को समझाती... आखिर दोनों के बीच सेतु तो मुझे
ही बनना था। रंजन अपने जीवन से हमेशा प्रसन्न रहे... सिर्फ
वर्तमान में जीने वाले... न मन पर अतीत का कोई बोझा न भविष्य
की कोई चिन्ता। कुछ बुरा हो भी गया तो थोड़ी देर परेशान
रहे...फिर बस...झाड़ा-पोंछा और आगे चल दिए जैसे कुछ हुआ ही न
हो....जैसे कोई कपड़ों पर पड़ी धूल को झाड़ देता है। मैं रंजन को
देखती रहती और अक्सर मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ
जाती... हैप्पी फैलो।
मैं जानती हूँ माली लान को साफ करने के बाद ट्यूब उठाएगा और
लाईन से क्यारियों में छिड़काव करेगा। रंजन अब नहीं हैं...।
रंजन के निधन को छः दिन बीत चुके। अजीब सा लगता है कि अभी
हफ्ता भर पहले जो इंसान रक्त, मज्जा और अस्थियों के साथ सशरीर
यहाँ घूमता रहता था वह नहीं हैं.... पूरी दुनिया में कहीं नहीं
है वह।
रंजन विधि विधान में विश्वास करते थे...शुद्ध सनातनी...रोज़
पूजा करने वाले। इसलिए बच्चों के विरोध पर भी पूरे ही
कर्मकाण्डों का निर्वाह करवा रही हूँ मैं... कौन जाने उससे मरे
आदमी की आत्मा को शांति मिलती ही हो...। कौन जाने? रंजन से
बहुत नाराज था मन... मन में उनके प्रति बहुत दूरी... बहुत
परायापन आ चुका था। पर बीस बरस पुराना साथ था उनसे.. फिर
रिश्ते का अधिकार भी तो था ही। फिर जब मन ने उनके लिए उनके
जीवन में कभी बुरा नहीं चाहा तो आज उनके जाने के बाद उनके लिए
भला ही चाहूँगी। लगता है जैसे यह रंजन की आखि़री मूक इच्छा हो
जिसे मुझे पूरा करना हो।
घर में अजीब सा महौल हो गया है। कोई पूरी आवाज़ बोलता नहीं...
कोई खुल कर हँसता नहीं। उस दिन आदित्य ने टी.वी. चला दिया
था... मुझे वह आवाज़ अच्छी नहीं लगी थी और मैंने बढ़ कर बंद कर
दिया था उसे। आदित्य ने मेरी तरफ एक बार झल्ला कर देखा था और
उठ कर बाहर चला गया था।
रंजन की मौत का समाचार सुन कर नीता आई थी मुझसे मिलने। नीता
इण्टर से लेकर एम.एस.सी. तक मेरे साथ पढ़ी थी। रिज़ल्ट आने से
पहले ही उसकी शादी हो गई थी और घर पति बच्चों और परिवार में
बेहद सुखी थी। ज़रा सी बात पर देर तक खिलखिलाती रहती जैसे खुशी
झलकी पड़ रही हो। तीन साल पहले कार एक्सीडैन्ट में पति नहीं
रहे। मेरे गले लग कर फूट-फूट कर रोती रही थी और मैं उसकी पीठ
सहलाती रही थी जैसे उसे तसल्ली दे रही हूँ। अनायास अजब सी
ईर्ष्या लगती है उससे। तीन साल हो चुके उसके पति के निधन को पर
आज भी ज़रा से ज़िकर पर उसकी एक-एक आँख से कई-कई धार आँसू गिरने
लगते हैं... ओर मैं? रंजन को गए एक हफ्ता भी नहीं हुआ और मेरी
आँखें सूखी हैं। कितना रीतापन महसूस होता है... लगता है सीने
के अंदर कुछ घुमड़ रहा हो... पर बरस तो नहीं पा रही मैं। शायद
रो लूँ तो थोड़ा मन हल्का हो जाए। पर किसके लिए रोऊॅ...? रंजन
के लिए? जिन्होंने मेरे किसी एहसास का आदर नहीं
किया कभी..., इस रिश्ते का भी
नहीं।
कभी आँसू आ जाएँ तो अजब संकोच सा महसूस होता है.... जैसे अपने
आप पर शर्म आ रही हो। बच्चों के सामने डर भी तो लगता है। मेरा
चेहरा थोड़ा सा भी उतरा देखते हैं तो घूर कर देखते हैं यह भाई
बहन...जैसे डॉट रहे हों मुझे...
जैसे धिक्कार रहे हों।
दमयन्ती मौसी दिल्ली से आई हैं। रंजन के निधन का पत्र सब तरफ
भेजा गया था... उन्हें भी गई थी सूचना। फोन करने की ज़रूरत ही
नहीं महसूस हुयी थी। देर से ही सूचना मिल पायी है उन्हें सो अब
आई हैं। अजब सहमी हुयी सी... झिझकते हुए घर के अंदर कदम रखा था
उन्होंने... जिस तरह से किसी भी मौत के घर में घुसा जाता है
डरते-डरते। पर घर के अंदर शान्त माहौल देख कर थोड़ी देर में सहज
हो गई थीं वे। मैंने अपने ही कमरे में उनका सामान रखवाया है।
मौसी के
साथ मेरा रहना लगभग नहीं जैसा ही रहा है। सालों तक वे लोग
विदेश में रहे हैं। अब कुछ सालों से दिल्ली आ गए हैं। पर विदेश
में रहते हुए भी उनका माँ का ख़्याल रखना... हर दो तीन दिन पर
उन्हें फोन करते रहना। कुछ ऐसा होता कि जब माँ बहुत परेशान
होतीं... जब आगे के रास्ते बंद जैसे लगने लगते तब न जाने
कैसे...कहाँ से मौसी का ड्राफ्ट आ जाता... किसी न किसी
उपलक्ष्य में... किसी न किसी बहाने। तीन चार साल में भारत आतीं
तो हमारा घर सामान से भर जातीं। हदद् की संकोची माँ उनके भेजे
रूपयों को बड़ी सहजता से स्वीकार कर लेतीं... शायद जिस अपनेपन
से वे रूपए भेजे जाते थे... उसकी गंध पहचानती थीं वे। मौसी के
इसी लगाव के कारण उनसे बहुत दूर रहते हुए भी... उनसे बहुत कम
मिलने पर भी हम दोनों भाई-बहन को उनसे एक अंतरंग सा रिश्ता
महसूस हुआ है। नानी माँ के लिए बहुत दुखी रहती थीं... उन्होंने
कभी दमयन्ती मौसी को चिट्ठी लिखी थी कि जयंती के लिए मन बहुत
परेशान रहता है उसकी ज़िम्मेवारी मैं तुम्हें सौंप रही हूँ।
नानी के जाने के बाद भी मौसी ने उस दायित्व का निर्वाह पूरे मन
से किया था। पर
उन्होंने कितना किया...
