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मनोरमा, हमें बच्चों के स्वाभाविक विकास की प्रतीक्षा करनी चाहिये। किसी कवि ने ठीक ही तो कहा है- समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचौ नीर।"

कुछेक शब्दों और मिसालों में हेरफेर करके ऐसे पारिवारिक मुद्दों पर मदन ऐसा ही छोटा मोटा भाषण करता आया है और उसके इन भाषणों ने मनोरमा को कभी आश्वस्त नहीं किया है। मगर ऐसी स्थिति आते ही वह कुछ इस प्रकार खामोश हो जाती रही है कि जैसे उसका भय दूर हो गया, उसके भीतर की असुरक्षा की भावना जैसे सो गई। बातचीत का विषय बदल देने में मदन की ओर से झट पहल होती है और मनोरमा को कोई ऐतराज नहीं होता। पर, यह ऐतराज न करने वाली मनोरमा बाहर की मनोरमा होती है, भीतर की मनोरमा नहीं और गृहस्थी की गाड़ी खिंचती चली जाती है।

मदन के दोनो बच्चे चुन्नू और मुन्नू ठेले वालों, खोमचे वालों के पीछे रोज दौड़ते हैं, रिक्शों के पीछे प्रायः रोज लटकते हैं, इमली के पेड़ के नीचे मसजिद के सामने वाली परचून की दुकान में एक रोज का इंटरवल देखर दुकानदार से उधार टाफियाँ माँगने जाते और वह अकेली आँख वाला दुकानदार उकी खाली मुट्ठियों को देख स्वगत स्वर में घृणासूचक शब्दों का गद्य-पाठ करता है। दमा से ग्रस्त वह बुढ़िया भी जो सब्जीमंडी की ओर जाने वाली गली के मुहाने पर थोड़े से सड़े गले फल लेकर बैठती है, इन दोनो लड़कों की चालाकी का शिकार हो जाया करती है। चुन्नू महाशय बीसियों बार उसकी पुरानी टोकरी का वजन कम कर चुके हैं और मुन्नू महाशय तो वैसे देखने में सीधे सच्चे लगते हैं मगर उस पर नजर पढ़ते ही पाँव के एक्जिमें से परेशान डाक्टर साहब की गैरेज की बगल में गरम गरम पकौड़ियों की दूकान लगाने वाले अधेड़ बरसाती, अपने बेटे को अँगीठी हवा देने से रोककर उसकी ड्यूटी लगाता है कि मुन्नू पर नजर रखे और खुद
खोमचे के एक कोने में रखी तेल की बासी जलेबियों को आँखों से गिनने लगता है।

बस यों ही दिन गुजर रहे थे कि एक रोज रात के लगभग नौ बजे मदन घर लौटा। मगर यह रात के नौ बजे लौटना यहाँ कोई अहमियत नहीं रखता क्यों कि यह सिलसिला ईदे-बकरीदे ही टूटता है। अपने तथाकथित दफ्तर से छूटकर मदन ट्यूशन करता है और तब घर लौटता है। आज रात मनोरमा ने मुन्नू की मरम्मत की थी। वह डेढ़ रोटियाँ खाकर सो गया था और चुन्नू महोदय को माँ ने जोर जबरदस्ती से चारपाई पर लालटेन रखकर पढ़ने बैठा दिया था, सो आज उसे नींद और सर्दी दोनो ने एक साथ धर दबोचा था। पौने दो साल की नन्हीं गुड़िया फटी हुई मच्छरदानी के भीतर अधजगी-सी हाथ पाँव पटकती हुई मच्छरों की शोषण नीति का विरोध कर रही थी। इसलिये ज्यों ही मदन कमरे में आकर खड़ा हुआ मनोरमा उसके सामने आकर खड़ी हो गई और उसके पुराने सूती कोट उतारने में मदद देने लगी। मदन का चेहरा वैसे उतरा हुआ था, लेकिन उसने बड़ी जल्दी में मनोरमा से कहा,
"तीस रुपये वाला ट्यूशन आज छूट गया। मगर छोड़ो भी, इससे क्या होता है। छूटने को सरकारी नौकरी तक छूट जाती
है, यह तो प्राइवेट ट्यूश का धंधा ठहरा।"

