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					 दोनो 
					सहपाठी गले मिले । फिर वहीं बरामदे में कुर्सी पर आमने सामने 
					बैठे वे नाश्ता करते हुए बातों में खो गए, जो अपने सकूल के 
					अध्यापकों की विचित्रता से आरंभ होकर बाल-बच्चों, जमाने
					और इंसान की चर्चा से 
					गुजरती हुई आसाने से परमात्मा से संबंधित विषयों पर आ गई। 
 “ब्रदर स्त्री माया है ! ” सामने शूनय में एक क्षण खोए-खोए से 
					देखने के बाद राय साहब बोले, उसमें शैतान का वास होता है, वही 
					भरमाता, चक्कर खिलाता और नरक के रास्ते पर ले जाता है। ...पर 
					भाई जान, मैं सिर्फ एक बात जानता हूँ, उसके सामने किसी की नहीं 
					चलती, जो कुछ होता है, उसकी के इशारे से होता है। वह चाहता, 
					तभी हम चोरी, डकैती, हत्या, जना, बदकारी, सबकुछ करते और जहाँ 
					उसकी मेहर हुई सब मिनटों में छूट जाता है।“
 “उसकी बड़ी कृपा है, नहीं हम तो कीड़ों मकोड़ों से भी गए बीते 
					हैं।“ हृदयनारायण ने भक्ति से गदगद स्वर में कहा।
 “गए बीते कहते हो, अरे एकदम गए बीते हैं। मैं तो भई, अपने को 
					जानता हूँ। मेरे जैसा झूठा, बेइमान, नीच, घमंडी, 
					बदकार कोई नहीं होगा। परंतु मुझ 
					पापी को भी सरकार ने चरणों में थोड़ी जगह दे दी है।
 
