मधु
खाना बना रही थी... मधु बरसों से उसके साथ है। उसकी गृहस्थी
संभालती हुई। बेटाइम उसे देखकर उससे रहा नहीं गया और पूछ ही
बैठी आज जल्दी...! हाँ...बहुत थके हुए से स्वर में उसने उत्तर
दिया।
मधु अचानक
मृदु हो आई...पास आ गई और कंधे पर हाथ रखकर पूछा—उदास हो?
पता नहीं कैसे आँखें छलछला आई...फिर भी वह चुप ही रही।
चाय पिओगी बनाऊँ?--उसने पूछा
सुमि ने गर्दन हिलाकर हाँ कह दिया और अंदर चली गई।
जब तक वह हाथ मुँह धोकर फिर किचन में पहुँची तब तक मधु चाय बना
चुकी थी। सुमि चाय का कप लेकर ड्राईंग रूम की खिड़की पर आ
बैठी...गहरी उँसास भरी... अहसास का एक टुकड़ा ना जाने कहाँ से
उड़ कर आ बैठा, जीवन में पहली बार उसे अर्थहीनता का अहसास होने
लगा...अपना होना इतना बेवजह तो उसे तब भी नहीं लगा था, जब मनहर
चले गए थे...क्या दुसरों के लिए जीते-जीते मैं इतनी आदी हो गई
हूँ कि अपने लिए जीना ही भूल गई हूँ...? क्या मेरा पूरा वजूद
मेरे किसी रिश्ते, किसी बंधन से बँधा है? क्या मैं सारे
रिश्तों को बेहतर ढ़ग से निभाते-निभाते खुद से अपने रिश्ते को
ही भुला बैठी हूँ? मैं जो पहले पत्नी और फिर माँ के खाँचों मे
तरल होकर उतरी अपने लिए ठोस हो बैठी हूँ...?
मेधा जा चुकी थी... अब सुमन की जिंदगी एकाकी हो आई...। यूँ
दोनों के बीच किसी तरह की निर्भरता नहीं थी...फिर भी साथ रहने
का सहारा तो था ही...न जाने कब से... शायद तब से जब मेधा 10
साल की थी...। 15 साल गुजर गए...मेधा के साथ...बस मेधा और
वह...उन दोनों के बीच किसी की गुंजाईश ही कहाँ थी? सोच रही थी
सुमि... लेकिन अचानक निरंतरता गुम हो गई...एक कतरा उदासी पसर
गई...।
उसकी जिंदगी में किसी की गुंजाईश नहीं रही, पर मेधा की जिंदगी
में...! सोच कर और उदास हो आई सुमि। उसे आज किसी की जरूरत नहीं
है...क्या कभी भी नहीं थी? उसे अचानक मुम्बई में टेक्सटाईल
डिजाईनिंग की वर्कशॉप में मिले सोहैल की याद आ गई...। वह अपने
आप से पूछ रही है आखिर इतने सालों में उसने क्या पाया...हाँ सच
ही तो...उसने कभी पाने और खोने का हिसाब ही नहीं किया...क्या
कभी भी उसे किसी की जरूरत ही नहीं लगी या फिर उसने सायास इस
सोच से खुद को बचा कर रखा...? सोचते-सोचते झरझर आँसू बहने
लगे...। उसे पता ही नहीं चला कब मधु आकर खड़ी हो गई...। समय
लगेगा थोड़ा फिर सब ठीक हो जाएगा थोड़ा सब्र रखो...। मधु सुमि
को समझाने लगी। छह महीने को ही तो गई है मेधा वापस आ जाएगी।
सुमि ने उसकी तरफ देखा। वह थोड़ी देर यूँ ही असमंजस में खड़ी
रही...फिर सुमि ने कह दिया जा कल जल्दी आ जाना नाश्ता भी बनाना
है...। मधु चली गई...थोड़ी देर बाद सुमि उठी नहाई और टीवी
देखने लगी, लेकिन अनमनापन बना ही रहा...खाना खाकर सोने चली गई।
बहुत देर तक कोशिश करने के बाद आखिरकार उसे नींद आ ही गई।
सुबह मेधा के फोन से सुमि की नींद खुली...उसकी आवाज सिक्के की
तरह खनक रही है...क्यों न हो आखिर कंपनी ने इतने लोगों के होते
हुए उस जैसी जूनियर को अमेरिका ट्रेनिंग में जाने का मौका जो
दिया है। बहुत कोशिश करने के बाद भी उसकी उदासी आवाज में उतर
ही गई। उसने तुरंत पकड़ भी लिया...क्यों न हो आखिर बेटी जो
है...ममा छह महीने ही तो है...पता भी नहीं चलेंगे कैसे गुजर
जाएँगें।
खाना खाकर सुमन अपने बुटिक चली गई। बहुत सारा काम रुका पड़ा
था, उसे निबटाने में शाम कब हो गई पता ही नहीं चला...लेकिन
आजकल घर जाने के नाम से ही उसे खौफ-सा हो आता है...इसलिए और भी
देर तक काम करती रहती है...लेकिन घर तो आखिरकार कभी न कभी तो
जाना ही होता है...। उसे जरा फुर्सत हुई कि वह अपनी पूरी
जिंदगी का हिसाब करने में उलझने लगती और आखिर में इस नतीजे पर
पहुँचती कि वो ठगी गई है... खुद से ही...उसने कभी भी खुद की
तरफ देखा नहीं...कभी वह अपने पास बैठी ही नहीं...नहीं जाना कि
उसे खुद से क्या चाहिए...क्या खो रही है और क्या पा सकती
है....न कभी मन से कुछ पूछा और ना कभी तन की जरूरतों और माँगों
पर ही गौर किया...तेरह बरस तक अपने फटे दुपट्टे को इस सलीके से
संभाला कि किसी का भी इस तरफ ध्यान नहीं गया...। पति के साथ न
होने पर बेटी को कैसे अच्छे से पालना है बस यही किया और आज...?
