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बड़का भाई लाछो महतो के हिस्से की सारी जमीनें धीरे-धीरे बाले बाबू ने ही खरीद लीं। तय है कि कचहरी में किरानीगिरी करके उन्होंने इतना नहीं कमाया है। उनके बेटे जब से राउरकेला में आइसक्रीम और फुचका बेचने लगे तब से ही उनकी यह कायापलट होने लगी। लाछो महतो गाँजा-भाँग और ताड़ी की लत के पीछे खेत बेचते चले गये और बाले बाबू खरीदते चले गये। लोग बताते हैं कि इनकी इस लत के पीछे कोई गहरा घाव पैवस्त है। उन्होंेने अपने दोनों छोटे भाइयों की निष्कंटक परवरिश के लिए खुद का ब्याह तक नहीं रचाया। शायद अपने निजी मोह-माया में फँसकर वे कोई दुराव की स्थिति नहीं लाना चाहते थे। उन्हें भरोसा था कि बाले पढ़-लिखकर कोई काबिल आदमी बन जायेगा तो खानदान की माली नस्ल सुधर जायेगी और इसके भरोसे उनका बेड़ा भी आराम से पार हो जायेगा। मगर बाले बाबू ज्योंही बाल-बच्चेदार हुए, उन्हें लगा कि अपनी कमाई अपने ही बाल-बच्चों में सीमित रहती तो वे ज्यादा ठाट-बाट बहाल कर सकते।
बस बंटवारा हो गया।

जिस मेंड़ पर खड़े हैं वे उसका बगलवाला खेता लाछो महतो का था, जो अब बाले बाबू का है। सुखाड़ की हालत में भी ट्यूबवेल से पानी आ रहा है। हल जोत कर कादो तैयार कर रहा है उनका मजूर। कल तक धानरोपनी भी हो जायेगी। इनके लिए कोई सुखाड़ नहीं......कोई मारा नहीं.....कोई अकाल नहीं।

ठीक ही कहते हैं उनके बेटे, आजकल छोटे किसानों के लिए खेती करना माफिक नहीं रह गया है। जो बड़े जोतदार हैं, उनके पास पूँजी है, उनके पास ट्यूबवेल है, खाद-मसाला देने की कूबत है। बिना खाद-दवाई के तो फसल अच्छी उपजती ही नहीं एकदम। पहले ऐसा नहीं था। माल-मवेशियों के गोबर और घर का कूड़ा-कर्कट ही काफी होता था। किसी छिड़काव की भी जरूरत नहीं होती थी। मानसून ठीक समय पर आ जाता था। इधर कई वर्षों से तो समय पर भरपूर वर्षा होती ही नहीं है, होती है तो असमय हो जाती है और खूब हो जाती है, जिससे फायदे की जगह नुकसान ही नुकसान हो उठता है।
ये लगातार तीसरा साल है कि जीविका का आधार धान की मुख्य फसल मारी जाने वाली है। रबी की फसल गेहूँ-चना आदि होगी तो बमुश्किल चार महीने खरची चलेगी। फिर ड्योढ़िया-सवाई में अनाज कर्ज लेना होगा। या तो तुलसी साव से या फिर अपने मँझले भाई साहेब बाले बाबू से। सूद की इतनी बड़ी दर, नौ-दस महीने में एक के डेढ़, पर रोक लगाने वाला कोई कानून नहीं.....कोई सरकार नहीं.....कोई हाकिम नहीं। रो-गाकर जो मड़ुआ-मकई, गेहूँ-चना होता है, उसमें से आधा कर्ज भरपाई करने में हर साल निकल जाता है। यह चक्र लगातार चलता रहता है।

आलू और करेले की खेती से जो थोड़ा-मोड़ा नगद हासिल होता है, वह कपड़े-लत्ते, नमक-मसाले और पर्व-त्योहार में ही समा जाता है। पेट चलाने के अलावा अगर कोई दूसरा बड़ा काम आ गया और उसे टालना किसी भी तरह संभव न हुआ तो खेत रेहन रखने के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं। खेेत जो एक बार रेहन रखा गया, उसकी मुक्ति का फिर कोई रास्ता नहीं। मुँदरी की शादी में उन्हें दस कट्ठा बेचना पड़ा। पिछले साल एक बैल बुढ़ा गया तो दो कट्ठा रेहन रखना पड़ा। इसी साल बड़कू की टाँग की हड्डी छिटक गयी तो एक कट्ठा हटाना पड़ा।