कब तक किया इस बात को सोचने की कोशिश हम भाई-बहन ने कभी की ही
नहीं....।
इन दस दिनों में तमाम बातें हुयी थीं मौसी से... टुकड़ों में।
हमारी अधिकांश बातचीत के बीच माँ अनायास आ जातीं....फिर एक बात
से और बातें जुड़ती और खुलती चली जातीं। शुरूआत मेरे ही
वैवाहिक जीवन से हुयी थी...। मौसी बहुत देर तक चौकी पर रखी
रंजन की तस्वीर को देखती रही थीं अपलक.... उसके सामने अगरबत्ती
का उठता हुआ धुआँ। मौसी की आँखें पसीजने लगती हैं...‘‘तुम्हे
लेकर जयंती बहुत परेशान रहती थी...’’
‘‘मेरे लिए’’ मैं चौंकती हूँ। न मैंने अपनी कोई परेशानी माँ को
बताई थी कभी, न माँ ने ही पूछा था कभी कुछ। हम दोनों के बीच
रंजन कभी किसी व्यक्तिगत बातचीत का मुद्दा रहे ही नहीं। आखि़र
उन बातों से मेरा मान सम्मान भी जुड़ा हुआ था ही। फिर माँ को
कुछ आभास हो गया था क्या? हाँ... रंजन का गर्म मिज़ाज.... गाहे
बगाहे उनका आँखें तरेर कर
बात करने का ढंग उनको परेशान कर
जाता था... इतना मैं समझ जाती थी। मैं मौसी की तरफ देखती
हूँ... फिर पूछती हूँ....‘‘मेरे लिए परेशान होती थीं....पर
मुझसे कभी कोई ऐसी बात नहीं की उन्होंने....’’
‘‘तुमसे...’’ मौसी खिसियाया सा हँसती है...‘‘तुमसे क्या कहती?
कैसे कहती ? तुम दोनों भाई बहन से डरती थी वह... तुम....’’
मौसी अपनी आधी बात छोड़कर एकदम चुप हो जाती हैं....।
मैं स्तब्ध बैठी रहती हूँ... मौसी की तरफ देखती हुयी...। उनसे
आगे कुछ पूछने का साहस नहीं होता। अनायास याद आता है कि माँ की
आँखों में वह डर हम लोगों ने न जाने कितनी बार देखा था... और
देखकर अनदेखा किया था। तब कभी ध्यान नहीं दिया था उस बात पर...
या उसे महत्व नहीं दिया था। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं...
आज सोंचती हूँ कितना पीड़ादायक होता होगा किसी बड़े के मन में
छोटों से डर... वह भी अपनी संतान से। मेरी आँखें भरने लगती
हैं। मौसी मेरी तरफ देखती रहती हैं... सोचती रहती हैं जैसे तौल
रही हों कि कहें या न कहें। वे अजब तरह से अटक कर बोलती हैं
जैसे झिझक रही हों..‘‘जयंती चाहती थी कि तुम रंजन को छोड़ दो...
उससे अलग हो जाओ।’’
‘‘अरे..’’ मैं चौंकती
हूँ।
‘‘तुम्हारी काब्लियत... तुम्हारी उपलब्धियों सब की बहुत कदर
करती थी वह...। कहती थी एकदम बुझ गयी है मीनाक्षी। उसे लगता था
तुमने अपने आप को रंजन के कदमों का ‘डोर-मैट’ बना लिया है।’’
‘‘क्यों मौसी...’’ मैं खिसियाया सा हँसती हूँ...।
‘‘उसे लगता था रंजन अपनी इन्फीरियारिटी को अपनी क्रूडनैस से
ढकते हैं...। तेज़ी दिखाकर वे तुम्हारी काब्लियत को नकारते हैं।
तुम जिस तरह से रंजन के आगे-पीछे दौड़ती थीं... उनकी एक-एक बात
और इशारे से डरती थीं उससे जयंती को तकलीफ़ होती थी... अक्सर
कहती थी वह दो पढ़े-लिखे अपने पैरों पर खड़े लोगों का रिश्ता
नहीं है... मालिक और नौकर
का रिश्ता है। किस बात में कम है मीनाक्षी? फिर पढ़े लिखे शरीफ
लोगों के बीच में ऐसा होता है कहीं?’’
मैं चुप रहती हूँ...कुछ कहती नहीं। मैं रंजन का एकदम भड़कने
वाला मिज़ाज जानती थी और मैं नहीं चाहती थी कि कुछ भी ऐसी बात
कहूँ या करूँ जो घर का तनाव बढ़े... और बच्चे समझते थे कि मैं
रंजन से डरती हूँ। शायद माँ भी यही समझती थीं। जब कि अक्सर ऐसा
होता कि मैं चुप रह कर भी अन्ततः रंजन से अपनी मनचाही करवा
लेती।
सच बात यह है कि माँ शुरू
से इस रिश्ते से खुश नहीं थीं। उन्होंने बहुत चाहा था कि यह
शादी न हो...। रंजन से मेरी शादी की बात चली थी और उन्होंने
एकदम से घर आना जाना शुरू कर दिया.... था। माँ जब तक घर में
उनके प्रवेश पर रोक लगातीं तब तक रंजन मुझसे अंतरंग हो चुके
थे...। अधिकार से आते... अधिकार से मुझे घुमाने ले जाते...