आज वो अकेली ही अपने सवालों से उलझ रही है...इन दिनों उसे लगने
लगा है कि उसका होना बेकार हो गया...उसने अपने लिए कुछ नहीं
किया...और अब...।
आजकल वह सुबह भी जल्दी बुटिक चली जाती है और देर शाम तक वहाँ
काम करती है। नवरात्रि और दीपावली की वजह से काम भी बढ़ गया
है...जब मेधा थी, तब वह इन दिनों ज्यादा काम नहीं लेती
थी...लेकिन अब वह जल्दी घर जाकर करेगी भी क्या? फिर भी वह इस
बात का ध्यान रखती है कि लीना को ज्यादा देर नहीं रुकना
पड़े...। लंच कर के अभी वह काउंटर पर लौटी ही थी कि शबाना आ
गई...मेरे सूट का क्या किया?
सॉरी यार अभी कुछ काम और रह गया है, परसों पक्का कर दूँगी,
प्रॉमिस...।
शबाना ने कुछ और कपड़े देखे और खरीदे...जाते-जाते गाँधी हाल
में लगी बोनसाई की प्रदर्शनी में मिलने की बात कही और निकल
गई...। यूँ सुमि आमतौर पर सात बजे अपना बुटिक बंद कर देती
है...लेकिन आजकल वह देर तक वहीं रहती है। आठ बजे तक उसके बुटिक
में होने की वजह से उसकी मैनेजर लीना भी रुकी थी, लेकिन सुमि
ने उसे कह दिया है कि वह अपने समय से चली जाया करे, फिर भी वह
शर्माशर्मी थोड़ी ज्यादा देर रुकती है... साढ़े आठ होते-होते
सारा काम समेटा सुमि ने...। लीना तो पहले ही निकल गई थी, फिर
वह प्रर्दशनी में चली गई। हॉल के बाहर थोड़ी देर इंतजार किया
लेकिन शबाना उसे कहीं भी नजर नहीं आई, उसने शबाना को फोन भी
लगाया लेकिन रिंग जाती रही उसने रिसीव ही नहीं किया तो वह अंदर
चली गई।
बड़े से स्वागत द्वार से अंदर घुसते ही चारों ओर से कनात से
घिरा एक बड़ा सा खुला मैदान आ गया। कनात के सहारे-सहारे बोनसाई
की प्रर्दशनी लगी हुई थी...यहाँ सब कुछ छोटा-छोटा...बौने
लैंडस्कैप... बगीचे और घरों के बीच... खूब सारे बोनसाई...और कई
में लगे छोटे-छोटे फल भी...सब कुछ गुलिवर के बौनों के देश
सा...और इसमें घूम रहे थे ढेर सारे गुलिवर... सुमि एक बहुत
सुंदर संसार का हिस्सा हो गई थी ...अब उसे शबाना की याद ही
नहीं रही। वह उस बौने संसार में मग्न हो गई थी। तभी उसका ध्यान
“हाय! यह कित्ता प्यारा है....” कहकर किलकती उस लंबे बालों
वाली लड़की पर गया जो अपने साथ आए लड़के को लैंडस्कैप के कोने
पर रखे उसे चीकू का बोनसाई दिखा रही थी, जिसमें चीकू लटक रहे
थे।
लड़का बहुत अनमना लग रहा था...खीझकर बोला—“इसमें प्यारा क्या
है?” ये सब कुछ प्रकृति के साथ मजाक है, क्रूरता है...।
क्या बात करते हो, यह तो एक कला है।---लड़की ने कहा।
लड़के ने उसे घूरा और पूछा---अगर कोई तुम्हारे साथ ऐसा करे
तो?...?
