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					 मैं 
					चुपचाप रुचिपूर्वक सुन रही हूँ। अचानक वे पूछ बैठीं ' अगर आपसे कोई पूछे -तुम तो खाई -खेली हो, 
					तो कैसा लगेगा ?'
 'एक चाँटा लगा दूँगी।'
 'आज नहीं, तब जब होस्टल में रह कर बी.एड. कर रहीं थी, तब क्या 
					कहतीं?'
 'अब इतना तो नहीं बता सकती, आजकल की लड़कियों में समझदारी 
					हमलोगों से ज़्यादा विकसित है। हम लोग ये सब काफ़ी बातें देर 
					में समझा करते थे। अब अब ये टी.वी. वगैरा ...'
 हाँ वही तो ! और जब इसका मतलब मुझे पता चला तभी से मन पर एक 
					बोझ सा आ गया।'
 'पर क्यों ?'
 
 वे बताने लगीं - "अक्सर ही बुलावा आ 
					जाता था आलोक की ओर से -कल्चरल सोसायटी की इन्चार्ज जो बना 
					दिया था मुझे। कभी पत्रिका कैसी हो इसके बारे में डिस्कशन, कभी 
					क्या प्रगति, चल रही है, मीटिंगें हो रही है। शुरू-शुरू में 
					बड़ उत्साह से पहुँच जाती रही फिर जब रंग-ढंग समझ में आने लगे,
					तो वह बचने की कोशिश कर जाती। एक अजीब -सी खिसियाहट घेर 
					लेती। फिर भी जाना तो अक्सर ही पड़ता था।
					एक बार खबर आई, मीटिंग कामना लॉज के रूम नं. ७ में है। 
					वहाँ जल-पान का बढ़िया डौल बन जाता है। अनुराग पिछले दो दिनों 
					से गैरहाज़िर था और मीरा -निर्मला दोनों एक साथ किसी 
					रिश्तेदारी में पार्टी खाने। मैं 
					पहुँच गई टाइम से, समय से पहुँचना 
					आदत में शुमार है। पहुँची तो वहाँ 
					कोई नहीं बस आलोक कुर्सी पर जमा बैठा है।
 जाते ही कहने लगा, देख लिया ? ये 
					हाल हैं यहाँ के, किसी को काम की चिन्ता नहीं। सब मौज कर रहे 
					हैं। एक मैं ही हूँ जो मरा जा रहा हूँ'जैसे मेरा अपना 
					इन्टरेस्ट हो !
 'क्या कोई नहीं आया ?'
 'आते ? अरे, नोटिस पर साइन ही नहीं किये। भगा दिया होगा मिट्ठू 
					को।'
 'तो फिर तो कोई आयेगा भी नहीं ...मैं बेकार ...'
 'वाह बेकार क्यों ? तुम्हीं तो एक 
					समझती हो मुझे। तुम भी नहीं आतीं तो मैं तो बिल्कुल अकेला रह 
					जाता ...मैंने तो नाश्ते का बढ़िया आर्डर दे रखा है।'
 'मुझे नहीं करना,कर के आई हूँ।'
 अरे बैठो, बैठो ...अब मिले हैं तो कुछ बातें करही लें', उसने 
					आगे जोड़ा, तुमने भी तो कुछ सोचा होगा मेगज़ीन के लिये।'
 वह कुर्सी से उठा और सोफ़े पर लेट- सा गया, 'क्या बताऊँ 
					कल,बिल्कुल सो नहीं पाया...'
 'क्यों क्या कुछ परेशानी है ?'
 इधर बैठो न आराम से ...'
 'नहीं,ठीक हूँ यहीं।'
 'हाँ तो, क्या-क्या कर लिया है ?'
 उसकी की आँखें उसे अपने चेहरे पर चुभती लग रही थीं। लंबा-चौड़ा 
					था ही जब सामने बैठ कर अपनी नज़रें पर गड़ा देता - लगता भीतर 
					तक पढ़ लेना चाहता है, बड़ी उलझन होने लगती थी।
 खिड़की से बाहर देखते मैंने कहा,
 'मीरा और निर्मला की रचनाएँ ले ली हैं, कई लोग देने वाले हैं 
					और अनुराग जी की कवितायें
 भी, सुन्दर लिखते हैं।'
 एकदम बोला
 'कब से जानती हैं आनुराग को ?''
 'बस यहीं आकर। पहले एकाध कविता पढ़ी थी कहीं ...'
 और वह अनुराग को बिलकुल पसंद नहीं करता, एकदम मुझे याद आया... 
					अनुराग भी उसकी मीटिंग में आना अक्सर टाल जाता है।
					उस दिन की घटना याद आते ही अपने लिए धिक्कार उठने लगती 
					है। कैसी बेवकूफ़ी, उफ़ रोम खड़े हो 
					जाते हैं... '
 