अधिकार से मेरे अनेकों निर्णय स्वयं ले लेते मुझे शामिल किए
बग़ैर। माँ परेशान हुयी थीं... उन्हें रंजन पंसद नहीं आए थे...।
वह उनकी बहुत सी बातों के अर्थ निकाल कर उनके व्यक्तित्व का
विश्लेषण करना चाहतीं पर मैं कुछ सुनने... कुछ समझने की
मनःस्थिति में थी ही नहीं...। इस मैच के लिए माधव की भी पूरी
रज़ामंदी थी और माँ की इच्छा न होने के बावजूद शादी हो गई थी।
एक वर्ष के लंबे परिचय, घूमना-फिरना... घण्टों की बातचीत के
बीच जो बात समझ नहीं आयी थी वह शादी के कुछ ही दिन में समझ आने
लगी थी कि रंजन के साथ जीवन सरल नहीं होगा। सारे तामझाम...
स्टाईल...शान-शौकत ऊपरी थे, उसके अंदर सदियों पुरानी जर्जर
सोच। बात-बात में अपने आप से महानता जोड़ना... सामने वाले
व्यक्ति को हिकारत से देखना... आदेश भरा स्वर। मैं परेशान होने
लगी थी... लगा था ऐसे जीवन कैसे कटेगा इस
आदमी के साथ...। वैसे रंजन दीवानों की तरह मेरे
आस-पास मंडराते रहते।
मैं अजीब उलझन में रहने लगी थी..। तभी अमृता हो गई थी... रंजन
खुशी से निहाल हो गए थे..। उसी के दो साल के अंदर आदित्य। रंजन
की सारी दिनचर्या मेरे और बच्चों के आसपास घूमती रहती... शाम
को रंजन आफिस से लौटते तो बच्चे खुशी से चहकने लगते...। रंजन
टूर पर जाते तो अमृता को हुड़क में बुखार आ जाता और उलझन और
आन्नद के बीच जीवन कटता रहा था। फिर मन के अवचेतन में अपने
दाम्पत्य को सुखी बनाने की ज़िद्द भी थी... कहीं अवचेतन में यह
भी था शायद कि उस सफलता का पूरा दायित्व पत्नी की दक्षता पर
होता है...और मैं रंजन की बड़ी से छोटी हर माँग को पूरा करने
में लग गई थी। जितना-जितना मैं दबती गई थी.. उतना-उतना रंजन का
अधिपत्य बढ़ता गया था। ज़रा सा कुछ इच्छा के खिलाफ होता और वे
आँखें तरेर लेते.. नथुने फूल जाते और आवाज़ में क्रोध आ जाता।
पर तब भी मुझे रंजन के प्यार पर भरोसा था। वैसे भी शायद रंजन
के गुस्से की आदत पड़ गई थी मुझे। कभी उनका मिजाज़ उनकी भोली सी
मजबूरी लगने लगता। थोड़ी बहुत खिन्नता के बीच लगता जीवन ठीक ही
कट रहा है। संबंधो की ऊहापोह के बीच दस-बाहर साल ऐसे ही निकल
गए थे।
... तभी एक दिन तबियत ख़राब लगने के कारण इन्स्टीट्यूट से
जल्दी ही लौट आई थी। घर के अंदर घुसी थी तो मैंने रंजन की
अस्सिटेंट को उनके साथ घबड़ा कर अपने बैडरूम से निकलते देखा
था..। पहली प्रतिकिया वही हुई थी रंजन को छोड़ जाने की।
बात-बेबात पर आखें तरेर कर बात करने वाले रंजन ने मेरे पैर पकड़
लिए थे... ‘‘मैं तुम्हारे बगै़र नहीं रह सकता मीनाक्षी’’।
मैंने रंजन के लिए नहीं अपने कारणों से सब कुछ चुपचाप बर्दाश्त
कर लिया था। लगा था इन बच्चों से इनके पिता का प्यार नहीं छीन
सकती मैं...। उन्हें अपने और माधव जैसा पितृ-विहीन बचपन नहीं
देना चाहती थी मैं। मैं नहीं चाहती थी कि वे उस पीड़ा से गुज़रे।
फिर शायद कुछ संवेदनाएँ रंजन के लिए अभी भी बची थीं। लगा था
मेरे और बच्चों के बगै़र वे कैसे जी पाएँगे...। लोगों से क्या
कहेंगे कि क्यों चली गयी मीनाक्षी। पर अपमान के उस आघात को
सहना सरल नहीं हुआ था मेरे लिए...। उस पीड़ा को मैं कभी भूल
नहीं सकी। उस चोट से हमारे रिश्ते पूरी तरह दरक गए थे।
पर मेरे घर न छोड़ने की तरफ
से पूरी तरह निश्चिंत होते ही रंजन पहले की तरह मस्त हो गए
थे... एकदम प्रसन्न। चेहरे पर कोई द्विविधा... कोई दुख और
लज्जा नहीं। पहले की तरह वे बात-बेबात आखें तरेरने लगे थे...
बात-बात पर चेहरा बिगड़ने लगा था। पहले कभी ध्यान नहीं दिया था
पर अब समझ आता है कि पहले कि तरह ही निगाहें भी इधर-उधर भटकने
लगी थीं। रंजन की ज़्यादतियों के लिए शायद मैंने बहुत लम्बी
चुप्पी साध ली थी। मन में बातें जमा होती रहीं थीं पर मैं चुप
थी। मैं यह भी समझ गई थी कि रंजन को अपने जीवन में दूसरी औरतों
की नहीं उनके शरीर की ज़रूरत होती है... नहीं तो उन्होंने हमेशा
चाहा कि मैं उनके साथ सब जगह रहूँ... सब जगह चलूँ। मेरा साथ
होना उन्हें आत्म विश्वास और अभिमान से भरता था। पर मेरे लिए
उस साथ का कोई अर्थ ही नहीं रह गया था। मेरे लिए शरीर और मन
दोनों के लिए संबंधो का एक ही रास्ता था... मन से चलकर शरीर
तक... और शरीर से होकर मन तक।
आज इतने सालों बाद मेरे और रंजन के संबंध के प्रसंग को उठाया
है मौसी ने। माँ तो कभी इस तरह से खुल कर बात ही नहीं करती
थीं। मैं मौसी की तरफ देखती हूँ... ‘‘माँ चाहती थीं कि मैं
रंजन को छोड़ दूँ? पर माँ ने कभी इस बारे में मुझसे बात नहीं की
थी...’’ मैं धीमे से फुसफुसाती हूँ ‘‘नहीं तो शायद मेरे लिए
निर्णय लेना आसान हो गया होता...’’
