'कुछ आदतें जाते-जाते ही जाती हैं। लेकिन कुछ तो जाती ही
नहीं।'
'ऐसी और कौन-सी आदतें हैं जो पहले भी थीं अब भी हैं।'
'अभी भी रात को देर तक जागता हूँ। कभी-कभी तो दो भी बज जाते
हैं।'
'अब भी?' बिन्दु को आश्चर्य हुआ था।
'हाँ, पत्रकार हूँ न। अखबार की नौकरी में तो यह सब चलता ही है।
अकसर रात की ही ड्यूटी रहती है।'
'मैं समझी थी कि ..'
'क्या समझी थी?'
'कुछ नहीं।'
'यह आदत तुम्हारी पहले भी थी। बात शुरू करके बीच में ही छोड़
देने की।'
'मुझे अच्छा लगता है इसमें।'
'ऐसा अच्छा तो तुम्हें पहले भी लगता था।'
'अभी भी इतनी रात तक जागते हो, उल्लू की तरह।'
और वह खिलखिला पड़ी थी। उसकी आँखों के कोर से आँसुओं की बूँदें
छलछला आईं थीं। मैं यह अनुमान नहीं लगा पाया कि ये आँसू खूशी
के हैं या ... मैं चाह रहा था कि आज बिन्दु से थोड़े समय में
उसके इन तीस सालों का खुलासा पूछ लूँ। लेकिन वह एक के बाद एक
प्रश्न किये जा रही थी। जब मैंने उससे पूछा कि घर में और
कौन-कौन हैं। इस पर वह उठ खड़ी हुई। मेरा हाथ पकड़ कर कहने लगी
- आफिस में ज्यादा देर बैठना ठीक नहीं। चलते हैं। मैं भी
यंत्रवत उसके साथ-साथ चलने लगा। चलते-चलते उसने ढेर सारी अपनी
बातें कह डाली थीं। मुझे उसके साथ चलते हुए ऐसा लग रहा था मानो
मैं थकने लगा हूँ। मुझे अपने पैर बोझिल लगने लगे थे। एक-एक कदम
उठाते हुए मुझे बहुत कष्ट हो रहा था। कालेज के दिनों में जब
हम दोनों इसी प्रकार निकलते तो मैं आहिस्ता ही चलता था।
बिन्दु की तेज चलने की वो आदत आज भी वैसी ही थी। तब भी वह
मुझसे पूछती कि तेज क्यों नहीं चलते। मैं कह देता कि
तुम्हारा साथ अच्छा लगता है। मैं नहीं चाहता कि रास्ता
जल्दी कट जाए। फिर वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे घसीटती हुई चलती
थी। कभी-कभी अपने पस में से मूँगफली निकाल कर उन्हें छील कर
दाने अपनी हथेली पर रखकर कहती थी कि उठाओ। मैं अगर आहिस्ता से
उठाता तो अपनी मुट्ठी में मेरी दो उँगलियां कैद कर लेती और
मानो एक कविता ही कह डालती -
'अगर तुम्हें कोई अच्छा लगता है तो क्या उसे छूने का मन
नहीं करता?'
मैं उसकी बातों का उत्तर कम ही दे पाता था। यह बात नहीं कि
मैं उत्तर देना नहीं जानता था। समस्या यह होती थी कि प्रश्न
पूछने के बाद वह इतना समय ही नहीं देती थी कि उत्तर दे पाऊँ।
वह तुरंत उत्तर भी स्वयं ही दे डालती थी या फिर दूसरा
प्रश्न उछाल देती थी। मेरे मन में सैकड़ों प्रश्न कुलबुला
रहे थे। लेकिन वह बारी की प्रतीक्षा में थे। आज भी उसने जब
मेरा हाथ पकड़ा, तो मुझे अच्छा लगा। लेकिन न जाने क्यों
मैंने अपना हाथ पीछे खींच लिया था।
शायद इस बात पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया और कहने लगी -
'तुम्हारे हाथ अभी भी गुनगुने रहते हैं।'
मैं नहीं चाहता था कि आज कोई भी प्रश्न निरुत्तर रहे। इसलिए
इससे पहले कि वह अन्य कोई प्रश्न करे या उत्तर दे मैं बोल
पड़ा था। मैंने उसी का बरसों पुराना उत्तर दे डाला था- 'विश्वास करने वाले हर व्यक्ति के हाथ गर्म होते हैं।'
मेरी बात खत्म होते ही उसने पूछ लिया।
'मेरे हाथ कैसे लगे?'
मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि वो यह प्रश्न भी पूछ सकेगी। यह
जरूरी नहीं कि इंसान की उम्र बढ़ने के साथ उसकी सोच भी बदल
जाए। मैं तो यह महसूस ही नहीं कर सका था कि उसके हाथ कैसे हैं।
उससे कहता भी कैसे कि पता ही नहीं चला कि उसके हाथ गर्म या
ठंडे। इस बार भी मैं निरुत्तर हो गया था और मात्र मुस्करा
दिया। वह कहाँ चूकने वाली थी। 'तुम्हारी आदतें अब भी वैसी ही
हैं। हर बात का जवाब नहीं देते। अच्छा बताओ इन तीस सालों में
मुझे कभी याद किया?'
