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'क्या कहेंगे लोग राह चलते जिस-तिस पर मुग्ध हो जाने की इस आदत को?`
'कहने दो! सुंदर-असुंदर के पारखी सभी तो नहीं होते न।`
मैंने चारों तरफ देखा... कोई जग तो नहीं रहा।
सारी वर्जनाएँ एकाएक मुझसे सवाल करने लगीं 'तो मर्यादा? भी तो कुछ होती है! रुको! रुक जाओ!`
एक आवाज़ आयी। ये मेरे भीतर बैठी एक पत्नी की एक गृहणी की आवाज़ थी।
फिर कोई चिल्ला उठी 'अरे! तुम्हारा पति ऊपर की बर्थ पर सोया है, उसके विश्वास को तोड़ोगी! कुछ तो लिहाज़ करो! क्या उसके विश्वास को तोड़ोगी?`
मेरे कानों से होंठ सटाकर बड़े ही प्यार से एक माँ फुसफुसाई 'अरे तुम्हारी बच्ची जग गई, तो क्या असर पड़ेगा उस पर?` प्रश्न-प्रश्न और प्रश्न! मैं प्रश्नों से घिर गयी..
मैंने उस अंधेरे के बीच फैली उस नीलिमा की बौछार से अपने के बचाने की कोशिश करते हुए बौछार की स्रोत उन आँखों से ही जवाब माँगा, मेरे गिर्द घिर रहे प्रश्नों का। वे आँखें ठहाका लगा कर हँस पड़ीं।

'प्रश्न? प्रश्न तो कभी पीछा नहीं छोड़ते जीवन में! जीवन भी तो एक प्रश्न ही है! और सौंदर्य? सौंदर्य की परख और उसे महसूस करने का मौका विरले ही मिलता है। यह कानून सौंदर्य ने नहीं समाज ने गढ़े हैं और, समाज बदलता रहता है। सौंदर्य एक शाश्वत सत्य है और समाज एक परिवर्तनशील तथ्य। सत्य बड़ा होता है तथ्य से या छोटा इस बहस में मत पड़ो। कभी नहीं जीत पाओगी चाहे कितने भी निष्कर्ष क्यों न निकालो। अभी मैं हूँ तुम्हारे समक्ष! अपनी इन नीली आँखों की नीलिमा से भरा-पूरा। कल नहीं रहूँगा मैं तुम्हारे पास! जियो इन क्षणों को... मिलने दो सुन्दर को सुन्दर से... नीरस जिन्दगियाँ तो तुम पल-पल जीती ही रही हो। हर आदमी जीता है नीरस जिंदगी जिसे कोई याद नहीं करता। पर! सौंदर्य के क्षण याद रह जाते हैं जिंदगी भर!` उसने लंबा-चौड़ा भाषण झाड़ दिया।

मेरे भीतर बैठी स्त्री जो खुद को उस पर मुग्ध होते देख अपने को छोटा महसूस करने लगी थी अपने को कमतर मान रही थी क्या कहते हैं उसे 'तुरंत सुलभ, जो फिदा हो जाए जिस-किसी पर भी कहीं भी, जिसे कोई भी पटा ले` जैसी स्त्री मानने लगी थी उसकी बातें सुनकर कुछ आश्वस्त हुई थी। मुझे अच्छा लगने लगा था उस पर मोहित होना। मेरे भीतर ही भीतर एक बहस चल पड़ी थी। तभी एक आवाज़ हृदय के किसी गहरे कोने से आयी, जैसे प्रतिध्वनि हो। ये भी एक स्त्री की ही आवाज़ थी।

'क्या सुंदर को सुंदर कहना गलत है?` तो पुरुषों के लिए ये वर्जनाएँ इतनी कठोर क्यों नहीं होतीं। मैं स्त्री हूँ माँ हूँ क्या इसीलिए मैं अपने सौंदर्य बोध को मार दूं? मेरी देह में भी तो हृदय है! मेरा भी तो मन करता है सौंदर्य को प्यार करूं। क्या मैं हत्या कर दूं प्यार के इस अहसास की?`