 नौकर पान की तश्तरी लिये आग खड़ा हुआ था। दोनो मित्रों ने दो 
					दो बीड़े जमाए फिर राय साहब ने कहना आरंभ किया, “तुम तो नहीं 
					जानते न, बिहार के तराई इलाके में सौ बीघा जमीन खरीदने के बाद 
					ही पिता जी का स्वर्गवास हो गया था, यहाँ भी डेढ़ सौ बीघा जमीन 
					थी। घर गृहस्थी का सारा बोझ अचानक मेरे कंधों पर आ पड़ा। लेकिन 
					मुझे कोई चिंता नहीं थी...कैसा शरीर था मेरा, याद है तुम्हें 
					न? ताकत, जिद और क्रोध तीनों मुझमें थे। सच कहता हूँ, जब अपने 
					बँगले के सामने खड़ा हो जाता, तो लगता किसी किले के सामने खड़ा 
					हूँ, ऊँचाई दो पोरसा अधिक बढ़ गई है, सिर में पकका दस सेर लोहा 
					भर गया है... किसी को अपने पैरों की धूल के बराबर तो समझता 
					नहीं था। लोग मुझसे डरते और उनसे मुझे बेहद क्रोध और नफरत 
					होती। मारे पीटने, तंग, परेशान करने, जब इच्छा हो वसूली तहसीली 
					करने में ही तबीयत लगती। मामूली रौब नहीं था अपना... मेज 
					कुर्सी लगी है, अफसरान आ रहे हैं। गप्पें लड़ रही हैं, दावतें 
					उड़ रही हैं, नौकर चाकर दौड़ दौड़कर हुक्म बजा रहे हैं...” 
					आवाज अचानक धीमी पड़ गई, “और वह शैतान वाली बात कही न ! 
					बिरादर, कसम खाकर कहता हूँ पता नहीं क्या हो गया था जहाँ किसी 
					जवान स्त्री को देखा नहीं पागलपन सवार हुआ। खास तरह से इसका 
					मजा बिहारवाले इलाके में खूब था। वहाँ के लोग बहुत गरीब और 
					पिछड़े हुए थे। मैं साल में आठ नौ महीने तो वहीं रहता और ऐश 
					करता। बीच में वैसे कभी कुछ दिनों के लिये आकर बाल बच्चों और 
					यहाँ की गृहस्थी की खोज खबर ले जाता। एक तो मैं खुद खासा जवान 
					था, इस पर पैसा और शक्ति न मालूम कितनी ही... लेकिन बाबू 
					हृदयनारायण, ठीक बयालीस वर्ष की उम्र में शैतान की चपेट में इस 
					तरह आ गया कि क्या बताऊँ ! जानते हो, कौन था? 
					पंद्रह सोलह वर्ष की एक लड़की !”
 “लड़की?” हृदयनारायण चौंक पड़े जैसे उनको ऐसी उम्मीद न हो।
 “हाँ, लड़की !” राय साहब हास्यपूर्ण मुँह बनाकर इस तरह बोले 
					जैसे बहुत साधारण बात हो, “वह भी एक मामूली किसान की ! फसल की 
					कटाई के समय मैं अपने बिहार के इलाके में पहुँचा था। वहाँ मेरा 
					बँगला एक छोटे मैदान में है, जिसके दक्षिण में खास गाँव है और 
					उत्तर में ग्वालों का टोला । वह लड़की इसी टोले की थी। ... उधर 
					ही मेरा बगीचा पड़ता है। वहीं उस लड़की को देखा। वह दो और 
					लड़कियों के साथ टिकोरे बीन रही थी। मुझको देखकर पहले तीनों 
					भागीं। फिर वही लड़की पेड़ के नीचे छूटी खँचोली को लेने वापस 
					आई, तो एक क्षण ठिठककर शंकित आँखो से उसने मुझे देखा, जैसे 
					पक्षी दाना चुगने के पहले बहेलिये को देखता है और आखिर में 
					खँचोली लेकर भाग गई। मैं तो दंग रह गया था। यह कैसी हैरत की 
					बात थी कि इस गाँव में ऐसी खूबसूरत लड़की बढ़कर तैयार होती है 
					और मैं जानता तक नहीं।“ और जैसे वह अपने मन के भाव ठीक से 
					व्यक्त न कर पा रहे हों, इस तरह होंठों पर अँगुली रखकर कुछ देर 
					तक सोचते से रहे, “क्या बताऊँ?...शाम को वकीलों के डेरों के 
					सामने मुवक्किल लोग बाटी बनाने के लिये उपलों का जो अंगार 
					तैयार करते हैं, उसको तो देखा है तुमने, उसी तरह वह दमक रही 
					थी। कहीं खोट नहीं। भरी पूरी। कुदरत जैसे पीठ और कमर पर हाथ 
					रखकर उसके शरीर को पहले तोड़ा, ऐंठा और ताना, फिर किसी जादू के 
					बल से बड़ा और जवान कर दिया था। बड़ी बड़ी 
					रसीली आँखें, छोटा मुँह... बड़ा भोलापन था उसमें।“
 
 सूरज डूब गया था। आँगनों से उठनेवाले धुएँ और सड़क की धूल से चारों 
					और कुहासा सा छा गया था। सामने से कभी कोई एक्का या रिक्शा 
					गुजर जाता। कभी घर के अंदर से छोटे बच्चों का गिरोह पास आता, 
					उनको कौतुक से देखता, चीख-चिल्लाकर खेलता और चला जाता। और वे 
					हर चीज से बेखबर बात करने में इस तरह मशगूल थे, जैसे कई दिनों 
					का भूखा सब सुध बुध खोकर खाने पर टूट पड़े।
 
