पगली
अम्मा ! न किसी राह चलते को रोकतीं, न कुछ बोलतीं, न किसी भी
क्रियाकलाप में दखल देतीं। बस,पार्क में स्लाइड पर फिसलते,
खिलखिलाते बच्चों को हसरत भरी निगाहों से ताकती रहतीं या उनकी
उँगलियाँ हरे पौधों में से ढूँढ ढूँढ कर पीले पत्ते तोड़ती
रहतीं, फिर भी उस पार्क के जमावड़े के बीच उनका नाम पड़ गया था
- पगली अम्मा !
कुछ दिन बीते। एक दिन देखा - वह अकेली नहीं है। उनके साथ एक
आया भी थी। शायद उनके घर के लोगों को समझ आ गया था कि वह नीचे
के पार्क में अकेले भेजी जाने वाली हालत में नहीं हैं। मैं
दोनों को देखकर ठिठकी। उन्होंने मेरी ओर अपनी निगाह टिकाई तो
मैंने कहा - ''नमस्ते दीदी।`` अब उन्होंने कुछ सहम कर मेरी ओर
अनचीन्ही निगाह से देखा, फिर बहुत धीमे से उनके होंठ
मुस्कुराने के अँदाज़ में हल्के से खिंचे।
आया उनका हाथ पकड़ कर उन्हें चलाने की कोशिश कर रही थी और वे
बेंच पर बैठना चाह रही थीं।
''नाम क्या है आपका, दीदी ? `` धीरे धीरे स्पष्ट उच्चारते हुए
मैंने रुककर पूछा जैसे उनकी पीठ को अपने सवाल से थपथपा रही
होऊँ।
उन्होंने आया की ओर देखा, फिर मेरी ओर। फिर वही मुस्कान जो
बरसों से जैसे होठों पर जम गई थी। जैसे वह मुस्कान ही उनका नाम
हो। बोलीं कुछ नहीं।
अगले दिन, फिर उसके अगले दिन मैंने तीसरी बार पूछा - ''आपका
नाम क्या है, दीदी ? ``
इस बार होंठ ऐसे धीरे धीरे खुले जैसे बरसों बाद खुले हों।
बोलीं - '' मंदा ...... किनी ....``।
मीठी, खनक भरी आवाज़। ......
आया ने भौंचक होकर मेरी ओर देखा।
०
अब उनका नाम ज़ेहन में दर्ज हो चुका था। अगले दिन पार्क गई तो
मंदाकिनी दीदी आम के पेड़ के पास खड़ी थीं। दूर से ही मुझे
देखकर उनके चेहरे पर मुस्कान आई। पेड़ से कुछ पत्ते तोड़ कर
बेंच पर बैठ गयीं। मुझे पास आकर बैठने का इशारा किया। आगे
घूमने के लिए जाने ही नहीं दिया। मेरे कुरते पर हाथ फिराती
रहीं जैसे कुरते के रंग और डिजाइन की सराहना कर रही हों।
फिर बोलीं - ''साड़ी !`` मैं उनकी ओर देखती रही कि आगे कुछ और
बोलें।
मेरे चुप रहने पर अपनी साड़ी का पल्ला उठाकर दिखाया और बोलीं -
''साड़ी ......``
इस बार लगा जैसे मेरी पोशाक उन्हें अखर रही थी। मैं पार्क में
सैर करने के इरादे से आई थी।
मैंने कहा - '' साड़ी पहनकर टहलने में दिक्कत होती है, इसलिए
नहीं पहनती।``
सैर को देर हो रही थी। मैंने उनकी इजाजत लेने के अँदाज में
पूछा -'' मैं दो चक्कर काट कर आऊँ ?`` तो उन्होंने मेरा हाथ
कसकर पकड़ लिया। उनके हाथ में आम के पेड़ के तीन पत्ते थे,
उन्हें बेंच के किनारे रख दिया। मेरे हाथों पर अपनी पकड़ और कस
ली जैसे किसी बच्चे की हथेली माँ को बाहर जाने से रोकने के लिए
मज़बूती से थामे रखे। कुछ देर बैठी रहीं। जैसे ही पकड़ थोड़ी
ढीली हुई, मैंने कहा -'' मंदा दी, आप बैठिए, मैं अभी थोड़ा सा
घूमकर आई।``
मैंने साथ लगे गार्डेन में ही चार चक्कर काटे और जब लौटी तब तक
धूप दूसरी बेंच पर आ चुकी थी।
वे वहीं बैठी मेरा इंतजार कर रही थीं। मैं उनका हाथ पकड़कर
उन्हें दूसरी बेंच पर ले गई जहाँ धूप थी। ठंडी हवा की सिहरन
में सुबह की हल्की हल्की धूप राहत पहुँचा रही थी। उठते समय आम
के वे तीन पत्ते अपने हाथ में उठाकर लाना वे नहीं भूलीं। अचानक
मेरी ओर देखकर वे बड़े मनोयोग से आम के एक पत्ते को दोनों
उँगलियों से छीलने लग गईं। पत्ते के बीच की डंडी को नाखूनों से
तराश तराश कर साफ किया। फिर डंडी के छोटे छोटे दो टुकड़े किए।
डंडी के साथ अपने नाखूनों से जैसे कसीदाकारी कर रही हों। मैं
समझ नहीं पाई वे क्या कर रही हैं। उन्होंने वह डंडी हाथ में
ऐसे एहतियात से ली जैसे कोई फूल की पंखुरी हो। फिर उँगलियों से
उसके खुरदुरे सिरों को बेहद बारीकी से मुलायम किया और मेरी ओर
देखने लगीं। मैं अनुमान नहीं लगा पा रही थी कि अब वे क्या
कहेंगी !