प्रतिध्वनि बिल्कुल मेरे पास आ चुकी थी।
'तुम प्रेयसी हो तो जाओ ना! झांको उन आँखों में! कौन रोकता है! बस डरना मत! दुविधा में क्यों हो? याद है ना तुम्हें हीर! वह भी तो पत्नी थी पर उसकी प्रेयसी बड़ी थी पत्नी से!` (शायद यह मेरे भीतर की प्रेयसी बोल रही थी)

'देह का मिलन क्यों चाहती हो? क्या इतना काफी नहीं? सराहो उसे यह प्यार अलौकिक प्यार होगा भोगना जरूरी नहीं` मेरे भीतर की आदर्शवादी स्त्री बोली थी शायद।

'सराह तो रही हूँ मैं! वे आँखें भी अपनी नीलिमा से मेरी देह को सहला ही तो रही हैं! इस देह की सिहरन का क्या करूं, जो बिना स्पर्श के शांत नहीं होगी। फूल की केवल महक ही तो नहीं सूंघते हम, उसे सहलाकर भी तो सहराते हैं।` मेरी विद्रोही स्त्री ने शायद सवाल दागा था मेरी भीतर बैठी परम्परावादी स्त्री से।

'तुम कलाकार हो, नृत्यांगना हो, रंगकर्मी हो और साहित्यकार भी हो। केवल स्त्री नहीं हो तुम। तुम्हारी देह मात्र स्त्री-देह नहीं है। जो संहिताओं से बंधी जब्त करती रहे अपनी भावनाएँ अपनी उत्तेजनाएँ अपना प्यार अपना सौंदर्य-बोध। तुम तो कल्पना से लैस हो सपनाती हो सपने पालती हो। अहसास करती हो अहसासों की समझती हो वेदना और उल्लास, गम और खुशी महसूस करती हो केवल अपनी ही नहीं, दूसरों की भी!

दूसरों से अलग हो तुम। समाज की बात छोड़ो, तुम गलत समझती हो इन क्षणों को भोगना तो जाओ चुपचाप सो जाओ। पर अगर इस सौंदर्य को महसूस कर जिंदगी को सुखद बनाना चाहती हो तो आने दो उसे अपने पास और डूब जाओ इस नीलिमा में। कल जो दिन चढ़ेगा उसमें यह अनुभव, ये विलक्षण क्षण अलग से जुड़ जाएगा इजाफ़ा हो जायेगा तुम्हारे अनुभवों की फेहरिस्त में। कुछ नहीं घटेगा जिंदगी में कुछ जुड़ ही जायेगा जिंदगी में। जुड़ने दो न! जानती नहीं क्या तुम स्त्री तो गंगा है। सब उसमें नहा कर अपनी मैल धो डालते हैं फिर भी मैली नहीं होती गंगा। धुल जाने दो उस नीलिमा को अपनी देह के पसीने की गंगा में बस जाने दो उसकी महक तुम्हारी महक में जिसका कोई ओर-छोर नहीं होता। मैं स्त्री नहीं आदि स्त्री बन गई थी। सृष्टि की प्रथम स्त्री विश्व की प्रथम नागरिक मानव-प्रजाति की प्रथम मादा! मैं जो अभी-अभी जन्मी थी जो अभी तक स्त्री या नारी की संज्ञा हासिल नहीं ले पाई थी। मेरे भीतर बैठी स्त्री एक विराट मनुष्य में बदल गई थी जो लिंगभेद से ऊपर थी। जिसे 'मर्यादा की छड़ी` उठक-बैठक नहीं करवा सकती थी जो आरोपित नई मर्यादा को ध्वस्त करती थी!

यह स्त्री अपना सच अपना तथ्य का खुद निर्माण कर सकती थी। वह अपने होने का खुद प्रमाण थी। एक स्त्री आजाद, मुक्त, स्वतंत्र और स्वछंद बस एक मनुष्य एक जीवंत जिंदगी जो जिंदा रहती है, जो न मृत्यु से डरती है, न समाज से।

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१२ जुलाई २०१०

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