हाँ,
एक दुख उनको अवश्य है। उन्हीं के शब्दों में उनका इकलौता लड़का
नालायक निकला। यह बात और है कि मैं कितना ही लायक क्यों न बनूँ
उनकी दृष्टि में सदा नालायक ही रहूँगा। मुझे नालायक सिद्ध करने
के लिए उनके पास सैंकड़ों उदाहरण हैं। पर एक बात वह विशेष जोर
दे कर कहते हैं, वह यह कि चंद्रिका जैसी रूपवान और बुद्धिवान
लड़की से मैंने शादी नहीं की।
रूप और बुद्धि के साथ चंद्रिका
में एक और गुण यह है कि वह पिता जी के अभिन्न मित्र कृष्णकुमार
जी की सुपुत्री है। चंदनी में दाहिने पड़ोस में कृष्णकुमार जी
ही रहते हैं। कलकत्ते में भी हमारे दोनों परिवार साथ ही रहते
थे। दोनों परिवारों के बड़े चाहते थे कि चंद्रिका और मेरी शादी
हो जाय। छुटपन में तो यह एक दूसरे को चिढ़ाने का विषय था। बड़े
हुए तो वह अपने रास्ते लगी और मैं अपने। वह अपने पहले से ही
बड़े मस्तिष्क में अधिक से अधिक ज्ञान भरने की चिंता में लगी
और मैं रोजी रोटी की चिंता में। इस दौर हमारा मिलना भी बहुत कम
हो गया था।
मुझे अच्छी नौकरी मिल गई और जीवन स्थिर हुआ तो घरवालों ने
तिकतिक लगानी शुरू की कि बच्चू अब शादी कर लो, चंद्रिका
तुम्हारे लिए बैठी नहीं रहेगी, इत्यादि। तब मैंने सोचा हर्ज ही
क्या है। विचार करने पर यह विचार मुझे पसंद आने लगा कि मेरी
शादी अब हो ही जानी चाहिये। शुभकार्य आरंभ करने के लिए मैंने
चंद्रिका को फोन किया। चूँकि मामला व्यक्तिगत था इसलिए घर से
दूर विक्टोरिया मेमोरियल में मिलने का प्लान बनाया।
ठीक समय पर चंद्रिका आई। उसे देख कर मुझे लगा कि इस बीच हम
दोनों कितने कम मिले थे। सबसे पहली चीज मैंने लक्ष्य की वह
चंद्रिका का चश्मा था।
'तुमने चश्मा कब से लगाना शुरू कर दिया?'
'बहुत दिन हो गए। '
'बताया भी नहीं!'
'इसमें बताने लायक कौन सी बात है!'
यह सचमुच बताने योग्य कोई बात नहीं थी। मैंने चंद्रिका को बुला
तो लिया था पर असल विषय को छेड़ने में मुझे घबराहट हो रहीं थी।
हालाँकि पहले कोई भी ऐसी बात नहीं होती थी जिस पर मैं चंद्रिका
से सहजता से बात नहीं कर सकता था। युवावस्था ने विशेष कर
चंद्रिका की युवावस्था ने हमारे बीच की सहजता समाप्त कर दी थी।
फिर पता नहीं क्यों वह चश्मा बहुत आड़े आ रहा था।
'तुम्हारी परीक्षा कब है?' मैंने पूछा था।
'कौन सी परीक्षा?'
'एम. ए. की। '
'कहॉ रहते हो? एम.ए. तो मैंने पिछले साल ही पास कर लिया था। '
'पर तुम्हारे पिता जी तो कह रहे थे कि तुम अध्ययन में बहुत
व्यस्त रहती हो। '
'हाँ आजकल मैं जीवविज्ञान पर व्यक्तिगत रूप से अध्ययन कर रही
हूँ। '
'एम.ए. में तो तुम्हारा विषय मनोविज्ञान था। '
'हाँ। '
'तो अब जीवविज्ञान क्यों?'
