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पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


‘‘बबनी, आज मालूम नहीं काहे तुमको देखकर हमरी आत्मा बहुत जुड़ा रही है रे। मालूम नहीं क्यों हमारा मन हो रहा है कि तुमको खूब दुलार-पुचकार करें। लगता है महीनों हो गये तुमने देह में तेल नहीं लगाया। कितना रूखा लग रहा है तुम्हारा बदन।’’

बबनी अपनी मजबूरी का बयान करके बार-बार मैया को दुखी करना नहीं चाहती। वह टाल जाती है, ‘‘मैया अब सो जाओ न, मालूम होता है बहुत रात बीत गई।’’
’’तू सो जा...हम तो रोज सोते ही हैं बेटी। आज तो जागकर हम तुम दोनों माँ-बेटे को ही सोते हुए देखना चाहते हैं।’’
बबनी जानती है कि मैया के पास हृदय नहीं समुंदर है, जो पानी से नहीं, ममता से भरा है। समुंदर से ममता के मेघ उठकर ऐसा नहीं कि सिर्फ अपनी औलादों पर ही बरसते हैं बल्कि उसकी फुहार से पूरा गाँव सिंचित होता रहता है। इसीलिए तो पूरे गाँववाले उसे बदरी मैया कहकर पुकारते हैं। बदली - जो सबके ऊपर समान रूप से बरसती है। चाहे किसी औरत का प्रसव निपटाना हो.....किसी के घर मृत्यु-शोक हो.....किसी के घर लड़ाई-झगड़ा हो.....किसी को सेर-पसेरी अनाज या पैसा-कौड़ी की मदद चाहिए, मैया हर जगह सुर्खुरू रहती है, उसकी राय हमेशा आदरणीय मानी जाती है।

गाँववालों की वह खास जरूरत बन गई है। यही कारण है कि जब बाऊजी बहुत कम ही उम्र में गुजर गये तो गाँववालों के ही ढाढ़स-उम्मीद पर सारी जिम्मेदारी को उसने अपने कंधों पर उठा लिया। जमीन-जायदाद की तो कमी नहीं थी, लेकिन किसी भी घर के लिए एक मर्दाने साये की हर हाल में जरूरत होती है। मगर तब दोनों बेटे देवन और सीवन
छोटे थे और बबनी गोद में थी।

नानी घर से बिरजू मामू आ गये थे उस समय। इकलौते भाई थे वे और मैया इकलौती बहन। दोनों एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे। मैया के विधवा होने से उन्हें बहुत धक्का पहुंचा था। उसके कुम्हलाये हुए चेहरे को देखते ही उन्होंने झट कहा था, ‘‘मालती बहिन, चल तू हमरे साथ। यहाँ खेत-पथारी को बंटाई लगा दे। हम साथ रहेंगे। अपना सुख तुझे दे देंगे और तू अपना दुख हमको दे देना। हमरे रहते तुमको कोई तकलीफ हो, हम ई सहन नहीं कर सकते।’’

इसके पहले कि मैया कुछ बोलती घिघियाते हुए गाँववालों ने हाथ जोड़ दिया था, ‘‘ऐसा जुलुम मत करिये बिरजू मामू। बदरी मैया चली जायेगी तो हम सब अनाथ हो जायेंगे। आप बेफिकर रहिये, मैया के सुख के लिए पूरा गाँव अर्दली बनने को तैयार है।’’

मैया के प्रति सबकी ऐसी श्रद्धा और आसक्ति देखकर बिरजू मामू निहाल और आश्वस्त हो गये थे। वह थी ही ऐसी। उन्हें मालूम था कि बचपन से ही इसकी नस-नस में खून की जगह दया, प्रेम और सेवा ही बहती आई है। मैया ने जब अपना दृढ़ निश्चय सुनाया तो उनका भरोसा और भी पुख्ता हो गया।

‘‘भैया, पति का घर ही एक औरत का अपना घर होता है। इस ठिकाने को बेसहारा छोड़ देने से उनकी आत्मा को बड़ी तकलीफ होगी। हम पर ऐतबार करो, गृहस्थी को हम लड़खड़ाने नहीं देंगे। हम यहाँ अकेले नहीं हैं, पूरा गाँव हमारे साथ है।’’

मैया ने तब ही से अपने सागर-हृदय से बेपनाह ममता बरसाई है। मगर उसमें कुछ भी कमी नहीं आई। कहते हैं कि सागर न कभी घटता है, न बढ़ता है।

यह सब सोचते हुए बबनी फिर मैया को सोने के लिए नहीं कह पाती है। ढिबरी की लौ सीधी बबनी के चेहरे पर पड़ रही है - करियाता हुआ रंग, धंसे हुए गाल, रेगिस्तान सी उजाड़ आँखें, लावारिस सी सूनी-सूनी गर्दन, ठिठुरे हुए से कान और नाक। मैया एक सरसरी नजर से देखकर एक अंदरूनी पीड़ा से तड़प उठती है, ‘‘का गत हो गया तेरा बबनी ? तू हमरी
किरिया खाकर कह....रोज तुझे भरपेट खाना तो मिल जाता है न ?’’

