गाँव
के पाँच घर नाइयों में सिर्फ बासो ही थे जो अब तक गाँव की ही
दाढ़ी-हजामत पर टिके थे। वरना उनके गोतिया-दियाद के अन्य लोग
शहर के सैलूनों में या अन्य दूसरे पेशों में चले गये थे। एक घर
से सालाना कच्ची तीन पसेरी अनाज उन्हें मिलता था। इस अदने से
दाम पर ही सब उन पर रौब गाँठते, हुक्म चलाते, अधिकार जताते,
रेकार-तेकार करते। चाहे वे किसी उम्र के हों, किसी जाति के
हों, किसी लियाकत के हों। पर ताज्जुब इस बात का कि इसका उन्हें
कोई दुख नहीं होता, जैसे उनकी अपनी कोई उम्र, अस्तित्व या आयतन
नहीं। जबकि बासो ठाकुर इस कदर आवश्यक अंग थे इस गाँव के कि कभी
अगर बीमार पड़ते या कहीं बाहर चले जाते तो हर आदमी इससे
प्रभावित हो उठता....सबके चेहरे पर अंगुल भर दाढ़ी...
सबके कान पर बेतरतीब बाल....मानो सधुआने लगा हो पूरा
गाँव, जैसे बैराग्य का
मंत्र दे गया हो कोई उन्हें एक साथ।
मैंने उन्हें बताया एक बार कि आप इतनी कम मजूरी में काम करते
हैं - पता है, शहर में बाल-दाढ़ी के पन्द्रह रुपया रेट चल रहा
है। सुनकर उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ। उलटे पूरे गाँव की
फटेहाली और दुर्दशा का चित्र खिंच गया उनके चेहरे पर, सबका
दर्द उभर आया उनके माथे की सलवटों में। वे बोले, ‘‘ई शहर थोड़े
है बउआ। यहाँ तो दो-चार गिरहस्थन को छोड़ के कौनों बेचारन का
सालो भर पेट नहीं भरता है, तो कोई कहाँ से देगा हमको और कौन
मुँह से माँगेंगे हम। ऊ लोग हाड़तोड़ मेहनत करते हैं तो उनका पेट
न भरे और हम खाली उनकी हजामत करते हैं तो भर पेट चाहिए...।’’
उनके कहने का अंदाज इस तरह था जैसे सबके पेट न भरते हों, ऐसे
में उनका पेट भर जाये तो यह एक अपराध हो जायेगा। कैसा अद्भुत
सोच था, कैसी गहरी समझ थी, कैसा गूढ़ दर्शन था जो इस बेपढ़े आदमी
के दिमाग से निकलकर इस एम.ए. पास की खोपड़ी को भी घुमा दे रहा
था।
किसी के घर में कोई काज-परोज हो, मरनी-जीनी, शादी-ब्याह या
पूजा-पाठ, उनकी सक्रिय हिस्सेदारी बहुत जरूरी होती थी। वे उस
दौरान उस घर के सदस्य की जिम्मेदारी और हैसियत को जीने लगते
थे। मरनेवाले के परिवार के साथ गले लगकर रोते भी थे तो बेटी की
विदाई पर उदास भी होते और उत्सव-जश्न में चहक-चहक उठते। ऐसे
सार्वजनिक और सर्वसुलभ व्यक्तित्व के स्वामी होकर भी उन्होंने
अपने को हमेशा अदना, तुच्छ और छोटा महसूस किया। सचमुच मुझे एक
अजीब प्राणी लगते थे बासो ठाकुर।
कभी किसी ने उन्हें स्थिर नहीं देखा। हमेशा वे चलते नहीं भागते
नजर आये। कोई काम करना हो....झटाझट मिनटों में पूरा। आसपास की
बस्तियों में न्योता घुमाना हो....उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं।