 “समझे, भाई हृदयनारायण, उस लड़की की सूरत ध्यान पर क्या चढ़ी 
					कि खाना पीना सब कुछ हराम हो गया।“ राय साहब का कथन जारी था, 
					“इतनी उम्र हो गई थी, लेकिन किसी स्त्री के लिये ऐसी बेकरारी 
					कभी महसूस नहीं हुई थी। उसको पाने के लिये मैं क्या नहीं कर 
					सकता था ! उसका बाप भुलई मेरा ही आसामी था, सीधा सादा किसान, 
					जिसे पेट भरने के लिये खेती के अलावा इधर उधर मजदूरी भी करनी 
					पड़ती। मैंने अँजोरिया को- लड़की का यही नाम था- अकेले में 
					पाकर एक दो बार छेड़ा भी, पर वह नई घोड़ी की तरह बिदककर भाग 
					जाती। मुझमें अब इंतजार और बर्दाश्त की शक्ति नहीं रह गई थी। 
					हारकर एक दिन मैंने चार आदमियों को लगाकर रात के अँधेरे में 
					भुलई को खूब अचछी तरह पिटवा दिया...।”
 
 “भुलई को पिटवा दिया? 
					क्यों?”
 
 “नहीं जानते? अरे हमारे देहातों में यह आम रिवाज था। जब बाबू 
					लोगों को किसी गरीब की बहू बेटी पसंद आ जाती, तो वे उसको तंग 
					परेशान करते मारते पीटते खेतों से बेदखल कर देते, और सफलता न 
					मिलने पर बुरी तरह पिटवा देते। फिर रात में उसके घर में गुसकर 
					या किसी दूसरे तरीके से उल्लू सीधा करते। यह बहुत ही कारगर 
					तरीका समझा जाता। मैंने भी सभी फन इस्तेमाल किए। भुलई के हाथ 
					पैर बेकाम हो गए थे सिर फट गया... शरीर में और घाव थे सो अलग। 
					... अब भी नहीं समझे ?... फिर मैं ही उसके आड़े वक्त में काम 
					आया। उसकी दवा दारू के लिये मैंने ही पैसे उधार दिये, खाने के 
					लिये गल्ला भेजवा दिया। भुलई की स्त्री हाल ही में मरी थी, एक 
					लड़की ओर छोटे छोटे दो बच्चों को छोड़कर, कोई नहीं था घर में। 
					वह भारी मुसीबत में था और मुझे वह देवता समझने लगा। मैंने उसको 
					राजी करवा लिया कि वह अँजोरिया को मेरे यहाँ भेज दिया करे, वह 
					घास या चारा काट दिया करेगी...खाने भर को निकल आएगा।“
 
 “फिर लड़की आने लगी होगी, जैसे कोई उत्सुकता हो, इस तरह हृदय 
					नारायण ने प्रश्न किया।
 
 “आती नहीं तो जाती कहाँ?” राय साहब बोले, “बस सुनते जाओ ! हाँ, 
					तो वह आकर काम करने लगी। मैं बेवकूफ नहीं था, जिंदगी भर यही 
					किया था, जल्दीबाजी से मामला बिगड़ जाता। ... चिड़िया को मैंने 
					परचने दिया। रोज मौका देखकर उससे बात करता, उसके बाप की तकलीफ 
					के लिये सहानुभूति प्रकट करता, मुझसे दूसरों का कष्ट देखा नहीं 
					जाता इसकी चर्चा करता और उसके हाथ पर मजूरी से अधिक पैसे रख 
					देता। वह बड़ी भोली थी, कुछ न बोलती और मेरी ओर टुकुर टुकुर 
					देखती रहती। खैर, धीरे धीरे उसकी भटक खुलने लगी। एक दिन दोपहर 
					में जब लू चल रही थी और चारों तरफ सुनसान था मैंने उसे अपने 
					कमरे में बंद कर दिया....”
 