बबनी का जी चाहता है कि बुक्का फाड़कर रो पड़े। मगर जब्त करती है किसी तरह। बड़ी मुश्किल से कह पाती है, ‘‘तू विश्वास कर मैया, मैं वहाँ खुश हूँ।’’
‘‘तू झूठ कहती है, गिरधारी दुसाध को हमने भेजा था, उसने बताया कि बबनी बहुत दुख में है। दूसरे के खेत में दिहाड़ी
करती है। उसने खुद देखा कि बरसात में भींगते हुए तू दूसरे के खेत में धनरोपनी कर रही थी। बोल क्या यह झूठ है ?’’

बबनी की गर्दन झुक जाती है। बोली नहीं फूटती कंठ से। अगर बोलती तो जरूर हरहराकर बरस पड़ते उसके आँसू।

मैया उसके मौन से सब समझ जाती है और तब उसका कलेजा मानो मुँह को आ जाता है। बबनी को गले से लगा लेती है। आँखें रिसने लगती हैं बेलगाम। आँसू से तर आवाज में कहती है वह, ‘‘तेरे बाऊ जी हमको कभी माफ नहीं करेंगे बबनी....कभी माफ नहीं करेंगे। अंडे की तरह सेते थे तुझे और कहते थे कि इस लक्ष्मी बिटिया का ब्याह ऐसे घर में करेंगे, जो हमसे चार गुना ज्यादा होगा। पर हाय रे दैव! चार गुना कम भी तेरे भाग्य में नहीं आया।’’

दोनों के आँसू बहुत देर तक एक-दूसरे के कंधे भिंगोते रहते हैं।
‘‘बबनी’’, थोड़ी देर बाद गिड़गिड़ाने जैसा स्वर निकलता है मैया के गले से, ‘‘एक बात कहें, तू मानेगी न!’’
‘‘का ?’’ अनमनेपन से कहती है बबनी, जैसे उसे आभास हो गया हो कि वह क्या कहने वाली है।
‘‘
तू जायेगी न, तो बैलगाड़ी में दो-चार मन चावल लदवा देंगे, लेते जाना लाडो।’’

‘‘ना मैया ना, ई कारोबार अब बंद कर दो, नहीं तो हम दोनों को बहुत जलील होना पड़ेगा। भैया-भौजी सबको ऐसा करना बिल्कुल सुहाता नहीं है।’’
‘‘नहीं सुहाता है तो मत सुहाये। क्या इस घर में हमारा कोई हक नहीं है...क्या हम इस घर को बनाने, संभालने और बढ़ाने वाली कोई नौकरानी थे ? और फिर तुमको गढ़ा में डालने वाले भी तो ये ही लोग हैं...तुम्हारे अपने भाई....मेरे अपने बेटे।’’
‘‘मैया, तुम अब ऐसा क्यों सोचती हो....मेरी तकदीर में जो बदा था वह मिल गया।’’
‘‘तकदीर को खराब किया इनलोगों ने जान-बूझकर। हम कितनी बार बोले कि शादी-ब्याह जीवन भर का सौदा होता है। यह कोई सामान की खरीददारी नहीं है कि खोटा निकला तो बदली कर लिया। नये रिश्ते को जांचना, परखना, ठोंकना और बजाना पड़ता है। मगर इनलोगों ने जल्दबाजी करते हुए दहेज बचाने के चक्कर में अपने सिर की बला टाल दी फटाफट
और एक कंगाल-दरिद्र के घर तुमको फँसा दिया।’’

‘‘तुम यह सब बार-बार दुहराकर बेकार ही इन्हें कोसती हो। देखो माई, हम अब दूर देश के पराये पंछी हैं, हमसे अब ज्यादा मोह न रखो। तुम्हारे बुढ़ापे को इनकी जरूरत है। मेरे कारण इनसे अदावत करना ठीक नहीं। आखिर ये लोग भी तो तुम्हारे अपने ही बहू-बेटे हैं...पराये या सौतेले तो नहीं हैं ?’’

मैया विचारने लगती है कि बबनी कोई गलत नहीं कह रही है। ताज्जुब नहीं कि ये लोग उसके यहाँ आने-जाने पर भी रोक लगा दें। तब क्या कर लेगी वह ? पिछली बार जा रही थी बबनी तो गिरधारी को साथ करके उसने पाँच सेर दाल और आधा मन चावल दे दिया था। देखकर दोनों बहुरियों के कलेजे पर गेहुँअन लोट गया था। बर्दाश्त नहीं हुआ तो छोटकी ने मुँह से विष उगल ही दिया, ‘‘मैया, जीवन भर का ठेका नहीं ले रखे हैं हम। किसी के वास्ते कुबेर का खजाना
नहीं गड़ा है यहाँ।’’