कोट को खूँटी से लटकाती हुई मनोरमा बोली, "लेकिन यह क्यों नहीं सोचते कि तीस रुपये की बँधी आमदनी तो थी।"

"मगर सुनो तो सही..." मदन कुछ कहने वाला था, जैसे एक छोटा सा भाषण करने वाला हो। मनोरमा जैसे जल्दी में हो
गई। लालटेन के उठाने से कोट की काली परछाईँ हिल काँप गई।

मनोरमा ने लालटेन उठा ली और कहा, "दो चार मिनट के लिये ढिबरी क्यों जलाऊँ चाँदनी रात है तुम चबूतरे पर जाकर हाथ पाँव धो डालो। मैं खाना निकाल आती हूँ," और कमरे से बाहर होते होते वह बुदबुदाई- इनके किये कुछ होने का नहीं। तीस रुपये का जो एक सहारा था वह भी छोड़ आए।

मदन ने मनोरमा के स्वगत से निसृत ये शब्द सुन लिये थे मगर वह खड़ाऊँ पहनकर चुपचाप चबूतरे की ओर बढ़ गया। चाँदनी फैल रही थी और चबूतरे के पास बाल्टी में रखा हुआ पानी अपने भीतर चाँद के उतर आने के कारण बड़ा ही
सुहाना लग रहा था। ऊपर से उसमें लोटा डालकर मदन ने सप्तमी के धवल चंद्र बिंब को चंचल कर दिया।

मनोरमा ने जब पति के आगे भेजन का थाल रखा तो उसकी इच्छा यह जानने की हुई कि यह तीस रुपये वाला ट्यूशन कैसे हाथ से निकल गया और वह, जो उसी के भरोसे फेरी करके हैंडलूम के कपड़े बेचने वाले से पाँच सात रोज में चुकता करने का वादा कर चुकी है, उसका क्या होगा, लेकिन तभी उसकी आँखों के आगे अपनी स्वर्गीया दादी का चित्र नाच गया, जो अक्सर कहा करती थीं- आदमी के आगे भोजन का थाल रखकर की चिंता फ़िक्र या घरेलू कलह की बात नहीं करनी चाहिये।

और मनोरमा चुप रही। तभी उधर से चुन्नू ने ऊँची आवाज में कहा, "करीम की बकरी वाला पूरा पाठ याद हो गया।"

मनोरमा ने ऊँची आवाज में कहा, "खैर सवेरे पूछूँगी उठो और मुन्नू के साथ सो जाओ।"
थोड़ी देर बाद जब मदन बिछावन पर गया तो मनोरमा उसके पाँवों में चंपी करने लगी। तभी मदन ने करवट बदलते हुए कहा, "आज दफ्तर के साम से बैंक गया था, तो वहीं गिरीश मिले।

"गिरीश गिरीश और यहाँ मनोरमा जैसे चौंकी।"

मदन बोला, हाँ पता चला कि ट्रांसफर होकर यहीं आ गए हैं। बैंक में खाता खुलवा रहे थे। शहर में मकान जल्दी मिलता नहीं है और वह भी राजधानी में, यह परेशानी तो है ही। मगर गिरीश को तो एक मकान चाहिये। मुझसे भी कहा है। सुनो, तुमने एक रोज कहा था कि अपने सामने वाला वह पीला मकान खाली होने वाला है। क्या हुआ उसका, खाली है क्या?

उत्तर में मनोरमा पति का दूसरा पाँव पकड़ते हुऱए कहा, "नब्बे रुपये किराया है। आए दिन किरायेदार की मकान मालिक से दगती रहती है। उस रोज वट सावित्री की पूजा के दिन गंगा किनारे मिली थीं चौधरी की दुल्हन। बतला रही थीं कि उन्होंने किरायेदार को कह दिया है कि जब किराया नहीं चलता, तो महीने भर में मकान खाली कर दें।"

"बट सावित्री व्रत को तो अब महीना होने को आया। कब थी यह पूजा मेरे ख्याल से तो पिछले महीने के इक्कीस तारीख को थी। आज तो इस महीने की भी बाईसवीं तारीख निकली जा रही है।" मदन ने कहा।

