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कहानियाँ

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
डॉ. सुधा पांडे की पुराण कथा— नंदनवन का पारिजात


“हे सर्वात्मन, भयानक नरकासुर ने देवताओं, सिद्धों, और असुरों सहित राजाओं की कन्याओं को भी अपने अंतःपुर में बंद कर दिया है... वरुण का जल वर्षा करने वाला छत्र मणिपर्व छीन लिया है और मंदराचल के एक प्रदेश पर भी अपना अधिकार जमा लिया है।“ त्रस्त देवराज ने अचानक द्वारका आकर श्रीकृष्ण से निवेदन किया, “इतना ही नहीं उसने मेरी माँ अदिति के अमृतवर्षी दोनो दिव्य कुंडल भी छीन लिये हैं और अब ऐरावत को छीनने की आकांक्षा लिये मेरी ओर बढ़ा चला आ रहा है.. अनर्थ हो जाएगा द्वारकाधीश...आप ही मुक्ति दिलाइये इससे।“

पृथ्वीपुत्र प्राग्ज्योतिरीश्वर नरकासुर से संतप्त हो इंद्र विचलित हो उठे थे और द्वारका दौड़े गए थे। यह वह समय था जब पृथ्वी के वीर राजा देवताओं के कष्ट में उनकी सहायता करते थे और देवता भी उनसे मित्रता रखते हुए पृथ्वी पर आते जाते रहते थे।

देवाराज इंद्र को त्रस्त देखकर द्वारकाधीश ने मौन मुस्कान से अभ्यर्थना की, “दुखी न हों देवराज, मैं शीघ्र ही नरकासुर का वध कर, माता अदिति के अमृतवर्षी दिव्य कुंडल आपकी सेवा में प्रस्तुत कर दूँगा।“ इस प्रकार शांत भाव से देवराज इंद्र को सांत्वना देकर द्वारकाधीश कृष्ण ने उन्हें स्वर्ग लौटने को कहा।

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