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दीनानाथ ने मारिया का चेहरा देखा। भद्दा-सा चेहरा। इसके बावजूद दीनानाथ को लगा जैसे मारिया की सादगी ने उनका कुछ छीन-सा लिया है।
इस बीच मारिया ने हाथ धोए। चाय बना लाई। चाय की ट्रे के साथ पानी का गिलास भी था। दीनानाथ को पानी का गिलास देते हुए बोली, सर जी पहले पानी पी लो। चाय बाद में पीना।
''मुझे प्यास नहीं।''
''प्यास की बात नहीं सर जी! सुबह पानी पी लेना चाहिए। शरीर की गर्मी कम हो जाती है।''

दीनानाथ ने पानी का गिलास लिया। उन्हें याद आया, माँ भी यही बात कहा करती थी।
दीनानाथ ने चाय पी कर कप फर्श पर रखा। ज़रा-सी आवाज़ आई। मारिया अपनी चाय छोड़ कर झटपट उठी। दीनानाथ का कप उठाया। किचन में रख आई।

नाटक करना खूब जानती है- दीनानाथ ने मन ही मन कहा। मारिया की अतिरिक्त देखभाल, दीनानाथ जी के मन में भय पैदा कर रही थी। उन्होंने तय किया की गवर्नेस के लिए एक बार फिर लोकल अखबारों में विज्ञापन देंगे। दिन भर उन्होंने विज्ञापन का मजमून तैयार किया। चैक काटा। चैक पर अखबार का नाम लिखा। लिफाफे में डाला। लिफाफे पर अखबार का पता लिखा। टिकटें चिपकाई। लेकिन लिफाफा पोस्ट नहीं किया।
दीनानाथ दिन भर इसी काम में उलझे रहे और मारिया दीवारों के जाले हटाती रही।

आज चौथा दिन है। पिछले तीन दिन तक दीनानाथ मारिया को लगभग झेलते रहे। कुढ़ते रहे। पर चुप रहे। चुप रहने और मारिया को सहने की खास वजह यह थी कि उनके पास अन्य विकल्प नहीं था।
उन्होंने मारिया की कलाई पर पट्टी बँधी देखी है। वे अस्थिर हो उठे हैं। उन्होंने मुँह बिचकाया है। इस तरफ उनका ध्यान पहले क्यों नहीं गया?  जरूर यहाँ फोडा होगा। फोड़ा पक चुका होगा। मवाद से भर गया होगा। अचानक फूट गया होगा। तभी तो इतनी बड़ी पट्टी बँधी है। दीनानाथ ने मन ही मन कहा- ओह भगवान, किस गलीज औरत को मैंने रख लिया है। ये औरत जितनी बदशक्ल है उससे ज्यादा गलीज।

चाय देने आई मारिया को दीनानाथ जी ने सख्ती से कहा, ''अपने नासूर का ठीक से इलाज कराओ। मुझे गंदगी बिलकुल पसंद नहीं।''
''सर जी, कौन-सा नासूर?'' हैरान हो कर पूछा मारिया ने।
''ये जो कलाई पर है। पट्टी के नीचे।'' दीनानाथ ने कहा। बात में वही सख्ती।
''कलाई पर नासूर?'' मारिया कुछ समझ नहीं पाई थी। फिर भी कलाई से पट्टी खोलते हुए बोली, ''सह जी, परसों जाले साफ करते हुए गिर पड़ी थी। कलाई में मोच आ गई। बहुत दर्द हुआ। अब दर्द कम है।'' बड़ी सरलता से कहा मारिया ने। जैसे कोई मासूम-सा बच्चा अपनी चोट का बयान करता है।