वह कुछ जवाब नहीं दे पाई... लेकिन उसकी आँखों की कातरता और
उसमें तैरती नमी सुमि के अंदर फ्रीज हो चुकी थी...उस लड़की और
मेधा का चेहरा गडमड हो गया...वह पता नहीं कहाँ पहुँच गई...शायद
उस लड़की ने कुछ जवाब भी दिया लेकिन ऐन तभी शबाना ने सुमि के
कंधे पर हाथ रखा तो वह पलटी... मेधा के जाने के बाद से वह
जितना खुद से भागती है...उतनी ही खुद के करीब पहुँच रही है
कैसी हो ? शबाना ने पूछा। उदासी चेहरे को छूकर गुजर गई। वह
अपने पति असित के साथ थी।
आप लोग कैसे हैं?
हम भी ठीक हैं, आपने तो मेधा की सफलता की पार्टी ही नहीं दी,
हम इंतजार ही करते रह गए...।--- असित ने कहा।
सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि कुछ प्लान ही नहीं कर सके, मैं तो
खुद ही उसकी ऑफिस की पार्टी में मेहमान बनकर पहुँची।
चलिए मेधा के लौटने पर हम देंगे एक बढ़िया पार्टी...।
जी जरूर... आखिर मेधा आपकी भी तो बेटी जैसी ही है...।
अजी बेटी जैसी नहीं बेटी ही है... पता है मैं सबसे से क्या
कहता हूँ अक्सर, कि मुझे ये मलाल है कि मुझे बेटी नहीं है। मैं
चाहता रहा कि मुझे भी मेधा जैसी प्यारी और संस्कारवान बेटी
हो... उसने आपकी तपस्या सार्थक कर दी।
बात तो अच्छे लगने की की थी असित ने लेकिन पता नहीं क्यों सुमि
कुछ अनमनी हो गई... कुछ टूटा... कुछ चुभा... फिर से मेधा और उस
लड़की का चेहरा गडमड हो कर उभरा...। सुमि पकड़ नहीं पाई कि ये
क्या है। क्या उसने अपनी खुशी के लिये मेधा को बोनसाइ बनाकर
रखा हुआ है? या मेधा की खुशियों के लिये खुद बोनसाई बनकर रह गई
है?
प्रर्दशनी के आखिरी सिरे पर एक लैंडस्कैप में बहुत सारे बोनसाई
थे। सुमि की नजर बरगद के बोनसाई पर टिकी मगर वे विक्रय के लिये
नहीं थे। केवल प्रदर्शनी के लिये थे… यह जानकर वह मायूस हो गई।
उसने नारंगी के फल लगे बोनसाई को खरीद लिया और घर चली आई।
ड्राईंग रूम के टीवी के पास वाली कॉर्नर टेबल पर सुमि ने
बोनसाई सजा दिया...। देखा और खुद ही मुग्ध हो गई...।
नवरात्रि आने वाली है और सुमि के बुटिक पर काम का बोझ बढ़ने
लगा है, ऐसे में अब जल्दी करने वालों का काम लेने में वह थोड़ी
सावधानी बरत रही है। शबाना फिर से कुछ सलवार-कमीज सिलवाने के
लिए लेकर आई तो सुमि को कहना पड़ा कि तुम्हारा काम अब दीपावली
के बाद ही कर के दूँगी। बहुत दिनों के बाद सुरजीत आई थी...अपनी
ननद के साथ दोनों को ही कपड़े बनवाने थे और दोनों ही घोड़े पर
सवार करवा चौथ पर पहनने के लिए मोतियों के काम का सूट और इसी
काम का भारी दुपट्टा। सुमि सोचने लगी कि अभी नवरात्रि के काम
ही पूरे नहीं हुए हैं, फिर दीपावली के काम की बारी आएगी, पर इन
दोनों को तो दीपावली से भी पहले चाहिए, कैसे होगा सब कुछ? इसी
सोच में जब वह अपनी डायरी देख रही थी तभी सुरजीत उसके सामने आ
खड़ी हुई। प्लीज आंटी, इस बार करवा चौथ पर इनके हसबैंड लेने आ
रहे हैं...पूरे दस साल बाद, उसके लिये यह खास दिन होगा।
क्या वो इतने साल से लगातार करवा चौथ कर रही है?- एक बेकार का
सवाल सुमि ने सुरजीत से किया और तुरंत उसे समझ में आ गया कि यह
बहुत बेतुका सवाल है... कुछ उसके अंदर भी चुभा... खटका... उसे
पहली बार उस लड़की की आँखों में तैरी नमी और अपनी बेचैनी की
वजह समझ में आई और वह और भी ज्यादा बेचैन हो गई। फिर सब गडमड
होने लगा... सिमरन... वो लड़की... .मेधा... खुद सुमि और ...और
वो बोनसाई....उसकी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा...ठंड़े पसीने
का रेला सिर से कान के पीछे उतर आया...।
उसके बाद दिन तो लगातार काम में निकल जाता, लेकिन रातें...अजीब
बेचैन होने लगी... कभी भी नींद उखड़ जाती... कभी भी घबराहट
होने लगती... पता नहीं क्या और कितना महसूस होता। इस बीच दशहरा
आया तो लीना ने उसे बताया कि कल तो बुटिक बंद रहेगा, कारीगर भी
नहीं आने वाले हैं...लो यह सहारा भी छिन गया... अब त्योहार का
अकेले क्या करूँ? दशहरे से पहले वाली रात उसने देर रात तक टीवी
देखा... शहर में अलग-अलग जगह हो रहे गरबो के लाईव को देखती
रही... कितना उल्लास... कितनी उन्मुक्तता... प्रकृति तो हमें
यही खिलंदड़पन देती है... लेकिन हम... हम उसका क्या करते हैं?