सुनकर मैया दंग रह गई थी। मन तो हुआ कि जहर को काटने के लिए जहर ही उगल दे। पर जहर उगलने के लिए उसे साँप बनना आया ही कब ? तब भी वह जवाब देती जरूर, मगर आवाज भीतर ही घुटकर रह गई। क्योंकि पीछे से देवन-सीवन भी कुछ भुनभुना रहे थे तथा बड़की के भी मुंह-नाक बिचके हुए थे।

बबनी अपनी बेचारगी पर कलप उठी थी। मैया को विश्वास नहीं हो रहा था कि यही वह घर है जिसे अपने खून से उसने सींचा है और अपनी हड्डी पर खड़ा किया है।

उस दिन मैया को समझ में आ गया कि वह अब इस घर की मालकिन नहीं रही। बल्कि अब बहुओं का जमाना आ गया। बड़ा अरमान था न मैया को कि हम अपने देवन-सीवन के लिए सुंदर-सुघड़ और नेक पतोहू चुनकर लायेंगे। दर्जनों छोरियों को देखने के बाद बाप बनकर मैया ने खुद उनका चुनाव किया था। मगर बबनी के लिए जब वर ढूँढने का मौका आया तो उसमें पहले जैसी ताकत नहीं रही थी। दूसरी बात थी कि घर में दो जवान बेटों के रहते उसे ऐसा करना शोभा
भी नहीं देता, सो उसे इन पर आश्रित हो जाना पड़ा।

पहले तो ये लोग बहुत दिनों तक टाल-मटोल करते रहे थे जबकि बबनी भरपूर जवान हो गई थी। थोड़ी-बहुत खेती-गृहस्थी सँभालने के बाद बचे हुए निठल्ले समय को मौज-मस्ती और हँसी-ठट्ठा में ये गुजार देते थे। मैया जब कुढ़ने लगी थी, ब्याह के प्रति रोज की आनाकानी को लेकर खीजने लगी थी तो दोनों ने महज निपटाने के लिए या पिंड छुड़ाने के लिए झटपट पहला ही लड़का देखकर ब्याह तय कर लिया था। जैसे शादी के नाम पर सिर पर रखे एक बोझ को किसी तरह हल्का कर देना है। भले ही उस बोझ को गिराने के लिए एक अंधा कुआँ ही क्यों न हो। तिलक-दहेज ज्यादा न खरचना पड़े, इस वजह से उसे एक दरिद्र घर की राह दिखा दी गई।

पता नहीं किस जनम का बदला लिया दोनों ने। पहले तो वे जान छिड़कते थे इसके ऊपर। उसकी एक छींक भी आ जाने से डॉक्टरों और वैद्यों की कतार खड़ी कर देते थे। कोई मेला या उत्सव दिखाने के लिए वे बबनी को अपने कंधों पर बिठाकर ले जाते थे। एक बार तो सर्कस दिखाने के लिए बारह बरस की उमर में भी इन लोगों ने एक डेग पैदल नहीं चलने दिया था बबनी को, जबकि वह मजे से चलकर जा सकती थी। रास्ते में लोग देख-देखकर हँसते थे कि नसीब हो
तो फूलकुमारी बबनी जैसा।

खुद मैया के लिए ये लोग क्या-क्या नहीं करते थे। अपनी मेहरिया आने के पहले तक दोनों उसके ना-ना करने के बावजूद हर शाम पैर दबाने बैठ जाते थे। मैया इनके आचार-विचार और भाव-प्रेम देखकर सोचती थी कि उसकी त्याग-तपस्या बेकार नहीं गई।

फिर जाने एकाएक दोनों को क्या हो गया ? शादी के बाद इनकी बहुएँ चाहने लगी थीं कि बबनी उनके कामों में मदद करे। उनका हर कहना माने। मगर बबनी तो हमेशा राजदुलारी की तरह नाज-नखरे और लाड़-दुलार की जमीन पर पली थी। सो उन्हें जलन होने लगी। और फिर ज्यों-ज्यों वे घर में भारी होती चली गयीं बबनी के प्रति उनका दुराव बढ़ता चला गया। इन्हीं दिनों मैया को लगने लगा कि बबनी का अब ब्याह हो जाना जरूरी है।

.....और फिर ब्याह के नाम पर कुएं में ढकेल दी गई बबनी।
बबनी पहली बार ससुराल से होकर आई तो दस दिन तक लगातार उसकी आँखों में आँसू की झड़ी लगी रही। मैया मानो छाती पीटकर रह गई। जिस लाडो के पांव कभी गोबर तक से न छुआये, उसे दूसरे के खेत में धनरोपनी तक करनी पड़ रही थी। मैया ने मन में एक उपाय सोचा - अभी भी बबनी को उसका वाजिब हक दिया जा सकता है। यहाँ की चार-पाँच बीघा जमीन बेचकर वहाँ उसे इतनी ही जमीन खरीद दी जाये। इतने में आराम से गुजारा हो जायेगा उसका। यहाँ कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा। पचासों बीघा तो है यहाँ। पूरी की पूरी खुद से संभलती भी नहीं। कुछ बंटाई पर लगती हैं, कुछ
परती रह जाती हैं। मगर यह योजना मैया के मन में ही धरी रह गई। तीन-चार बार बबनी आई गई.....दो-चार मन अनाज के संदेश देने में ही बेटे-बहुओं पर मानो बिजली टूटकर गिर-गिर गई।