दीनानाथ ने देखा। मारिया की कलाई सूजी हुई थी। उन्हें ग्लानि का अनुभव हुआ। लेकिन थोड़ा-सा। एक बार उनके मन में आया कि पूछें दर्द ज्यादा तो नहीं? लेकिन पूछा नहीं। चाय पीते रहे। चाहते तो वोलिनी या टेंटम जेल दे सकते थे। लेकिन जिससे नफरत हो, उसके प्रति हमदर्दी का जज्बा पैदा होना मुश्किल होता है।
यह कॉलनी संपन्न लोगों की है। लोग आपस में कम मिलते हैं। अपने में मस्त रहते हैं। दोपहर बाद अजीब किस्म का सन्नाटा खिंच जाता है। इस सन्नाटे में पक्षियों की आवाज़ें सुनाई देती हैं या फिर दरख्तों से पत्तों के टूटने की।

दीनानाथ, दोपहर को अक्सर सो जाया करते थे। अब भी वो सोये हुए थे। अचानक उनकी नींद खुली। गाने की आवाज सुन कर चौंक गए। इतना माधुर्य। इतना सोज। कौन गा रहा होगा? अपनी कॉलोनी में पहले तो नहीं सुना इतना अच्छा गीत... मर्म को स्पर्श करता।
दीनानाथ उठे- टॉयलेट जाने के लिए। हैरान रह गए। मारिया थी जो बरामदे में बैठी गा रही थी। इतनी बदशक्ल औरत इतना अच्छा गा सकती है- वो सोचते रह गए।

मारिया को आहट सुनाई दी। वो सचेत हुई। सँभली। गाना थम गया। वो उठ खड़ी हुई। दीनानाथ जी को देखते हुए बोली, ''सर जी, थोड़ी-सी चाय पीएँगे?''
दीनानाथ जी ने सर हिलाया। मन ही मन इस औरत का जब चाय पीने का मन होता है तो मुझसे पूछती है। मेरी इच्छा का बहाना बना कर चाय बना लाती है।
लेकिन हुआ एकदम विपरीत! मारिया ने सिर्फ दीनानाथ की चाय बनाई। कप तिपाई पर रखा और खुद बरामदे में जा बैठी।
दीनानाथ जी को महसूस हुआ जैसे फिर इस औरत ने उनको मात दी है। वो पराजित हो गए हैं। वो चाय पीते हुए सोचने लगे- इस औरत को कैसे शिकस्त दें? और फिर उन्होंने मारिया को शिकस्त देने की योजना बना ही ली।

चाय का खाली कप तिपाई पर रखते हुए उन्होंने मारिया से कहा, ''मिरर ले कर आओ।''  मारिया चकित रह गई। आखिर मिरर का क्या करेंगे दीनानाथ? फिर भी वो मिरर ले आई।
दीनानाथ ने मिरर हाथ में लेते हुए मारिया से पूछा, ''तुम तो आइना नहीं देखती होगी?''
''देखती हूँ सर जी।'' मारिया ने कहा।
''तु्म्हारे जैसी... मेरा मतलब है कि...।''
दीनानाथ ने जानबूझ कर पर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
''सर जी, 'मेरे जैसी' का अर्थ मैं समझती हूँ। मैं जानती हूँ कि मैं कैसी हूँ। फिर भी मैं अपनी शक्ल आइने में देखती हूँ। इसलिए देखती हूँ कि मैं तो जैसी हूँ सो हूँ मेरा आचरण भी शक्ल जैसा न हो जाय। आइना रखकर चली गई मारिया। दीनानाथ जी को लगा जैसे मारिया ने आइने को तोड़ दिया है और उसकी किरचों में, मारिया के नहीं, उनके अपने अक्स के टुकड़े हैं।

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एक बार फिर पराजय। एक बार फिर ग्लानि का बोध। दीनानाथ मारिया से जितना ज्यादा पराजित होते उतना ज्यादा उनके प्रति तल्ख़। हार जीत के खेल मारिया नहीं खेल रही थी। उसका तो आचरण ही ऐसा था स्पष्ट और सादा।

मारिया को आए तेरह दिन हो गए थे। दीनानाथ हमेशा इस द्वंद्व में घिरे रहते कि इतने अपमान के बावजूद यह औरत यहाँ कैसे रह रही है। ज़रूर एक दिन उन्हें लूटकर चली जाएगी। अभी तो अपने पाँव जमा रही है।