पूरे इलाके का चक्कर मार लेंगे वे ज्यादा से ज्यादा दो-ढाई
घंटे में। गाँव के किसी भी परिवार के दूर-दूर के रिश्तेदारों
में निमंत्रण फिराना हो....उनके लिए कोई झंझट नहीं....सभी
चेहरे और सभी रास्ते उनके जाने-पहचाने हैं। पता नहीं कैसा
अदृश्य चक्का लगा था उनके पाँव में....कैसी अजीब जीवटता भरी थी
उनकी रगों में। जवानी से बुढ़ापे में आये फिर भी कहीं कोई आलस,
थकान या सुस्ती नहीं। बाबा के वक्त भी वे वैसे ही थे, बाऊजी के
वक्त भी उसी तरह, अब मेरे और मेरे बच्चों के वक्त भी वे उसी तरह
हैं चुलबुल, चटपट, चंचल, जैसे फुदक चिरैया हों....झट कभी इस
डाल, झट कभी उस डाल।
उनकी घरवाली, जिसे सब
नौनिया बूढ़ी कहते थे, बहुत पहले इन्हें छोड़कर चल बसी। मगर बासो
ठाकुर को बचपन में हुई माँ-बाप की अकाल मृत्यु से ही दुख के
तरल को सोख जाने की आदत थी, उस पनसोखे की तरह जो आसमान में
दिखाई पड़ता है तो बूँदों से भरी बदली तिरोहित हो जाती है।
उन्होंने घरवाली के हिस्से का औरतों के नाखून काटनेवाला काम भी
खुद ही संभाल लिया। छोटी, बड़ी, बूढ़ी किसी के पाँव छूने में
उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं। मैं जब तक गाँव में रहा उन्हें
अच्छी तरह जान नहीं पाया। शायद तब तजबीजने की नजर नहीं थी मेरे
पास। शहर आ गया और साल-छह महीने में ही गाँव जा पाया, फिर भी
वे मेरे सबसे प्रिय और आत्मीय होते चले गये।
चाची के श्राद्धकर्म में मैं गाँव गया था। मुझ पर नजर पड़ी
उनकी। देखते ही आगे लपककर उन्होंने मुझे प्रणाम कहा। मैं शर्म
से गड़ गया। मेरे बाबा के हमउम्र और मुझे प्रणाम कहें, आखिर
किसी राजतंत्र का कारिंदा या राजकुमार तो मैं नहीं हूँ। फिर
मैंने ही हाथ क्यों नहीं उठाया पहले। आँखें तो बहुत दूर से मिल
रही थीं हम दोनों की। अपने को बहुत कोसा
मैंने - ऐसा क्या लाट साहब हो
गया हूँ कि इस बुजुर्ग और स्नेही व्यक्ति को मैं प्रणाम न कह
सका। निश्चय ही एक संकोच ने मुझे डगमगा दिया था। चार-पाँच लोग
मुझे अपने इर्द-गिर्द दिखाई पड़ गये थे, जिनके सामने मेरा इस
तरह सुशील होना उन्हें खटक जाता। सोचते कि देखो एक लेक्चरर
होकर एक जाहिल-गवार नौआ को सलामी मार रहा है।
मैं अंदर ही अंदर खुद को धिक्कार ही रहा था कि बासो ठाकुर आकर
मेरे हाथ दबाने लगे - लगा कि मैं सरेआम नंगा हो गया हूँ। अमूमन
उनके ऐसा बर्ताव का अर्थ रुपये दो रुपये बख्शीश पाने की चाह
हुआ करती थी। मैंने उन्हें बिना ज्यादा मौका दिये झट जेब से
निकालकर पाँच रुपये उनकी हथेली पर रख दिये। वे देखकर सकपका
गये। कहने लगे, ‘‘गरीब आदमी हैं बउआ, हमरे पास खुदरा कहाँ है
?’’