मनोरमा बोली, "मैंने दुबारा पूछा नहीं।" तब मदन ने जैसे पूरी जवाबदेही के साथ कहा, "तो फिर पूछो न, नब्बे रुपये गिरीश के लिये भला क्या हैं। मुझसे उन्होंने कहा है- डेढ़ सौ दो सौ रुपये के बीच दे सकते हैं। इधर शायद प्रोमोश हुआ है। अब तो पंद्रह सौ साठ रुपए वेतन पाने लगे हैं।"
"
पंद्रह सौ साठ?" मनोरमा का यह प्रश्नसूचक वाक्य अतल आश्चर्य के सागर से उभर आया था जैसे।

मदन ने बड़े हौले स्वर में कह दिया। हाँ पंद्रह सौ साठ रुपए। हालाँकि ये पंद्रह सौ साठ रुपए उसके लिये बड़ी अहमियत रखते थे। उसे यह जानकर सदमा नहीं पहुँचा था कि उसका मित्र हर पहली तारीख को क्यों इकट्ठे इतने रुपये पाता है और बिना किसी विशेष अनुभूति के क्यों जेब में रख लेता है- आह, गिरीश कितना अच्छा है। उसने भूले से भी मुझ पर अपनी आर्थिक निश्चिंतता का आभास नहीं लादा। गिरीश जैसे मदन के सामने आकर खड़ा हो गया और तभी मनोरमा ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आर्थिक हीनता को विस्तार देते हुए, उसे शून्य में प्रक्षेपित कर पति से पूछा, "तो क्या वे इस छोटे से मकान में रहना पसंद करेंगे।"

"
ह भी सकते हैं क्यों कि परिवार बहुत बड़ा नहीं है और भई सबसे बड़ी बात मिजाज की होती है, वैसे उनकी नौकरी तो अफसरा है मगर मिजाज शायराना पाया है उन्होंने।" मदन ने गिरीश के मिजाज के बारे में ये शब्द कहे।

मनोरमा को जैसे खुशी हुई और दोनो आपस में इस बात पर राजी हो गए कि गिरीश के लिये मकान की तलाश करना उनका कर्तव्य है। गुड़िया वैसे ही हाथ पाँव पटक रही थी। मच्छर बहुत ज्यादा थे। मदन कहा, "मेरे लिये आँगन में चटाई डाल दो। हवा चल रही है न, मच्छर कम लगेंगे।"
"और जो पानी बरसा तो?"
"
वैसे आसार तो नहीं हैं मगर, इतनी चिंता क्यों? पानी बरसेगा, तो घर में आ जाऊँगा।"

मनोरमा ने आँगन में चटाई डाल दी। मदन एक तकिया लिये हुए चटाई पर सोने चला गया। इधर मच्छरदानी में घुसकर मनोरमा ताड़ के पंखे से गुड़िया को हवा देने लगी। मगर स्वयं उसकी परेशानी बढ़ने लगी थी। गुड़िया को पंखा झलते-झलते उसे भी नींद आ जानी चाहिये थी, पर आज ऐसी बात नहीं थी। वह बार बार गिरीश उनकी पत्नी, उनके बाल-बच्चे और उनके रहन सहन के स्तर के विषय में सोच रही थी। उसे याद आ रहा है- उसने गिरीश को केवल एक बार देखा है। दो साल पहले वाली गर्मियों में आए थे और साथ में ढेर-सा मलीहाबादी आम ले आए थे। कुल पाँच घंटे ठहरे थे और लौटने लगे तो चुन्नू मुन्नू को पाँच पाँच रुपए पकड़ा गए। उनके जाने के बाद इन्होंने बच्चों से वे रुपये वसूल लिये थे और मुझे देते हुए कहा था, इनसे आध किलो सरसों का तेल और मिर्च मसाले खरीद लेना। छोकरे परेशान करें तो दस दस पैसे पकड़ा देना बस।

तब गुड़िया का जन्म नहीं हुआ था। गिरीश ने उसी बार बतलाया था कि उनके तीनों लड़के महँगे स्कूलों में पढ़ते हैं। मँझला वाला अगर किसी कारण रेफ्रेजेरिटर बिगड़ जाए तो खुद बना लेता है। बड़े वाले को देहरादून स्कूल में प्रवेश पाने का पत्र आगया है और छोटा वाला इसी उम्र में वायलिन पर राग बहार केदार और जयजयवंती बजा लेता है। मनोरमा को याद आया, ये बतलाते हैं- गिरीश भाई के बच्चे बड़े सुंदर हैं। तीनों का रंग, गाल और आँखें अपनी माँ की तरह हैं।