दाहू महतो को आठ साल से खूनी बबासीर है.....पर वे टालते चले जा रहे हैं। दर्जनों लीटर खून बहा चुके होंगे बेचारे। देह इकहरी हो गयी है एकदम। ज्यादातर मड़ुआ-मकई और बाजरे-ज्वार की रोटी ही नसीब में आती है। शौच इतना कड़ा होता है कि खून रोकते नहीं रुकता।
अब कुल दो ही बीघा जमीन बची है। बड़कू बराबर कहने लगा है, ''एकाध कट्ठा बेचकर आप अपना ऑपरेशन करा लीजिये बाऊ।``

दाहू महतो मटिया देते हैं, ''अरे अभी ठीक है बेटा। चलने दो जैसा चल रहा है। ब्याधि तो कुछ न कुछ रोज घेरती रहेगी....आखिर कितना बेचते रहेंगे खेत!``

बात वाजिब है.....उनकी दोनों आँखें भी मोतियाबिंद की चपेट में आ गयी हैं। महज एक आँख से वे कामचलाऊ देख पाते हैं। मेंड़ पर खड़े-खड़े वे ज्यादा दूर तक निहार तो नहीं पा रहे, पर उनके कानों में आसपास चलनेवाली डीजल पंपसेट की झकझक-फटफट की ध्वनि प्रवेश कर रही है। गाँव में सात किसान हैं पंप वाले, जिन्हें वर्षा होने की काई खास परवाह नहीं। इनके पास ट्यूबवेल का पानी है, परन्तु आँख में पानी नहीं है। छोटे किसानों पर इनकी कोई मुरौव्वत नहीं। उल्टे चाहते हैं ये लोग कि छोटे और भी कर्ज में डूब जाएँ और अपने खेत बेचते चले जाएँ।

बाले बाबू उनके सहोदर भाई हैं, फिर भी कोई रहमोकरम नहीं। कहने से कहेंगे और कई बार कहा भी है, ''अपने ही खेतों को पटाना पार नहीं लगता, तुम्हें पानी कहाँ से दें। जिसे डीजल खरीदना पड़ता है, उसे ही मालूम है पानी का मोल। बिजली रहती तो बात और थी।``

एक समय था कि बड़े जोर-शोर से यहाँ बिजली लायी गयी। युद्ध स्तर पर खंभे गाड़े गये.....तार बाँधे गये। एक-डेढ़ साल तक बिजली रही भी......एक सरकारी ट्यूबवेल भी गाड़ा गया। पर सब अकारथ। एक बार बिजली जो नदारद हुई तो आज तक बहुरकर नहीं आयी। तार चोरों द्वारा कबके काट लिये गये.....अब खंभे बिजूके की तरह खड़े हैं।

कहते हैं बिजली ज्यादातर शहर में ही दी जा रही है। बाबू-भैयन के ऐश-मौज के लिए.....कल-कारखाने के चलते रहने के लिए। दाहू महतो को इस समझ पर बड़ी झल्लाहट होती है। हाकिम-हुक्काम यह क्यों नहीं सोचता कि भूखे भजन न होत गोपाला। जब पैदावार नहीं होगी तो ऐश-मौज क्या लोग खाक करेंगे। अन्न के बदले क्या सीमेंट, लोहे, कपड़े और प्लास्टिक खाएँगे?

उनका बड़कू कहता है, ''बाऊजी, हमारे पास खेत-घर और मवेशी को लेकर ढाई-तीन लाख की सम्पति है। फिर भी हम कर्ज में डूबे हुए फटेहाल हैं। हमें छह महीने भूखे-सूखे चलाने पड़ते हैं। चलिये, शहर में आपको दिखाते हैं - सिर्फ पचास-साठ हजार की पूँजी लगाकर फुचकावाले, पानवाले, कुल्फीवाले, पकौड़ीवाले हमसे बहुत बढ़िया गुजर-बसर कर लेते हैं। फिर हम क्यों खामखा माटी से अपनी हाड़ तुड़वाते रहें?``

दाहू महतो ने समझाने की कोशिश की, ''अगर तुम्हारी तरह सभी खेतिहर मजूर किसान सोचने लग जाएँ तब तो बस खेती की छुट्टी ही हो जायेगी।``