मैं फक्क रह गया। कैसे आदमी थे वे जो अपने का पाँच रुपये की
बख्शीश के लायक नहीं समझ रहे थे। शायद मुझसे एक या दो रुपये की
ही उनकी अपेक्षा थी। मैंने कहा, ‘‘आप रखिये तो....खुचरा मैं
कहाँ चाह रहा हूँ।’’
उनके चेहरे पर खुशी की जगह एक अजीब-सा दर्द झिलमिला उठा,
‘‘पाँच रुपैया! इतना तो एक साथ हमको कौनो बाउ-भैया ने नहीं
दिहिन। आप बहुत बड़का दिलवाला हैं बउआ।’’ आगे वे मुझे असीसने
लगे - ऐसी-ऐसी अशीषें जिनके मोल
पाँच क्या हजार भी कम पड़ते।
चाची के ग्यारहवीं के विधि-विधान निपटाने के लिए बासो कंटाहा
बबाजी को दूर एक गाँव से न्योत आये थे। लेकिन वे ठीक समय पर
नहीं आये। सभी इंतजार कर रहे थे। उनके बगैर काम आगे नहीं बढ़
रहा था। कोई उपाय भी तत्काल सूझ नहीं रहा था। चूँकि श्राद्ध
करवाने वाले एक खास किस्म के पंडित होते हैं जो हर गाँव में
नहीं पाये जाते। सभी बड़े पेशोपेश में थे कि ऐसा कभी हुआ नहीं
कि कहकर वे न आये। किसी के मन में शक का एक काँ झाँक गया कि
बासो कहीं फेकैती तो नहीं कर दिया ? आने-जाने का चार रुपया
भाड़ा मार गया और वहाँ गया ही नहीं। इस आशय की खुसुर-फुसुर कुछ
देर होती रही। सबने फटाफट तय कर लिया कि बासो के हाथ-गोड़
बाँधकर थूरा जाये, तो सच-सच बता देगा।
बासो का अपना कोई लड़का नहीं था, नाती को ही उन्होंने अपना
वारिस बना लिया था। उसी के माथे पर हाथ रखकर वे खड़े-खड़े कसम
खाने लगे थे। इसके बावजूद मेरे एक लंठ टाइप चचेरा भाई उन पर
हाथ चला बैठा। मैं ना ना करता रह गया। मुझे लगा कि इस बेइज्जती
पर बासो फफक पड़ेंगे। मगर वे तनिक मलिन नहीं हुए, जैसे आदमी
नहीं पेड़ हों, जिसके फल तोड़िये या पत्ते, डाल काटिये या उसे जड़
से उखाड़ दीजिये, उसका कोई विरोध नहीं, कोई शिकायत नहीं। अगले
ही पल वे बबाजी को दोबारा बुलाने पैदल ही चल पड़े। उनके जाने के
आधे घंटे बाद ही बबाजी हाजिर हो गये। दो घंटे बाद बासो दूसरे
को भी बुलाकर ले आये। उनकी सच्चाई को सराहने की जगह इस बात पर
फिर उन्हें डाँट पिलायी जाने लगी कि अब इस दूसरे बबाजी को
बुलाकर लाये हो तो इन्हें दक्षिणा क्या तेरा बाप देगा।
बासो ठाकुर हीं-हीं करके एक चापलूस हँसी हँस कर रह गये, जैसे
वे सचमुच गुनहगार हों। मुझसे उनकी यह विनयशीलता सही नहीं जा
रही थी। लग रहा था कि वे क्रोध करें, फट पड़ें कि नाहक उन पर
कसूर थोपकर उन्हें
प्रताड़ित किया जा रहा है। लेकिन वे तो कुछ और ही माटी के बने
थे। बिना मुरझाये भागदौड़ में जी-जान से जुटे रहे।
अगली बार जब गाँव गया तो पत्नी ने शविंग सेट भी डाल दिया
ब्रीफकेस में। सबेरे उठा और आदतन रेजर लेकर बैठ गया। तब ही
बासो ठाकुर प्रकट हो गये। मेरा चेहरा ऐसा पीला पड़ गया मानो कोई
अपराध करता हुआ मैं रंगे हाथ पकड़ा गया। बासो ठाकुर के चेहरे पर
एक मासूम भंगिमा उभर आयी, जिसमें निरीह सा एक सवाल कंपकंपा रहा
था कि मेरे होते हुए भी इस गाँव में रेजर ! सचमुच यह सरासर
अवहेलना थी मेरी तरफ से जो अनजाने में बासो ठाकुर के प्रति
मुझसे हो रही थी। मैंने अपना रेजर बंद कर दिया और क्षमा माँगती
हुई मुद्रा में दाढ़ी बनाने के लिए उन्हें आमंत्रित किया। अपना
उस्तरा निकालते हुए उन्होंने कहा, ‘‘का भूल हो गयी हमसे बउआ जो
आप यहाँ रेजर ले आये। का
हमको अब आपकी दाढ़ी बनाने का हक नहीं रहा ?’’