और मनोरमा तटस्थ भाव से सोचती है- वैसे तो गिरीश बाबू भी अच्छी सेहत वाले हैं। लगता नहीं कि इनसे पाँच साल बड़े हैं, उल्टे यही बुजुर्ग लगते हैं। मेरे चुन्नू मुन्नू उनके बच्चों के मुकाबले शायद कुछ न हों। हाय मेरा रंग कितना गिरा है। मेरे गालों में उभार कहाँ। मगर हाँ जब ब्याह कर आई थी तब की देखता। मनोरमा में जैसे एक तनाव आता है- रेफ्रेजेरेटर, देहरादून स्कूल, वायलिन पर बहार, केदार और जयजयवंती।

अच्छा है गिरीश का परिवार सामने वाले मकान में आ जाएगा, तो चुन्नू मुन्नू उनके बच्चों की संगति पाकर कुछ सुधर
जाएँगे। मगर वह तो पुनः तनाव की स्थिति में आ जाती है कान्वेंट और कारपोरेशन।

मदन जहाँ नौकरी करता है, वह कोई दफ्तर नही है, क्राकरी की बड़ी दूकान है। उसी दूकान के भीतर एक पिंजरेनुमा कमरे में बैठकर मदन एकाउट्स लिखता है, चिट्ठियाँ टाइप करता है। उसकी छोटी-सी मेज के आसपास क्राकरी ही रखी रहती है ... और, और गिरीश का दफ्तर...?
मदन- दो सौ रुपए का टाइपिस्ट-कम-एकाउंटेंट क्लर्क, कभी भी निकाल दिया जा सकता है।
गिरीश- पंद्रह सौ साठ रुपये का डिप्टी सेक्रेटरी, निकाल दिये जाने की कल्पना भर की जा सकती है।

मदन को नींद आ गई थी, मगर मनोरमा एकाएक गुड़िया को छोड़कर उसके पास आई और उसे जगाकर कुछ तेज स्वर में बोली, "सुनो, सामने वाला मकान अगर खाली भी हो जाए, तो गिरीश को अपना पड़ोसी बनाना कुछ ठीक नहीं रहेगा।"
मनोरमा ने यह विचार व्यक्त कर हारे थके मदन में न जाने कैसी उत्तेजना भर दी। वह उठ बैठा। मनोरमा चटाई से सटकर बैठी रही।
मदन ने कुछ सोचकर पूछा, "अरे ऐसा क्यों?"
उत्तर में मनोरमा बस इतना ही बोली, "हम दोनो मे बड़ा फ़र्क है।"
मदन ने कहा, "ओह छोड़ो भी। ये बातें तो कल भी हो सकती हैं। देखो तुमने तो मेरी नींद ही तुड़वा दी, तो तुम्हें एक बात बतला दूँ। अभी बस सोते सोते याद पड़ी थी। शास्त्री रोड पर एक वकील साहब रहते हैं। उनके मुंशी से अच्छी खासी दोस्ती है। उसी बतलाया था कि वकील साहब अपने छोटे बच्चे के लिये किसी प्राइवेट ट्यूटर की तलाश में हैं। कल मुंशी से मिलूँगा।"
मनोरमा ने पूछा, "कितना देंगे वकील साहब?"
मदन बोला, "मुशी कहता था कि महीने भिर का बच्चे का प्रोग्रेस देखकर तय करेंगे। वैसे उसी ने बतलाया कि जो मास्टर छोड़ गया उसे एक वक्त खाना देते थे।"
"
उस मास्टर ने क्यों छोड़ दिया?"

