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गुरूजी के आध्यात्मिकता भरे प्रवचन, इस मठ की मर्यादा, खुद का आत्मसंयम, अपने आचरण में ढाले गए कठोर नियम, जप-तप, सब इस सन्देश ने छिन्न-भिन्न कर दिये हैं। मुझे लगता था आध्यात्म के अलावा मैं सभी कुछ विस्मृत कर चुका हूँ किन्तु इस पत्र ने मुझे स्मरण करा दिया है कि अन्तत: मैं इस मायावी विश्व का ही हिस्सा हूँ। कुर्ते की जेब में तह करके रखे कागज से मेरी उँगलियाँ फिर टकराईं। कागज उँगलियों की पकड़ में आया और बाहर निकल आया। आतुर उँगलियों ने उसे खोला, बेचैन नेत्रों से शब्द टकराये, अस्थिर मस्तिष्क ने उसे पढ़ना आरम्भ किया और तप्त अधरों ने बुदबदाना।

'प्रियतमा सुनयना,
जब तुम अपनी इन गुलाब की पंखुरियों से भी कोमल उँगलियों से इस कागज को स्पर्श करोगी तब मेरे चेहरे पर तुम्हारा कोमल स्पर्श सजीव हो उठेगा। जब स्नान की द्रोणी में पानी के साथ-साथ ये भीगी पंखुड़ियाँ तुम्हारा आलिंगन करेंगी तब तुम्हारे मन में मेरे साथ बिताए गए कोमल पलों की स्मृतियाँ सजीव हो उठेंगी। स्नान के बीच जब तुम मदिरा पान कर रही होगी तो उसकी मादकता मैं यहाँ महसूस कर रहा हूँगा। स्नान के पश्चात जब तुम ताजे गुलाब की तरह खिल चुकी होगी तो उसकी पहली खुशबू यहाँ मुझे महकायेगी। जब तुम खिड़की पर खड़ी मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी तो चंचल हवा का झोंका तुम्हें छूकर तुम्हारे कान में मेरा नाम फुसफुसा जायेगा और जब तुम्हारे रसभरे अधरों पर मेरा नाम आएगा तो उसकी मिठास स्वयमेव मेरे पास आ जायेगी।

प्रतीक्षा लम्बी अवश्य होती है लेकिन उसके अन्त से मिलने वाले परम आनन्द की व्याख्या नहीं की जा सकती। हमारे सम्बन्धों के दो वर्ष पूर्ण होने पर अनेकों शुभकामनाएँ। अपने मन की बेचैनी तुम्हें लिखकर दे रहा हूँ। मैं तुम्हें फोन पर भी यह सब कह सकता था लेकिन मुँह से कहे शब्द हवा में उड़कर बिखर जाते हैं जबकि लिखे हुए शब्द हमेशा कायम रहते हैं, कागज पर तुम्हारे सामने। उन्हें कभी भी पुराने एलबम की तरह देखा जा सकता है।

वाराणसी एयरपोर्ट पर पहुँचते ही सम्पर्क करूँगा। वह हमारी प्रतीक्षा का अन्तिम चरण होगा। तुम्हारे साथ-साथ मेरी प्रतीक्षा का भी अन्त होगा।
तुम्हारा
प्रतीक्षारत प्रेमी।

पत्र फिर मेरे कुर्ते की जेब में पहुँच गया। एक प्रेमी प्रेमिका अपने मिलन के लिए आतुर है। मेरी कल्पना का चंचल पुरुष बार-बार सुनयना नाम की स्त्री का चित्र निर्मित कर रहा था, बहुत सुन्दर स्त्री का चित्र लेकिन किसी भी तरह वह चित्र पूर्ण नहीं हो रहा था। जैसे ही पूरा होने लगता, एकदम से बिखर जाता। मैं फिर से उसे बनाने लग जाता, वह फिर बिखर जाता। इस बिखराव से मेरे भीतर भी कुछ बिखर रहा था। गुरूजी द्वारा कहे गए शब्द भी मुझे कोई आश्वासन नहीं दे रहे थे- 'मन की वल्गाओं को ढीला छोड़ना हमेशा अहितकर होता है। उन्हें हमेशा कसकर रखो, बहुत सुख मिलेगा, सुदृढ़ता मिलेगी, जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।'

जीवन का लक्ष्य! क्या है जीवन का लक्ष्य? मठ के कठोर नियमों और दिनचर्या का पालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति की प्रतीक्षा करना? भगवा वस्त्र धारण कर खुद को संसार से काटने का भ्रम बनाये रखना जबकि सारी सांसारिक सुविधाएँ भोगना या फिर संन्यासी कहने या कहलवाने का अभिमान?