मौसी मेरी तरफ चौंक कर देखती हैं फिर वही शिकायत भरी हँसी
हँसती हैं... ‘‘वह डरती थी कि कहीं तुम यह न सोचो कि माँ ने
अपना घर तोड़ दिया था... अब मुझसे मेरा घर तुड़वा रही है...’’
मौसी मेरी तरफ देखती रहती हैं..‘‘शायद तुमने कभी ऐसी शिकायत की
थी जयंती से।’’
मै मौसी की बात का कोई जवाब नहीं दे पाती... वैसे भी क्या जवाब
दूँ। एकदम पथराने लगती हूँ... एक अपराध बोध से भी भरने लगती
हूँ। अतीत खण्ड-खण्ड में आँखों के सामने घूमने लगता है। उस दिन
पापा के घर से आए थे हम दोनों। महीने पंद्रह दिन में उनके पास
जाते थे हम लोग। पापा के घर में हम लोगों का एक अलग कमरा गैलरी
के अंत में बना हुआ। नीला कार्पेट... उसी से मैच करते हुए
पर्दे... फ्रेंच विण्डो। साईड बोर्ड पर माँ के साथ हम दोनों की
तस्वीर... अपने दोनों हाथों से हम दोनों को समेटे हुए... चेहरे
पर कई सारे मिले जुले भाव। पापा के घर में माँ की तस्वीर हमें
निहाल कर जाती। न जाने क्यों एक एहसान से भी भर जाती। बहुत साल
पहले चन्दा आण्टी ने ही वह तस्वीर खींची थी हम लोगों की.. किसी
अर्न्तराष्ट्रीय प्रतियोगिता में इनाम मिला था उन्हें और बहुत
चर्चित हुयी थीं। यह तस्वीर चन्दा आण्टी और पापा का प्राइज़
पोसेशन थी। पापा बहुत ही शान से उस तस्वीर के बारे में बताते।
आज समझ पाती हूँ उस ज़िक्र में हम तीनों होते ही नहीं थे...
सिर्फ चंदा आण्टी होती थीं.... उनकी योग्यता... फोटोग्राफर के
तौर पर उनकी ख्याति। यह भी समझ आता है अब कि असल में वह हमारी
तस्वीर नहीं चंदा आण्टी का पुरस्कार था जिसे पापा ने सजा कर
रखा हुआ था।
हर बार पापा के घर से लौट कर आने पर मन काफ़ी
खिन्न रहता। उनके घर का वैभव... स्टाइल... लक्ज़री कारें...
होटल.. क्लब और पापा का प्यार, उनकी दूसरी पत्नी की ख़ातिर
हमारे चित्त को अशांत कर जाती। आज सोचती हूँ तो बेहद घुटन होती
है कि तब यह क्यों नहीं लगा कि यह सब माँ का पावना था जिसे कोई
और छल से भोग रहा है। चंदा आण्टी के लिए कभी कोई दुर्भावना मन
में आई ही नहीं। बस हर बार माँ पर ही गुस्सा आता रहा जैसे
हमारे सामने रखा हमारा वैभव उन्होंने हमसे छीन लिया। माँ के
लिए मन के अंदर एक गाँठ पनपने लगी थी। वहाँ से लौट कर अपना
घर.. अपना कमरा, अपना किचन और बाथरूम सब छोटे और गन्दे लगने
लगते।
.... उस दिन वहाँ से लौट कर आने पर हमने अपनी
छोटी सी अटैची अपने बिस्तर पर रख दी थी। माँ नाराज़ हुयी थीं और
माधव एकदम झल्ला पड़ा था ‘‘...कहाँ रखें इस घर में जगह भी है
कहीं?’’
उसने हिकारत से चारों तरफ देखा था... माँ स्तब्ध वहीं की वहीं
खड़ी रह गयी थीं। उनकी आँखों में आँसू भरने लगे थे। पर आहत हम
लोग भी थे... हमारी अपनी चोट थी.... बहुत सारे सवाल थे और बहुत
सी शिकायतें थीं। माँ भरभरा कर पलंग पर बैठ गई थीं... उनकी
आँखों से आँसू बहने लगे थे... ‘‘मैं किसी खेल या शौक में अपना
घर छोड़ कर नहीं निकल आई थी...’’ मैं उनकी बगल में उनसे सट कर
बैठ गई थी... उनके लिए बहुत ढेर सी ममता उमड़ी थी मन में। मैंने
अपने हाथ से उनके कंधे को घेर लिया था....मैं उन्हें काफी देर
मनाती पुचकारती रही थी। पर फिर भी अन्जाने में ही मन की बात
मुँह तक आ गई थी...‘‘पर माँ तुमने हम लोगों का क्यों नहीं
सोचा...प्राब्लम तुम्हारे और पापा के बीच में थी पर हम दोनों
को तो एक नार्मल घर चाहिए था।’’
मेरी बात से जैसे माधव को बल मिल गया था...अपना पक्ष रखने का
एक मौका भी। वह माँ के घुटने पर हाथ रख कर ज़मीन पर बैठा था...
