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तभी अनुपम स्कूल के लिए तैयार हो कर आ गया। उसने उसको छाती से चिपटा कर चूम लिया, “बेटा, देखो, तुम कभी गुस्सा मत करना। चाहे तुम्हें कोई कुछ भी कहे, चाहे कितना भी चिढ़ाए, पर तुम बस मुस्करा देना समझे, बेटा?“
अनुपम मुस्करा दिया,“क्यों, माँ, मैं क्या कभी गुस्सा करता हूँ?”
“नहीं, घर में तो गुस्सा नहीं करते, पर बेटा, वहॉं स्कूल में बहुत सारे लड़के होंगे, अच्छे भी, बुरे भी, जो बात-बात पर झगड़ा करते हैं, बिना बात छेड़ते हैं, चिढ़ाते हैं, परेशान करते हैं, तो, बेटा, तुम झगड़ा न करना, चिढ़ना नहीं, रोना भी नहीं।“

“नही, माँ, तू क्यों परेशान होती है? मैं रोऊंगा भी नहीं, चिढ़ूँगा भी नहीं और गुस्सा भी नहीं करुँगा। चाहे कोई कुछ भी कहे,” अनुपम ने बड़े प्यार से माँ की गोदी में बैठ कर कहा।

अनुपम बड़ा सुंदर प्यारा बच्चा है। इस समय उसकी आयु लगभग दस वर्ष की है और आज वह पहली बार ही स्कूल जा रहा है। अभी तक वह मास्टरजी से घर पर ही पढ़ता रहा है। पढ़ने में वह बड़ा तेज है और उसके मास्टर उसकी बुद्धि की सदा तारीफ करते हैं। उन्हीं के जोर देने और समझाने पर उसे आज स्कूल भेजा जा रहा है। उसकी माँ मीना तो उसे भेजने को तैयार ही न होती थी। उसको अनुपम के स्कूल भेजने की कल्पना से ही डर लगता था। पर अब कब तक उसे घर पर रोका जा सकता था। कब तक वह घर पर पढ़ सकता था। बाहर के बच्चों के साथ मिलेगा नहीं तो उसका पूरा जीवन पार नहीं लग सकता।

और इस संशय या भय के पीछे एक कारण था कि अनुपम के बायां हाथ तो कोहनी से ऊपर था ही नहीं और दाहिना हाथ था तो, पर कुछ टेढ़ा था। इस टेढ़े हाथ से लिखने में आरंभ में उसे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी, पर अब वह बिल्कुल आसानी से जल्दी-जल्दी लिख लेता था।

और इसी लिए मीना डरती थी कि सब लड़के उसके बच्चे को चिढ़ाएंगे, नकले उतारेंगे और संभव है मारें भी। पर वह बेचारा न तो मारपीट कर सकता है, न अपने अपमान का बदला ले सकता है। बस सिवाय रोने और दुखी होने के उसके पास कोई चारा नहीं रहेंगा। जब अनुपम का जन्म हुआ था, मीना उसे देखकर बहुत रोई थी। उसके पति अशोक भी बहुत दुखी थे। पर उनकी माँ ने दोनों को समझाया था। रोती क्यों हो बहू! देखो बच्चा कितना प्यारा है। यह तो दुनियां में नाम करेगा। इसे भगवान का वरदान समझो.... यह अनुपम है अनुपम। और उसका नाम अनुपम उन्हीं ने रखा था।
अनुपम अपने पापा के साथ स्कूल गया। स्कूल बाहर से ही बड़ा सुंदर लग रहा था, अनुपम को बड़ा अच्छा लगा। बहुत सारे लड़के एक जैसी ड्रेस में इधर-उधर खेल रहे थे। उसको आश्चर्य हो रहा था कि इतनी अच्छी जगह, जहॉं इतने सारे साथी हों, माँ उसे क्यों नहीं भेजना चाहती थी।

अनुपम के हेड मास्टर ने उसकी एक छोटी-सी परीक्षा लिखने और पढ़ने की ली और प्रसन्न हो कर उसका दाखला छठे दर्जे में कर लिया। फिर चपरासी से उसे उसके दर्जे में पहुंचवा दिया। अनुपम के पापा घर चले गए।