आज मेरी आयु पैंतालिस वर्ष है। मैं उन्नीस वर्ष का था जब मैं अस्सी घाट पर भिखारी की भाँति मर रहा था। उस समय मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा था कि मैं संन्यास धारण करूँगा, आध्यात्म का अध्ययन करूँगा। सोचने की स्थिति भी नहीं थी। विकट समस्या पेट भरने की थी, जीवित रहने की इच्छा बनाए रखने की थी। अस्सी घाट की एक घटना ने मुझे अज्ञात और असमय मृत्यु से बचाया। मठ के पूर्व व स्वर्गवासी गुरू श्री अद्वैत्वानन्द जी स्वामी ने नगर के एक व्यापारी के आदमियों से मेरी प्राण रक्षा की जो मुझ पर चोरी का मित्था आरोप लगा मुझे पीट रहे थे। भाग्य से व्यापारी स्वामी जी का भक्त था। मैं बच गया और मठ में शरण पा गया।

गुरूजी कहते हैं, 'पेट तो सभी प्राणी अपने-अपने प्रयास से भर लेते हैं परन्तु भक्ति केवल मनुष्य कर सकता है। मनुष्य जीवन अस्थाई है लेकिन वह इस अस्थाई जीवन में पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ईश्वर की कृपा और अपनी इच्छाशक्ति से वह सब कुछ कर सकता है।'

अगर मनुष्य सब कुछ कर सकता है तो वही मनुष्य विचलित भी तो हो सकता है। अपनी मूलभूत इच्छाओं के आगे असहाय हो सकता है। वह अपने भीतर के कमजोर कोनों को उघाड़ सकता है। क्या मुझे ये जीवन भक्ति और साधना करने के लिए मिला है? अपनी भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने का दायित्व भी तो मुझ पर ही है। उन्हें तो कोई और नहीं करेगा? कौन जानता है कि हमें फिर कभी मनुष्य जन्म प्राप्त हो या नहीं? गुरूजी गलत कहते हैं कि हमारी मृत्यु उत्कृष्ट होगी। चाणक्य ने कहा है, 'मृत्यु, चाहे वह कितने ही उत्कृष्ट रूप में हो, उस जीवन से बेहतर नहीं हो सकती जो चाहे कितना ही निकृष्ट हो।'

मैं झूठ नहीं बोलूँगा। मठ के जिस कक्ष में जिस आसन पर मैं बैठा हुआ हूँ, वहाँ तो मैं कतई झूठ नहीं बोल सकता। अपनी यौवनावस्था में जिन चीजों को मैंने दबा दिया था, पता ही नहीं चला कि कब वे दबी हुई चीजें धीरे-धीरे एक विस्फोटक पदार्थ में बदलती चली गयीं। वे और बलशाली हो गई हैं और आज इस पत्र ने उसमें पलीते का काम कर दिया। मेरी श्रद्धा, भक्ति और मेरे अब तक किये गए झूठे-सच्चे जप-तप की दीवार धराशायी हो गई। मुझमें फिर से वह मनुष्य जाग उठा है जो सब कुछ करना चाहता है, वे कर्म जिन्हें पापकर्म माना जाता है। मेरा अन्तर मुझसे ही द्वंद्व कर रहा है। क्या इस कागज के टुकड़े का निर्माण मेरे नैतिक पतन के लिए हुआ है?

अगर किसी स्त्री की चाह करना, उसे देखना पापकर्म है तो मैं यह पापकर्म करना चाहता हूँ, मैं सुनयना को देखना चाहता हूँ। मैं फिर अपनी कल्पना में सुनयना नाम की स्त्री को साकार करने का प्रयास कर रहा हूँ, कल्पना साकार नहीं हो पा रही है परंतु इस कल्पना को साक्षात देखने का अवसर मेरे पास अचानक आ गया है। उसके साकार हो जाने के बाद तो कितनी ही कल्पनाएँ की जा सकती हैं। मैंने फोन करके 'नन्दन पुष्प विक्रेता' से सुनयना का पता ले लिया है। वह साकेत नगर में रहती है जहाँ वाराणसी का संभ्रांत और उच्च वर्ग रहता है। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ तो फूलों से भी अधिक कोमल होती हैं। हाथ लगाओ तो मैली हो जाती हैं। मैं ये कैसी अषिष्ट भाषा बोल रहा हूँ। मुझे कैसे मालूम कि कोई हाथ लगाने से मैला भी हो जाता है?