मदन ने मुंशी के शब्द याद किये फिर वह बोला, "शहर में रहकर वह सीख तो रहा था शार्टहैंड और टाइपराइटिंग, मगर चुन लिया गया पुलिस इंस्पेक्टरी में। आजकल हजारी बाग में ट्रेनिंग ले रहा है।"

मनोरमा ने एक लंबी साँस ली। उसके मुँह से निकला, "अपना अपना भाग्य। मेरे मायके के पड़ोस में एक दरोगा रहते थे। दूसरी बीवी थी उनकी। दोनो बाप बेटी की तरह लगते थे।"
"बाप बेटी की तरह?"
"हाँ, मगर बीवी जेवरों से लदी रहती थी। पचास निखालिस सोने का कमरबंद था उसका। दूध के कुल्ले करती थी।"
मदन फिर अपनी बात पर आ गया, बोला, "तुम्हें तो बुरा लगेगा। मगर मैं समझता हूँ कि इसमें कोई हर्ज नहीं है मैं भी एक वक्त के भोजन पर ही यह ट्यूशन मंजूर कर लूँ। वकील के यहाँ की मामूली भोजन तो बता नहीं होगा।"
"गलत इरादा है तुम्हारा। यह मत समझो कि तुम्हारा आगे भी वैसा ही थाल परोसा जाएगा जैसा थाल वकील साहब के आगे रखा जाता होगा।"

"बहरहाल अपने घर से तो लाख दर्जे..." बोलते बोलते मदन जैसे रुक गया। फिर उसे आगे कहा, "मगर छोड़ो, मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा। नमक रोटी ही कयों न हो अपने बाल बच्चों के शामिल बैठकर खाने का सुख ही कुछ और होता है।"
मनोरमा भीतर से जैसे एकाएक पीछे की ओह हटी। वह उठकर खड़ी हो गई। उसे अपने सामने एक ऐसे नीलकंठ का
आभास हुआ था, जो न तो आशीर्वाद के बोल बोल सकता है और न गम के।

तब से बीस रोज और गुजर गए। इस बीच मदन गिरीश से तीन चार बार मिल चुका, बल्कि एक रोज चालीस रुपये उधार भी माँग लाया है और उसने मनोरमा को यह भी बताया है कि गिरीश अब तक मकान की तलाश में है, अपनी मातहत के लोगों से भी पता लगाने को कह रखा है और गिरीश की मातहत काम करने वाले भी खूब हैं। वे मदन की भी उतनी ही कद्र करते हैं, जितनी गिरीश की। और मदन भी बेवकूफ नहीं है। जब भी उसे गिरीश के दफ्तर में जाना होता है, अपनी हैसियत से सज सवर कर जाता है। पर, एक बात, गिरीश के दफ्तर में ऐसे कई स्टाफ हैं जिनकी
पोशाकें मदन से अच्छी और कीमती होती हैं।

मनोरमा की धारणा यहाँ आकर फिर आकार लेती है- "हम दोनो में बड़ी फर्क है।" गिरीश की मेज पर शीशे के कई कलात्मक पेपर वेट हैं। मदन की मेज पर पत्थर के खुरदुरे टुकड़े से पेपरवेट का काम लिया जा है। जिस सुराही में पानी रखा जाता है, उस सुराही से पानी लेकर पीते हुए मदन को भय लगता है। उस सुराही से पानी लेकर पीते हुए मदन को भय लगता है। यहाँ गिरीश के लिये स्पेशल सुराही और गिलास है। चेम्बर से ही लगा हुआ बाथरूम है- बेसिन, आइना, साबुन, तौलिया वगैरह। रिवाल्विंग कुर्सी, जिस पर बैठकर गिरीश फाइलों को देखता है। कभी स्टेनो को बुलाकर डिक्टेशन देता, कभी इलैक्ट्रिक बेल बजाकर चपरासी के हाजिर होने पर बड़े बाबू को तलब करता है। उसके अलावा प्लाईवुड की बनी केबिन के भीतर एक शानदार आरामकुर्सी है। लंच आवर में गिरीश इसी पर लेटकर आराम करता है। एक रोज गिरीश लंच आवर में ही पहुँच गया था। गिरीश ने अपने लिये दूसरी कुर्सी मगवा ली थी और मदन को उसी आराम कुर्सी पर बैठाया था। मदन की आँखों तब पूछा था- गिरीश तू तो कतई नहीं बदला। तू आदमी है भला इस जमाने का,
ना ना तू तो मसीहा है।