जब वह नई कक्षा में पहुँचा, तो सारे लड़के खूब शोर कर रहे थे और इधर से उधर डेस्कों और बेंचों पर कूद रहे थे। एक-दो लड़के बोर्ड पर टेढ़ी-मेढ़ी तस्वीरें बनाने में व्यस्त थे। एक महाशय मास्टर साहब की मेज पर बैठे जोर-जोर से कुछ चीख रहे थे। ऐसा लगता था जैसे ढेर सारे बंदर किसी जंगल से ला कर कक्षा में छोड़ दिए गए हों।
अनुपम को दरवाजे पर खड़ा देख कर पहले तो सारे लड़के एक दम चुप हो गए, फिर एकाएक खिल-खिला कर हँस पड़े। एक बड़ा शैतान-सा लड़का उसके पास आया और बड़ी अदा से उसका हाथ पकड़ कर बोला, “ओह! आपका यह हाथ तो बड़ा सुंदर है! कहिए, किस अजायब घर से छूट कर चले आ रहे हैं!”

अनुपम हक्का-बक्का रह गया। ऐसी बातें उसने कभी नहीं सुनी थीं। वह आँखें फाड़े कभी एक को देखता, कभी दूसरे को। अब तक लड़के उसे चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए थे।

इतने में पीछे से एक लड़का चिल्लाया- “अरे, यह तो दुष्मनों की कैद से छूट कर आ रहे हैं शायद!”
“हॉं! हॉं! अपने हाथ वहीं बांट आए हैं!” एक और चिल्लाया और सारे लड़के खिलखिला कर हँसने लगे। क्रोध और अपमान से अनुपम का मुँह लाल पड़ गया। उसे लगने लगा कि या तो वह लड़कों को पीट देगा या फिर चीख कर रो पड़ेगा। पर उसे अपनी मां की बातें याद आने लगीं- ‘बेटा, रोना नहीं। बेटा, चिढ़ना नहीं। बेटा, गुस्सा मत होना.....” और वह जबरदस्ती अपना रोना रोक कर एक लड़के की तरफ देख कर मुस्करा दिया। उस लड़के को बेचारे अनुपम के ऊपर बड़ी दया आई। और भी एक दो सीधे-सादे लड़कों को अनुपम को छेड़ना बड़ा बुरा लग रहा था। पर पीछे से एक शैतान लड़ने ने नारा लगाया- लू.... और दूसरे ने .....ला कह कर पूरा कर दिया। और अब वे शैतान लड़के ‘लूला...लूला....’ कह कर ताली बजा-बजा कर गा रहे थे। और अनुपम को लग रहा था कि उसकी आँखों के सामने सारी कक्षा गोल-गोल घूम रही है। बड़ी कठिनाई से वह अपने को रोके हुए था। अब उसकी समझ में आ रहा था कि उसकी माँ उसे स्कूल भेजने में क्यों परेशान थी।

तभी कक्षा में मास्टर साहब ने प्रवेश किया और सब लड़के चुपचाप अपनी-अपनी जगहों पर जा बैठे।
एक निगाह पूरी कक्षा पर फेंक कर मास्टर साहब ने रजिस्टर खोल कर हाजिरी ली और फिर रजिस्टर बंद करके उन्होंने कक्षा में नए लड़कों को खड़े होने की आज्ञा दी। तीन नए लड़कों के साथ अनुपम भी उठ कर खड़ा हो गया। मास्टर साहब का ध्यान सबसे पहले अनुपम की ही ओर गया। पर उन्होंने बारी-बारी से चारों नए लड़कों के नाम पूछे। फिर पहले उन तीनों लड़कों को और अन्त में अनुपम को उन्होंने अपने पास बुलाया और प्यार से उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, “बेटा, इससे पहले तुम किस स्कूल में पढ़े हो?”
“किसीमें भी नहीं। मैंने घर पर ही मास्टर जी से पढ़ा है,” मुस्करा कर अनुपम ने उत्तर दिया।
“बहुत अच्छे, बहुत अच्छे! तो, बेटा, तुम लिख-पढ़ तो खूब लेते होगे?”
“जी, लिख भी सकता हूँ, और पढ़ भी सकता हूँ।“
“बहुत अच्छे ....... तो हेड मास्टर साहब ने तुम्हारी परीक्षा ली या नहीं?”
“जी, उन्होंने थोड़ी-सी हिंदी पढ़वाई थी, थोड़ी अंग्रेजी और एक सवाल करवाया था।“
“अच्छा तो, तुम हमें भी कुछ लिख कर दिखाओ न,” कह कर उन्होंने फिर उसकी पीठ थपथपाई।
“जी, क्या लिखूँ?” अनुपम फिर मुस्करा दिया।
“क्या लिखूँ....?... अच्छा तुम्हारा नाम क्या है?”
“जी, अनुपम।“
“अनुपम! बहुत अच्छे..... तो तुम हमें अपना नाम ही लिख कर दिखाओ,” और उन्होंने मेज पर से चॉक उठा कर अनुपम के हाथ में पकड़ा दिया।
उसने सोचा भी न था कि मास्टर जी उसे इतने बड़े बोर्ड के सामने लिखने को खड़ा कर देंगे। वह मन ही मन घबराता-सा आगे बढ़ा और श्याम-पट पर बड़ा-सा ‘अनुपम’ लिख दिया।