तभी उन्होंने मेरे कानों की ओर इशारा किया। ओह ! मेरे कानों
में छेद थे पर मैंने कुछ पहन नहीं रखा था। मेरे कान में पहना
दीं वे दोनों डंडियाँ। उसी एहतियात के साथ जिस एहतियात से पीले
पत्ते तोड़तीं और उनके बस में होता तो वहाँ हरे पत्ते टाँग
देतीं। सोना और हीरा भी क्या सुकून देगा जो प्यार से छीली हुई
उन दो डंडियों ने दिया। कान का छेद खाली दिखाई दे रहा था न
उन्हें। मेरा जी भर आया। अपनी माँ याद आईं। बस, कान खाली देखे
नहीं कि बालियाँ पहना दीं - कान के छेद बंद हो जाएँगे, चल पहन
ले ! और हाथ की कलाई सूनी देखी नहीं कि कस कर डाँट लगा दी -
क्या कलाइयों को नंगा-बुच्चा कर रखा है, चल, दो कड़े डाल ले।
माँ के चेहरे को बंद आँखों में समेटते हुए मैंने धूप की ओर पीठ
कर प्राणायाम शुरु कर दिया। बीच में आँखें खोलीं तो देखा, वह
भी मेरी नकल में अँगूठा और तर्जनी जोड़कर सुखासन मुद्रा में
बैठी हैं। पर लंबा ओ---म् वे बोल नहीं पाईं। उनकी साँसें बीच
बीच में बार बार टूटती रहीं। पर कोशिश उन्होंने नहीं छोड़ी।
थोड़ी देर प्राणायाम करने के बाद फिर बोलीं - 'मंदिर ?`
मैंने सुना तो। पर कुछ कहा नहीं।
फिर दुबारा प्रश्नवाचक मुद्रा में - ' मंदिर ? `
इस बार मैंने कहा-'मंदिर मैं नहीं जाती। मंदिर यहाँ है, मेरे
भीतर।`
फिर मैंने उनका कंधा छुआ - 'आपके भीतर भी है।`
उन्होंने बड़ी मासूमियत से मुस्कुराकर सिर हिलाया।
तभी मुझे कुछ छींके आ गईं। कपालभाति क्रिया करने से कभी कभी आ
ही जाती हैं।
वे देखती रहीं, फिर बोलीं - ' दूध। `
मैंने कहा - 'दूध पीना चाहिए ?`
बोलीं - ' गरम।`
मैंने कहा -' गरम दूध ? `
उन्होंने सिर हिलाया।
बोलीं - 'केला !`
मैंने कहा - 'हाँ, खाती हूँ एक केला रोज।`
बोलीं - 'दूध।`
हर बार एक शब्द बोल कर कस कर होंठ ऐसे भींच लेतीं जैसे किसी
बच्चे को क्लास में चुप रहने की सजा मिली हो पर एक शब्द बोलने
के बाद झट उसे अपनी सजा याद आ जाती हो।
मैंने कहा - 'अच्छा, दूध - केला खाना चाहिए।`
बोलीं - 'काटकर।`
और हाथ से छोटे छोटे टुकड़े का इशारा किया।
मैंने कहा - 'अच्छा, खाऊँगी दूध में केला डालकर।`
बोलीं - 'गरम।`
मैंने हँसकर कहा - 'ठीक है दीदी, केले को काटकर गरम दूध में
डालकर रोज खाऊँगी।`
अब उन्होंने मेरी बाँह सहलाते हुए बहुत धीरे धीरे अपना सिर
मेरे कंधे पर टिका दिया। तृप्त भाव से। जैसे कोई छोटा सा बच्चा
अपनी माँ के कंधे पर प्यार से तब सिर टिका देता है, जब माँ
उसकी तुतलाती जबान में बोली गई आधी अधूरी बात को पूरा समझ लेती
है।....
