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मंदा दी को याद करते करते, नाखून तो दूसरे दिन काट लिए थे, पर पार्क में आने की फुर्सत नहीं मिली। अहमदाबाद से, दो दिन के लिए, एक मित्र आई हुई थीं। पार्क के अंदर से हमारे ऑफिस की ओर जाने का एक छोटा रास्ता है। उसको लेकर ऑफिस जा रही थी कि रास्ते में देखा - मंदा दी बैठी हैं। आया ने उनका हाथ ऐसे थाम रखा है जैसे हाथ छोड़ते ही वे उठकर भाग लेंगी।

जैसे ही मंदा दी ने मुझे देखा, वे मुस्कुरायीं। मैंने उनसे अपनी मित्र का परिचय कराया - '' यह मेरी सहेली है।`` मंदा दी ने आया की हथेली के नीचे से अपना हाथ खींचकर, दोनों बाँहें बढ़ाकर मेरे गले में डालीं और मेरा चेहरा अपने चेहरे से सटाकर, मेरी उस मित्र से मेरा परिचय करवाते हुए अटक अटक कर ऐसे बोलीं जैसे कोई बच्चा पहली बार पूरा वाक्य बोलना सीख रहा है - '' ये .....मेरी .....सहेली .....है।`` मैं भौंचक ताकती रह गई उन्हें। मंदा दी की ''सहेली`` होने की फुहारों ने मन को भीतर तक भिगो दिया था। गले से बाँहें वे हटा नहीं रही थीं। बड़ी मुश्किल से बाँहें छुड़ायीं - आज ज़रा काम है, दीदी। फिर फुर्सत से बैठूंगी।
''आना !`` मंदा दी की आँखों में छाया घिर आई और वे फिर वाक्य से शब्द में सिमट गईं।

मौसम बदल रहा था। ठंड गहरा रही थी।
मुझे मौसमी बुखार हो गया। एक सप्ताह मैं पार्क में जा नहीं पाई।
सात दिनों के बाद जब गई तो मंदा दी ऐसे उमग कर मिलीं जैसे पता नहीं कब की बिछड़ी मिली हैं। कस कर हथेली थाम ली,बोली कुछ नहीं, इशारे से पूछा - क्यों नहीं आई ? क्या हुआ था ?
मैंने कहा - '' बुखार हो गया था मंदा दी। ''
उन्होंने सुनकर मेरे माथे पर, सिर पर हाथ फेरा, मेरा कंधा सहलाया। माथा छू कर देखा। सिर हिलाया - अब बुखार नहीं है। मुस्कुरायीं। सारी क्रियाएँ एकदम स्लो मोशन में।
फिर बोलीं - ''घर !''
मैंने सोचा, मुझे घर जाकर आराम करने को कह रही हैं।
मैंने कहा - ''नहीं, आज मैं ठीक हूँ। इसीलिए थोड़ा घूमने के लिए चली आई। बाद में घर जाकर आराम करूँगी।''
बोलीं - ''उँ ..... हूँ ...... घर ! ''
अब उनकी आया ने समझाया कि मम्मी रोज आपको ढूँढती थी। उस गेट की ओर मुझे खींचकर ले जाती थीं - जहाँ से आप निकल कर आती हैं। पर हमें, न आपका नाम मालूम, न फ्लैट नम्बर। कहाँ जाते? अब आपको अपने घर ले जाना चाहती हैं।
तब तक मंदा दी ने फिर से दोहराया - ''घर !''
मैंने कहा - '' आपके घर ? ऐसे मुझे अपने घर ले जाएँगी तो कोई बुरा तो नहीं मानेगा ? ''
वे चुपचाप आया की ओर जवाब देने के लिए देखने लगीं।
उनकी आया ने कहा - ''नहीं, मम्मी ची मुल्गी आहे घर मध्ये, बुरा कायको मानेगी। (घर में माँ की बेटी है, बुरी क्यों मानेगी।)''

मैंने बड़े संकोच के साथ उनके घर जाने के लिए कदम बढ़ाए।
सोचा - चलो, ठीक है, बेटी से ही बात करुँगी। पूछूँगी कि इतनी खूबसूरत, संभ्रांत, सलीकेदार और स्नेहिल - मंदा दी ऐसी स्थिति में आखिर क्यों और कैसे पहुँच गई। मुस्कान चेहरे पर जम कर बैठ गई है, फिर भी होंठ जैसे बोलने को खुलते ही नहीं।

