डा.
सरिता वर्मा का यह क्लीनिक ज्वाइन कर लेना मेरे लिये राहत की
बात थी। अब मुझे इलाज में पहले से ज्यादा अटेन्शन मिलेगा।
''नहीं डाक्टर मैं पिछले कुछ महीनों से यहाँ नहीं थी। इस बीच
सविता से न तो कोई मुलाकात हुई है और न ही मैं उसे लिख पाई।
कैसी है सविता? सब कुछ ठीक ठाक तो है न?''
उसका चेहरा सर्द हो गया। जैसे मेरी बात ने उस पर ठंडी बर्फ मल
दी हो। अन्यमनस्क होकर वह अपने मरीज को देखने लगी। उसके बर्ताव
को देखकर मुझे दुविधा हो गई। पता नहीं वह क्या बताना चाहती थी।
फिर अचानक अपने मनोभाव छिपाकर वह चुप क्यों हो गई है। क्या हो
गया होगा सविता को। कोई बुरी खबर होती तो डाक्टर ने मुझे जरूर
बता दिया होता। लेकिन कोई अच्छी खबर भी कैसे छिपा सकता है।
क्लीनिक में और बहुत से मरीज भी थे। उन्हें वह बारी बारी से
देखेगी भी न। फिर भी मैंने एक बार और पूछना उचित समझा। मैंने
उसकी टेबल के पास झुककर धीरे से पूछा।
''डाक्टर क्या बात है? आप कुछ बता क्यों नहीं रहीं?''
मेरी ओर आँख उठाये बिना ही उसने संयत होकर उत्तर दिया।
''शाम को आपसे घर पर मिलूँगी आन्टी।''
वह मुझसे बेखबर होकर तन्मयता से अपने पेशेन्ट देखने लगी।
क्लीनिक से लेकर घर आने तक पूरे दिन मैं सविता की यादों में
डूबती रही। उसका हँसता हुआ चेहरा बार बार आकर मुझे झकझोरने
लगता - ''निशानिशा''। मन में तनाव भी था कि क्या लेटेस्ट खबर
हो सकती है , सविता को लेकर , जिसे उसकी बेटी बताकर भी नहीं
बताना चाहती लेकिन बिना बताये चुप भी नहीं रह पा रही है।
डाक्टर के चेहरे का ठहराव देखकर यह तो पक्का है कि सविता के
साथ दुखद घटना नहीं हुई है।
सविता तब मेरे घर के पास ही रहती थी। छह साल बाकी थे उसके
रिटायरमेंट को। पाँच बेटे बेटियों में से चार की शादियाँ हो
गईं। वे सब अपनी नई जिन्दगी में इस कदर रम गये कि सविता उनके
लिये अतिरिक्त हो गई। सबसे छोटी बेटी दिल्ली में रहकर एमबीए कर
रही थी। बहनों में इतना प्यार था कि दोनों दीदियों ने मिलकर
छोटी बहन का खर्च उठाना शुरू कर दिया था। यह वायदा भी किया कि
वे उसका जीवन बना देंगी।
सविता के पति इनकम टैक्स आफीसर थे। बेहद आकर्षक नाकनक्श के
सुधीर सक्सेना उससे भी ज्यादा हँसमुख स्वभाव के जिन्दादिल
इन्सान थे। अचानक एक दिन आफिस की टेबल पर सिर रखे हुए मृत पाये
गये। खुशनुमा व्यक्तित्व के कारण सुधीर अपने दोस्तों के अलावा
शहर भर में लोकप्रिय थे। मझधार में नाव डूब जाने के कारण सविता
के होश उड़ गये थे। उसके एक एक सपने को लकवा मार गया था। उसके
बच्चे अब उसके जीवन का मकसद बन गये। सविता मशीन बन गई थी। पति
की जमीन जायदाद, भविष्य निधि, बीमे के धन को प्राप्त करने के
संघर्ष से जूझते जूझते सविता को अनुकम्पा नियुक्ति पर
केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका की नौकरी मिल गई। जिन्दगी
कितनी ही बोझिल क्यों न हो, वह चलती ही रहती है। कभी सविता के
घुटनों के नीचे तक लहराते लम्बे लम्बे बाल औरतों में ईर्ष्या
का विषय थे। हालात के कारण उसने अपने बाल छोटे करा लिये।
लावण्यमयी गृहिणी मर्दाना अंदाज में बच्चों के लिये माँ कम
पिता ज्यादा हो गई। घर, दफ्तर और बच्चों के त्रिकोण में सविता
के जीवन का पाथेय उससे आँख मिचौनी खेलता रहा। वह समझ ही नहीं
पाई कि सुधीर उसे छोड़कर क्यों चले गये। जब कभी उसे अपने लिये
थोड़ा सा वक्त मिलता तो वह वक्त भी सुधीर की यादें उससे ले
जातीं।
एक दिन मैंने उससे पूछा था, 'सविता तुम सुधीर जी के साथ सुखी
तो थीं न?'
''क्या बताऊँ निशा, तब तक तो यह समझ ही नहीं पाई कि जीवन का
सुख क्या होता है। लेकिन मैं उनके साथ खुश जरूर थी। शादी के एक
साल बाद ही ऊर्मि हो गई थी। फिर तो यार कोल्हू के इस बैल ने
सिर कहाँ उठाया। निशा, चारों बच्चे सेटिल हो गये हैं और सबसे
छोटी की जिम्मेदारी भाइयों से ज्यादा बहनों ने उठा ली है। अब
मैं सच में रिटायर हो गई हूँ, यार। चारों बच्चे, लखनऊ में ही
काम कर रहे हैं इसलिये किसी तरह मैंने अपना स्थानांतरण वहाँ
करा लिया है। कभी इसके कभी उसके साथ रहती हूँ।''
कितनी सुरुचि सम्पन्न रही है सविता। कितने करीने से घर को रखती
थी। आज वह खानाबदोश हो गई है। उसका डील पर डेरा है। घर तो
क्या? एक कमरा भी नहीं है उसके पास। धीरे धीरे पता लगा। सविता
का व्यक्तित्व बच्चों के कैरियर के लिए पंखुरी पंखुरी बिखर
गया। न उसके लिए कोई घर, न साथी, न ही चैन से जीने के लिए कोई
एकान्त।
न जाने मैं कितनी देर सविता
में डूबी रही। चीखती हुई कालबेल के कारण मैं दरवाजा खोलने उठी।
''आओ डाक्टर बेटा। मैंने कहा।'' वह मुझे देखकर फीकी मुस्कान
चेहरे पर लाने की कोशिश करती रही। मैं सविता की नवीनतम खबर को
लेकर बेहद उत्सुक थी। |