| लान की घास 
					के ऊपर पत्तियों का कालीन सा बिछ गया है। यह पतझड़ का मौसम.... 
					माली परेशान हो जाता है। वह सूखी पत्तियाँ झाड़ रहा है... 
					क्यारियों में से कूड़ा उठा कर टोकरे में जमा कर रहा है... 
					बेचारा! कल तक यह कूड़ा ऐसे ही, इतनी ही मात्रा में फिर जमा हो 
					जाएगा। रंजन इस लान का पूरा सदुपयोग करते रहे हैं। 
					 आफिस से आते 
					ही कपड़े बदल एक हाथ में चाय का मग और दूसरे हाथ में ट्यूब लेकर 
					फूल-पत्ती घास को देर तक छिड़कते रहते... यों उन्हें पौधों को 
					सींचना और अपने आप को भिगोना बेहद अच्छा लगता...। हर दिन चेहरे 
					पर शिशु जैसा उल्लास आ जाता... कहते ‘‘हम लोग कितने अभागे थे 
					कि हम दोनों का ही बचपन ऊपर के बंद घर में बीत गया... बेचारे 
					हम... है न मीनाक्षी? नीचे के घर का कुछ मज़ा ही और है।’’
 मैं हँस देती... कुछ कहती नहीं। दो तरफ के बड़े-बड़े लान... एक 
					तरफ के ड्राइव वे के बीच बनी पापा की बड़ी सी कोठी याद आती।
 
 पर उसमें भी रही कहाँ 
					हूँ... बस गई हूँ। कभी सुबह से शाम... कभी एक दो दिन को ही 
					जाती थी। तब खुल कर खेलने... चलने सबमें एक अजीब सा संकोच बना 
					रहता था।
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