और अब के मास्टर जी के कुछ बोलने से पहले ही एक लड़का पीछे से चिल्लाया “बहुत अच्छे! बहुत अच्छे!” और सारी कक्षा के लड़के खिलखिला कर हँस पड़े। मास्टर साहब ने घूर कर जिधर से आवाज आई थी, उधर देखा और अपना डंडा जोर से मेज पर पटक दिया। लड़के तो शांत हो गए, पर अनुपम बेहद घबड़ा गया। उसकी आँखों में आँसू भर आए।

अनुपम का उतरा हुआ चेहरा देख कर मास्टर साहब को बड़ी दया आई। उन्होंने उसकी पीठ पर हाथ फेर कर प्यार से कहा, “लिखते तो तुम बड़ा सुंदर हो, पर तुमने पूरा नाम तो लिखा ही नहीं।“

“पूरा नाम? जी, पूरा नाम क्या होता है?” अनुपम ने घबड़ा कर पूछा।
“ पूरा नाम जो सरनेम जोड़ने से बनता, और सरनेम वह जो तुम्हारे परिवार का नाम हो, जिससे बाहर वाले तुम्हें पुकारते हों।“
“जी!” अनुपम ने एक क्षण कुछ सोचा और ‘अनुपम’ के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में ‘लूला’ लिख दिया।
क्षण भर को सब सन्न्। तब मास्टर साहब ने कहा “लूला..... लूला तो तुम्हारा सरनेम नहीं है बेटा!"
“जी, सरनेम ही है, इसी नाम से सब पुकारते हैं!”
“अच्छा तुम्हारे पिताजी का पूरा नाम क्या है?”
“जी, अशोक वर्मा।“
“अशोक वर्मा!.... वही वर्मा लिखो न, तुम्हारा पूरा नाम हुआ अनुपम वर्मा।“

न जाने कैसे एक क्षण में अनुपम का गुस्सा, रोना, दुख सब हवा में उड़ गया। वह तन कर खड़ा हो गया और मुस्करा कर बोला, “नहीं, मास्टर जी, नहीं, मेरा पूरा नाम तो यही है- “अनुपम लूला” एक नाम ‘अनुपम’ माँ-पापा का दिया हुआ है और एक सरनेम ‘लूला’ भगवान का दिया हुआ। है न मास्टरजी?” कहते हुए उसने अपनी कोहनी से कटा हुआ हाथ ऊपर उठा दिया और मुस्करा दिया। अब उसकी आँखों की कोरें भींग चली थीं और सारी कक्षा के लड़के चुपचाप सिर झुकाए हुए जड़ बने बैठे थे।

तभी अनुपम के पिताजी अशोक वर्मा चपरासी के साथ दरवाजे पर आ कर खड़े हो गए। घर पर मीना ने उन्हें बड़ा परेशान किया था कि “एक बार स्कूल जा कर देख आओ न, लड़के अनुपम को परेशान तो नहीं कर रहे।“
उन्हें देख कर अनुपम मुस्कराने लगा, “पापा!”

सब लड़कों के साथ मास्टरजी ने भी उधर देखा और लपक कर अशोक बाबू के पास पहुँच कर बोले, “आप ही का बेटा है अनुपम? हीरा है, साहब, हीरा! बिल्कुल अनुपम! साहब बड़े भाग्यवान हैं आप!” कहते-कहते उनकी आँखें भर आईं।

दरवाजे पर खड़े अशोक वर्मा ने बोर्ड पर बड़ा-बड़ा अनुपम लूला लिखा देख लिया था। वे घर लौट आये और पत्नी से कहा, “मीना अनुपम की चिंता करना छोड़ दो” उसने मुश्किलों से जूझना सीख लिया है।
और अपनी माँ से कहा-“अम्मा, तुम्हारा बच्चा सचमुच अनुपम है।“ 

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१४ नवंबर २०११

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