 मैं बैठी सुन रही हूँ -विस्मित सी।
 उसने मुझसे पूछा था,'तुम तो खाई खेली हो ?'
 मैंने बैठने की पोज़ीशन बदली थी।
 वे कहे जा रहीं थीं -
 'हाँ, बिलकुल, मैंने उत्तर दिया था।'
 उसकी कौतुक भरी दृष्टि मुझ पर टिकी थी,
 'अच्छा !'
 'और क्या ! घर में छोटी थी,
					छूट मिलती रही, बचपन से खूब खाती-खेलती रही।'
 'वाह !'
 मैं उसे देख कर हँस दी।
 वह चुप हो गया। फिर अचानक बोला- 
					'अच्छा, अब तुम जाओ।'
 मैं चौंक गई। उसका विचित्र व्यवहार समझ में नहीं आया कैसे बोल 
					रहा है यह। मुझे बड़ा अजीब सा लग 
					रहा था।
 'तुम फ़ौरन यहाँ से चली जाओ।'
 मैं हकबकाई सी उठी अपना पर्स उठाया और एकदम चल दी। अपने कमरे 
					पर आकर ही दम लिया।
 रूम-मेट लेटी हुई थी पूछने लगी, 'क्या हुआ ?'
 'कुछ नहीं,बस अच्छा नहीं लग रहा है।'
 'घर की याद ?'
 'पता नहीं क्यों आँखों में आँसू भर आए। ऐसा व्यवहार किसी ने 
					मेरे साथ नहीं किया था। मैं भी लेट 
					गई चुपचाप। किसी से कुछ कहने को था ही क्या ?
					तब तो कुछ खास नहीं लगा। एक्ज़ाम हो गए सब तितर-बितर हो 
					गए।'
 
 बाद में जब खाई-खेली का असली मतलब पता लगा तो मुझ पर घड़ों 
					पानी पड़ गया।'
 मैं क्या बोलती! बैठी रही आगे का सुनने के चाव में।
 'जब भी वह घटना ध्यान में आती मन ग्लानि से भर जाता ...पता 
					नहीं क्या सोचता होगा मेरे लिए, पता नहीं और लोगों से उसने 
					क्या-क्या कहा होगा... बाद में 
					जितने दिन होस्टल में रही लोग कैसी निगाहों से देखते होंगे 
					मुझे, और मैं बेखबर। लोगों को लगता होगा इसकी आँखों में शरम है 
					ही नहीं। इसीलिये बाद में कभी किसी 
					से मिली नहीं। और फिर तो सब इधर-उधर हो जाते हैं। सबको भूल 
					जाना चाहती थी मैं। '
 'और फिर कोई चिट नहीं भेजी ?'
 'एक्ज़ाम पास आ रहे थे, सब बिज़ी हो गए थे।
					मेरी उस स्वीकारोक्ति के बाद। उसने कभी मिट्ठू के हाथ 
					कोई चिट नहीं भेजी और कभी जब मौका पड़ा भी बड़ी सभ्यता से बात 
					करता था।
 
 शादी के बाद भी सर्विस करती रही मैं पर सेमिनार
					आदि के अवसर पर यही डर रहता था कि कहीं वह सामने न पड़ 
					जाय! बहुत डर-डर कर रही हूँ।
					मैंने आज तक किसी से नहीं कहा आज अपना मन हल्का कर रही 
					हूँ,पर अब मन पर से वह बोझ उतर चुका है,इसीलिए कह पाई हूँ।'
 'और कहीं वह मिल गया तो ?'
 वह हँसीं -निश्छल हँसी, 'पता नहीं 
					कैसी स्थिति हो ! पर अब घबराहट नहीं लगती।
					उम्र के इस प्रहर में अपनी बेवकूफ़ी पर तरस आता है।
					अब वह सामने आ गया तो उससे भी हँसकर बोल लूँगी।'
 'यह भी पूछ लीजिएगा उसने क्या समझा था।'
 वे सिर्फ़ मुस्करा दीं।
 उज्जैन आ रहा था। उन्हें यहीं तो उतरना था।
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