मारिया की नीयत का जायजा लेने के लिए उन्होंने दो तीन जगह दस दस पचास पचास और सौ सौ के नोट फैला दिए। ऐसा आभास हो कि नोट रखे नहीं गए दीनानाथ जी की जेब से गिर गए हैं।

सफ़ाई करते वक्त मारिया को नोट मिले वह मन ही मन हँसी अपने आप से बोली ओल्डमैन ईमानदारी परखने के लिए बहुत पुराने तरीके आज़मा रहे हैं। सब नोट इकट्ठे कर के दीनानाथ जी के पास जाकर मारिया बोली, "सर जी, ये रहे आपके नोट। संभाल के रख लो। अगर आपको देने ही हैं तो मेरे दो सौ चालीस रुपये दे दीजिए। सब्जी दालों डबलरोटी चायपत्ती मक्खन ले आई थी। सर जी, मेरी जमापूँजी दो सौ सत्तर रुपये थी। दो सौ चालीस खर्च हो गए हैं अगर आप चाहो तो।"

फिर धक्का सा लगा दीनानाथ को। जिस औरत को दस रुपये महीने पर रखा है वह अपनी जेब से दो सौ चालीस रुपये खर्च कर चुकी है। रोज कुछ न कुछ खरीद लाती है। उन्होंने एक बार भी नहीं पूछा कि पैसे कहाँ से आए, अब तक कितना खर्च हुआ तुम्हें कितने पैसे चाहिए?"

वो जिस मारिया पर शक कर रहे थे उसी मारिया ने अपने किरदार के ज़रिये स्पष्ट कर दिया था कि विश्वास किसे कहते हैं। ऐसी बातें दीनानाथ जी को थोड़ी देर के लिए विचलित ज़रूर करतीं। लेकिन वे फिर मारिया के प्रति चिढ़ जाते। मारिया उन्हें कभी अच्छी नहीं लगी थी। यही कारण था कि अखबार के लिए काटा गया चेक और विज्ञापन का मजमून उन्होंने पोस्ट कर दिया था।

बेशक हालात बदलने लगे थे। दीनानाथ अपने को पहले से बेहतर महसूस करते। थकान कम होती। अखबार भी पढ़ लेते और टीवी भी देख लेते। उन्हें भूख लगने लगी थी। शुगर और बी.पी. काफ़ी हद तक कंट्रोल हो गए थे। वे ज्यादा तो नहीं आँगन और बरामदे में थोड़ा टहल लेते। स्टिक उनके हाथ में रहती। अब दीनानाथ पूरे दिन बिस्तर पर पड़े नहीं रहते थे। उनका मन होता कुछ करते रहें। वो म्यूजिक सिस्टम पर संगीत सुनते, किताब पढ़ते, पेशेंस खेलते। शाम को बगीची में चले जाते जहाँ एरोकेरिया और मौरैया के पौधे लगवा लिए थे। इस परिवर्तन के लिए वो अपनी इच्छा शक्ति की तारीफ़ करते लेकिन यह इच्छा शक्ति बीस दिन पहले कहाँ थी। इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं था।

एक दिन मौसम खुशगवार था। खूब बारिश हुई, देहरादून में तेज़ बारिश होती है और फिर अचानक थम जाती है। मारिया ने दीनानाथ जी को बाहर बरामदे में आने के लिए कहा। दीनानाथ ने मना कर दिया। वो मारिया की हर बात के विपरीत चलते थे। बोले, "बारिश का क्या देखना।"
मारिया बोली, "सर जी, बारिश केवल पानी की बूँदें नहीं होतीं। वे तो प्रेम पत्र होते हैं जो आसमाम पृथ्वी को भेजता है।"
"प्रेम पत्र?" चौक कर पूछा दीनानाथ जी ने
"हाँ जी, आपको पता नहीं आसमान जमीन से बहुत प्रेम करता है। तभी तो वो उसे हमेशा देखता रहा है।'' मारिया भावना के आवेग में कहती चली गई।
''पृथ्वी सुंदर है इसलिए।... इसलिए आसमान उसे देखता है।'' दीनानाथ जी ने कहा।
''सर जी, आपकी बात ठीक है कि पृथ्वी सुंदर है। लेकिन आसमान उसे अन्य कारणों से भी देखता है।''
''किन कारणों से?''
''पृथ्वी का ह्रदय सुकोमल है, इसलिए।'' मारिया ने कहा।