‘‘हाँ माँ हमें तुम और पापा दोनों चाहिए थे...हमें अपना घर
चाहिए था।’’ और वह उनकी गोदी में सिर रख कर रोने लगा था।
माँ उसका सिर सहलाती रही थीं और रोती रही
थीं... वह जैसे बुदबुदाई थीं... ‘‘मेरे लिए उस ज़लालत.. उस
गंदगी में और रह सकना संभव नहीं था बेटा।’’ उस एक ही कुर्सी के
पास बैठे हम तीनों रोते रहे थे... अलग-अलग कारणों से। माँ के
लिए मन बहुत दुखी होता था किन्तु तब भी बार-बार और अक्सर मुझे
और माधव को यह लगता कि उन्होंने अपने निजी कारणों से घर छोड़
दिया.. हमारे बारे में नहीं सोचा। बार-बार लगता कि उनकी ग़लती
से हमारा सब कुछ छिन गया।
चंदा आण्टी कितनी शान और अधिकार से संभाल रही हैं सब कुछ...
पापा की शान... उनका स्टेट्स। जो काम माँ को करना चाहिए था वह
वे कर रही हैं... पूरी दक्षता के साथ।
अजब सा रिश्ता हो गया था माँ से...कभी प्यार उमड़ता... कभी दिल
दुखता उनके लिए और कभी हमारा आक्रोश मुखर होने लगा था और कभी
मन उनके लिए एकदम अलगाव से भर जाता।
मौसी मेरी तरफ देख रही हैं... पूछ रही हैं ‘‘शायद तुमने कोई
ऐसी शिकायत की थी जयंती से?’’
आज क्या जवाब दूँ मौसी को। हमारी वह शिकायत उस उम्र में भी सही
नहीं थी तो आज इस उम्र में कैसे दोहराऊँ उसे... इसलिए चुप हूँ।
बड़ी देर तक हममे से कोई कुछ बोलता नहीं। वर्षो की संचित
जिज्ञासा आज मुँह पर आ जाती है...‘‘मौसी माँ और पापा के बीच
क्या हुआ था...?’’
मौसी हुंकारी भरती है...
‘‘तुम्हारे पापा ने बहुत बेशर्मी... बहुत क्रूरता से वह माहौल
पैदा कर दिया था कि तुम्हारी माँ के पास घर छोड़ने के अलावा कोई
रास्ता नहीं रहा था। जयंती ने घर छोड़ा था... केशव ने निकाला
नहीं था इसलिए कानूनी तौर पर उसका पक्ष कमज़ोर था। वैसे भी
कानूनी लड़ाई लड़ने की उसकी कोई इच्छा भी नहीं थी।’’ मौसी की
निगाहे मेरे ऊपर टिकी हैं पर लगता है जैसे कहीं और देख रही
हों... ‘‘केशव जैसा बेहया... बेशरम इंसान। डंके की चोट पर
बेहयाई करते। पूछो एक अच्छी भली लड़की की जिंदगी क्यों खराब कर
दी। चंदा से केशव का बरसों पुराना अफेयर था। वह मुसलमान थी
इसलिए घरवाले तैयार नहीं हुए और हमारी जयंती बेचारी की बलि चढ़
गई। जब तक सास ससुर जिंदा रहे तब तक दबे ढके तौर पर सब चलता
रहा... वह लोग लाड़ करते थे उसका। पर उनके मरते ही केशव ढीठ हो
गए। चंदा को घर लेकर आने लगे। जयंती से कमरा ठीक करने को
कहते.... बिस्तर की चादर बदलवाते...’’ मौसी की आँखें डबडबाने
लगती हैं। उनकी आवाज़ में शिकायत है... ‘‘तुम्ही बताओ मीनाक्षी
ऐसे में कोई औरत रह सकती थी क्या? और तुम दोनों को पापा अच्छे
लगते रहे... वह औरत फैसिनेट करती रही। जयंती सच में अभागी थी
जो अपने बच्चे भी...’’ मौसी अपना वाक्य अधूरा छोड़ कर एकदम चुप
हो जाती हैं.... बड़ी देर तक सोचती रहती हैं।
उनकी आवाज़ आत्मालाप जैसी हो
जाती है...‘‘औरत विधवा होती है तो उसके अकेलेपन....उसके कष्ट
पर कोई सवाल नहीं करता... न पराए न अपने। उसके पास बहुत सी
यादें होती हैं संजो कर रखने के लिए। विधवा होती है तो बच्चों
को देखकर जी लेती है और बड़े होकर उसे बच्चे संभाल लेते हैं...
उसके प्यार उसकी सेवा को याद रखते हैं। पंरतु...’’ मौसी फिर
अपनी बात आधी छोड़ कर चुप हो जाती हैं। मैंटलपीस पर रखी माँ की
तस्वीर को बड़ी देर तक देखती रहती हैं... ‘‘अम्मा जयंती के लिए
जब भी बहुत परेशान होतीं तो यही कहतीं कि एक बार बच्चे ठीक से
पल जाएँ जयंती के। मैं भी सोचती भगवान ने इतना बड़ा कष्ट दिया
उसे तो एक क्षतिपूर्ति कर दी कि बच्चे पढ़ाई में तेज़ हैं। बच्चे
एक बार अपने पैरों पर खड़े हो जाए तो उसके सारे कष्ट दूर हो
जाएँ...’’ मौसी खिसियाया सा हँसती हैं ...‘‘पर उसकी किस्मत तो
देखो, वह तो बुढ़ापे में और अकेली हो गई...। बच्चों के पास समय
ही नहीं रहा उसके लिए। माधव तो सुना लाखों की तन्खा पा रहा
है...’’ मौसी मेरी तरफ थकी नज़रों से देखती हैं... ‘‘जयंती की
सच में किस्मत ही ख़राब थी... पूरे जीवन उसे पुरूष का प्यार...
पुरूष का साया नहीं मिला। बच्ची थी तो पापा की डैथ हो गई। शादी
हो कर गई तो केशव से... और बूढ़ी हुई तो...’’ मौसी अपनी बात फिर
अधूरी छोड़ देती हैं। मौसी की आँखों से क्रोध झाँकने लगता
है...‘‘केशव... वह घटिया इंसान। करोड़ों का मालिक। उसी के पैदा
किए बच्चे...’’ उसी क्रोध भरी आँखों से वे मेरी तरफ देखती
हैं... ‘‘बड़ा लाड़ जताते थे बच्चों पर... होटल, क्लब और पिकनिक
ले जाकर। कभी पूछा बेटा फीस कहाँ से आती है... वह प्राइमरी
स्कूल की टीचर तुम्हारा ख़र्चा कैसे चलाती है...। तुम्हें
पी.एच.डी. तक और माधव को आई.एम.एम. कैसे कराया उसने... कैसे
शादी की... और तुम दोनों....’’