लगा कि अभी पहले थप्पड़ का प्रायश्चित भी नहीं कर पाया हूँ कि
किसी बेकसूर ने दोबारा मारने के लिए दूसरा गाल बढ़ा दिया हो।
मैं कोसने लगा अपनी पत्नी को जिसने रेजर रख दिया था मेरे बक्से
में। मैंने उन्हें समझाया कि ऐसी कोई बात नहीं है..... भला आप
जैसे महादेव मूरत से नाराजगी! ....और फिर आपसे दाढ़ी बनाने का
जो सुख मिलता है वह कहाँ मयस्सर होगा।
वे कहने लगे, ‘‘मुझे आज ही खबर मिली कि आप आये हैं, नहीं तो कल
ही आपका दर्शन कर लेता।’’ अब वे एक कटोरी में पानी लेकर मेरी
दाढ़ी फुलाने लगे।
उनका दाढ़ी बनाने का अपना एक अलग अंदाज था। न साबुन, न क्रीम, न
लोशन, फिर भी इतना सुगम चलता था उनका उस्तरा जैसे वे दाढ़ी
छीलने की जगह गाल सहला रहे हों। जबकि बाज सैलून वाले लाख
टीप-टॉप के बावजूद दाढ़ी छीलते नहीं, नोंचते हैं।
उनका नाती रमासरे अब बड़ा हो गया था। बासो ठाकुर उसे धंधे में
धीरे-धीरे लगाना चाहते थे। जीते-जिंदगी गाँव की सेवा-टहल की
जिम्मेवारी सौंपकर इत्मीनान हो जाना चाहते थे। ताकि गाँव वाले
यह कहकर न धिक्कारें कि बासो निरवंश मर गया और गाँव को बेराह
छोड़ गया। पर रमासरे को किसी की उठा-पटक बात और उरेबी व्यवहार
अच्छा नहीं लगता था। बासो जिस तरह रहे उस तरह रहना-सहना उसे
कतई गवारा नहीं था। उसकी इच्छा थी कि गाँव के बगल में स्टेशन
के पास जो बाजार बसना शुरू हुआ है, वहीं चार खूंटे पर
बोरा-बोरी या कच्ची छौनी डालकर छोटा सा एक सैलून खोल ले।
बासो ठाकुर को उसकी यह योजना बिल्कुल नापसंद थी। उन्होंने ऐसा
करने से उसे बहुत मना किया, मनाया, समझाया। कहा, ‘‘ई गद्दारी
है गाँव वालों के साथ। आखिर किसानन-मजूरन से और का बात-व्यौहार
खोजते हो ? दिन-रात ढेला-ढक्कर में हाड़ तोड़ते हैं....एक-एक
दाने के लिए अपना खून सुखाते हैं....मिजाज तो जला रहता है उनका
सैकड़ों चिंता-फिकिर में। ऐसे में कहाँ से घोलेंगे ई लोग बोली
में मिसरी।...और काहे की मिसरी! हम का कोई पहुना या
संत-महात्मा हैं ? सैलून खोलोगे, मतलब अब दाढ़ी-हजामत भी उन्हीं
की होगी जिनके पास नगद-नारायण होगा। ई बहुत अंधेर होगा
बेटा। आखिर पुश्तैनी हक है उनका
हमरे ऊपर और हमारा उनके ऊपर। इस नातेदारी को मत तोड़ो नाती, मत
तोड़ो।’’
रमासरे ने उनकी एक न सुनी और स्टेशन पर सैलून खोल दिया।
देखते-देखते गाँव की कई दुकानें खुल गयीं वहाँ....हाशिम दर्जी
की, जमना लोहार की, चंदू बढ़ई की, सुखन तंबोली की, मगर पासी की,
लखन डोम की, चुहर धोबी की, लटोनी मोची की, गोखुल साव की, मदन
हलवाई की, गज्जू चूड़ीहार की, रामचरण वैद्य की। बासो ठाकुर
भौंचक रह गये - ई लच्छन कहीं गाँव के उजड़ने का तो नहीं है!