इस दुनिया को सजाने के लिए हम अपनी और अपनों की बलि देते रहते
हैं... छाँटते रहते हैं... खुद को... और... फिर से सुमि अवसाद
की तरफ बढ़ने लगी। क्या किया मैंने खुद के साथ... मेरी माँ जो
खुद बोनसाई थी... मुझे भी बोनसाई बना दिया और मैंने मौका रहते
अपने निरंतर बौने होते रहने को नहीं देखा और न ही रोका... फिर
मेधा... नहीं... वह नहीं...उसे नहीं होने दूँगी... बस आँखें
झरने लगी। रहा नहीं गया और फोन लगा दिया...।
मेधा की हलो सुनते ही उसका खुद पर नियंत्रण नहीं रहा। गला रुँध
गया...
बेटा... फिर आवाज डूब गई।
ममा... क्या हुआ...?
मुझे माफ कर देना बेटा...। बहुत मुश्किल से वह बोल पाई।
लेकिन हुआ क्या है?
बस मुझे माफ कर देना... मैंने तेरे साथ ठीक नहीं किया...। फिर
से आवाज टूट गई।
उधर मेधा समझ नहीं पा रही थी कि आखिर हुआ क्या है? उसने घबराकर
पूछा—कोई घबराने का बात तो नहीं...? मैं आ रही हूँ इंडिया।
सुमि ने खुद को संयत किया- नहीं घबराने की कोई बात नहीं... बस
यूँ ही...। फिर रुलाई फूट गई।
मेधा उधर से घबराकर ममा...ममा कर रही थी।
कुछ नहीं बेटा।- रूँधे गले से सुमि ने उससे कहा। --- मैं तुझसे
फिर बात करती हूँ और फोन रख दिया।
घड़ी की तरफ देखा तो रात के दो बज रहे थे। पूर्णिमा की तरफ
बढ़ते चाँद में लगातार निखार आ रहा था। यूँ तो नवमीं की रात
थी... लेकिन नवरात्रि की कृत्रिम चमक से ही रात जगमगा रही थी।
मेधा से बात कर सुमि थोड़ी हल्की हो गई थी। बॉलकनी में आई तो
शरद की तरफ बढ़ रही क्वांर की रात का सुहानापन उसे भला लगने
लगा। अचानक उसे कॉफी पीने की इच्छा हो गई। किचन से कॉफी लेकर आ
रही थी तो फिर से उसका ध्यान कोने में पड़े बोनसाई की तरफ गया।
प्याले को वहीं टेबल पर रखा और बोनसाई का पॉट उठाया और बॉलकनी
से उसे नीचे फेंक दिया। धड़ाम की आवाज होन से गहरी नींद में सो
रहा वॉचमैन हड़बड़ा कर अपनी लाठी लिए दौड़ा।--- कौन है? कौन
है? स्साला... एक भद्दी सी गाली दी और सुमि की बॉलकनी के नीचे
आकर पूछा--- कौन है?
फिर सुमि को उपर खड़े देखकर पूछा--- क्या हुआ मेम साहब? तभी
उसका पैर बोनसाई के टुकड़े हुए पॉट पर पड़ा और वह चौंककर पीछे
हट गया।
सुमि ने कहा---कुछ नहीं। तुम जाकर सो जाओ। और कॉफी सिप करने
लगी। |