|  वह संतप्त तो प्रतीत नहीं होते 
                    थे। उनके चेहरे पर ऐसा तिलिस्सी अक्स था, जिससे उदासी के सोते 
                    भी बह सकते थे और तटस्थता की धात्विक नौका भी बनाई जा सकती थी। 
                    ...फिर मैं क्या समझूँ? मैं उनके मैनरिज्म़ का सराह कर भी विस्तार नहीं दे पा रहा था। 
                    वह अब मेरी तरफ़ नहीं देख रहे थे। उन्होंने नज़रें खिड़की से 
                    पार टिका दी थीं।
 
                    ''वाइफ को कैंसर था, जी। बच्चेदानी का। पेट और फेफड़ों में 
                    पानी भर गया था। टाटा मेमोरियल में तीन महिने रखा। डॉक्टर 
                    सुइयों से पानी निकालते थे। वाइफ की दर्द भरी चीखें हॉस्पिटल 
                    के बाहर तक गूँजती थी।.... वार्डबॉय मरहम-पट्टी के दौरान घबरा 
                    जाते। आप सुन नहीं सकते थे जी, उसकी चीख। वह तड़पती रहती थी। 
                    कोई लिक्विड बनने लगा था, शरीर में। क्या कहते है जी उसे, 
                    एज़ीट?''''एसाइट्स।'' मैंने हायपोकाँड्रिया के सहउत्पाद के बतौर अर्जित 
                    चिकित्साज्ञान का त्वरित नमूना पेश किया।
 ''हाँ जी, वहीं। डॉक्टर तो बस सुइयाँ चुभोकर चले जाते थे। वाइफ 
                    का दर्द देखा नहीं जाता था। मैं चंडीगढ़ जाकर एक महात्मा जी 
                    से प्रसाद का अनार लाया था पर कुछ हुआ नहीं। पाँच दिन बाद वाइफ 
                    चली गई। सबने कहा- उन्हें त्रास से मुक्ति मिली है। भगवान ने 
                    ठीक ही किया होगा।''
 ''आप ईश्वर पर यकीन करते हैं?'' मुझे उम्मीद थी, कि वह हिन्दी 
                    फिल्मों के नायक या संचार माध्यमों से दग्ध हमारे रेडिकल 
                    बुद्धिजीवियों की तरह कोई जला-भुना उत्तर देंगे पर उन्होंने 
                    ऐसा नहीं किया।
 वह आगे झुककर बोले, ''करना पड़ता है जी। आपको एक वाक्या बताता 
                    हूँ। अमृतसर के दुर्गियाना मन्दिर में सुबह पाँच बजे आरती के 
                    वक्त वहाँ सैकड़ों लोग जुटते है। ठीक आरती के वक्त मन्दिर की 
                    छत दरक गई मगर किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ, क्यों कि छत का 
                    टूटा हिस्सा लोहे के छोटे से टुकडे पर अटक गया था।'' उनके स्वर 
                    में खनक आ गई थी। चेहरा सुनहरा रंग अख्तियार कर चुका था। कुछ 
                    देर रुककर वह मानों खुद से ही कहने लगे, ''हाँ, पर चमत्कार 
                    हमेशा नहीं होते।''
 मैंने गौर किया, वह कमोबेश हर वाक्य में 'जी' अक्षर का 
                    अधिकाधिक प्रयोग करते थे। सम्भवत: अपने पालतू पशुओं से भी इसी तरह 
                    वार्तालाप करते होंगे - ''दूध - बिस्किट खा लो जैकी जी!''
 
                    मुझे चर्चा का रंग-रूप बदलने की 
                    ज़रूरत महसूस हुई। मैं उन्हें उदासी के निर्जन प्रदेश की तरफ़ 
                    बढ़ते नहीं देखना चाहता था। ''आप पंजाब से बाहर कहाँ रहे?'' 
