ये
रुपए मिलने में जितनी देर होगी उसका कष्ट उतना ही बढ़ेगा। बेटे ने मुझे यहाँ से
गाजे-बाजे के साथ ले जाने के लिए एक बैण्ड का इंतजाम भी किया है तथा घर पर मेरी
रिटायरमेंट के एवज में एक अच्छी खासी पार्टी भी रखी है जिसमें मोहल्ले के कुछ
लोगों, अपने ससुराल वालों, मोहल्ले के म्यूनिसिपल कमिश्नर तथा मेरे दो दोस्तों को
बुलाया है। बाकी सब उसके दोस्तों के परिवार हैं। मेरी बीवी जिसे पिछले कुछ सालों से
ब्यूटी पार्लर जाने का शौक चढ़ा है। आज दुल्हन-सी सजी तैयार बैठी होगी, मुझे माला
पहनाने के लिए। जब आप सब बारी-बारी मुझे माला पहना रहे थे तो मैं भीतर सिमटा जा रहा
था, यह सोचकर कि एक माला (वर माला) को भुगतते तो इतने दिन हो गए, अब इन मालाओं का
भार कैसे सहूँगा? अपने अशक्त व बूढ़े कन्धों पर।
मुझे मालूम है कि मेरा बेटा व उसके दोस्त आज मौहल्लेभर में मेरी कार के आगे नाचते
हुए जाएँगे। जगह-जगह
ठहर कर नाचेंगे। लोगों को दिखाने के लिए कि हमारा अब तक क निखट्टू बाप आज लाखोंपति
है। सालो देखो हमारी कार और जलो। मध्यवर्गीय मोहल्लों का असली सुख जितना दूसरों को
जलाने में उतना स्वयं की उपलब्धि में भी नहीं होता। मेरे परिवार वालों ने तो मकान को
सुन्दर बनाने का मन भी बना लिया है। पैसे का बँटवारा भी हो गया है। एक लाख बीवी के
नाम बैंक में, ढाई लाख कार का लोन वापस करना है, एक लाख दामाद-बेटी को, क्योंकि
उसे दहेज में कुछ नहीं दिया गया था। मतलब जितनी उसकी ससुराल वालों को उम्मीद थी
उतना नहीं दिया गया था। लगभग तीन लाख रुपए मकान पर खर्चा, इक्यावन-इक्यावन हजार
रुपए बहू-पोते तथा पोती के नाम तथा शेष बचा लगभग दो लाख रुपया मेरे तथा बेटे के
संयुक्त खाते में। संयुक्त खाता इस दलील से कि अगर मैं इस पकी उम्र में पके फल-सा
टपक पडूँ तो पैसे निकलवाने में दिक्कत न आए। यानि जमा खर्च पूरा, मेरे लिए तो सिर्फ
ये मालाएँ तथा कड़वी-मीठी यादें है।
वैसे भी मुझे क्या जरूरत है पैसे की मेरी
जरूरतें ही कितनी हैं? फिर पेंशन जो मिलने वाली है। घर पर भी, मुझे उपहार देने पर
लगातार बहस-मुबाहसा चलता रहा है। बेटा एक कीमती सूट देकर, मारूति खरीदने के पक्ष
में था, परन्तु बहू ने उसे यह कहकर चुप करा दिया था कि बाबू जी ने कितने बरस पहले
सूट पहनना छोड़ दिया है। बेटे ने सोने की अंगूठी देने की बात कही थी तो बहू ने इसे
फिजूलखर्ची की बात कहा तथा एक छड़ी लाने की बात कही थी कि बाबूजी सुबह सैर के लिए
जाते हुए तथा फिर बाजार से शाक-भाजी लाते हुए भी छड़ी ले जा सकते हैं गली के
कुत्तोम से डर लगता है बाबू जी को छड़ी रहने से कुत्ते बाबू
जी से डरेंगे। छड़ी की बात
मंजूर हो गई थी, पोते के एक छोटे से संशोधन के साथ कि छड़ी के साथ-साथ झण्डू केसरी
जीवन का एक डिब्बा दिया जाए क्योंकि उसके साथ एक लाटरी स्कीम थी।
शायद कुछ और लोग, जैसे मेरा इकलौता साला जो धार्मिक विचारों का है मुझे गीता या
रामायण भेंट कर सकता है। मेरा लंगोटिया दोस्त राजू जो योगा का दीवाना हो गया है, जबसे उसे उपहार में
रेखा का योगा वीडियो कैसेट मिला है, कहेगा यार अब ही ऐश के दिन आए हैं। उसके ऐश के