मैया को अब कोई चारा नजर नहीं आ रहा - क्या करे, क्या न करे। अपने भाई-भौजाई के तेवर देखकर कुछ भी लेते हुए बबनी के रोयें सिहर उठते हैं। मन ही मन तजवीजते-तजवीजते एक उपाय सूझता है फिर। मैया उत्साह में झट बताना चाहती है बबनी को। किंतु बबनी अब तक नींद के आगोश में चली जाती है। मैया भी आँखें मूंद लेती है।

सोनू के रोने की आवाज सुनकर मैया की नींद खुलती है। हड़बड़ाकर उठती है तो देखती है कि रात के अंचरा को सूरज बाबा ने हटा दिया है। चारो ओर अंजोर हो गया है। बबनी कोठरी में नहीं है। वह सोनू को पुचकारते हुए गोद में उठा लेती है। घर से बाहर निकलकर देखती है तो गोहाल के पास दस दिन से जमा गोबर की ढेरी को बबनी पाथ रही है। मैया का मन पहले तो दया से भर जाता है, फिर गुस्से से तमतमा उठती है। गरीबी की मार ने उसे सहनशील, कमाऊ और
बेबस बना दिया है, तो इसका मतलब क्या कोई यहाँ भी मेरी नजर के सामने इससे चाकरी करायेगा ? उसे याद आता है कि गोबर देखकर ही बबनी पहले नाक फोंफकारने लगती थी।

‘‘
बबनी.....’’, दूर से ही खिसियाकर पुकारते हुए जाती है मैया, ‘‘किसने कहा तुझे गोबर पाथने को ?’’
‘‘किसी ने नहीं मैया, इतनी बड़ी ढेरी देखकर हम खुद ही पाथने लग गये।’’ बबनी की बोली की कसक मैया को अंदर से छील गई।

‘‘
मुझसे छुपा मत बबनी। किसी महारानी ने तो जरूर तुझे हुकुम दिया है।’’
बबनी इसका कोई जवाब नहीं देती। मैया का हृदय गुहार कर उठता है। आँखें डबडबा जाती हैं। उससे देखा नहीं जाता तो सोनू को लिये-लिये वहाँ से चली जाती है। आँगन में बैठकर सारे बच्चे दूध-चूड़ा खा रहे हैं। सोनू उन्हें देखकर मैया को उँगली से बताने लगता है। मैया बड़की को कहती है कि इसे भी कुछ खाने के लिए दे दे। बड़की रसोईघर से रात की सूखी रोटी लाकर पकड़ा देती है सोनू के हाथ में। मैया तिलमिलाकर रह जाती है - वाह रे पत्थर के कलेजेवाली औरत। जी में आता है कि रोटी लेकर बड़की के मुँह पर दे मारे। मगर देखती है कि सोनू बड़े चाव से रोटी कुतर-कुतर कर खाने लगता है। उससे यह अन्याय देखा नहीं जाता। हट जाती है यहाँ से मन मसोसकर।

एक महीना गुजरते-गुजरते बबनी को लेने उसके पाहुन आ जाते हैं। देखने में सुंदर-स्वस्थ, मगर गरीबी के दब्बूपन से सहमा-सहमा। किसी घर में दामाद आता है तो साले-सरहजों के लिए हँसी-मजाक के पटाखे छूटने लगते हैं। धमाचौकड़ी मच जाती है। मगर बड़की और छोटकी दोनों इस तरह मुँह घुमा लेती हैं जैसे घर में कोई बला आ गई हो। देवन और सीवन तो उसके प्रणाम का जवाब तक नहीं देते हैं। उनके खाने-पीने के लिए भी कोई विशेष इंतजाम नहीं.....वही रोज-रोज की रोटी और भात। सोने-बिछाने के लिए दालान की उबड़-खाबड़ चौकी और उसके ऊपर एक मैली-कुचैली कथरी। देख-देखकर मैया इस तरह टूटती है भीतर ही भीतर जैसे कि पत्थरों के अनवरत प्रहार से टूटता है कोई काँच।

एक रोज तो हद ही हो जाती है - मैया देखती है कि पाहुन कंधे पर हल और हाथ में मजूरों के कलेवा की गठरी लेकर खेत जा रहे हैं पहुुँचाने। उसे समझ में नहीं आता कि ऐसा सलूक करके ये लोग पाहुन को नीचा दिखाना चाहते हैं, ठेस पहुँचाना चाहते हैं या खुद मैया की खिल्ली उड़ाना चाहते हैं। भोले-भाले, दीन-हीन पाहुन को हो सकता है यह सब बुरा न लगे, लेकिन मैया का कलेजा चाक-चाक हो जाता है।

आठ दिन रहते-रहते बेचारे उस मँुददुबरा से कौन-सी चाकरी नहीं कराई जाती। शायद इनकी मंशा है कि इन्हें इतना प्रताड़ित करो कि फिर दोबारा यहाँ लौटकर न आये। क्या इन्हें अपने बहनोई की इज्जत करने का सऊर भी सिखाना होगा ? कोई बहनोई गरीब हो तो क्या वह बहनोई नहीं घर का मजूर बन जाता है ?