पुष्प विक्रेता के कर्मचारी की गलती से कदाचित बंडल बदल गए हैं। कमल पुष्प अवश्य उस स्त्री के पास पहुँच गए होंगे। अब तो उसके घर जाना अति आवश्यक हो गया है। अपने पुष्प भी तो लाने हैं। उसको देखने की इच्छा मेरे भीतर विकराल रूप धारण कर चुकी है। गुरूजी विश्वनाथ मन्दिर में होने वाली एक सभा में गए हुए हैं। इससे अच्छा अवसर कभी नहीं मिलेगा और किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा। हम अपनी कमजोरियों को दूसरों से तो छिपाते ही हैं, खुद अपने से भी छिपाते हैं। हमारी कमजोरियाँ बहुत शक्तिशाली होती है, तभी उन पर हमारा बस नहीं चलता।

गुरूजी कहते हैं, 'हम दुख से आनंद तक पहुँचें, हम अन्धकार से प्रकाश तक पहुँचें, मृत्यु से अमृत तक पहुँचें। इसी संघर्ष का नाम भक्ति है। हमारा सद आचरण ही हमें मोक्ष का द्वार दिखाता है।' परन्तु मुझे तो लगता है ये प्रेमीजन जो जीवन का परमानन्द ले रहे हैं, वही मोक्ष है। हम यहाँ जप तप करके मोक्ष की आशा कर रहे हैं किन्तु असली मोक्ष तो इन लोगों को प्राप्त हो रहा है। अपनी इच्छाओं, अपनी वासनाओं की पूर्ति ही मोक्ष है। जो वर्तमान में जी लिया वही सब कुछ है। मृत्यु के पश्चात कौन जानता है कि उसे क्या मिला? काम ही जीवन की ऊर्जा है बाकी सब मिथ्या है और कामिनी के संग तो काम जागेगा ही। मैं काम की इस ऊर्जा से वंचित हूँ, पूरे पैंतालिस वर्षों से वंचित हूँ। यह काम भी बड़ी विचित्र चीज़ है। दबाने से वह दब नहीं जाता बल्कि और अधिक खतरनाक हो जाता है।

गुरूजी ने एक कथा सुनाई थी, दो युवकों की। दोनों घूमने निकले थे। एक जगह रामकथा हो रही थी। एक ने कहा कि रामकथा सुनते हैं, कहते हैं रामकथा के श्रवण से भवसागर पार हो जाते है, सारे कष्ट दूर हो जाते है तो दूसरे ने कहा, तुम्हारी मर्जी, तुम सुनो। गाँव में वेश्या आई है, मैं तो उसका नृत्य देखने जा रहा हूँ। और दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए। नृत्य देखने वाला युवक सोच रहा था कि ये मैं कहाँ आ गया? ऐसी बदशक्ल औरत का घटिया सा नृत्य देखने आ गया और वहाँ रामकथा में कितना आनन्द आ रहा होगा। प्रभु का स्मरण हो रहा होगा। ज्ञान और आनन्द की गंगा बह रही होगी। मैं भी वहीं रुक जाता तो अच्छा रहता। और रामकथा सुनने वाला सोच रहा था कि ये रामकथा भी क्या है, वही तो एक कहानी है-राम, सीता, स्वयंवर, वचन, वनवास, हनुमान, रावण, हरण, युद्ध, आदि। काश! मैं भी अपने मित्र के साथ नृत्य देखने चला जाता, कितना आनन्द आता। पहला युवक जो वेश्यालय में बैठा था बहुत शांत मन से घर लौटा क्योंकि पूरे समय उसके भीतर रामनाम चल रहा था। और दूसरा युवक जो रामकथा में बैठा था बहुत अशांत मन से घर लौटा क्योंकि पूरे समय उसके भीतर वेश्या का स्मरण चल रहा था।

इस कथा का जो भी तात्पर्य रहा हो मगर आज मैं रामकथा वाला युवक बन गया हूँ। मैं उस स्त्री के घर जा तो रहा हूँ लेकिन सोचने की बात है यदि मेरे पास कमल के फूल ही आते तो क्या मैं काम के बारे में सोचता? क्या मेरे भीतर ऐसा बवंडर मचता? जो हो रहा है ईश्वर की मर्जी से हो रहा है। ये ईश्वर की मर्जी है, मैं तो सिर्फ निमित्त मात्र हूँ। जब मैं अस्सी घाट पर मरणासन्न अवस्था में था तो वह भी ईश्वर की मर्जी थी। जब मठ में आया तो वह भी ईश्वर की मर्जी थी और जब मैं पतन के मार्ग पर हूँ तो यह भी ईश्वर की मर्जी है। हम चाहते हैं कि जो हो रहा है वैसा ही होता चला जाये क्योंकि यही वर्तमान है और यही सत्य है। हे प्रभु, मुझसे चाहकर भी नहीं रुका जा रहा है। इस अकिंचन के पग साकेत नगर की ओर बढ़ रहे हैं।

