धरती
पर अधिकांश असुरों का अत्याचार समाप्त हो चुका था, श्रीकृष्ण
सहित सभी प्राणी सुख भोग रहे थे किंतु नरकासुर का उपद्रव अभी
भी पूरी तरह शांत नहीं हुआ था। अब देवराज की प्रार्थना सुनकर
श्रीकृष्ण ने उसका अंत करने का निश्चय कर ही लिया था।
मुस्कुराते हुए देवकीनंदन उठे और आकाशगामी गरुण पर आसीन हो चल
पड़े नरकासुर का वध करने। भीषण संग्राम के बाद सहस्त्रों
दैत्यो सहित उन्होंने नरकासुर की वध किया और वारुणछत्र मणिपर्व
छीन लिया। नरकासुर का देहांत होते ही अपने ही पुत्र से त्रस्त
पृथ्वी ने साक्षात उपस्थित होकर माता अदिति के कुंडल श्री
कृष्ण के हाथो में रखते हुए निवेदन किया,
“हे वासुदेव, वराह रूप धारण कर मेरा उद्धार करते समय आपके
स्पर्श से मेरा यह पुत्र उत्पन्न हुआ था, आप ये कुंडल ले
लीजिये और मेरे पुत्र को सद्गति प्रदान कीजिये, उसके अपराध
क्षमा कीजिये, निश्चय ही आपके हाथों से मृत्यु को प्राप्त होने
के कारण उसे आपकी कृपा प्रापत होगी। इस लोक से वह मुक्त हो
जाएगा, फिर भी परलोक में उसे कोई कष्ट न हो, उसकी आत्मा न भटके
उसे शांति प्राप्त हो इसकी याचना आपसे करती हूँ। पृथ्वी के
वेदना भरे स्वर चारों तरफ़ गूँज उठे।“
“तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।“ इस प्रकार वरदान देकर श्रीकृष्ण ने
अदिति के कुंडल ले लिये और सत्यभामा के साथ स्वर्ग की
ओर चल पड़े।
सत्यभामा इस यात्रा में विशेष स्वप्न संजोए थी। एक बार वह उस
पारिजात के दर्शन करना चाहती थी जिसके फूल वर्षों पहले कृष्ण
ने स्वर्ग से लाकर उसे दिये थे। वे दिव्य पुष्प नंदनवन के
पारिजात वृक्ष के थे। ऐसा पारिजात जिसके पुष्प धारण करने वाली
स्त्री का रूप और यौवन अक्षुण्ण हो जाता था, जिसे अपने केशों
में सजाकर इंद्राणी सदा रूपवती दिखती थी, जो कभी मुरझाते नहीं
थे, जिनकी महक नौ योजन तक जाती थी और जिसको छूकर बहने वाली पवन
सब व्याधियों को हर लेती थी। सत्यभामा उस पारिजात वृक्ष को
पाना चाहती थी। पिछली बार एक अन्य असुर का वध करने पर मुकुट
में पारिजात के फूल भरकर इंद्र ने कृष्ण को दिये थे। उन फूलों
को देखकर पारिजात वृक्ष पाने की कामना सत्यभामा में बलवती हो
गई। उसे विश्वास था कि जब सामान्य असुर का वध करने पर इंद्र
पारिजात के पुष्प उपहार में दे सकते हैं तो नरकासुर के वध करने
पर वे पारिजात वृक्ष ही कृष्ण को उपहार में दे देंगे।
पारिजात के इस दिव्य वृक्ष का जन्म समुद्रमंथन से हुआ था। अमृत
और विष के साथ निकले नवरत्नों में वह भी एक था और उसे सामान्य
वृक्ष समझकर इंद्र ने कौतूहलवश इंद्राणी को दे दिया था।
इंद्राणी ने अपने प्रिय द्वारा प्रदत्त उस उपहार को नंदनवन
नामक अपने उद्यान के एक कोने में रोप दिया था। जैसे जैसे वह
वृक्ष बड़ा हुआ, उसके दैवी स्वरूप की प्रसिद्धि तीनो लोकों में
फैलने लगी। कल्प वृक्ष के सुन्दर फूलों का धारक चिरयौवन पा
जाता। वह याचको की इच्छाएँ, उनकी इच्छित वस्तु देकर पूर्ण करता
रहता। इंद्राणी उसे प्राप्त कर फूली न समाती और धीरे धीरे
पारिजात वृक्ष द्वारा प्रदत्त
रूप यौवन और समृद्धि के कारण वह तीनो लोकों में प्रसिद्ध हो
गई।
स्वर्ग की ओर प्रस्थान करते समय एक ओर जहाँ सत्यभामा के मन में
पारिजात वृक्ष को देखने व उससे कुछ प्राप्त कर लेने के आनंद की
लहरें उमड़ रही थीं वहीं दूसरी ओर वारुणछत्र मणिपर्व और माता
