सपने
लेना अच्छा है या बुरा, वर्तिका नहीं जानती। वह सिर्फ जीना
चाहती है। सुमित का साथ मिलता है तो ठीक है वरना अदृश्य आकार
के साथ वह घंटों बातें करते हुए बिता देती है। यह संवाद कोई
नहीं सुन पाता लेकिन उसके मन का बोझ हलका हो जाता है। कभी
हैरान होता है सुमित उसके पत्रव्यवहार पर। ''पता ही नहीं चलता
कब उदास हो, कब खुश? तुम्हें समझना मुश्किल है। मन ही मन न
जाने क्या सोचती रहती हो?''
''तुम मेरी बात सुनो तो मन से संवाद करने की ज़रूरत ही नहीं
पड़ेगी।'' वर्तिका ने संकेत दिया था एक बार।
''मैं पागल हूँ जो तुम्हारी बेसिर-पैर की बातें सुनूँगा। भावुक
बेवकूफ़ हो तुम।''
वर्तिका की
संवेदनशीलता का मज़ाक जब-तब उड़ाना सुमित की अगर आदत हो गई है
तो उसे सहना वर्तिका की भी आदत हो गई है। कितना अजीब है यह
रिश्ता भी जिसमें पति-पत्नी एक-दूसरे को झेलने को मजबूर होते
हैं। एक-दूसरे की आदत पड़ जाती है, इसलिए रिश्ता चलता रहता है।
बस अपने आपको बदलते-बदलते ज़िंदगी खतम हो जाती है। जिन
समीकरणों के साथ ज़िंदगी शुरू हुई होती है वह अंत तक
पहुँचते-पहुँचते कैसे बदल जाते हैं, इसका अहसास तक नहीं होता
है।
''अरे एक कप चाय मिलेगी,'' सुमित का स्वर गूँजा।
बहुत बेमन से वर्तिका उठी। पता नहीं क्या सोच अपने लिए भी चाय
बना ली। उसे शौक नहीं है। हालाँकि सुमित भी सुबह एक ही बार चाय
पीते हैं। शायद ठंड की वजह से इच्छा हुई हो।
चाय देकर
वापस घूमी ही थी कि सुमित ने हाथ पकड़ लिया। ''जा कहाँ रही हो,
बैठो नं यहाँ।'' रजाई उसके ऊपर डाल बाँह उसके कंधे पर ऱख अपने
पास खींचा।
''क्यों रहती हो इतनी उदास? हँसा करो, आखिर किस बात की टेंशन
है तुम्हें?''
सुमित का प्यार भरा स्पर्श और मीठे बोल पिघला गए उसे। आँखें नम
हो गईं।
''बस यही दिक्कत है तुम्हारे साथ, ज़रा-सा प्यार कर दो तो रोने
लग जाती हो। बहुत भोली और प्यारी हो तुम पर न जाने क्यों
बीच-बीच में इतनी कटु हो जाती हो। जानता हूँ मेरे पीने से
परेशान रहती हो। पर सच तो यह है कि इस आदत को भी तुम्हीं छुड़ा
सकती हो। मुझ पर पाबंदी लगाना बंद कर दो। कहो जितनी पीनी है घर
में पाओ। फिर देखना अपने आप छूट जाएगी। तुम्हारी रोक-टोक मुझे
ज़्यादा पीने को उकसाती है।''
''मैं कोशिश तो बहुत करती हूँ पर शराब देखते ही मेरा दिमाग
झन्ना जाता है। तुम जानते हो न मेरी भाई की मौत का कारण यही
शराब थी।''
''ठीक है यार, अब हर पीने वाला समय से पहले मर ही जाए, ऐसा तो
मुमकिन नहीं।'' सुमित ने उसे चूमा। वह जानती है कि सुमित दिल
का बुरा नहीं है, उसे प्यार भी बहुत करता है पर उन दोनों की
विचारधाराएँ एकदम विपरीत हैं। ये विपरीत विचारधाराएँ उन्हें दो
किनारों पर पटक देती हैं। वे चाहे तो लहरें उनके बीच सेतु बन
सकती हैं पर सुमित की संवादहीनता बीच में आ जाती है। माना
इंसान को ज़्यादा नहीं बोलना चाहिए पर दिल की बात कहने में
हर्ज क्या है। सब कुछ अपने भीतर रखो, यह सिद्धांत रिश्ते में
दरार ही पैदा करता है।
''मैं ऐसा ही
हूँ। अब स्वयं को नहीं बदल सकता। व्यावहारिकता ज़रूरी है,
कल्पनाओं से गृहस्थी नहीं चलती। ये लंबे-चौड़े बिल, फीस और
बढ़िया जीवन शैली बनाए रखने की कोशिश में कल्पनाएँ बीहड़
जंगलों के सिवाय और कुछ नहीं लगतीं। प्यार है तो क्या दिन-रात
ढिंढोरा पीटना जरूरी है। तुम खुद इतनी शिक्षित और सुलझे
विचारों की हो न जाने कभी-कभी तुम्हारे भीतर फिजूल की बातें
क्यों हावी हो जाती हैं। क्या नहीं है हमारे पास, फिर हमेशा
तुम यह क्यों दिखाती हो कि कहीं कुछ कमी है।''
वर्तिका उठ
गई। शायद वही गलत है। उसका अदृश्य आकार के साथ एक अविश्वसनीय
दुनिया बनाने का खयाल भी असंगत है। सुमित ठीक ही तो कहता है।
पर यह कमबख्त मौसम- उसे उलझाए जा रहा है।
''मौसम ने व्यथित किया हुआ है तुम्हें?''