दो-तीन दिनों में बबनी विदा हो जायेगी। बिना कुछ लिये बबनी चली जायेगी, उसे इसका गम अभी से ही साल रहा है। मैया के पास एक बक्सा है - बहुत बड़ा बक्सा। इसे साड़ियों से भरकर दिया था बिरजू भैया ने। अपने नैहर के बक्से पर मैया के अलावा किसी का कोई हक नहीं। वह बहुत किरिया-कसम देकर इसे अपने साथ ले जाने के लिए बबनी को राजी करती है। मैया का मन रखने के लिए उसे हाँ करना ही पड़ता है। हालाँकि वह सोचती है कि उस गरीबनी के यहाँ इतने बड़े बक्से का भला क्या काम ?

बबनी की रुखसत का समय आता है। न कोई कपड़ा.....न संदेश। यहाँ तक कि बबुआ सोनू के लिए भी नहीं। घर की श्वासिन विदा हो रही है, किसी को कोई हया-ग्रान नहीं। मैया गिरधारी से बैलगाड़ी तैयार करवाती है। आज घर में किसी की आहट नहीं लग रही। लगता है जैसे सब के सब बेहद जरूरी काम में फंसे हैं अपनी कोठरी में। मैया गिरधारी से बक्सा लदवाती है। बक्सा लादते हुए दोनों बहुएं अपनी-अपनी खिड़की से झाँकने लगती हैं। इधर दोनों माँ-बेटी गले लगकर बिलखती हुई विलाप करती हैं। घर में किसी और पर जूं तक नहीं रेंगता कि जरा आकर गलबाहीं कर लें। जबकि ऐसे मौके पर दुश्मन का गुमान भी पिघल जाता है।

बबनी आकर बैलगाड़ी में बैठ जाती है। मैया की सांसें जोर-जोर से धड़कने लगती है - कैसे काटेगी अब वह बबनी के बिना दिन ? पाहुन मैया के गोड़ छूते हैं। मैया अंचरा की खूंट से बंधे बीस रुपये का एक नोट निकालकर गोड़लगाई देती है। उसे अशीसते हुए कहती है, ‘‘आते रहियेगा पहुना। जब तक हमरा प्राण टिमटिमा रहा है इस घर को बेगाना मत समझियेगा।’’

पाहुन ‘अच्छा माई’ कहकर बैलगाड़ी में चढ़ जाते हैं। टोले-पड़ोस की ढेर सारी जनानियों की भीड़ लग गई है। गिरधारी गाड़ीवान की जगह संभालकर बैल हाँकना ही चाहता है कि पीछे से सीवन की एक कड़कदार हाँक लगती है, ‘‘गिरधरिया, जरा रुक तो रे।’’

सबलोग चौकन्ने हो उठते हैं कि आखिर बात क्या हुई ? मैया की छाती धक-धक करने लगती है।
‘‘जरा इस बक्से को उतार तो नीचे।’’ सीवन लाट जैसा हुक्म देता है गिरधारी को। सबलोग सकते में आ जाते हैं। बक्सा उतारा जाता है।
सीवन दहाड़ता है, ‘‘इसकी कंुज्जी कहाँ है ?’’

कंपकंपाती हुई बबनी आँचल के छोर से खोलकर चाबी बढ़ा देती है। सबके सामने अब मामला साफ हो जाता है कि बक्से पर सीवन को शक है। इसकी तलाशी लेना चाहता है।

भरी भीड़ में सीवन बक्सा खोलता है। मैया जड़ हो जाती है। चेहरा सफेद पड़ जाता है। उसे यों लगता है कि बक्सा नहीं खोला जा रहा है, बल्कि उसकी साड़ी खींची जा रही है। जैसे भरी सभा में द्रौपदी की खींची जा रही थी। तब खींचनेवाला गैर था और उसे भगवान ने बचा लिया था। आज खींचनेवाला उसका बेटा ही है और बचानेवाला कोई नहीं।

बक्सा खुलता है और इसके साथ ही बदरी मैया दौड़ जाती है घर के अंदर। बक्से में कई गठरियां हैं, जिनमें चावल है, दाल है, गेहूँ है, चूड़ा है, चना है.....इसी तरह कई अन्य खाद्य सामग्रियां हैं।