''खेती की छुट्टी हो जाये तो हो जाये......यह सोचना हमारा काम नहीं है, बाऊ। जो हाकिम-हुक्काम हैं, उन्हें इसका इल्म नहीं तो हमें क्यों हो? जिनके पास खेत है, वे खेती नहीं करते और जिनके पास खेत नहीं है, वे खेती कर रहे हैं। दूसरों के खेत में हम अपना करम कूटकर उपज का आधा हिस्सा उन्हें फोकट में दे रहे हैं। कौन देखनेवाला है इस अँधेरगर्दी को? कोई भी नहीं। हमें भी सिर्फ अपना देखना है। मारवाड़ियों को देखिये, पूरे देश में फैलकर धंधा कर रहे हैं और क्या ठाट-बाट की जिंदगी बसर कर रहे हैं। उनके पास खेत होने की जरूरत भी क्या है? अपने ही गाँव में कितने लोग तो हैं जिनके पास खेत नहीं है और वे खेती नहीं करते। फिर भी हमसे लाख गुना अच्छा हैं कि नहीं?``

बड़कू की तजबीज को दाहू महतो काट नहीं पाते हैं। गाँव में ही ये सारे मिसाल हैं - हरेशर भागकर कलकत्ता चला गया। वहाँ वह चप्पल फैक्टरी में चतड़ा छीलते-छीलते और सुलेशन लगाते-लगाते बन गया चप्पल मिस्त्री। दो हजार रुपया महीना भेजता है घर में। सुखी राम मयूरभंज चला गया। किसी दारू भट्ठी में काम कर रहा है। परिवार खूब बढ़िया खा-पहन रहा है। लुच्चो साव गया में गोलगप्पा का ठेला लगाता है.....चर्चा है कि अब वह वहाँ मेनरोड में कोई दुकान लेनेवाला है। मुसो मिस्त्री धनबाद में कारपेंटरी करता है। कट्ठा-कट्ठा करके उसने दो बीघा जमीन खरीद ली। सोबराती मियाँ विजयवाड़ा में पता नहीं क्या टायर की दुकान चलाने लगा है, गाँव में तो शानदार मकान बन ही गया, बिहारशरीफ में भी एक किता मकान बना लिया है। हर साल एकाध बीघा जमीन भी किन ही लेता है। झुन्नू लोहार नवादा के ही किसी लेथशॉप में झाड़ू लगा-लगाकर काम सीख लिया, अभी बोकारो स्टील में काम कर रहा है। इस तरह के अनेकों प्रमाण हैं आँख के सामने। सचमुच इनकी तुलना में देखें तो सबसे खराब हालत खेतिहर किसान की ही है। खेत जैसे उनके पैर की बेड़ी बन गये हैं।

दाहू महतो सब कुछ देखते-गुनते हुए भी अपने बेटों को सांत्वना देना चाहते हैं, ''देखो बेटे, तुमलोग अब मेरी पीठ पर सहारा देने के लिए तैयार हो गये हो। बँटाई पर खेत लगानेवाले इस गाँव में बहुत हैं। हम अपनी हालत अब सुधार लेंगे।``
''बँटाई करके क्या खाक सुधार लेंगे? अपने ही खेत को आबाद करके जरा दिखा तो दीजिये हमें। आज जबकि मौसम का कोई माई-बाप नहीं है.....जमीन की उर्वरा शक्ति की कोई नाप-जोख नहीं है.....खाद और उन्नत बीज खरीदने की हमें औकात नहीं है, तो फिर क्या खाकर करेंगे खेती?`` बड़कू किसी भूखे बैल की तरह पगहा तुड़ा बैठा मानो।
''भाई ठीक कहता है बाऊ। अब हम दूसरों की जमीन में अपनी देह गलाकर एक ही जगह गोल-गोल नहीं घूमना चाहते। वही सूखा.....वही मारा.....वही करजा.....वही भुखमरी। जब आप बहुत समंगगर थे तो की तो थी बँटाई.....कितना जमा किया आपने.....कितना जाल-माल बढ़ाया?`` छोटकू ने भी अपने तेवर की तुर्शी दिखा दी।

दाहू महतो के पास दोनों का कोई जवाब नहीं है। उन्हें मानना पड़ जाता है कि जमाने के अटपटेपन ने उनके बेटों को उनसे ज्यादा अक्लमंद बना दिया है। मगर वे क्या करें? गाँव की सादगी-सरलता में जीने के अभ्यस्त.....पुरखों की माटी से जुड़ाव....गाँवावासियों से हित-मीत के रिश्ते....अमराई, तड़बन्ना, महुआरी आदि के प्रति रागात्मकता.....इस उम्र में वे इन सबको बिसराना नहीं चाहते। हल जोतते हुए ताजी मिट्टी से जो एक सोंधी खुशबू निकलती है, उससे छाती में मानो एक नयी संजीवनी मिल जाती है। इसका बयान वे अपने बेटों से कैसे करें?

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