सुमित की बात सुन चौंक गई वर्तिका। तो वह उसके दिल की बात
समझता है। वह तो आज तक यही समझती आई थी कि उसकी मन की उथल-पुथल
से सुमित हमेशा अनजान रहता है। हो सकता है जानता हो पर कहा न
हो- फिर वही संवादहीनता। न जाने कितने फासले उग आए हैं इसकी
वजह से।
चुप रही
वर्तिका। अदृश्य आकार छू रहा था उसके मन को। झटकना चाहा पर हटा
नहीं। उदासी की परतें पलकों पर पहुँच गईं थीं।
''मैं सोच रहा हूँ कि आज जाऊँ ही नहीं।''
सुमित और न जाए। हनीमून मनाने तक तो वे गए नहीं थे। उसने कितने
उत्साह से मनाली की दो टिकट बुक कराई थीं। ''तुमने मुझसे बिना
पूछे टिकट भी बुक करा लीं। ऐसे कैसे चला जाऊँ। तुम्हारी तरह
सरकारी नौकरी नहीं है मेरी। बिजनेस में दस तरह की चीज़ें देखनी
पड़ती हैं।'' बड़ी बेरहमी से टिकट फाड़ दी थीं उसने। तभी चटक
गया था वर्तिका के अंदर कुछ। ऐसे आदमी के साथ ज़िंदगी
गुज़ारना... वर्तिका कभी अपनी इच्छा से कुछ तय नहीं कर पाई,
यहाँ तक कि घर के पर्दे किस रंग के होंगे, यह भी नहीं। सुमित
को लगता था कि उससे पूछे बिना कोई काम क्यों किया गया।
वह धीरे-धीरे
उससे दूर होती गई। एक अनकही दीवार उनके बीच आ गई थी। संबंधों
में भी उष्मा नहीं थी। अलग अलग सोते भी बहुत वक्त गुज़र गया
था।
सुमित की बात सुन वर्तिका अवाक रह गई सुमित का यह रूप बिलकुल
अलग था। क्योंकि अगर वह कहीं घूमने की बात करती तो वह कहता की
काम कौन करेगा। तुम्हारी कमाई से घर नहीं चल सकता। हर समय अपने
वर्चस्व के आगे उसे बौना दिखाने की कोशिश करता। शायद सुमित को
उसने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की थी। उसे प्यार देती तो ही
तो खुशियाँ मिलतीं। सच उसके प्रति कभी पूरे मन से समर्पित नहीं
हो पाई थी। हर बार बीच में वह अदृश्य आकार होता था।
सुमित कहीं से भी तो संवेदनहीन नहीं है, बस जतलाना नहीं जानता।
वह भी तो उदास होता होगा वर्तिका के व्यवहार से, उसकी उपेक्षा
से, उसकी तिक्तता से।
''नाश्ता लगा दूँ?''
''नहीं रहने दो। आज कनाट प्लेस चलते हैं, वहीं ब्रेकफास्ट और
लंच करेंगे।''
वर्तिका की नम आँखों से आँसू ढलक गए। कमी उसी में है। वह प्यार
और खुशियाँ पाना चाहती है पर देनी भी चाहिए ऐसा कभी नहीं सोचा।
''मैं जानता हूँ इस मौसम में तुम्हें कनाट प्लेस में घूमना
अच्छा लगता है।''
''पर आकाश?''
''चाबी पड़ोस में दे दो। और अपनी दीदी को फोन कर दो। वह आ
जाएँगी। चार-पाँच बजे तक तो हम भी लौट आएँगे।''
समाधान
ढूँढ़ने में देर नहीं लगती सुमित को। वही सोच-सोचकर और
विश्लेषण कर कठिन बनाती रहती है चीज़ों को।
कनाट प्लेस के गलियारों में भटकने का तो अब सवाल ही नहीं उठता
था, क्योंकि सुमित साथ जो थे। सुमित के हाथ में हाथ डाले आलू
की चाट खाते और 'बरिस्ता' में बैठ कॉफी पीते उसे अहसास हुआ कि
वह अदृश्य आकार औऱ कोई नहीं है। उसका चेहरा तो सुमित से बहुत
मिलता है। नहीं मिलता नहीं है, यह तो सुमित का ही चेहरा है।
वही पहचान नहीं सकी थी अब तक। सुमित के हाथों की तपिश उसके
सारे शरीर को उष्मा दे रही थी। उसे लगा मन में पलते सपनों ने
रूप ले लिया है। अदृश्य आकार कहीं लुप्त हो गया है, अभी समीकरण
बदले नहीं हैं, अभी इच्छाओं को जिया जा सकता है। |