'तुम्हारा साथ जिया एक-एक लम्हा मैंने संजोकर रखा हुआ है।
तुम्हारे खत अभी भी मेरी किताबों में महक रहे हैं।'
'खत?' सुनकर उसका चेहरा लाल हो गया। मुझे लगा कि अब उसका
जिस्म ज़रूर तपने लगा होगा। मैं उसके चेहरे के बदलते भावों को
देखने लगा। अब वह आहिस्ता चलने लगी थी। मैंने उसका हाथ पकड़
कर तेज चलने को कहा। मुझे लगा कि उसके हाथ वाकई तप रहे थे। अब
हम दोनों साथ-साथ चल रहे थे। मैं कुछ अधिक हाँफ रहा था। वह कई
बार पूछ चुकी थी कि हम कहाँ चल रहे हैं। मैंने इसका कोई उत्तर
नहीं दिया। वह यह तो सोच रही होगी कि मैं उसकी किसी भी बात का
उत्तर जल्दी नहीं देता हूँ। इस बार भी चुप रहा। यह बात नहीं
कि मैं तय नहीं कर पाया था कि कहाँ जाना है। मैंने उससे कह ही
दिया कि घर चलेंगे।
'किसके?'
'किसी के भी। तुम्हारे भी चल सकते हैं। जिसका घर नज़दीक होगा,
उसी के यहाँ चलेंगे? तुम आई कैसे हो?'
'गाड़ी है मेरे पास। ए ब्लाक में एक मैकेनिक के पास दी थी
सुबह। आओ इकट्ठे चलते हैं।'
'गाड़ी तो मैंने भी ए ब्लाक पार्किंग में खड़ी की हुई है। ऐसा
नहीं हो सकता कि हममे से एक अपनी गाड़ी यहीं छोड़ जाए।'
'होने को तो कुछ भी हो सकता है। परंतु मैं अपनी गाड़ी नहीं
छोड़ पाऊँगी। वैसे भी तुम शहर में ज्यादा पुराने नहीं हो।
मुझे रास्ते ज्यादा मालूम हैं। तुम अपनी गाड़ी निकालो, मैं
यहीं आकर मिलती हूँ। मेरी गाड़ी के पीछे-पीछे चलना। बहुत दूर
नहीं है मेरा घर।'
इस बार भी उसकी बात को काट नहीं सका था, हर बार की तरह।
उसकी कार के पीछे-पीछे चलने से मुझे कई फायदे हुए। शहर भी घूम
लिया और कार से बाहर सिर निकाल कर जगह-जगह रास्ता नहीं पूछना
पड़ा। आधा घंटा बाद हम एक बड़ी-सी हवेली के बाहर थे। एक
नेमप्लेट पर हर्ष कुमार लिखा था। उसने पर्स में से चाबी
निकाली और दरवाजा खोलकर भीतर चली गई। मैं भी उसके पीछे चल रहा
था। एक बड़े से ड्राइंग रूम में जाकर वह एक बड़े सोफे पर पसर
गई। मुझे भी इशारे से सामने ही बैठने को कहा। हम दोनों
आमने-सामने बैठे थे। थोड़ी देर में वह उठी और फ्रिज से पानी की
एक बोतल निकाल लाई।
मैंने उसे गिलास लाने को कहा। वह अंदर जाने लगी। साथ ही यह भी
कहती गई कि बस यह आदत बदल गई है तुम्हारी। पहले तो फ्रिज से
बोतल निकाल कर बोतल से ही पानी पी लेते थे।
'हाँ, अब उतना ठंडा पानी भी कहाँ पिया जाता है?'
'सो तो है।'
'घर में कोई नहीं है?'
'नहीं।'
'सच'
'हाँ, उनको गुजरे दो साल हो गये हैं। मैं यहीं बीमा कंपनी में
मैनेजर हूँ। अब आफिस जाने को मन नहीं करता। किसके लिए जाऊँ?
उनकी भी पेंशन मुझे ही मिलती है।'
'दीवार पर ये जो तस्वीर टंगी है।'
'हाँ हर्ष की है, हार्ट फेल हो गया था इन्हें कलकत्ता रेलवे
स्टेशन पर।'
मैंने देखा कि आज भी बिन्दु के चेहरे पर वही गंभीरता थी जो
पहले भी विकट परिस्थितियों में दिखाई देती थी। मैं इतना ही कह
पाया -
'बहुत बुरा हुआ।'
'अच्छा-बुरा तो व्यक्ति के दृष्टिकोण में होता है। तुम्हें
बुरा लगा यह जानकार मुझे संतोष हुआ।'
'अकेली रहती हो इतने बड़े मकान में?'
'हाँ, उन्होंने बड़े शौक से बनवाया था यह। जिस महीने उनकी
मृत्यु हुई उसी महीने इसके लोन की किस्तें भी पूरी हुई थीं।
मानो इसे चुकता करने के लिए ही वह जिंदा थे। जिस रात कलकत्ता
गये थे, कह रहे थे लौट आऊँ फिर मनाएंगे जश्न घर में। कहते हैं
कि रिटायर होने से पहले ही जिनके मकान की पूरी किस्तें हो
जाती हैं, वे बड़े भाग्यशाली हैं। वे चले गये या फिर मैं जो
अकेली रह गई?'
'बच्चे वगैरह ...' मैंने सकुचाकर पूछा।
'तीनों अपनी-अपनी जिंदगी जी रहे हैं। बड़ी लड़की की शादी
दिल्ली कर दी थी। दोनों बेटे इंजीनियर हैं। एक कलकत्ता में
तो दूसरा मुम्बई में। कलकत्ता वाले के बेटे का जन्मदिन
मनाने ही तो गये थे।'
'मेरी मानो तो तुम भी रिटायरमेंट लेकर किसी बेटे के पास चली
जाओ।'
'सलाह तुम अब भी पहले की ही तरह देते हो।' |