मैंने अपने कंधे पर टिके उनके सिर को हौले से थपथपाया।
सुबह सुबह के पत्तों की नमी मन में उतरने लगी। इन्हें लोग पगली
अम्मा कहते हैं। प्यार के लिए बेतरह तरसी हुई औरत हैं यह तो।
क्या पता कब कैसे इनकी जिन्दगी की गाड़ी पटरी पर से उतर गयी।
० अगले
दिन भी यही हुआ। खुद तो वे सैर करती नहीं थीं। मुझे भी पकड़ कर
बेंच पर बिठा लेतीं। बड़ी मुश्किल से उन्हें बहला फुसला कर मैं
बगीचे के तीन या चार चक्कर लगा लेती, फिर उनके पास आकर
प्राणायाम करने के लिए बैठ जाती।
थोड़ी देर मेरे साथ साथ बैठे बैठे वह भी व्यायाम करती रहतीं।
मैं जैसे जैसे बाँहें सीधी कर मुट्ठी बाँधकर कभी कलाई से, कभी
कुहनी से उन्हें गोल गोल घुमाऊँ, वैसे ही वे भी घुमाएँ। लेकिन
लंबा ओ-----म करने में उनकी साँस बार बार टूट जाती। मेरी तरह
लंबी एकसार साँस नहीं ले पातीं तो परेशान हो जातीं। तब वह खोयी
खोयी सी आँखों से शून्य में देखने लगतीं। उस दिन उनकी हताश
पड़ी हथेली को अपनी हथेली से ढकते हुए मैंने कहा - कोई बात
नहीं, मंदा दी, धीरे धीरे आ जाएगा।
हूँ... उन्होंने जबरन हल्का सा मुस्कुराने की कोशिश की।
प्राणायाम समाप्त हुआ तो मेरे कुरते पर हाथ फिराने लगीं और नाक
सिकोड़ते हुए बोलीं - ''देना।''
''देना ? क्या ? किसको ?'' मैंने पूछा।
बोलीं - ''साड़ी।''
मैं हँस दी - ''अच्छा, मैं साड़ी पहनूँ और यह किसी को दे दूँ।
''
इस बार बड़ी सी मुस्कराहट उनके चेहरे पर फैली कि मैंने उनकी
बात समझ ली। मुझे एकाएक अपनी एक सहेली याद आई। एक दुर्र्घटना
में पति की मौत के बाद मानसिक संतुलन खो बैठी थीं। अपनी सारी
महंगी पोशाकें दरियादिली से लुटाती, खिड़की से बाहर फेंक देती
और खुद चिथड़े पहनती।
मंदाकिनी दीदी रोज मिलतीं इसी तरह पार्क में। बस, एक शब्द
बोलना या फिर मुख मुद्रा से, संकेतों से समझा देना। एक दिन जब
पीले पत्ते तोड़ने में व्यस्त थीं, उनकी आया ने बताया - ''दो
साल से काम कर रही हूँ इनके साथ। कभी इनको बोलते नहीं सुना। अब
आपके साथ मुँह खोलने लगी हैं। इनकी आवाज सुनी ही नहीं पहले।
कितना मीठा बोलती हैं। पहले अकेले यहाँ आया करती थीं, फिर एक
दिन एक बच्चे की माँ शिकायत लेकर पहुची कि उसके बच्चे की शर्ट
उतार कर फाड़ डाली। इसलिए अब आधे घंटे के लिए मैं साथ आती
हूँ।''
तब तक मंदा दी पीले पत्ते झोले में बटोर कर ले आई थीं। बैठते
ही मेरी हथेली हाथों में ली, बोलीं - '' काटना। ''
मैं समझ नहीं पाई।
ओह, नाखूनों की ओर ध्यान गया। बढ़ गए हैं, काट लेना।
मैंने कहा - ''अच्छा, काट लूँगी।''
बोलीं - ''मंगल ...... उँ हूँ .....। ''
अच्छा, मंगल को नहीं काटना।
बोलीं - '' शनि ...... उँ हूँ .....। ''
मैंने आज्ञाकारी बच्चे की तरह सिर हिलाया - '' शनि को भी नहीं
काटूँगी। ''
पर मैंने मुँह बना कर समझा दिया -'' क्या फर्क पड़ता है।
मुहूर्त, बेला क्या देखना। आज ही काट लूँगी।``
वे मुस्कुरा दीं। ऐसी सात्विक मुस्कान और आँखों में जुगनू सी
चमक। |