आखिर एक जमाने से सबका कारोबार गाँव से ही कैसे चल रहा था। अब
लगता है खेतीबारी पर सबका विश्वास खत्म हो गया और लग गये हैं
सब नगद-नारायण के फेर में।
बासो ठाकुर बहुत उदास हो गये.....और यहीं से उन्हें लगने लगा
कि उनकी उम्र अब पूरी हो गयी।
इस बार मैं गाँव गया तो उन्हें देखकर ठगा सा रह गया। सूखकर
काँटा हो गये थे, जैसे किसी ने बुढ़ापा जबर्दस्ती उढ़ेल दिया हो
उन पर। उनके हाथ अब काँपने लगे थे, आँख की रोशनी भी कम हो गयी
थी। दाढ़ी-हजामत वे बड़ी मुश्किल से कर पाते थे। फिर भी चुक नहीं
रहे थे। निर्वाह किये जा रहे थे। इस बार उनके तन पर जो कपड़ा
था, वह बड़ा ही विचित्र
था। वे किसी मेम की उतरन नाइटी पहने हुए थे।
मुझे बड़ा तरस आया उन्हें
देखकर। इसके पहले कि मैं कुछ बोलता वे खुद ही बोल पड़े, ‘‘बउआ,
लगता है आप हमरे इस कपड़वा के बारे में सोच रहे हैं। सब कहता है
कि ई जनाना कपड़ा है....तो का हुआ बदन तो ढँकता है। टीशन बाबू
के बेटा का मुड़न था। हमीं से कराये। दस गो रुपैया दिहिन और ई
वाला उतरन।’’
‘‘लोग तो ठीक ही कहते हैं, ऐसा पहनावा तो मेहरारू लोग ही पहनती
हैं।’’ मैंने कह तो दिया लेकिन मन हो रहा था कि उनका मन रखने
के लिए झूठ ही बोल दूँ।
सुनकर वे बहुत देर तक कुछ सोचते रहे, जैसे मन ही मन कुछ निर्णय
कर रहे हों। अपने चेहरे पर ढेर सारी सकुचाहट लाकर निहोरा के
अंदाज में कहने लगे, ‘‘आपके पास कोई फटा-पुराना कुरता है बउआ
?’’
उस समय ऐसा कुछ नहीं था मेरे पास जो उन्हें दे सकू। ऐसे भी मैं
अपना निछाड़न उनसे पहनवाना नहीं चाहता था। लेकिन उनका माँगना
खाली भी जाने देने की इच्छा मेरी नहीं थी। मैंने कहा, ‘‘अभी तो
मेरे पास कुछ नहीं है, लेकिन.......।’’
आगे बिना मेरी बात सुने वे बीच में बोल पड़े, ‘‘कौनो बात नहीं
बउआ, कौनो बात नहीं। आगे जब कभी आइयेगा तो हम आपसे माँग
लेंगे।’’ उन्होंने किसी दूसरी तरफ बातों का रुख मोड़ दिया।
उनकी दशा पर शर्मसार होते हुए मैं कहना चाहता था कि चलिये, मैं
आपके लिए एक नयी कमीज सिलवा दूँ। मगर वे शायद इसकी कल्पना ही
नहीं करते थे....कभी माँगते किसी से तो फटा-पुराना कहकर ही।
मैंने आखिरकार उन्हें रोककर नया सिलवाने की बात कह दी तो उनके
चेहरे पर एक ऐसी हँसी उभर आयी जो आँसू से भी मार्मिक और करुण
थी। कहा उन्होंने, ‘‘नया तो लगे है आगू जनम में ही पेन्हेंगे
बउआ। ई जनम में जब हमरे बाउजी नया नहीं पेन्हिन तो हम का
पेन्हेंगे ?’’
और मेरी आगे की बात सुने बिना वे चलते बने।
उनकी उक्ति ने मेरे मर्म को पानी-पानी कर दिया। मन ही मन मैंने
संकल्प किया कि अगली बार इनके लिए एक जोड़ा नया धोती-कुरता जरूर
लेता आऊँगा। अब तक बहुत ज्यादती हुई मुझसे कि एक बार भी मेरे
मन में ऐसा खयाल नहीं
आया।
इस बार गाँव आने में ज्यादा विलंब नहीं हुआ। पाँचवें महीने में
ही मुझे एक चचेरे भाई की शादी में गाँव आना पड़ा। आते हुए बड़ा
हुल्लसित था मेरा मन, इसलिए नहीं कि शादी में शामिल होने जा
रहा था, बल्कि इसलिए कि मैं बासो ठाकुर के लिए नया कपड़ा ले जा
रहा था। चौंक जायेगा पूरा गाँव और वे भी....जब मैं उनके ना-ना
करने के बावजूद उन्हें पहना दूँगा। पहली बार उनके जिस्म पर वह