 उन्होंने मित्र के आश्चर्य विमुग्ध मुख को एक क्षण गौर से देखा 
					और बात का प्रभाव पड़ रहा है, इससे आश्वस्त और संतुष्ट होकर 
					आगे कहा, “तो ब्रदर, किवाड़ बंद करते ही उसका मुँह सूख गया। 
					रोनी शकल बनाकर वह बाहर जाने की जिद करने लगी। जब मैंने आगे 
					बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिये तो सचमुच रोने लगी। मेरे शरीर में 
					अजीब झनझनाहट और सनसनाहट हो रही थी, मैं बेकाबू होने लगा। 
					मैंने उसको बहुत पुचकारा और समझाया। कसमें खाईं कि मेरा प्रेम 
					सच्चा है और उसके लिये अपनी जमीन जायदाद, जान, सबकुछ कुर्बान 
					कर सकता हूँ। आखिर मैं इतना उतावला हो गया कि नीचे झुककर उसके 
					पैर पकड़ लिये। यह मेरे लिये अजीब बात थी, क्यों कि औरत से इस 
					तरह विनती करने का मैं 
					आदी नहीं था, परंतु पता नहीं क्या हो गया था। वह रोती और 
					सुबकती रही...”
 
 अँधेरा फैलने लगा था। सड़क की बिजली और बाईं ओर कुछ ही दूरी पर 
					हलवाई की दूकान की गैसबत्ती जल चुकी थी। राय साहब कभी ऊँची 
					आवाज में और कभी फुसफुसाकर बोलते और अक्सर कनखी से चौखट वा 
					अहाते की ओर देख लेते।
 
 “भैया अब देखिये, क्या होता है! … वह रोज आने लगी।“ राय साहब कुछ 
					देर तक अपने दाहिने हाथ को विचार पूर्ण दृष्टि से देखने के बाद 
					बोले, “शुरू शुरू वह बहुत उदास और दुखी रहती, पर मुझे होश हवास 
					नहीं था। लगता, इसको जितना प्यार करने लगा हूँ, उतना कभी किसी 
					को नहीं करता था। देर तक उसके बालों पर हाथ फेरता, अपने प्रेम 
					की सच्चाई की दुहाई देता। कभी कभी पागल की तरह उसके पैरों को 
					चूमने लगता। उसको हमेशा देखता रहूँ यही इच्छा बनी रहती। वह खुश 
					रहे, ऐसी हमेशा कोशिश करता। अपने हाथ से रोज मिठाई खिलाना, 
					अच्छी-अच्छी साड़ियाँ, साबुन, कंघी, इत्र फुलेल, रुपये पैसे 
					देता... धीरे धीरे उसकी तबीयत बदलने लगी। कुछ दिनों बाद चहकने 
					लगी। और मेरे देखते ही देखते वह भोली भाली लड़की इतराना, नखरे 
					करना और रूठना मचलना सीख गई। मुझे देखते ही उसकी आँखें चमक 
					उठतीं...दौड़कर मुझसे चिपट जाती। उसे मजाक करना भी आ गया था, 
					मेरी पकड़ से छिटक छिटक जाती और खूब हँसती। पर उसका भोलापन 
					कहीं नहीं गया। उसे मैं जब और जहाँ बुलाता वह बिना हिचक आ 
					जाती। उसकी खुशी का अंत नहीं था और वह कहती कि मेरे यहाँ 
					छोड़कर उसकी कहीं तबीयत नहीं लगती। खास तरह से उस समय उसकी 
					हालते देखने लायक होती, जब में कुछ दिनों के लिये बाहर चला 
					जाता और वापस लौटता। मुझे देखते ही वह बहुत उत्तेजित हो जाती 
					और सिसक सिसक कर रोने लगती। कभी मेरी तबीयत ढीली होती तो वह 
					बहुत चिंतिच और परेशान हो जाती...सच कहता हूँ, वह मेरे पीछे 
					पागल हो गई थी, उसे किसी बात का गम नहीं था, जान देने के लिये 
					भी कहता, तो वह खुशी खुशी दे देती। उसे क्या हो गया था? मैंने 
					सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी होगा...लेकिन जाते हो,
					सीधी गाय ही खेत चरती 
					है...और इस तरह पूरे तीन वर्ष बीत गए।“
 