मौसी का एक-एक शब्द। लगता है दिल दिमाग पर कोड़े
बरस रहे हों। मौसी के सामने बहुत छोटा महसूस करती हूँ मैं।
नितांत गृहणी होते हुए भी जिस अधिकार से माँ की मदद करती रहीं,
उस पर आज आश्चर्य होता है। मै तो नौकरी करती थी... रंजन से
ज्यादा तन्ख़ा थी मेरी। कई बार लगता रहा माँ अकेली क्यों रह
रही हैं... चाहती रही मेरे पास आ जाएँ वे... पर रंजन से कभी
कहने का साहस ही नहीं हुआ। मैं जानती थी कि रंजन ने कभी अपने
बूढ़े माता-पिता के लिए ही नहीं
चाहा कि वे हमारे साथ रहें फिर माँ तो...। और मैं अपनी
नौकरी... बच्चों... अपने सुख... अपने दुख में उलझी रही। आज
सोचती हूँ क्या मैंने उस बात को उतना महत्व ही नहीं दिया था।
कभी साल छः महीने में उनके पास चली जाती... कभी हफ्ते दस दिन
को वे आ जातीं.. बस। आखि़री बार गई थी तो बहुत कमज़ोर लगी थीं
वे। उनके लिए चिन्ता होती रही थी। तभी कुछ दिन बाद मौसी उन्हें
अपने पास ले गई थीं और मैं एकदम से निश्चिंत हो गई थी। उसी के
आठ दस महीने में नहीं रहीं वे। मौसी के होते माँ की तरफ से
निश्चिंत ही रहे हम दोनों। मौसी की मदद के अलावा माँ के लिए
हमारा भी कुछ फर्ज़ बनता है इस बात को कभी सोचा ही नहीं। हमारे
सैटिल हो जाने के बाद भी माँ की कुछ ज़रूरतें शेष बची हैं... इस
बात पर भी ध्यान नहीं दिया कभी। माँ को दिए छिटपुट उपहारों के
अलावा उनके प्रति ज़िम्मेवारी की तरह तो कभी कुछ नहीं किया। कभी
यह भी नहीं सोचा कि कितनी अकेली हो गयी होंगी वे...। इतने
वर्षो तक अकेले चलने के बाद सहारे की ज़रूरत होगी उन्हें.... तन
से भी... मन से भी। सच यह है कि बचपन से लेकर अब तक उन्हें
अपने साथ करते ही देखा था तो कभी उन्हें सहारा देने की बात
दिमाग में आई ही नहीं... फिर मौसी तो थी हीं... अब तो वे भारत
में भी थीं।
मौसी के जाने में कुछ ही देर रह गई है...। मैं
मौसी के पास जा कर खड़ी हो गई थी। संकोच में कुछ देर चुप ही रही
थी और फिर मेरी आवाज़ भर्रा गई थी....‘‘मौसी माँ अब इस दुनिया
में नहीं हैं.... उनके लिए मैं आज आप से ही माफ़ी माँग सकती
हूँ...’’ मेरी आँखों में आँसू भरने लगे थे... ‘‘और मौसी...’’
मेरे ओंठ काँपने लगे थे... ‘‘थैक्यू मौसी यदि आप न होतीं तो
माँ का क्या होता... आज सोच भी नहीं पाती। थैक्यू मौसी फार
एवरी थिंग यू डिड फार माँ।’’
मौसी मुझे बढ़कर एकदम से बाहों में भींच लेती हैं। मैं और वह
कुछ देर को एक दूसरे के गले से लगे रोते रहे थे... मौसी की
भर्राई हुयी आवाज़.. ‘‘वह तुम्हारी माँ ही नहीं मेरी भी छोटी
बहन थी बेटा...।
मैं मौसी की तरफ डबडबाई आँखों से देखती हूँ...‘‘माँ बहुत नाराज़
थीं हम दोनों से?’’
‘‘नहीं ऽ ऽ’’ मौसी बहुत सोच के साथ उलझा सा जवाब देती हैं....
‘‘जाने से कुछ हफ्ते पहले से बहुत सुस्त दिखती थी... मैंने
पूछा था जाओगी किसी बच्चे के पास या उन्हें बुला लें कुछ दिन
को, तो साफ मना कर दिया उसने। अब इसका चाहे जो मतलब निकाल
लो... और हो सकता है इसका कोई मतलब न रहा हो। बच्चों को परेशान
करना नहीं चाहती थी वह... किसी भी तरह से।’’
मेरे मन में आता है, माँ हम दोनों की तरफ से विरक्त हो गई थीं
... मगर मैं कुछ बोलती नहीं। मैं मौसी की तरफ देखती हूँ.... अब
किसी नए मुद्दे पर बातचीत का समय शेष नहीं है... फिर भी उनसे
पूछना चाहती हूँ कि उन्होंने माँ के रहते हम लोगों से बात
क्यों नहीं की थी... कभी हमें इस बारें में क्यों नहीं डाँटा
था। सत्य से हमारा साक्षात्कार क्यों नहीं कराया था। माँ ने ही
हमें इतना पराया क्यों समझा कि कभी अपने मन का दुख... अपना
अकेलापन हमसे बाँटा ही नहीं। अब इस अपराध बोध... इस पीड़ा के
साथ जीना सरल होगा क्या हमारे लिए...। पर कुछ कहती नहीं...
क्या कहूँ?
लगता है मेरा वह लाचार सा मूक क्रंदन सुना है मौसी ने। उनके
चेहरे पर एक मजबूर अपराधी भाव है... वह जैसे सफाई सी दे रही
हों.. ‘‘जानती हूँ इन पिछले कुछ दिनों में तमाम बातें तुम्हें
चोट पहुँचाने वाली कही हैं...। शायद चोट पहुँचाना ही चाहती थी
मैं... पर क्या करूँ...। जयंती के लिए बहुत दुख था मन में...