'जीव विज्ञान क्यों नहीं?' उसने अपने चश्मों के पीछे से
विचित्र भाव से मुझे देखा था। मानो वह अपने जीवविज्ञान के
ज्ञान का प्रयोग मुझ पर कर रही हो।
'तुम क्या कर रहे हो आजकल?' अब उसके पूछने की बारी थी।
'नौकरी कर रहा हूँ। मैंने कुछ दिन पहले तुमको बताया तो था। '
'हाँ, मुझे मालूम है। मेरे कहने का मतलब था नौकरी के अलावा
क्या कर रहे हो?'
'नौकरी के अलावा!'
'मेरा मतलब अध्ययन आदि था। '
'ओ अध्ययन! उससे तो मैंने छुटकारा पा लिया है। '
मैंने उसे अपनी ओर फिर उसी विचित्र भाव से देखते हुए पाया था।
तब मुझे याद आया कि अध्ययन पर उसके विचार क्या हैं। 'खाली समय
में कुछ पढ़ लेता हूँ। ' मैंने बड़बड़ा कर कहा था।
'आजकल क्या पढ़ रहे हो?'
'आजकल सूरज का एक उपन्यास...'
'सूरज?'
'मेरा मतलब था सूर्यकांत त्रिपाठी निराला। ' मैंने जल्दी से
कहा था। इससे पहले कि अध्ययन पर हमारी बहस छिड़े मैंने असल
मुद्दे में बात कर लेना उचित समझा था।
'चंद्रिका। '
'बोलो। '
'मैंने तुम्हें एक विशेष बात करने के लिए बुलाया है। '
'मुझे मालूम है। '
'मालूम है! कैसे मालूम है?'
'सीधी सी बात है प्रताप। तुमने मुझे घर न बुला कर इतनी दूर
यहाँ बुलाया है। और आजकल हम दोनों के घरों में में जो बात हो
रही है उसे छोड़ कर और क्या बात हो सकती है?'
'चलो तुमने बात आसान कर दी। तो क्या कहती हो, हम अपने माँ बाप
को प्रसन्न कर दें?'
मेरी बात सुन कर वह खिलखिला कर हँसने लगी थी। मुझे बुरा लगा
था। 'इसमें हँसने की कौन की बात है?' मैंने पूछा था।
'हँसने की ही तो बात है। ऐसा कह कर शायद ही किसी ने आज तक किसी
लड़की का हाथ माँगा होगा। '
'तो क्या हुआ, थोड़ा अनूठापन ही सही। '
'प्रताप क्या तुम अपने माँबाप को प्रसन्न करने के लिए शादी कर
रहे हो?' अब वह थोड़ी संजीदा हो गई थी।
'मैं भी प्रसन्न होऊँगा। अब यह भी बताना पड़ेगा?'
इसके बाद वह थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोली थी।
'क्या सोच रही हो?' मैंने पूछा था।
'सोच रही थी कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा। '
'कैसा रहेगा माने? अच्छा रहेगा। '
'तुम अध्ययन में विश्वास नहीं रखते हो। ' उसके लहजे में शिकायत
थी।
'तो क्या हुआ। आवश्यकता पड़ी तो थोड़ा बहुत अध्ययन मैं भी कर
लिया करूँगा। '
'तुम मेरी जीवनशैली में बाधा तो नहीं डालोगे?'
'मेरा अपमान मत करो, चंद्रिका। तुम मुझे बचपन से जानती हो।
उल्टा सीधा सोचना बंद करो। हमारे बड़े यही चाहते है कि हम
दोनों शादी कर लें। अब मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम मुझसे
शादी करोगी ?'