लिफ्ट में चढ़े तो मंदा दी मुस्कुरा रही थीं। गर्व से चेहरा दिपदिपा रहा था कि उनकी भी एक सहेली है जिसे वे अपने घर ले जा सकती हैं।

आया ने दसवें माले के फ्लैट के बाहर लगी कॉलबेल पर उँगली रखी। अँदर गायत्री मंत्र बजने लगा। दरवाजा खोलकर एक बेहद खूबसूरत, दुबली सी लड़की, ओट में हो गई। नाइटी पहन रखी थी
उसने। कान, गले और कलाइयों में कुछ भी नहीं। मंदा दी तीस की उम्र में ऐसी ही लगती होंगी। बिल्कुल उनके चेहरे की कार्बन कॉपी। बस, उसके बाल छोटे थे। कटे हुए,पर बिखरे हुए। सुबह से शायद कंघी नहीं की थी।

आया ने मेरी ओर इशारा किया - '' यही हैं ममी की फ्रेंड - जो रोज पार्क में मिलती हैं।``
बस, इसके बाद उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। छोटे बालों वाली खूबसूरत लड़की बताने लगी - एक कभी न खत्म होने वाली कहानी - '' नाम - अन्वेषा। अच्छा नाम है न ! माँ ने रखा था। पापा तो ऐनी रखना चाहते थे। पापा अब भी ऐनी ही बुलाते हैं मुझे। विद्यासागर कॉलेज से ईको में ऑनर्स किया। उम्र - पैंतीस साल। शादी नहीं की। मन ही नहीं हुआ। नहीं, शादी के खिलाफ नहीं हूँ पर ऐसा कोई मिला ही नहीं। एक दोस्त था कॉलेज में। पर सिर्फ दोस्ती। शादी करने का मन नहीं हुआ उससे। किसी से भी शादी करने का मन नहीं हुआ। शादी के बारे में सोचते ही डर लगने लगता था।.....पता है, जिन दिनों उससे बहुत दोस्ती थी, मैंने बहुत सारी कविताएँ लिखीं। फिल्मों के लिए गाने भी लिखे पर अभिजित दा ने कहा - अन्वेषा, तुम्हारे गाने बहुत रिच हैं, फिल्म में हल्के फुल्के चलते हैं। ...... अब भी कभी कभी दो चार लाइनें लिख लेती हूँ। आप सुनेंगी ? लाऊँ ? अच्छा, आज नहीं, अगली बार।`` ...........बच्चों सी मासूमियत लिए मेरे सामने खड़ी वह लड़की लगातार बोले चली जा रही थी और उसकी आँखों की पुतलियाँ शून्य में इधर से उधर भटक रही थीं।

तब तक वह आया एक छोटे से काँच के बर्तन में एक टैबलेट और एक गिलास पानी ले आई। अन्वेषा ने देखा और गोली मुँह में रख पानी के कुछ घूँट पी लिए, फिर जैसे सूचना देती सी बोली - '' मूड स्टेबलाइज़र है आँटी, खानी पड़ती है रोज़। ``

मेरे होश फाख्ता हो गए। मैं मुँह बाए देख रही थी। सोच रही थी - इसकी किस बात पर बोलूँ। कुछ पूछा ही नहीं था उसने। सिर्फ सूचनाएँ। मैं घर की दीवारों पर लगी तस्वीरें देखने लगी।
साइड बोर्ड पर एक गोरे चिट्टे, संभ्रांत और भव्य से दिखते आदमी की तस्वीर लगी थी। आँखें एक पल को वहाँ टिकी तो अन्वेषा ने बताया - '' यह मेरे पापा हैं, आँटी।``
मुझे लगा, शायद अब न हों, कि तभी वह बोली - '' जर्मनी में रहते हैं। ``