बबनी देखकर बदहवास रह जाती है - मैया ने यह क्या कर दिया ? उसने जब कुछ भी लेने से मना कर दिया तो मैया ने बक्से में गठरियां रख दीं ? अब तक देवन भी आ जाता है। बड़की-छोटकी दरवाजे की ओट से हुलक-हुलक कर देखने लगती है। देवन और सीवन आँखें तरेरकर घूरने लगते हैं, जैसे बबनी और उसके पाहुन को जिंदा निगल जायेंगे। पाहुन डर कर जेब से गोड़लगाई का रुपया निकाल कर देवन के आगे कर देता है कि कहीं उसकी जेब की तलाशी भी न होने लगे।

उसके भोलेपन और निरीहता पर देखनेवालों का कलेजा मुुंह को आ जाता है। बबनी की गर्दन नीचे झुक जाती है, जैसे उसने कोई जघन्य अपराध कर दिया हो।

गुस्से से पिनपिनाकर देवन हिलने लगता है सूखे हुए रेड़ की तरह, ‘‘गिरधरिया, बक्से को खींचकर घर में ढुका दो.....बैलन को ले जाकर दोगाह में बाँध दो और इन चोर-चोट्टी कलमुंहों से कह दो कि पैदल ही अपना रास्ता नापें। बड़े आये हैं बैलगाड़ी की सवारी करने।’’

सहमा हुआ गिरधारी हुक्म की तामील में लग जाता है। वे दोनों प्राणी बैलगाड़ी से उतरकर धरती में नजर गड़ाये हुए चल देते हैं।

मैया अपनी कुठरिया में बंद होकर दीवार से माथा फोड़ने लगती है। मगर उसे न कोई रोकता है, न टोकता है। उल्टे ताने सुनाये जाते हैं कि नौटंकी कर रही है बुढ़िया।

महीनों मैया से किसी की बातचीत नहीं होती। इस तरह से मुँह घुमाये रहते हैं सब जैसे वह उनके लिए कोई खतरनाक दुश्मन हो। खुद ही काढ़कर कभी-कभार वह खा लिया करती है। बुतरूअन को देखती है तो दुलारना चाहती है, पर वे छिटक कर भाग जाते हैं। घर मैया के लिए एकदम बेगाना बन जाता है। दिन गुजारने के लिए वह गाँव में जिस-तिस की देहरी पर जाकर बैठ जाती है। जब वह अकेले होती है तो बबनी पर अत्याचार और थूकम-फजीहत की याद उसे पागल बनाने लग जाती है।

एक बार बरबस मैया का ध्यान जाता है कि घर में एक नया आदमी आया है, जिसकी खूब मान-मर्याद और सेवा-टहल होने लगती है। कहाँ उठायें....कहाँ बैठायें की खातिरदारी में सब जी-जान से भिड़े नजर आते हैं।

रोज पुए-पकवान और हलवा-खीर की महक नाक तक पहुँचने लगती है। वह आदमी जब जाने लगता है तो उसके साथ दो भरे बोरे लेकर दो बेगार भी जाते हैं। मैया जब उस खासमखास आदमी के बारे में पड़ोस में पूछताछ करती है तो मालूम होता है कि वह बड़की का मौसेरा भाई था, यानी देवन का मौसेरा साला।

इस जानकारी पर वह घंटों पच्छिम के खालीपन को घूरती रहती है माटी की मूरत की तरह। उसे पाहुन बेतरह याद आते हैं।

एक दिन इसी तरह मैया गुम रहती है किसी शून्य में, तभी पड़ोसिन चंदू की माँ की आवाज सुनाई पड़ती है। चंदू की माँ का हाल अस्त-व्यस्त है। वह रो-धो रही है कि उसकी पतोहू ने उसको केश खींच-खींचकर मारा। बदरी मैया को वह बुलाने आई है कि वह इसका फैसला कर दे। मैया उसे सांत्वना देती हुई ले जाती है उसके घर। अपनी बोली में चाशनी घोलकर बड़े प्यार से पुकारती है चंदूवाली को। चंदूवाली चुड़ैल की शक्ल बनाकर चिल्ला रही है....फक्कड़ पढ़ रही है। बदरी मैया को देखते ही वह और जोर से फंुफकार उठती है, ‘‘जा जा, पहले अपना घर संभाल। पहले अपनी बहू-बेटी को ठीक कर, तब समझाना दूसरे को। बड़ी आई है नाकवाली पंचैइती करने !’’
बदरी मैया सुनकर काठ हो जाती है। जैसे कोई काली आँधी उसके भीतर विद्यमान घटाटोप काली बदली को ले उड़ी अचानक। आज तक गाँव में किसी ने इस तरह उसे दुरदुराने का साहस नहीं किया। वह अपने अँचरा में मुँह छुपाकर सुबक उठती है और फुर्ती से पलटकर दौड़ती हुई अपनी कोठरी में जाकर खटिया पर ढह जाती है। यह एक चेतावनी है कि दूसरों के दुख-सुख में दखल देने का, शामिल होने का मैया को अब कोई अख्तियार न रहा। अर्थात् उसके लिए अब कहीं कल नहीं....न घर....न बाहर। भगवान से वह निहोरा कर उठती है कि उसे धरती से जितना जल्दी हो सके उठा ले।