मेज पर फोन, टेबल लैंप, मेज ही में पाँव के नीचे काल बेल का स्विच।
चाय की चुस्ती लेता हुआ गिरीश कहता है, मकान जरा तेजी से तलाशो मदन, तुम्हारी तो यहाँ बड़ी पहचान है। अपने जहाँ रहते हो वही कही आसपास देखो। मिल जाए तो अच्छा है। हम दोनो मित्र तो हैं ही, पड़ोसी भी बन जाएँगे।

और तभी जैसे मनोरमा के शब्द मदन के कानों में गूँज जाते हैं। हम दोनों में बड़ा फर्क है। लेकिन वह मनोरमा की बातों में भला क्यों आने लगा। उसने हाई स्कूल से इंटरमीडियेट तक गिरीश के साथ शिक्षा पाई है। यह और बात है कि पिता के असामयिक निधन और फलस्वरूप आर्थिक कसाव के कारण उसने इंटरमीडियेट की परीक्षा नहीं दी। इधर उधर भटकता फिरा और आज उस क्राकरी की दूकान में अदना सा मुलाजिम है।

मगर इससे क्या गिरीश जब भी मिले हैं, अभिन्न भाव से। बीवी की बातों में आकर वह मैत्री के इस पुल को कभी टूटने नहीं देगा। पर गिरीश के लिये इतनी जल्द मकान तलाश कर दना तो उसके लिये मुश्किल ही है। पढ़े लिखे तो
शहरों के मोहताज हैं ही, अब तो गाँवों के जाहिल जट भी शहरों में ही भागते चले आते हैं। किसको क्या कहा जाए। यह चांडाल पेट जो न कराए।

दस रोज और बीत गए कि एक दिन मदन गिरीश से चालीस रुपये लिये गए उधार में से बीस रुपए लौटाने उसके दफ्तर में गया, तो खुद गिरीश ने उसे बतलाया, भाई, एक खुशी की बात सुनो। बेलागंज में बिलकुल मेनरोड पर एक मकान खाली है। मकान मालिक कोई चौधरी जी हैं। किराया भी ज्यादा नहीं, कुल सौ रुपए।

सुनकर मदन को खुशी तो हुई, मगर दिल भी धक् से कर गया। उसने गिरीश के कथन में संशोधन करना चाहा, कहा, मकान खाली नहीं है खाली होने वाला है और मैं उस मकान के बिलकुल सामने ही रहता हूँ। तुम मेरे इस मकान में कभी नहीं आए। लेकिन ये सारे शब्द उसने अपने मन में ही कहे, खुल कर तो उसने बस यह प्रश्न मात्र किया, "ओह... कैसे पता लगा?"
गिरीश सहज भाव भंगिमा से बोले, "मेरे स्टेनो पता लगाया है।"

मदन ने प्रस्तुत संदर्भ को न चाहते हुए भी तोड़ दिया। एकाएक उसे प्रसंगहीन चर्चा छेड़ दी, "आजकल अगर कोई अपना परिचित या मित्र डाक्टर न हो तो अस्पताल में मरीज को दाखिल करना एक माखौल के सिवा कुछ और नहीं है। एक पैसे की दवा फ्री नहीं मिलती। जो दवाएँ मरीजों के नाम पर वहाँ आती हैं, दवा के दूकानदारों के हाथ बेच दी जाती है।
मगर गिरीश ने इन बातों में भी दिलचस्पी ली।

थोड़ी देर बात मदन लौट आया। शाम के थोड़ी देर बाद जब वह घर लौटा, उसने मनोरमा से पूछताछ की। पता चला कि चौधरी जी का मकान सचमुच खाली हो चुका है और किसी दफ्तर का बाबू अपने साहब के लिये पसंद भी कर गया है। वह मनोरमा पर झल्लाया कि अगर उसने यह बात पहले बतला दी होती, तो गिरीश को उपकृत करने का श्रेय उसे मिल जाता। तब मनोरमा ने जैसे दो टूक होकर कहा, नाहक झल्लाते हो। हम दोनो आमने सामने नहीं रह सकते। वैसे तुम चाहे जो सोचो, मगर मैं जानती हूँ कि हम दोनो में बड़ा फर्क है।

उस रोज रात में खाना खाने से पहले मदन ने मनोरमा से बस इतना ही कहा, मन्नो, क्षमा करना। मैं समझ रहा हूँ।
तुम्हारी यह झुँझलाहट बेवजह नहीं है। और सो रहा।