दिन अब आ ही गए हैं। मेरी तरह तमाम जिन्दगी खटकर भी उस पट्ठे की जिन्दादिली कभी
नहीं गई। सरकारी स्कूल से पी.जी. अध्यापक रिटायर हुआ है। छ: हजार के करीब पेंशन
मिलती है। दोनों बेटे सूफी निकले पढ़ाई पूरी कर अमेरिका, जी स्टेटस में हैं।
वे हर
माह लगभग दस हजार रुपये भेजते हैं। पट्ठे ने अपने मौहल्ले में ही पुश्तैनी मकान
तोड़कर दो मंजिला मकान बनवाया है। हृष्ट-पुष्ट तो पहले ही था। अब सेवानिवृति के बाद
रेखा का योगा वाला कैसेट बेटे के भेजे वी.सी.आर पर लगाकर योगा करता है। एक दिन कह
रहा था कि "यार! तेरी भाभी भी अगर योगा वाला सूट पहनकर मेरे साथ योगा करे बस यही
एक ही तमन्ना है। पर वह मानती ही नहीं। कहती है बुढ़ौती में दिमाग पलट गया है मेरा।
बीवी के कहने पर तीर्थाटन करता है तथा अपनी मर्जी से हिल स्टेशनों पर बुढ़ौती में
हनीमून मनाता फिरता है। सच बड़ा जियाला है। मेरी रिटायरमेंट की सबसे ज्यादा खुशी
उसी को होगी। वह पीछे बैठा मुझे घूँसा दिखा रहा है। वह मुझे भी कैसेट देना चाहता था,
परन्तु कहने लगा यार ! तुम्हारी किस्मत में रेखा कहाँ इन बेटे-बहू, पोते-पोतियों के
बीच कहाँ देखोगे उसे। मेरे पास ही आ जाया करो टहलते-टहलते। प्रिय दोस्तो! अब नौकरी,
यह विदाई समारोह तथा यह दिन भी खत्म होने जा रहा है क्योंकि शाम के साढ़े सात बज
चुके हैं तथा आप लोग अपने-अपने घर जाने के लिए उतावले हैं तथा मेरे परिवार के लोग
मेरे आखिरी जश्न को मनाने के लिए बेताबी से तथा बेसब्री से इन्तजार कर रहे
हैं।
आखिरी जश्न इसलिए कि इसके बाद तो मेरा चौथा- उठाला ही जश्न होगा, जिसमें मैं
खुद तो शरीक नहीं हो सकता। तो दिन के इन आखिरी लम्हों में मैं अपनी आखिरी बात कहने
जा रहा हूँ, जिसके लिए मुझे इतनी लम्बी बात कहनी पड़ी और आपको उसे मजबूरन सुनना
पड़ा। दोस्तो! मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मेरे पिता अध्यापक थे वह भी एक प्राइवेट
विद्यालय में। तब प्राइवेट स्कूलों में, पेंशन तो क्या पी.एफ तथा ग्रेच्युटी भी
नहीं होती थी। सो जिस दिन वे रिटायर हुए, सारा घर चुपचाप था।
क्योंकि हम भाइयों में
से किसी की भी नौकरी नहीं लगी थी बल्कि मैं तो अभी बी.ए.के आखिरी बरस में था तथा एक
बहन अभी
क्वारी थी। ऐसे में क्या जश्न होता, रात को सबको सोया जानकर, माँ ने पिता
जी से
धीरे से कहा था, "शीला के पिता जी!"
शीला सबसे बड़ी बहन का नाम था तथा पिता जी माँ को उम्रभर
"सुनती हो!" कहकर बुलाते
रहे थे तथा माँ को जब
कोई बात कहनी होती तो वे इस वाक्यांश से पिता जी को संबोधित करती थी। सो, माँ ने कहा
"शीला के पिता जी!
"नौकरी भी गई अब कैसे गुजर होगी?" पिता जी कुछ देर चुप रहे जैसे उनकी आदत थी हमेशा
सोचकर बोलना और फिर कहने लगे, "शीला की माँ! फिक्र मत करो, जब भगवान चोंच देता है
तो दाना भी देता है और कुछ नहीं तो ट्यूशन ही कर लूँगा, गणित का अध्यापक होने का यह
फायदा तो है। शुक्र मनाओ कि मैं हिन्दी का अध्यापक नहीं हूँ वरना तो ट्यूशन भी नहीं
मिलती।" फिर सन्नाटा छा गया।
मुझे आज मात्र इतना दु:ख है कि मेरे पिता जिन्दा नहीं हैं।
वरना सारे परिवार की
नाराजगी मोल लेकर भी मैं
यह सब पैसा उनके चरणों में रखकर फूट-फूटकर रो लेता।