बदरी मैया अब किसी से न बोेलती है, न बतियाती है। कोई टोक देता है तो बस हाँ-हूँ में जवाब दे देती है। उसकी काया पतली सींक हो गई है.....केश सफेद सन हो गये हैं और देह का चमड़ा मुचड़ी हुई चेथरी बन गया है। पलक झपकाती हुई बैठी रहती है देहरी के पास माटी की पहुँची पर सुबह से शाम तक।

एक दिन माथे पर बोरा लादे हुए एक आदमी पास आकर पूछता है, ‘‘बदरी मैया घर में है ?’’

मैया अकचका जाती है - कौन है, जो उसकी पहचान लेकर आया है। अब तो सब देवन और सीवन को ही पूछते हुए आते हैं।

वह अपनी मिचमिची आँखों को ऊपर उठाकर पूछती है, ‘‘कौन हो तुम बउआ, कहाँ से आये हो ?’’

जवाब में उस बेगार के पीछे खड़ा एक बूढ़ा बोलता है, ‘‘हम बिरजू हैं, घुसकुरी गाँव से आये हैं।’’

’’कौन बिरू भैया। मैं हूँ मालती....पहचाना नहीं। लगता है तेरी नजर भी मोटी हो गई।’’ मैया हुलस पड़ती है।
‘‘अरे, हमने तो सांचो नहीं पहचाना। तू तो लगता है एकाएक बहुत बूढ़ी हो गई।’’

मैया इसका कोई जवाब नहीं देती, सिर्फ अंदर लिवा जाती है उन्हें। अपनी कुठरिया के पास ओसारे में मचिया पर बिठाती है। फिर थरिया में पानी लाकर गोड़ धोने लगती है। बिरजू मामू कहते हैं, ‘‘रोज-रोज तेरी याद आती थी....कल-कल करते-करते शायद इस बार दो बरिस में आये हैं हम। का करें, ढेर चलना-फिरना अब हमसे भी कहाँ हो पाता है। मगर तुम तो लगता है हमसे भी ज्यादा लचपच हो गई। बाल-बुतरून सब निमन तो है न !’’
उनके पाँव के पास बैठी मैया छोटा-सा जवाब दे देती है, ‘‘हाँ सब निमन है।’’
‘‘दुलहिन सब तेरी खूब सेवा-सत्कार तो करती है न !’’

‘‘हाँ, खूब करती है।’’ कहती हुई मैया भटक जाती है अचानक अतीत के बीहड़ में। फिर क्या पूछते हैं बिरजू मामू, उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ता।

बहुत देर बाद उसे कहीं गुम देख वे उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहते हैं, ‘‘मालती बहिन, लगता है यहाँ कुछ गड़बड़ चल रहा है ?’’

मैया अकबका कर लौटती है अपने बीहड़ से, ‘‘ना भैया, ना, यहाँ कुछ गड़बड़ नहीं है।’’

कहने को तो मैया कह देती है मगर अब तक बिरजू मामू बहुत कुछ सूंघ लेते हैं। वे देख रहे हैं कि आँगन में सीवन-देवन और बहुएं आ-जा रहे हैं लेकिन कोई उन्हें आकर प्रणाम-पाति तक नहीं कर रहे। उनके साथ आये जन को अब तक किसी ने एक लोटा पानी तक नहीं दिया। आँगन के कोने में नाली के पास वह बोरा रखकर बैठा है चुपचाप। जबकि पहले उनके आते ही बच्चे धड़ाधड़ चूड़ा-फरही और पुआ-पकवान खाने लगते थे। बहुएं चटपट गाँव भर में बेइना घुमवाने लगती थीं।

बिरजू मामू कहते हैं, ‘‘बहिन, तू कहती है कि यहाँ कुछ गड़बड़ नहीं है, फिर हमरे यहाँ आने से सबको साँप काहे सूंघ गया है ?’’

मैया अपनी गर्दन नीचे लटका लेती है। मामू अपने हाथ से उसका चेहरा अपने सामने कर लेेते हैं। मैया की आँख उनकी आँख से मिलते ही हरहरा कर चू पड़ती है।
मामू से यह सहा नहीं जाता है और वे भी रो पड़ते हैं। मैया अपने अंचरा से आँसू सुखाती हुई कहती है, ‘‘हमको अपने साथ ले चलो भैया, अब हम घुसकुरी में ही रहेंगे।’’

तो नौबत यहाँ तक पहुँच गई ? मामू अचम्भित रह जाते हैं। जब जवानी के वय में दुख का पहाड़ टूट पड़ा था इसके ऊपर और यह एकदम बेसहारा हो गई थी, तब भी यहाँ का मोह इससे नहीं छूट सका था। इसी बात से मामू अंदाज लगा लेते हैं कि पानी नाक से कितना ऊपर हो गया है।