सुनयना उर्फ आभा

गुरूजी,

सादर चरण वन्दना। आपके आदेशानुसार डंठल सहित अट्ठारह कमल के फूल भिजवा दिये हैं, भक्त की सेवा स्वीकार करें। बहुत आग्रह और कठिन प्रयास से प्राप्त हुए हैं ये फूल। मैं जानता हूँ आज की यह विशेष पूजा वास्तव में विशेष है। इस पूजा को करने वाला और इसमें सम्मिलित होने वाला दोनों ही भक्ति और श्रद्धा के संदर्भ में अत्यन्त लाभान्वित होने वाले हैं। पत्र फूलों के साथ भेज रहा हूँ। प्रयास करूँगा कि पूजा में भी सम्मिलित होऊँ क्योंकि मैं इस अवसर को गँवाना नहीं चाहता। जैसा आपने बताया था कि यह अवसर जीवन में दोबारा नहीं मिलेगा क्योंकि ये पूजा पहली और आखिरी बार होनी है, इसमें कोई दोहराव नहीं है। वैसे तो मैं आपके दर्शन से ही अभिभूत हो जाता हूँ। आपके दर्शन से ही मेरी अंतर्यात्रा को सुगमता मिल जाती है और आपके सान्निध्य में मेरा 'मै' मर जाता है। शेष दर्शन होने पर।
आपका भक्त
बलभद्र सिंह

जो पैकेट मुझे मिला, उसमें कमल के अट्ठारह फूल थे और यह पत्र। षिष्टाचार के नाते मुझे यह पत्र खोलना नहीं चाहिए था लेकिन जब आपके नाम ये पैकेट आया है और उसमें ये पत्र मिला है तो न पढ़ने का प्रश्न नहीं उठता। निश्चित रूप से फूल और पत्र मेरे लिए नहीं हैं क्योंकि मेरे लिए तो दूसरे फूल आने थे जैसा कि उन्होंने कल फोन पर कहा था और उनका उपयोग भी दूसरा होना था। कैसी विचित्र बात है, फूल तो फूल ही होते है परन्तु किसी स्थान विशेष में उनकी उपयोगिता बदल जाती है, प्रकृति परिवर्तित हो जाती है। वही गुलाब किसी की सेज भी सजाता है और वही गुलाब हार के रूप में देवी देवताओं के गले की शोभा भी बनता है।

बैरी मोरे नैना, काहे को जगाये सारी-सारी रैना... फरीदा खानम की गजल म्यूजिक सिस्टम पर बज रही है। उसकी खनकती हुई आवाज में अजीब सी कशिश है जो हमेशा मुझे मदहोश-सा कर देती है परन्तु ये पत्र पढ़ने के बाद अपनी अवस्था को गजल के साथ आत्मसात नहीं कर पा रही हूँ।

मैंने पत्र दोबारा पढ़ा है। इसमें भक्ति का कितना उज्ज्वल रूप प्रदर्शित हो रहा है। कैसे होंगे वे गुरू जिनके सामने जाते ही सारा अहम मर जाता है। उनके सामने तो व्यक्ति बिल्कुल कोरा हो जाता होगा? मैं भावविभोर हो गई हूँ। क्या मैं उन गुरूजी से मिल सकती हूँ? क्या मैं इस पूजा में शामिल हो सकती हूँ? कैसी है ये पूजा जो दोबारा कभी नहीं होगी? इसमें किस देवता की आराधना होगी? विधि क्या होगी?

सारे प्रश्न खुद कर रही हूँ और किसी का भी उत्तर मेरे पास नहीं है। इस पत्र ने मुझे विचलित कर दिया है। मैं क्या थी और अब क्या हो गई हूँ? मैं हमेशा से सिर्फ देह इच्छा तक ही सीमित रही हूँ। एक समय ऐसा भी था जब मेरा ईश्वर में अटूट विश्वास था। लेकिन ईश्वर के प्रति आकर्षण अधिक देर तक नहीं रहा शायद मेरे जीवन में घटनाएँ ऐसी हो गयीं थी जिससे मैं ईश्वर से विमुख हो गई।

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