दीनानाथ जी ने मारिया को देखा। उनके पास शेष कोई तर्क नहीं बचा था। उन्हें लगा जैसे मारिया ठीक कह रही थी। मारिया किचन में जा चुकी थी। दीनानाथ सोचते रहे।
शाम के वक्त मारिया दीनानाथ जी को घुमाने ले गई। दीनानाथ जी हिचकिचाए, ''नहीं, चला जाएगा।''
मारिया ने कहा, ''मैं हूँ न।'' मारिया ने उनका हाथ पकड़ा। दीनानाथ जी उठे। चल पड़े। सामने बरसाती नदी थी। लाडपुर गाँव था। फिर तपोवन की ओर जाती शांत, पतली सड़क थी।

दीनानाथ जी ने देखा। उनके गोरे-चिट्टे हाथ में, मारिया का काला-कलूटा, भद्दा-सा हाथ था। उसका मन हुआ अपना हाथ उसके हाथ से छुड़ा लें। लेकिन कुछ था कि वो अपना हाथ अलग नहीं कर पाए थे।
नदी के पास घास के मैदान में बैठना उनको अच्छा लग रहा था। बहुत अरसे बाद वो घर से निकल कर इतनी दूर तक आए थे। उनका मन हुआ मारिया को कोई गीत गाने के लिए कहें। लेकिन उन्होंने कहा नहीं। वो मारिया की उपस्थिति को स्वीकृति नहीं देना चाहते थे। फिर भी मारिया की प्रशंसा कर ही बैठे। जब मारिया ने झोले में से थर्मस निकाली। चायका कप दीनानाथ जी को थमाया। दीनानाथ जी चाय का कप लेते ऐसी जगह पर बैठ कर चाय पीओ तो लगता है हम पिकनिक मना रहे हैं।'' मारिया मुस्कुराई।
दीनानाथ जी जब वापस आए तो थकान के बावजूद स्वयं को तरोताज़ा और उत्साहित महसूस कर रहे थे।

दीनानाथ अपने कमरे में बैठ कर किताब पढ़ रहे थे जब मारिया ने आकर पूछा कि उसका ट्रायल पीरियड खत्म हो चुका है या चल रहा है? तथा यह भी कि वो उसे रखना चाहते हैं या नहीं? ऐसे सवाल वो पहले भी दो-तीन बार पूछ चुकी थी। दीनानाथ हमेशा टाल जाते। इस बार भी उन्होंने यही कहा कि कुछ दिन बाद बताएँगे। दरअसल, उन्होंने कुछ दिन पहले अखबार में जो विज्ञापन दिया था, उसके रिस्पांस की उन्हें इंतज़ार थी।

एक महीना हो चुका था। मारिया दीनानाथ को सुबह-शाम सैर के लिए ले जाती। कभी उनका हाथ पकड़ती तो कभी स्टिक के सहारे चलने के लिए कहती। दीनानाथ के पाँव की चोट अब लगभग ठीक हो गई थी। वो अब ठीक तरह से पाँव जमा लेते थे। पहले जो नर्सें थी, उन्होंने पाँव की चोट का खयाल ही नहीं किया था। लेकिन मारिया रोज़ाना बीटाडिन लगाती। पट्टी बाँधती। पाँव रोज़ साफ करती। घाव भर गया था। वरना शुगर के मरीज़ के लिए पाँव की चोट खतरनाक हो सकती है।

अब दीनानाथ कभी-कभी मारिया से बात कर लेते। चलते वक्त, जब रास्ता ऊँचा-नीचा होता तो अपना हाथ, मारिया के हाथों में दे देते। मारिया उनका हाथ थाम लेती।
दीनानाथ ने मारिया के विषय में एक दिन पूछा तो उसने कहा कि उसका इस संसार में कोई नहीं है। वह अनाथों की तरह पली है। नौकरानी की तरह घरों में रही है और पढ़ाई भी करती रही है।