'हाँ प्रताप। ' उसने कहा था और मेरा हाथ थाम लिया था।
मुझे प्रसन्न होना चाहिए था कि एक सुंदर और सुशिक्षित कन्या से
मेरी शादी तय हो गई है। पर नहीं। उस दिन घर लौटा तो मन में सब
कुछ उलझा उलझा था। पहले इस संबंध में गहराई से सोचा नहीं था और
अब कोई छोर पकड़ में नहीं आ रहा था। ऊँट किसी करवट सीधा नहीं
बैठ रहा था। लगता था कोई बहुत बड़ी मूर्खता कर डाली थी मैंने।
मनोविज्ञान में एम.ए.। जीवविज्ञान में व्यक्तिगत अध्ययन। जब
देखो कोई मोटी किताब पढ़ती रहती थी। चंद्रिका जैसी पुस्तकमुखी
के साथ जीवन बिताने की बात सोच कैसे ली मैंने। वह तो मुझे
संदर्भ दे कर बतायेगी कि प्यार कैसे करना चाहिए। दो दिनों में
ही मेरी अवस्था हवा निकले टायर सी हो गई।
चौथे दिन चंद्रिका ने मुझे विक्टोरिया मेमोरियल बुलाया।
अनिच्छित मन से, और भारी कदमो से वहाँ पहुँचा। चंद्रिका पहले
ही पहुँच चुकी थी। गंभीर तो वह सदा ही रहती थी। उस समय साधारण
से अधिक गंभीर लग रही थी।
'प्रताप मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ पर तुम्हें दुख होगा।
इसलिये समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे कहूँ। '
'बस कह डालो। '
'तुम मेरे मित्र हो..। '
'इस भूमिका की कोई आवश्यकता नहीं है चंद्रिका। बात क्या है?'
'तुम्हें दुख होगा प्रताप। '
'बात तो बताओ। '
'उस दिन जब तुमने शादी की बात की थी तब से मैं इस बारे में
गंभीरता से सोच रही हूँ। प्रताप, हम दोनों की प्रकृति एकदम
भिन्न है। यह शादी करके हम भूल ही करेंगे। क्या.. क्या हम
दोनों मित्र ही नहीं रह सकते?'
मैं भी तो यही चाहता था। चलो यह तो अच्छा हुआ कि चंद्रिका भी
नहीं चाहती कि हम दोनों की शादी हो। मुझे सोच में पड़ा देख कर
चंद्रिका ने कहा था, 'मुझे मालूम है कि तुम्हें दुख होगा...
पर...'
'नहीं नहीं चंद्रिका तुम नहीं चाहती तो यह शादी नहीं होगी। '
मैंने कहा था। मैंने मौके का एक फिल्मी डायलॉग भी जड़ दिया था,
'तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है। '
चंद्रिका इस भ्रम में थी कि उसकी ना से मुझे बहुत दुख पहुँचा
है। मैंने उसके इस भ्रम को बने रहने दिया था। हाँ, उसकी ना ने
मेरे अहम् को ठेस अवश्य पहुँचाई थी। जो हो, हम दोनों अनचाहे
बंधन में बँधने से बच गये थे।
घर में शादी की बात उठी तो मैंने चंद्रिका के साथ अपनी इस
संबंध में हुई बातों का अक्षरश: वर्णन कर दिया। दोनों घरों में
उठी आँधी का सामना चंद्रिका को अकेले करने दिया। बाद में
पिताजी मुझे दोषी ठहराने लगे थे। पर उस समय तो आँधी निकल गई
थी।
इस घटना को चार साल हो गये हैं। चंद्रिका और मेरा मिलना वैसे
ही कम हो गया था। इस घटना के बाद तो और भी कम हो गया था। बस
तीन या चार बार ही हमलोग मिल पाये थे वह भी बहुत औपचारिक रूप
से। अब तक न चंद्रिका की शादी हुई थी न मेरी। मेरी शादी इसलिये
नहीं हुई थी कि एक तो मेरा ध्यान और कई विषयों में बँट गया था
और दूसरे मेरे दायरे में जितनी लड़कियाँ आईं किसी में कुछ ऐसा
नहीं देखा कि शादी के लिए हायतौबा मचाता। चंद्रिका की शादी
क्यों नहीं हुई मुझे नहीं मालूम। उसकी भी शायद मेरी जैसी
स्थिति हो। |