तुम लोगों के लिए बहुत क्रोध भी’’।
उनकी आवाज़ भर्राने लगती है...‘‘तभी तय किया था मैंने और
तुम्हारे मौसा ने कि तुम दोनों को बुला कर बात करेंगे। पर
जयंती ने मौका ही कब दिया... उम्र से पहले ही अचानक यों चटपट
चली गयी।’’ मौसी मेरा हाथ अपनी हथेलियों में ले लेती
हैं....उनके हाथ ठंडे हैं एकदम बर्फ... ‘‘जयंती अब इस दुनिया
में नहीं है....फिर भी मुझे तुम लोगों से उसके लिए न्याय चाहिए
था। मरने के बाद ही सही.... एट लीस्ट शी डिस्वर्ड दिस मच।’’ वे
चलने के लिए तत्पर बगल की मेज़ से अपना पर्स उठा अपने आँसू
पोंछने लगती हैं।
मौसी का पैर छूने नीचे झुकती हूँ ‘‘और मौसी
माधव...’’ लगा था एक हिचकी सीने में फँस गई हो.... मेरी आवाज़
रूधॅंने लगी थी... ‘‘माधव बुरा नहीं मौसी। माँ के प्रति हमसे
अपराध होना था.. सो हो गया। पर माधव बहुत प्यार करता था माँ
को... बहुत तड़प कर उनकी याद करता है...। बहुत याद करते हैं हम
उनको... हमारा और था ही कौन?’’
मौसी अपने आँसू पोछती रही थीं ‘‘पता है बेटा,अच्छा भूल जाओ अब
सब कुछ...।’’ उन्होंने प्यार से मेरे गाल थपथपाएँ थे... ‘‘आना
दिल्ली मेरे पास। अपना ख़्याल रखना’’ वे कार में जा कर बैठ गई
थीं।
मैं जाती हुयी कार को खड़े हुए देखती रही थी दूर तक। प्यार...।
मौसी ने ही कहा था कभी कि जहाँ चिन्ता और कमिटमैंट न हो...
दूसरे का दुख और अपना सुख बाँटने की और उनके लिए कष्ट
उठाने की इच्छा न हो, वहाँ बड़ा खोखला लगता है यह शब्द। सही कहा
था मौसी ने। इस क्षण मौसी के सामने इस शब्द के इस्तेमाल पर भी
शर्मिन्दा सा महसूस कर रही हूँ मैं।
मौसी कल दुपहर वापिस चली गयी हैं। इन दस दिनों
में मौसी से इतना अंतरंग रिश्ता बन गया है जितना अपनी तैतालिस
वर्ष की पूरी उम्र में नहीं बन पाया था। मन बेहद बेचैन है। माँ
की बहुत याद आ रही है। उनके अभाव के एहसास से उबर नहीं पा रहा
है मन। आखि़री बार जब माँ के पास गई थी तब का उनका चेहरा आँखों
के आगे तैरता रहता है। उस रात मैं लौटने वाली थी.. देर रात की
गाड़ी थी। दुबली और लंबी देह... खिड़की के बगल में रखी कुर्सी पर
बैठी हुयी.... बाहर देखती हुयी। बाहर अंधेरा था... कुछ भी
दिखायी नहीं दे रहा... फिर भी वे बड़ी देर से उधर ही देख रही
हैं। अचानक उनके लिए बहुत ममता उमड़ी थी मन में....। दिल किया
था कि उनके बगल के फर्श पर बैठ कर उनकी गोदी में सिर रख दूँ...
पर मैं वैसे ही बैठी रही थी। हमारे बीच के संबंध कभी उस मुखर
प्रेम प्रदर्शन तक पहुँचे ही नहीं। आज जब भी उन्हें याद करती
हूँ उनका वही चेहरा सामने आ जाता है... थका हुआ... क्लांत...
एकदम अकेला... आखों में आसुओं का सा भ्रम देता हुआ।
मुझे रात भर नींद नहीं आती। बिस्तर पर और लेटे रहना कठिन लगता
है और उठ कर सामने बरामदे की बड़ी कुर्सी पर आकर बैठ जाती हूँ।
बगल के कमरे से शायद अमृता ने देख लिया है मुझे उठते। वह
उनींदी आँखों से मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती है। उसके चेहरे पर
कई सारे भाव एक साथ आते हैं ‘‘यहाँ आ कर क्यों बैठी हो....
नींद नहीं आ रही क्या?’’
मैं कोई सीधा सा जवाब नहीं दे पाती... अस्पष्ट सी हुंकारी भरती
हूँ।
वह सामने की कुर्सी पर बैठ जाती है और चुपचाप
कुछ सोचती रहती है वह जैसे अपने आप से बात कर रही हो...
‘‘कभी-कभी अज़ीब सा लगता है सोच कर...’’
मैं चौंक कर उसकी तरफ देखती हूँ... ‘‘क्या?’’
‘‘तुम्हारी मैरिज। पापा से तुम्हारी शादी।’’ वह तेज निगाहों से
मेरी तरफ देखती है... ‘‘मैं नहीं समझ पाती मम्मा तुमने क्यों
और कैसे पापा से शादी की... क्यों और कैसे तुम उनके साथ रहती
रहीं... किसलिए उनके गर्म मिज़ाज को झेलती रहीं तुम?’’ उसकी
आवाज़ तेज़ हो जाती है, ‘‘और क्यों और किसलिए आज तुम उनका मातम
मना रही हो किसलिए?’’
मैं स्तब्ध रह जाती हूँ... मेरी आवाज़ फुसफुसाहट में बदल जाती
है ‘‘मौत कोई जश्न मनाने की चीज़ भी तो नहीं होती बेटा।’’
वह तीखी निगाहों से मुझे देखती है ‘‘प्लीज माँ काफी
श्रद्धांजलि तुम उन्हें दे चुकीं... इनफ... अब बस करो’’
मेरे स्वर मे आजिज़ी आ जाती है ‘‘तुम दोनों तो कम से कम ऐसा मत
कहो। तुम्हारे लिए तो वह अच्छे पिता थे ही...। तुम दोनों को
बेहद प्यार करते थे। वह सब कुछ करते थे जो एक अच्छा पिता करता
है...’’