सुबह उसने मनोरमा को बतला लिया कि गिरीश दो-तीन रोज के भीतर ही इस सामने वाले मकान में पत्नी बच्चों सहित आ जाने वाले हैं। यह सुनकर मनोरमा की परेशानी बढ़ गई- मेरा बत्तीस रुपए वाला किराए का मकान, रेफ्रिजेरेटर, बिजली, देहरादून स्कूल, वायलिन पर राग बहार, केदार और जययजवंती... उसकी परेशानी ने अपनी गति बढ़ा दी- चुन्नू मुन्नू, चोरी, उलाहनाएँ, उधार देने वालों के तकाजे, चटाई, ताड़ के पंखे, घर में न एक अलमारी, न ढंग के
कपड़े, न मेहमानों के बैठे के लिये ढंग का एक छोटा सा कमरा... बरसात में तो यह मकान नर्क बन जाता है।

तो क्या दोस्ती एक दूसरे को पास लाने की बजाय एक ही झटके में दूर फेंक देगी? क्या चौधरी जी का यह मूक मकान इन्सान बन जाएगा और अपनी भुजाएँ दोनो ओर फैलाकर दोनो के बीच शून्य की अभेद्य दीवीर खड़ी कर देगा?

मदन के दफ्तर जाते ही मनोरमा अपने लिये किसी और मकान की तलाश में निकल पड़ी, नन्हीं गुड़िया के को गोद में लिये।

चुन्नू-मुन्नू दोनो कारपोरेशन वाले स्कूल में कुछ पढ़ने और कुछ नई गालियाँ सीखने चले गए थे। दूसरे रोज उसने मदन को बतला कि भरतपुरा मुहल्ले में उसने कोयले वाले की बगल वाली गली में चौथा मकान तय कर लिया है। उनतीस रुपये किसाया है, पास ही घर से लगा लगभग पचास कदम की दूरी पर नल है और चौधरी जी की बीवी से मालूम हुआ है
कि आज शाम साहब रहने के लिये आ रहे हैं। मकान की धुलाई सफाई हो चुकी है। दोपहर तक साहब के सामान आ जाएँगे।

मनोरमा के इन शब्दों को सुनने के साथ ही मदन को लगा, जैसे पुरानी दोस्ती के सारे खम्भों में मोटी मोटी दरारें पड़ गईं और उसे एक भीषण आवाज निकली। उसके मुँह से जैसे हठात् निकला, "मगर मन्नो यह एक अजीब संयोग है कि गिरीश यहाँ रहने को आ रहे हैं और हम यहाँ से निकल चलने की तैयारी कर रहे हैं। है न अजीब संयोग?"

मनोरमा बोली, "जो भी फैसला करना हो अभी कर दो। मैंने ठेले वाले को सामान ले चलने के लिये कह रखा है। रात का खाना उस नए मकान में ही बनाऊँगी। तुम दफ्तर से लौटकर सीधे वहीं आ जाना।"

मदन जैसे कुछ सुस्त होकर बैठ रहा और अपने आप से लड़ने लगा। उधर दाल जल रही थी। मनोरमा दाल सँभालने को तेजी से भागी। मदन को बेमौसम पसीना आने लगा था। मनोरमा अभी, बस अभी, उसका फैसला सुनना चाहती है र वह यही कहना चाहता है कि नही, जब हम दोनो मित्र हो सकते हैं, तो पड़ोसी क्यों नहीं हो सकते मगर तभी उसकी आँखों के सामने अनेक प्रकार के भग्न प्रश्नचिह्न उभरने लगते हैं।

मनोरमा उधर दाल सँभाल रही थी। मदन उठा। उसने दफ्तर जाने के लिये कपड़े पहने और अपना दृढ़ संकल्प बतलाने मनोरमा के सामने आया। नजर पड़ते ही मनोरमा ने पूछा, "बोलो तो क्या फैसला किया?"
और, तब दृढ़ संकल्प व्रती मदन के मुँह से ये शब्द निकल पड़े, "ठीक है। दफ्तर से लौटकर रात में मैं नए मकान में पहुँच जाऊँगा।"

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२७ जून २०११

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