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जब भी गाँव गया बासो ठाकुर
को अलग-अलग वेश में देखा। कभी मिलिट्री के लिबास में, कभी
सिपाही के, कभी करखनिया मजदूर के, कभी रेलवे कुली के। अपना यह
बहुरूप वे हास्य पैदा करने के लिए नहीं बल्कि वस्त्रहीनता की
स्थिति में हास्यास्पद बनने से बचने के लिए अख्तियार करते थे।
बासो ठाकुर हमारे गाँव के नौकरियाहों के आईना थे, जिन्हें
देखकर बहुत हद तक अनुमान लगाया जा सकता था कि यहाँ किस-किस
महकमे में काम करने वाले लोग हैं। बेले-मौके आये नौकरियाहों की
विशेष सेवा-टहल करके वे उनकी देह-उतरनों को प्राप्त करते थे,
जो तुरंत चढ़ जाता था उनके अधनंगे बदन पर। चूँकि अक्सर दूसरे के
मिलने तक पहला तार-तार हो चुका होता था।
एक बार तो हद ही हो गयी जब चूहे द्वारा कई जगह काट दिये जाने
की वजह से राजसी पोशाक और सैकड़ों कतरन से बनायी हुई जोकर ड्रेस
को नाटक-मंडली के लड़कों ने बेकाम समझ उन्हें दे दिया। गाँव
वालों ने हँसी उड़ायी तो उड़ायी पर वे निस्संकोच इन्हें पहनते
रहे, जब तक उसका रेशा-रेशा अलग न हो गया।
शहर में रहते हुए जब कभी उनका ध्यान आता था, मेरे जेहन में
उनकी कई रंग-रूप की आकृति उभर आती थीं, जैसे कोई इन्द्रधनुष उग
आया हो। |