 “माया का चक्कर था!” बहुत देर हृदय नारायण अपने को जब्त किये 
					हुये थे, मौका पाकर उन्होंने अपनी सम्मति प्रकट कर दी।
 
 “मामूली चक्कर था? मुझे घर गृहस्थी, बाल बच्चों, किसी की कुछ 
					परवाह नहीं थी। जानता था, गाँव वाले खुसुर पुसुर करते, पर 
					मुझसे सभी काँपते, मेरी प्रजा जो थे। रुपये के बल से भुलई का 
					मुँह बंद था। फिर अँजोरिया किसी की नहीं सुनती। उसकी शादी हो 
					गई थी, उसका पति अभी बच्चा ही था और एक बाद ससुराल जाकर दो ही 
					दिन में वह भाग आई थी। उसका यौवन गदरा गया था। ...ये तीन वर्ष 
					नशे में बीत गए थे... और एक दिन उसने क्या कहा जानते हो?”
 
 प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्होंने हृदय नारायण की ओर देखा और 
					बोले, “बरसात की काली अँधेरी रात थी। वह आई। बहुत दुखी और उदास 
					दिखाई दे रही थी। मैंने कारण पूछा। उसने मिन्नत भरे स्वर में 
					कहा, मुझे लेकर कहीं भाग चलो!” उसकी लंबी, काली आँखें मेरी 
					आँखों में खो गईं थीं।
 “क्या बात है?” मैंने पूछा।
 
 “नहीं, मैं यहाँ नहीं रहूँगी।“ उसने मचलते हुए से कहा, “लोग न 
					मालूम कैसी-कैसी बातें कहते हैं। ...कोई ठीक से नहीं 
					बोलता...मुझे काशी ले चलो, वहाँ कोई मकान ले लेना, मैं उसी में 
					रहा करूँगी।“
 
 “उसने गाँव के बालकृष्ण मिश्र का उदाहरण दिया, जिन्होंने अपनी 
					प्रेमिका के लिये बनारस में एक मकान खरीद दिया था और खुद अक्सर 
					वहीं रहते थे। उसकी बात से मैं चौंका और घबरा गया। मैंने उसे 
					समझाने की कोशिश की कि जब तक मैं जिंदा हूँ उसको डरने की जरूरत 
					नहीं, उसका कोई बाल बाँका नहीं कर सकता, वह लोगों के नाम बताए, 
					मैं उनकी खाल खिंचवा लूँगा। पर वह कुछ बोली नहीं और रोने 
					लगी।...कुछ दिनों बाद उसे कहा, मुझे रखैल रख लो, मैं कहीं नहीं 
					जाऊँगी, तुमको छोड़कर मुझे कुछ अचछा नहीं लगेगा।“...मैं बहुत 
					हैरत में था। आखिर वह कया चाहती थी? तीन वर्ष तक उसने की ऐसा 
					सवाल नहीं उठाया, अब कौन सी ऐसी बात हो गई थी?
 
 जब वह चली गई, तो मैं देर तक सोचता रहा। अब देखिये, अचानक 
					मुझ में क्या परिवर्तन होता है!...भैया, ऐसा लगा कि मेरे दिमाग 
					में एक रोशनी जल उठी है। सब कुछ साफ होता गया। मेरे अंदर कोई 
					कह रहा था, नवल किशोर, तुम आज तक शैतान के चक्कर में रहे, वही 
					शैतान तुम्हारी इज्जत, जमीन जायदाद, बाल बच्चे सभी कुछ छीनकर 
					तुम्हें बरबाद करना चाहता है।...और बात सच थी। तुम्ही बताओ, 
					हृदय नारायण, एक फाहशा औरत में ऐसी ईमानदारी और लगाव का कारण 
					क्या हो सकता है? अपने रूप के जादू से मुझे वश में किया, फिर 
					अपना प्यार जताकर मुझे उल्लू बनाती रही...माया का असली रुप 
					यहीं देख सकते हो... तो मैं ज्यों ज्यों सोचता गया मुझमें उस 
					औरत के लिये नफरत सी भरती 
					गई। मैं देर तक पश्चात्ताप की आग में जलता रहा और रोता रहा...”
 
