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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
सूर्यबाला की कहानी— एक स्त्री के कारनामे


मैं औसत कद-काठी की लगभग ख़ूबसूरत एक औरत हूँ बल्कि महिला कहना ज़्यादा ठीक होगा। सुशिक्षित, शिष्ट और बुद्धिमती बल्कि बौद्धिक कहना ज़्यादा ठीक होगा। शादी भी हो चुकी है और एक अदद, लगभग गौरवर्ण, सुदर्शन, स्वस्थ, पूरे पाँच फुट ग्यारह इंच की लंबाई वाले मृदुभाषी, मितभाषी पति की पत्नी हूँ।

बच्चे? हैं न। बेटी भी, बेटे भी। सौभाग्य से समय से और सुविधा से पैदा हुए; भली-भाँति पल-पुस कर बड़े होने वाले। आज्ञाकारी और कुशाग्रबुद्धि के साथ-साथ समय से होमवर्क करने वाले। सम्पन्नता और सुविधाएँ इतनी तो हंभ कि एक पति, दो कावालियों और तीन बच्चों वाला यह कारवाँ कदम-कदम बढ़ाते हुए लगभग ट्यूशन, टर्मिनल सब कुछ बहुत सुभीते और सलीके से। पूरी ज़िन्दगी ही। जितने पैसे माँगती हूँ पति दे देते हैं। जहाँ जाना चाहती हूँ पति जाने देते हैं, कभी रोकते टोकते नहीं। पूछते-पाछते भी नहीं।

कभी उन्हें भी साथ चलने को कहती हूँ तो चले चलते हैं। कभी नहीं कहती तो नहीं चलते। खाना भी सादा और स्वास्थ्यप्रद खाते हैं। सॉरी कह देती हूँ और वह बेहद धीमे से ‘इट्स ऑल राइट’ कह कर पारी समाप्ति की घोषणा कर देते हैं। वरना लोगों के घरों में ज़रा से कम नमक या ज़रा सी ज़्यादा मिर्च की बात पर बवाल मचाने वाले पति मैंने खूब देखे हैं।

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