डेढ़ महीने बाद, अचानक एक दिन गेट के सामने कार रुकी। कार से एक स्त्री उतरी। वह रौबदार स्त्री नज़र आती थी। वह लंबी थी। उसने साड़ी पहन रखी थी और ब्लाउज था जो काफी लो-कट था। उसके चेहरे पर अहंकार की झलक थी। आँखों पर काले रंग का चश्मा था। उसका रंग गोरा, चेहरा खिला हुआ और होंठ पतले थे। शरीर की फिगर अच्छी थी। उसकी चाल में आत्मविश्वास था और आवाज़ में स्थिरता। वो तीस-पैंतीस की होगी या कम की। वो दीनानाथ जी से मिलना चाहती थी। उसने बताया कि वो गवर्नेस की जॉब के लिए यहाँ आई है।

मारिया ने उसे ड्राइंग में बिठाया। मारिया ने महसूस किया स्त्री जहाँ-जहाँ जाती है, खुशबू-सी फैल जाती है। एक वो है कि पसीने में तीखी गंध।
दीनानाथ जी ड्राइंगरूम में जा बैठे। इंटरव्यू जैसी कोई चीज़ शुरू हो गई थी। मारिया इस बीच दो कप चाय रख गई। ड्राइंगरूम के बाहर अभी वो लॉबी में थी कि स्त्री की हँसी सुनाई दी। फिर दीनानाथ हँसे। फिर दोनों की हँसी एक साथ सुनाई दी।

मारिया कुछ देर तक लॉबी में खड़ी रही। स्त्री, जो गवर्नेस की जॉब के लिए आई थी कभी अंग्रेज़ी में बात करती, कभी हिंदी में। दीनानाथ जी भी उससे अंग्रेजी में बोलते। कभी हिंदी में भी बोलते। दोनों में बहुत अच्छा संवाद बल्कि वार्तालाप हो रहा था।

मारिया ने गहरी साँस ली। उदास हो गई। समझ गई, नई गवर्नेस जो सुंदर, स्मार्ट और पढ़ी-लिखी है, रख ली जाएगी। उसको चलता किया जाएगा। बहुत दिनों से उसे दीनानाथ झेल रहे थे। विकल्प नहीं था। अब है। अब वो बेदखल कर दी जाएगी।
उसका मन उदास-उदास हो गया। उसने अपने आपको समझाने की कोशिश की- मारिया, उदास मत हो। ज़िंदगी भर का ठेका कौन लेता है? यहाँ इतने दिन का दाना पानी होगा।

मारिया अपने कमरे में चली आई। कपड़े सूटकेस में डालने लगी। क्या पता, दीनानाथ उसे अभी, इसी वक्त बाहर कर दें? मारिया कमरे में यहाँ-वहाँ फैला अपना सामान समेटती। सूटकेस में डालती। आँखें नम होतीं। वो आँखों को पोंछती। कुर्सी पर बैठती। गहरी साँस लेती। इन डेढ़ महीनों के समय की बातें याद करती। उदास हो जाती। उठती। फिर अपना सामान ढूँढने लगती।

ड्रॉइंगरूम में बैठी स्त्री का व्यक्तित्व प्रभावशाली है। वो आधुनिक नज़र आती है। उसका रंग गोरा, बाल गहरे काले चमकीले हैं। चेहरा साफ, लंबा और आकर्षक है। वो बात करती है तो उसके दाँत चमकते नज़र आते हैं। उसने जो अपनी देह पर परफ्यूम छिड़क रखा है उसकी भीनी-सी खुशबू माहौल को खुशगवार बना रही है। उसने सिल्क की साड़ी पहनी है जिसका ब्लाउज लो कट है। उसकी सुडौल देह के उभार स्पष्ट आते हैं। उसका अंग्रेजी बोलने का अपना अंदाज़ है जो बनावटी नज़र आता है। उसमें शहराती अदायें हैं। एक अभिमान है जो उसके हँसने में, बोलने में, बालों को झटकने में नजर आता है। वो दीनानाथ को आँखें गड़ा कर देखती है। मारिया की तरह आँखें झुका नहीं लेती। वो दीनानाथ जी को मिस्टर दीनानाथ कहती है। मारिया की तरह सर जी नहीं कहती। उसमें मारिया जैसी सादगी नहीं। सौंदर्यबोध से उपजा अहंकार है।