 “यही भगवान है!” हृदय नारायण का मुख उत्तेजा से चमक रहा था।
 “और किसको भगवान कहा जाता है,” राय साहब छूटते ही बोले, “तुमने 
					देखा, मेरे जैसा नीच कोई नहीं होगा, पर उनकी कृपा से सारी 
					नीचता छूमंतर कर के भाग गई। अब मेरा हृदय एकदम पवित्र था। मैं 
					चाहता था कि उस लड़की से किसी तरह छुटाकारा मिले। पर उसके 
					सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती ती। और एक रोज, भैया, 
					मैंने सोचा कि अभी तक मुझ पर शैतान की असर है। जब तक मैं यहाँ 
					से टलता नही वह खत्म नहीं होने का।...तुम समझ रहे हो न? सब 
					भगवान सोचवा रहा था... अब देखिये कि मैं एक रोज वहाँ से चुपके 
					से घर के लिये रवाना हो जाता हूँ! …फिर मैं वहाँ कभी नहीं गया। 
					अपने भाई और लड़कों को भेजता रहा,” कुछ देर तक वे चुप रहे जैसे 
					कोई मंजिल तय कर ली हो। फिर गहरी साँस छोड़कर बोले, “तब से 
					मेरा जीवन ही बदल गया। ...अब सारा जीवन सरकार के चरणों में 
					अर्पित है। मैं अच्छी तरह समझ गया कि सब उन्हीं की लीला थी। 
					वह चाहते थे कि मैं शैतान के चक्कर में फसूँ जिससे मेरी आँखें 
					खुलें। अब मैं सवेरे नहा धोकर चौकी पर पूजा करने बैठ जाता हूँ 
					तो घंटों सुध-बुध नहीं रहती। शाम को भी ऐसा ही चलता 
					है। चौबीसों घंटे मन उन्हीं में रमा रहता है।”
 
 उनकी आँखें चमक रही थीं, “और तब से उसकी बड़ी कृपा रही। जानते 
					हो, जब मैं बिहार से भाग आया, उसके कुछ ही दिनों बाद जमीदारी 
					टूटी थी। मैंने दौड़-धूप की, रुपए खर्च किये और किसी तरह करीब 
					पचहत्तर बीघे जमीन खुदकाश्त करवा ली। बताओ अगर उसकी दया न 
					होती, तो सारी जमीन चली न जाती? कहाँ तक गिनाऊँ? छोटा लड़का 
					आवारा निकला जा रहा था, मैंने मिल-मिलाकर दो-तीन ठेके दिलवा 
					दिये...अब हजारों में पीटता है। बड़ा लड़का बनारस कमिश्नरी में 
					वकील है। गाँव में आटा चक्की और चीनी का कारखाना खुल गया है। 
					पिछले साल से पंचायत का सभापति भी हो गया हूँ... सच पूछो तो 
					रोब दाब में कमी नहीं आई है। और यह किसकी बदौलत? सब सरकार की 
					कृपा का फल है।“ वे कुछ उदास से हो गए, “तुम्हारी दुआ से मुझे 
					किसी बात की कमी नहीं, जमीन जायदाद, बाग बगीचे, इज्जत आबरू, बल 
					बच्चे सबकुछ है...पर सच कहता हूँ मुझे किसी से कोई मतलब नहीं। 
					भैया, इस जीवन में कोई सार नहीं...”
 
 वे सहसा चुप हो गए और उनकी दृष्टि शून्य में खो गई।
 अँधेरे में 
					पलाश के फूल बिहँस रहे थे।
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