जोर-शोर
से अन्नू के पहाड जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के
कपडों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपडों की,
ओढने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज रखते समय वे भाई
साहब को सख्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज खोनी नहीं
चाहिए- 'देखो, यह फ्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई
दी है। यह प्याले मत तोड देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड
जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही
नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं
खरोंच तक नहीं है, तोड दिया तो ठीक न होगा।
प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आईं। वह किस दिन,
किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी,
क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ
बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी
इच्छा के अनुसार क्या खाक करेंगे! सब कह चुकीं तो जरा आर्द्र
स्वर में बोलीं, 'कुछ अपना भी खयाल रखना, दूध-फल बराबर खाते
रहना। हिदायतों की इतनी लंबी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना
पडा, 'जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं
मानता। हाँ, बिना भूले रोज एक चिट्ठी डाल देना।
आखिर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को
लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को खूब प्यार किया, रोई भी। उनका
रोना मेरे लिए नई बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर
कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखाई देता
रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्र्जीव-सी होकर
पड़ी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।
भाई साहब का पत्र रोज आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार
रहते थे। बुआजी भी रोज एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन
मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों
की तारीख में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे
तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज पत्र लिखने का कष्ट क्यों
करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर
पलंग के सामने लटका लें और रोज सबेरे उठकर पढ लिया करें। पर
इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।
करीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे
दिन भी नहीं आया। बुआजी बड़ी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन
किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसाई व्यवस्था कुछ
शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।
अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे
में आकर सोईं, पर सारी रात दु:स्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं।
मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पडा था और अपने पूरे
वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न
में देखाहै कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नाू साथ नहीं
है और उनकी ऑंखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पडतीं। मैं
तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही
थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख्याल से, कुछ बुआजी की यह दशा
देखकर बडा दु:खी हो रहा था।
तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बड़ी व्यग्रता से
काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढने लगीं। मैं भी साँस
रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर
सिर पीटती बुआजी चीखकर रो पड़ीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने
का साहस ही नहीं होता था। ऑंखों के आगे अन्नू की भोली-सी,
नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में
नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र
उठाया। लिखा था-
प्रिय सयानी,
समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह
से तुम्हें यह दु:खद समाचार सुनाऊँ । फिर भी रानी, तुम इस चोट
को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दु:ख की घडियाँ भी आती हैं,
और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार
नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य
को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना
दु:ख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी
सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य
के अतिरिक्त और क्या कहूँ। यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था
...आँसू-भारी ऑंखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से
अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन
में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का
समाचार पढ रही थी। मेरी आँखें शब्दों को पार करती हुई
जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पड़ी- 'धैर्य रखना
मेरी रानी, जो कुछ हुआ उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल
चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ
से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने
वाले हैं।
एक मिनट तक मैं हतबुद्धि-सी खड़ी रही, समझ ही नहीं पाई यह
क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी,
मैं जोर से हँस पड़ी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत
कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर
वास्तविकता जानकारी बुआजी भी रोते-रोते हँस पड़ीं। पाँच आने की
सुराही तोड देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास
रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल
खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो। |