दीनानाथ जी से वो बहुत देर से बातें कर रही है। दीनानाथ जी उसकी बातें सुन रहे हैं। उसने अपनी ट्रेनिंग, अपने परिवार की कुलीनता के बारे में बताया है। उसने यह भी बताया है कि उसे ए़डवेंचरस लाइफ पसंद है। यहाँ काम करना भी एक तरह का एडवेंचर होगा।
ड्राइंगरूम में बैठी प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली स्त्री, जिसकी देह से मादक परफ्युम की गंध उड़ रही है- निरंतर बोल रही है। दीनानाथ चुप हैं। सोच में डूबे हैं। किसी गहरी सोच में।

अचानक वो उठ खडे हुए हैं। सामने बैठी स्त्री को सिर्फ इतना कहते हैं, ''आपको चिठ्ठी लिख कर सूचित करूँगा।''
ड्राइंग रूम में बैठी स्त्री भौंचक-सी दीनानाथ को देखती है। पर्स उठा कर अपनी कार की तरफ जाने लगती है।
दीनानाथ जी उसे कार की तरफ जाता देखते हैं और फिर लौट आते हैं। मारिया के कमरे में जाते हैं तो हैरान रह जाते हैं। वो सूटकेस में अपने कपड़े रख रही है।

दीनानाथ जी चुपचाप खड़े मारिया को देख रहे हैं। मारिया सूटकेस से नज़रें हटा कर दीनानाथ जी को देखती है। उसकी नज़रें उदास हैं। चेहरा भी गमगीन नज़र आता है।
''यह क्या कर रही हो मारिया?'' दीनानाथ जी चकित नज़र आते हैं।
''सर जी, जैसी गवर्नेस आप चाहते थे वैसी आपको मिल गई। अब आप मुझे कहाँ रखेंगे?'' आवाज़ में वही उदासी जो मारिया की नज़रों में अटकी है।
''मारिया उठो जरा और खिड़की से गेट की तरफ देखो। उस खूबसूरत स्त्री को मैंने रुखसत कर दिया है। मैंने उसे कहा है कि मैं गवर्नेस रख चुका हूँ।''
''किसे सर जी?''
''तुम्हें और किसे?''
''मुझे? मुझ जैसी बदसूरत को?''
''नहीं मारिया, तुम बदसूरत नहीं हो। बहुत उज्ज्वल हो तुम।''
''सर जी।'' मारिया की आँखें नम हो गई हैं। वह कृतज्ञ नज़र आती है।

दीनानाथ जी मारिया के कंधे को थपथपाते हैं। पता नहीं क्यों उनकी अपनी आवाज़ भी कुछ-कुछ भीग-सी गई है, ''मारिया, तुम हमेशा इस घर में रहोगी। इस घर को अपना समझ कर।''
मारिया दीनानाथ जी को देख रही है कृतज्ञ भाव से। सादगी से। सौम्यता से।

दीनानाथ उसके पुराने सूती गाउन को देख रहे हैं। उसके नीचे सुर में बात करने के ढंग को, उसके सादापन को। उसकी विनम्रता को। उपेक्षा को सहन करने की आदत को। उसके हाथ पकड़ कर सहारा देने के अंदाज को। उसके आत्मीय व्यवहार को... दीनानाथ जी, मारिया की बहुत सारी बातें याद कर रहे हैं। उन्होंने मन ही मन कहा है- मारिया तुम बहुत सुंदर हो।

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१२ अप्रैल २०१०

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