स्त्री
ने पुरुष को देखा। देखती रही एकटक। जैसे पुरुष के चेहरे पर छपे
तनाव को पढ़ रही हो।
''इनहेलर तो लेते रहते हो न?'' स्त्री ने पुरुष के चेहरे से
नज़रें हटाईं और पूछा।
''हाँ, लेता रहता हूँ। आज लाना याद नहीं रहा, '' पुरुष ने कहा।
''तभी आज तुम्हारी साँस उखड़ी-उखड़ी-सी है,'' स्त्री ने हमदर्द
लहजे में कहा।
''हाँ, कुछ इस वजह से और कुछ...'' पुरुष कहते-कहते रुक गया।
''कुछ... कुछ तनाव के कारण,'' स्त्री ने बात पूरी की।
पुरुष कुछ सोचता रहा। फिर बोला, ''तुम्हें चार लाख रुपए देने
हैं और छह हज़ार रुपए महीना भी।''
''हाँ... फिर?'' स्त्री ने पूछा।
''वसुंधरा में फ्लैट है... तुम्हें तो पता है। मैं उसे
तुम्हारे नाम कर देता हूँ। चार लाख रुपए फिलहाल मेरे पास नहीं
है।'' पुरुष ने अपने मन की बात कही।
''वसुंधरा
वाले फ्लैट की कीमत तो बीस लाख रुपए होगी। मुझे सिर्फ चार लाख
रुपए चाहिए।'' स्त्री ने स्पष्ट किया।
''बिटिया बड़ी होगी... सौ खर्च होते हैं।'' पुरुष ने कहा।
''वो तो तुम छह हज़ार रुपए महीना मुझे देते रहोगे,'' स्त्री
बोली।
''हाँ, ज़रूर दूँगा।''
''चार लाख अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मुझे मत देना,'' स्त्री
ने कहा। उसके स्वर में पुराने संबंधों की गर्द थी।
पुरुष उसका
चेहरा देखता रहा। कितनी सह्रदय और कितनी सुंदर लग रही थी सामने
बैठी स्त्री जो कभी उसकी पत्नी हुआ करती थी।
स्त्री पुरुष को देख रही थी और सोच रही थी, ''कितना सरल स्वभाव
का है यह पुरुष, जो कभी उसका पति हुआ करता था। कितना प्यार
करता था उससे... एक बार हरिद्वार में जब वह गंगा में स्नान कर
रही थी तो उसके हाथ से जंजीर छूट गई। फिर पागलों की तरह वह
बचाने चला आया था उसे। खुद तैरना नहीं आता था लाट साहब को और
मुझे बचाने की कोशिशें करता रहा था... कितना अच्छा है... मैं
ही खोट निकालती रही...''
पुरुष एकटक
स्त्री को देख रहा था और सोच रहा था, ''कितना ध्यान रखती थी।
स्टीम के लिए पानी उबाल कर जग में डाल देती। उसके लिए हमेशा
इनहेलर खरीद कर लाती। सेरेटाइड आक्यूहेलर बहुत महँगा था। हर
महीने कंजूसी करती, पैसे बचाती, और आक्यूहेलर खरीद लाती।
दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? ये करती थी परवाह! कभी
जाहिर भी नहीं होने देती थी। कितनी संवेदना थी इसमें। मैं अपनी
मर्दानगी के नशे में रहा। काश, जो मैं इसके जज़्बे को समझ
पाता।''
दोनों चुप
थे। बेहद चुप। दुनिया भर की आवाज़ों से मुक्त हो कर, खामोश।
दोनों भीगी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे...
''मुझे एक बात कहनी है, '' उसकी आवाज़ में झिझक थी।
''कहो, '' स्त्री ने सजल आँखों से उसे देखा।
''डरता हूँ,'' पुरुष ने कहा।
''डरो मत। हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो,''
स्त्री ने कहा।
''तुम बहुत याद आती रही,'' पुरुष बोला।
''तुम भी,'' स्त्री ने कहा।
''मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूँ।''
''मैं भी.'' स्त्री ने कहा।
दोनों की
आँखें कुछ ज़्यादा ही सजल हो गई थीं। दोनों की आवाज़ जज़्बाती
और चेहरे मासूम।
''क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?'' पुरुष ने
पूछा।
''कौन-सा मोड़?''
''हम फिर से साथ-साथ रहने लगें... एक साथ... पति-पत्नी बन
कर... बहुत अच्छे दोस्त बन कर।''
''ये पेपर?'' स्त्री ने पूछा।
''फाड़ देते हैं।'' पुरुष ने कहा औऱ अपने हाथ से तलाक के
काग़ज़ात फाड़ दिए। फिर स्त्री ने भी वही किया। दोनों उठ खड़े
हुए। एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुस्कराए। दोनों पक्षों
के रिश्तेदार हैरान-परेशान थे। दोनों पति-पत्नी हाथ में हाथ
डाले घर की तरफ चले गए। घर जो पति-पत्नी का था। |