अमृता लाचारी से हाथ हिलाती है... ‘‘पता नहीं माँ... जिस इंसान
के लिए कभी इज्ज़त ही महसूस नहीं हुयी... वह...। फिर जो मेरी
माँ के लिए अच्छा पति नहीं बन सका उसे अच्छा पिता कैसे मान
लूँ?’’
मैं चौंक कर अमृता की तरफ देखती हूँ। अनजाने में वह मेरे दुख,
मेरे अपराध बोध को कुरेद गई है... जैसे कोई ज़ख्म एकदम
ताज़ा-ताज़ा खुल गया हो। ऐसी ही बात मैं कभी माँ से क्यों नहीं
कह
पाई। मैनें और माधव ने तो कभी इस तरह से सोचा तक नहीं। न जाने
कैसे माँ का ख्याल मेरे मन से चल कर अमृता तक पहुँच जाता है।
वह मेरी तरफ देखती है... ‘‘तुम तो नानी की बेटी थीं मम्मी...
कितने सैल्फ रिस्पैक्ट से काटी है उन्होंने ज़िंदगी। नाना की
इतनी बड़ी कोठी... नौकर चाकर, शान शौकत सब छोड़ कर चली आईं। उनके
चरणों में ज़िंदगी नहीं काट दी। क्या फर्क पड़ता है हवेली में न
रह कर दो कमरों में रह लीं... कारों पर नहीं चलीं... रिक्शों
बसों पर चलती रहीं...। फरक ही क्या पड़ता है।’’
मैं मजबूर निगाहों से अमृता की तरफ देखती हूँ। उस ताज़ा ज़ख्म
में बड़ी ज़ोर की टीस उठती है। आज वह कह रही है फरक ही क्या पड़ता
है। हमने वह हालात पैदा कर दिए थे कि माँ हमेशा परेशान होती
रही... अपराधी सा महसूस करती रहीं उस सब के लिए जो पापा के पास
था और जो दे सकने की सामर्थ्य उनकी नहीं थी। आज सोचती हूँ माँ
अपने अभावों में भी बहुत संतोष... बहुत सुख से रहतीं अगर मैं
और माधव न होते। अमृता की तरह मैं क्यों नहीं सोच पाई थी तब।
वह आजिज़ी से सिर हिलाती है ‘‘मैं सच में नहीं समझ पाती माँ तुम
पापा के साथ कैसे रह सकीं। मानसिक तौर पर... क्वालीफिकेशन के
नज़रिए से... नौकरी... स्टेट्स... सबमें तुमसे इनफिरियर
हस्बैण्ड... दैट दू विद अ रोविंग आई।’’
‘‘रोविंग आई।’’ मैं चौंक कर उसकी तरफ देखती हूँ। रंजन का
चिड़चिड़ा मिज़ाज... अंहकार... उनका खुरदुरा व्यक्तित्व बच्चों के
सामने था। उसमें छिपाने या बताने जैसी कोई बात ही नहीं थी। पर
इसके अतिरिक्त अपनी किसी समस्या... किसी चोट की बात मैंने
बच्चों से कभी नहीं की... फिर बच्चों को कैसे पता है यह बात?
रंजन के चरित्र के बारे में बाहर कोई ऐसी चर्चा है क्या...?
क्या किसी बाहर वाले ने बच्चों को कुछ बताया ? बच्चों ने कभी
कुछ देखा क्या ? मुझे नहीं पता... उस बारे में रंजन का कोई
पक्ष नहीं ले पाती.... इस संदर्भ में उससे कुछ पूछ भी नहीं
पाती। यदि उसने कोई ऐसी बात बता दी जो बर्दाश्त करना मेरे लिए
कठिन हो गया तो ? फिर वे अब इस दुनिया में नहीं हैं.... मरे
इंसान से और अधिक आहत महसूस करना... उससे और अधिक घृणा करना...
समय को पीछे लौटा कर उससे बदला लेने की कामना करना... किसी का
कुछ अर्थ नहीं।
अमृता मेरी ही तरफ देख रही है... लगता है मुझे कुछ कहना ज़रूरी
है...‘‘मैं तुम दोनों को एक नार्मल लाईफ देना चाहती थी...
इसलिए बर्दाश्त करती रही सब कुछ।’’
‘‘नार्मल?’’ वह तेज़ निगाहों से मेरी तरफ देखती है ‘‘
नार्मल..माई फुट..। हमने उस स्थिति से हमेशा घृणा की थी। हमें
हमेशा गुस्सा आया है तुम्हारे ऊपर। खुद अपमानित होती रहीं और
हम दोनों को अपमानित महसूस कराती रहीं एक ऐसे इंसान से जिसके
लिए हमारे मन में कोई आदर नहीं था। वैसे भी हमें एक हारी
पराजित बर्दाश्त करती हुयी कमज़ोर माँ की नहीं... एक
आत्मविश्वास से भरी अपने दम खम पर जीने वाली “नो नान्सैन्स’
माँ की ज़रूरत थी... जिस पर हम गर्व कर सकें... जिस पर हमें तरस
न आए...। और
मम्मी
तुममें सामर्थ्य थी उसकी... फिर किसलिए शहीद होती रहीं?’’...
वह कुछ क्षण चुप रहती है....
‘‘हमारे लिए? एक बार हमसे तो पूछा होता हम क्या चाहते हैं?’’
ऐसी ही तो शिकायत हमने की थी माँ
से...‘‘हमारे बारे में तो सोचा होता।’’ हमने पूछा था ‘‘पापा को
क्यों छोड़ा।’’ आज अमृता पूछ रही है ‘‘क्यों रहती रहीं तुम पापा
के साथ?’’
जवाब में माँ के वे उखड़े टूटे वाक्य बहुत अर्थहीन से लगे थे
हमें....। जानती हूँ आज मेरी बात भी नहीं समझ पाएगी
अमृता...इसलिए चुप हूँ मैं। |