अदिति के कुंडलों को लेकर श्रीकृष्ण आ रहे हैं इस समाचार से
देवताओं में हर्ष की लहर दौड़ रही थी। श्री कृष्ण के स्वागत
में संपूर्ण स्वर्ग लोक विशेष रूप से सुसज्जित किया गया था।
अदिति की प्रसन्नता का पारावार न था। उत्कंठा से भरे श्रीकृष्ण
के आगमन की सभी प्रतीक्षा कर रहे थे।
देवताओं से अर्घ्य पूजा स्वीकार कर श्रीकृष्ण ने देवमाता अदिति
के भवन में जाने की इच्छा व्यक्त की। आकाशपथ पर सत्यभामा सहित
गरुण पर विराजमान लीलामय श्रीकृष्ण की विलक्षण शोभा दर्शनीय
थी। नरकासुर मारा जा चुका है इस समाचार से देवगण निःशंक होकर
सुंदरियों अप्सराओं के नृत्य-गीत, राग-रंग में आकंठ लीन थे और
श्वेत मेघ के सदृश दिव्य भवन में देवमाता ऊँचे सिंहासन पर
विराजमान थीं।
पत्नी सत्यभामा सहित्य कृष्ण ने उनके समीप निवेदिन किया, “हे
देवमाता, मैं आततायी नरकासुर का वध करके स्वर्ग की सारी
संपत्ति और आपके कुंडल लेकर आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूँ। आपको
प्रणाम निवेदन करते हुए ये दिव्य कुंडल आपको लौटा रहा हूँ।“
सत्यभामा सहित साक्षात
श्रीकृष्ण हो अपने सामने पाकर देवमाता विस्मित थीं। तन्मय होकर
उन्होंने सारा वृत्तांत सुना और स्तुति करने लगीं।
“यह स्तुति कैसी माँ, आप तो हमारी भी माता के समान हैं। आप
प्रसन्न होइये, आप प्रसन्न होकर हमें वरदान दीजिये। गदगद भाव
से श्रीकृष्ण प्रणत मुद्रा में खड़े थे।“
“तुम्हारी समस्त कामनाए पूर्ण हों। इस मृत्यु लोक में तुम
देवों असुरों सहित संपूर्ण सृष्टि में अजेय बनकर ही रहोगे।“
“मैं धन्य हुआ माताश्री।“ सत्यभामा सहित श्रीकृष्ण ने अदिति को
बारंबार प्रणाम किया।
“सुंदरी तुम्हारा रूप-यौवन सदैव स्थिर रहेगा। मेरी कृपा से
तुम्हें वृद्धावस्था कभी नहीं व्यापेगी। देवमाता ने सत्यभामा
को भी आशीर्वाद दिया।“ उनके सहज स्नेह से पुलकित थे श्रीकृष्ण
भी।
“अब हमें आज्ञा दें देवमाता, देवराज से भेंट कर के हम शीघ्र ही
द्वारका लौटेंगे।“ और प्रसन्न मन से वे चल पड़े इंद्र सदन की
ओर।
देवराज इंद्र शची सहित स्वागत के लिए अपने स्वर्ण सदन के द्वार
पर उपस्थित थे। अनेक सुंदरियों सहित वह दिव्य सदन इंद्र के
वैभव को मानो शब्दों में व्यक्त कर रहा था। दिव्य शृंगार से
सुशोभित शची का रूप दर्शनीय था। केश राशि में गुँथे पारिजात
पुष्पों ने एक बार फिर सत्यभामा के हृदय पर आघात किया। ईर्ष्या
के सौ सौ साँप लोटने लगे थे सत्यभामा के हृदय पर। इस पारिजात
पुष्प पर अकेली शची ही क्यों गर्व करें। आखिर किस बात में वह
शची से कम है फिर उसके पास पारिजात वृक्ष क्यों नहीं इस प्रकार
की अनेक बातें सत्यभामा के मन में उठने लगीं किंतु उस समय वह
संयम रखकर मौन ही खड़ी
रही।
श्रीकृष्ण का आदर सत्कार अत्यंत सम्मानपूर्वक किया देवराज ने।
द्वारका लौटने का दिन आ चुका था विदा के समय अनेक उपहार भी
दिये। किंतु गर्व भरी इंद्राणी ने सत्यभामा को मानुषी मानकर
पारिजात पुष्प न भेंट किये। आखिर पारिजात तो देवताओं का पुष्प
है और सत्यभामा तो मानवी है। वह इन फूलों के योग्य नहीं। वह यह
भूल गई कि कृष्ण ही साक्षात विष्णु हैं और सत्यभामा लक्ष्मी।
लेकिन सत्यभामा के हृदय में ज्वालाएँ धधक उठीं- रूप यौवन
समृद्धि का इतना गर्व कि उसने बुद्धि को ढँक लिया? मानवरूप में
पृथ्वी का कल्याण करने को मानव रूप में लीला करते भगवान को
पहचान न सकी? |