मैया तैयारी करने लगती है। कल चला जाना है यहाँ से। वह गाँव में घूम-घूम कर सबसे मुलाकात कर आती है। सबको बहुत दुख होता है, मगर मैया के हित के लिए सब इसे अच्छा ही समझते हैं। भले ही कुछ लोग कहते हैं कि जाओ, मगर आ जाना। औरत के प्राण पति के घर में ही टूटे तो आत्मा को शांति मिलती है।

मैया कराहती-सी कहती है, ‘‘यह उमर कहीं जाने के बाद लौटने की नहीं रही। अब भगवान की जैसी मरजी।’’

देवन और सीवन को जब भनक मिलती है तो वे आपस में खुसुर-फुसुर शुरू कर देतेे हैं। फिर देवन उसके पास आकर अपनी मंशा प्रकट करता है, ‘‘ जाना ही है तो दो दिन रुक जाओ। श्हार से हम वकील ले आते हैं। घर-जमीन सब हमारे नाम लिख दो। आजकल दुनिया का कोई भरोसा नहीं।’’

मैया को लगता है कि किसी ने उसके पाँव के नीचे की मिट्ठी खींच ली और वह बेधड़क चित्त हो गई। सारा लहू मानो हठात् जम जाता है देह का। आँखें डबडबा जाती हैं, ‘‘ठीक है, हम दो दिन रुक जाते हैं। तुम लोगन को यह डर है कि हम पूरी जमीन-जायदाद बबनी या बिरजू भैया के नाम लिख देंगे तो वकील जरूर बुला लो।’’

बिरजू मामू सुनकर भौंचक रह जाते हैं - वाह रे सपूत! अपनी कोख से निकालकर नवजात जीवन को यहांँ तक माथे पर ढोकर पहुँचाने वाली की यह दुर्गति !

वकील जब मैया से टिप्पा लगवा लेता है तो फिर वह एक पल यहाँ रुकना नहीं चाहती। उसके वास्ते मामू ने एक साड़ी -कुरती लाई है। वह अपनी कुठरिया में जाकर उसे पहन लेती है। अब आँगन में आकर जबरदस्ती बच्चों को पकड़-पकड़ कर चूमा-चाटी और रोग-बलाय लेने लगती है। पता नहीं इन्हें फिर वह देख भी पाये या नहीं। अंत में वह देवन-सीवन के पास जाती है और एक अजीब-सी कारुणिक हँसी हँसते हुए अपना अँचरा झाड़कर कहती है, ‘‘देख ले बेटा, हम अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा रहे। हमरी तलाशी ले लो। इस घर में हम भैया का दिया हुआ कपड़ा पहनकर आये थे और आज उन्हीं का कपड़ा पहन कर वापस जा रहे हैं।’’

कोई कुछ नहीं बोलता। मैया आगे कहती है, ‘‘अच्छा हम चलते हैं, भगवान तुम लोगन को सुखी रखें।’’

मैया की बात सुनकर बिरजू मामू फफक-फफक कर रो पड़ते हैं। इतनी तकलीफ तो उन्हें बहनोई के मरने पर भी नहीं हुई थी। घर का कोई सदस्य मैया के इस संवाद पर टस से मस नहीं होेता। एक मिथ्या गुमान में सबके चेहरे लटके रहते हैं।

मैया घर की चौखट पर अपना माथा टेकती है - जैसे अपने मृत पति से माफी माँग रही हो। गाँव के काफी लोग जमा हो गये हैं। मामू गौर करते हैं कि आज कोई अनाथ होने की बात नहीं कर रहा। सबकी ओर दया भरी नजर से देखती हुई मैया कहती है, ‘‘कोई भूल-चूक हुई हो तो माफ कर देना।’’

मैया मन को कड़ा करके अपनी नजर फेरकर बिरजू मामू का कंधा पकड़ लेती है। वे आगे-आगे चलते हैं और पीछे से मैया जाने लगती है। गाँव के सीवान तक जाते-जाते वह कई बार पीछे मुड़कर देखती है। आखिर में बिरजू मामू पूछ बैठते हैं, ‘‘हाली-हाली पीछे का देख रही है बहिन ?’’

‘‘कुछ नहीं ऐसे ही।’’
बिरजू मामू भी पीछे मुड़कर देखते हैं, ‘‘कहाँ कोई तो नहीं है। अब पीछे देखना बेकार है.....चलते चलो....।’’

मगर तब भी बहुत दूर निकल जाने के बावजूद मैया पीछे मुड़-मुड़कर देखती रहती है कि शायद देवन-सीवन अब भी उसे रोक लें.....उससे माफी माँग लें.....मनाते हुए घर लौटा लें। पर दूर-दूर तक किसी का कोई थाह-पता नहीं है। कोई उसे नहीं रोक रहा.....और बदरी मैया बार-बार पीछे मुड़कर देखती जा रही है....देखती जा रही है......।

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१७ अक्तूबर २०११

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