कुछ मिनटों के बाद उस अंतहीन वार्तालाप से शब्दों को पकड़ पाना मेरे लिए संभव नहीं रहा। थोड़ा बहुत जो समझ में आया, वह यह कि जर्मनी में पापा के साथ मॉनिका है जिसे मॉम कहने की हिदायत पापा देते हैं पर क्यों बोलूं उसे मॉम! मेरी माँ तो यह हैं न! पापा को माँ के हाथ का खाना बहुत पसंद है। साल में एक बार पापा आते हैं यहाँ। माँ खूब बढ़िया खाना बनाती थीं तब। अपने हाथों से। पापा के लिए। मेरे लिए भी। फिर एक बार मॉनिका भी आयी - पापा के साथ। माँ को स्ट्रोक आया। ठीक तो हो गईं। पर बोलना बंद कर दिया - सबसे। अब पापा अकेले आते हैं। बैंक में पैसे डाल जाते हैं। सबकुछ अच्छा है। ... अन्वेषा का बोलना जारी था - '' हमारे लिए ढेर सारे कपड़े लाते हैं जर्मनी से पर माँ उनके दिए कपड़े नहीं पहनतीं, वह सिर्फ साड़ी पहनती हैं। माँ को साड़ी पहनना बहुत पसंद है। मुझे भी हमेशा साड़ी दिखाती रहती हैं यानी नाइटी उतार, साड़ी पहन। अब आप ही बताइए आंटी, भला घर में भी कोई साड़ी पहनता है! और मेरी क्या साड़ी पहनने की उम्र है? यह ड्रेस - जो आप देख रही हैं - पापा वहीं से लाए थे। मेरे लिए। बहुत प्यार करते हैं मुझे। पर यहाँ रह तो नहीं सकते न। बहुत बड़ी पोस्ट पर हैं। एम्बैसी में। वहाँ बहुत काम है ! ममी तो दो साल से ऐसे ही चुप हैं। कितने डॉक्टरों को दिखाया। पर नहीं। बोली ही नहीं। आपने उनको थोड़ा थोड़ा मुँह खोलना और कुछ शब्द बोलना सिखा दिया। आप आईं बहुत अच्छा लगा। थैंक्यू सो मच ! ``

मैंने बैठक की सजावट पर नज़र घुमायी। रोज़वुड की लकड़ी का एन्टीक फर्नीचर। सोफे पर मखमली कवर। नक्काशीदार हत्थे। जहाँ बैठी मंदा दीदी भी उस एन्टीक का हिस्सा लग रही थीं और होंठों को कस कर भींचे अपनी बेटी का धाराप्रवाह एकालाप सुन रही थीं।

तब तक आया ने मंदा दी के हाथ से थैली ले ली और सारे पीले पत्तों को कूड़े के डिब्बे में उलटने जा रही थी कि मंदा दी का दायाँ हाथ फौरन उसे बरजने के लिए उठा - न्ना। नहीं।
आया ने बेरुखी से कहा -'' कल और ले लेना मम्मी। झाड़ में बहुत मिलेंगे सूखे पत्ते।``
आया का खीझ भरा छोटा सा 'हुँह` भी सुनाई दे गया।
मंदा दी के चेहरे की मुस्कराहट सिमट गई।

थोड़ी देर बाद मैं उठ खड़ी हुई - '' चलूँ ?``
''चाय पीकर जाइए, आंटी। सॉरी आंटी, मैं अपना ही बोलती रही। चाय को भी नहीं पूछा। ``
मैंने कहा - '' नहीं, फिर कभी। ``
''आने के लिये धन्यवाद, लेकिन आंटी, कृपया फिर आइयेगा, ज़रूर। अपनी कविताएँ सुनाऊँगी। ``

मैंने घूमकर देखा - कौन बोल रहा था - माँ या बेटी ? आवाज़ में वही मिठास जैसी मंदा दीदी के एक एक शब्द में होती है। मिश्री की डली घुली हुई। आँखों में वैसा ही कृतज्ञ भाव जैसा मंदा दी की आँखों में होता है। फर्क इतना ही कि माँ सिर्फ एक शब्द ही बोल पाती थीं, बेटी पूरे पूरे वाक्य बोलती थी और उसे जवाब की अपेक्षा भी नहीं होती थी जैसे अपने आप से बात कर रही हो।

भारी कदमों से नीचे उतर आई।
किससे पूछती किसके बारे में ?
माँ से बेटी के बारे में या बेटी से माँ के बारे में ?



गेट से बाहर निकल मैं अपने घर की ओर बढ़ी। उनकी और मेरी सत्ताइस मंजिला इमारत का एक एक गेट इस पार्क में खुलता था। हवा तेज बहने लगी थी। हरे भरे पौधों से सूखे हुए पीले पत्ते तोड़ तोड़ कर मंदा दी के, अपनी थैली में भर लेने के बावजूद - यहाँ से वहाँ तक - पेड़ों के सूखे पत्ते उड़ रहे थे। हवा के झोंके से ऊपर उड़ते, फिर उसी तेजी से नीचे आ जाते।

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१० जनवरी २०१०

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