वस्त्र होगा जो उनके भोले-भाले ग्रामीण व्यक्तित्व का वास्तविक
आभास देगा, जो खास उन्हीं को लक्ष्य कर बनाया गया उनके नाम का
होगा। जिसके नयेपन को पहले-पहल वे धारण करेंगे। दूसरों के
उल-जलूल कपड़ों के भीतर गडमड हो जाने वाला उनका वजूद पहली बार
अपना सही और संपूर्ण आकार
ग्रहण करेगा।
स्टेशन पर उतरा तो वहीं से मेरी आँखें ढूँढ़ने लगी उन्हें।
दुकानों की तरफ से होते हुए निकला कि शायद वे अपने नाती के
सैलून के आसपास कहीं गपशप कर रहे हों। लेकिन वे वहाँ कहीं नहीं
थे.....हालाँकि ऐसा लग रहा था कि गाँव खिसककर यहीं आ गया है।
गाँव के प्रायः सारे हुनरमंद और कारीगर टाइप लोग यहां मौजूद
थे। इनमें से कुछ लोग मंगर पासी की दुकान में बैठकर ताड़ी पी
रहे थे, कुछ लोग झुंड बनाकर ताश खेल रहे थे, रमासरे सैलून के
सामने एक बेंच पर सोया
जोर-जोर से खर्राटे मार रहा था।
मैं हैरान रह गया - इन हुनरमंदों में इस तरह का निठल्लापन तो
गाँव में कभी नहीं रहता था। वहाँ इन्हें काम की कोई कमी नहीं
रहती थी। मैं आगे बढ़ गया, तभी एक रिक्शावाला मेरे बाजू में आकर
ठहर गया। उसे देखकर मेरी आँखें फैलकर मानो गुफा बन गयीं, ‘‘अरे
जुगेशर तुम ? खेती-गृहस्थी छोड़ दी क्या ?’’
‘‘मन नहीं लगता था भैया उसमें। पाँच कट्ठा खेत रेहन रखकर
रिक्शा खरीद लिया।’’ जुगेशर ने यों कहा जैसे बड़ा तीर मार लिया
हो।
‘‘तुम्हारे बाउजी मान गये ?’’
‘‘मानेंगे नहीं तो
जायेंगे कहाँ ? खेती अब ठीक से पूंजी के बिना हो भी कहाँ रही
है। न पानी का साधन, न खाद, न बीज।’’
लगा जैसे कुछ चुभ गया भीतर। क्या हो गया इन्हें कि अपनी
पुश्तैनी जगह-जमीन से मोहभंग होता जा रहा है। मैं बैठ गया
रिक्शे पर। जुगेशर पैडल मारने लगा, जैसे खेती करने से बहुत
आसान और सम्मानजनक काम कर रहा हो। कच्ची सड़क पर हम गाँव की ओर
बढ़ रहे थे, पर ऐसा लग रहा था कि किन्हीं प्राचीन अवशेषों की ओर
बढ़ रहे हैं। धूल से पटी सड़क बिल्कुल वीरान और निष्प्राण
थी....आसपास स्थित इक्के-दुक्के पेड़-पौधे मायूस और बेरौनक थे।
रास्ते में आने-जाने वाले गाँववालों से देखा-देखी और
प्रणाम-पाति हो रही थी। मैं गौर कर रहा था कि जो भी दिख रहे थे
वे बढ़ी हुई दाढ़ी आरै हजामत से सधुआये हुए थे। गाँव पहुँचने तक
अधिकांश लोग इसी तरह नजर आये। मेरे मन में कुछ खटका हुआ। मैं
पूछ बैठा जुगेशर से, ‘‘बासो ठाकुर तो ठीक-ठाक हैं न!’’
‘‘ऊ तो तीन महीना हुआ मर
गये।’’ निरपेक्ष भाव से कहा जुगेशर ने।
मुझे तो जैसे करंट छू गया। बहुत देर तक गश खाया सा मैं सन्न रह
गया। गाँव आने का मेरा सारा उत्साह और मकसद अब मर गया था।
ब्रीफकेस के भीतर से ही धोती-कुरता का जोड़ा मेरा मुँह चिढ़ाने
लगा था। मेरी आँखें नम हो गयी थीं। हमेशा गाँव आने का मेरा एक
स्थायी उद्देश्य छिन गया था।
गाँव की उदासियों, दुखों और कड़वाहटों को सोखने की कोशिश करते
रहने वाला जो एक पनसोखा था....बेरंग जीवन को भी कई रंग दिखाने
वाला जो एक इंद्रधनुष था, वह यहाँ के आसमान से अब गायब हो गया
था। पता नहीं क्यों इनके बिना अपने गाँव को गाँव मानना अब मेरे
लिए मुनासिब नहीं रह गया था....। |