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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से मनमोहन  गुप्ता मोनी की कहानी— जहाँ से चले थे


मुझे आज भी वो वैसी ही लगी थी। तीस वर्ष पूर्व की बिन्‍दु और आज की बिन्‍दु में कोई विशेष अंतर नहीं था। कनपटियों के पीछे के बालों और पहरावे पर गौर न करें तो कोई कह ही नहीं सकता था कि बिन्‍दु पचपन के आसपास होगी। जिसे बचपन में चाहा और जिंदगी के इस पड़ाव में आकर उससे भेंट हो जाए, तो समय लौट सा आता है। मन उसी प्रकार उछलने लगता है जैसा कभी बचपन में होता था। लेकिन ओढ़ी हुई मर्यादा किसी ओज़ोन की परत सी फैल जाती है। बिन्‍दु पहले तो मुझे देखती रही। शायद इस इंतजार में थी कि चुप्‍पी तोड़ूँ परंतु मैं बात का सिरा ढ़ूँढने में ही लगा था कि वह बोल पड़ी -

'इत्‍ते दिन बाद दिखाई दिए?'
मेरे पास इसका कोई उत्‍तर नहीं था। अगर वो यह न पूछती तो शायद मैं भी उससे यही सवाल पूछता। लेकिन उसने पहल कर डाली थी। सो, उत्‍तर भी मुझे ही देना था। मैं उससे बस यह कह पाया -

'तुम्‍हारा कुछ अता-पता होता, तो न?'

अब उसके पास इसका कोई उत्‍तर नहीं था। उसने मेरी उँगलियों को देखा। मेरा हाथ पलटा और कहने लगी - 'राहुल, नाखून अभी भी चबाते हो।'

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