                    मैंने पूछा। ''हिमाचल, उत्तराखंड, लद्दाख, कश्मीर... पूरा नॉर्थ इंडिया 
                    घूमा हूँ जी।''
 ''कश्मीर के हालात तो बहुत खराब होंगे?''
 ''अजी पूछिए मत।...मैं अनंतनाग में मुलाज़िम था। बड़ी मुश्किल 
                    में दिन गुजारा जी वहाँ पर। वाइफ को माँस की गंध से एलर्जी थी। 
                    उसे उल्टियाँ होने लगती...''
 वह रुके बगैर रौ में बोलते जा 
                    रहे थे। धूप का एक नुकीला टुकड़ा उनकी कमीज़ की धारियों से 
                    गुत्थमगुत्था होता हुआ बर्थ की दूसरी तरफ़ निकल गया था। अँगुठे 
                    और बीच की दो अँगुलियों के सहारे वह अपने माथे को गूँथने से 
                    लगे थे। पत्नी के ज़िक्र ने उन्हें अनमना कर दिया था। सोचा, 
                    पूछ लूँ कि बच्चे कैसे हैं, कहाँ रहते हैं मगर क्यों कि 
                    उन्होंने खुद इसका कोई संकेत नहीं किया था। मुझको अपनी यह 
                    खोजबीन भी अनधिकृत प्रतीत हुई। मैंने निरापद सवालों की चादर 
                    बिछाई, जिस तरह कबूतरों को बुलाने के लिए छत पर मकई के दाने 
                    बिखेर दिए जाते हैं। ''हिमाचल में आप कहाँ थे?''
 ''हमीरपुर में था जी, कारगिल वार के दौरान। रोज़ एक लाश उतरती 
                    थी किसी फौजी की। उस पहाड़ी गाँव के लोग 'अटल बिहारी 
                    मुर्दाबाद' के नारे लगाते थे। वाजपेयी जी लाहौर जो गए थे।''
 मुझे उनकी सामरिक अभिरुचि पर 
                    हैरत हो रही थी। यकायक उनमें मांटगोमरी का अक्स नज़र आने लगा 
                    था। मैंने उन्हें करंट अफेयर्स की चौपाल पर घेरे रखने की कोशिश 
                    की - ''प्रधानमंत्री जी तो भले आदमी है।''
 ''काहे के भले हैं जी। पंजाब में जागीरें हैं इनकी।''
 ''अच्छा? मैंने हैरत दर्शायी। मैं उनसे असहमत नहीं होना चाहता 
                    था। अपने राजनीतिक रूझान को लेकर हमेशा ही आक्रामक रहा हूँ, 
                    मगर इस वक्त अपनी प्रतिबद्धता का खुला प्रदर्शन मुझे प्रतिगामी 
                    महसूस हो रहा था।''
 ''वैसे कम्युनिस्ट भी उन्हें विश्व बैंक का खिदमतगार बताते 
                    है।'' मैंने उनकी तरफ़ साहचर्य का हाथ बढ़ाया।
 ''कम्युनिस्ट कौन से दूध के धुले हैं। दिल्ली में कहते कुछ 
                    हैं, बंगाल में करते कुछ और हैं।''
 उनकी आवाज़ में कोई तल्खी 
                    नहीं थी। वह व्यवस्था की दुरावस्था को लेकर सचेत थे और शायद 
                    परेशान भी लेकिन व्यवस्था के औचित्य के प्रति उनका दृष्टिकोण 
                    निषेधात्मक नहीं था। मुझे एक काँपती परछाई की पदचाप सुनाई दे 
                    रही थी, जिसने अपने विधान पर फिकरे नहीं कसे थे - सिर्फ़ एक 
                    मुनासिब गंध इस दायरे में छोड़ दी थी।  एक पल के लिए लगा जैसे वह 
                    किसी ऐसे घटना क्षितिज को छूकर आए थे, जो अनुभूति की देह को 
                    धो-पोंछकर उजला बना डालती है। दिक् और काल के साथ जहाँ घनत्व 
                    और आयतन के गुण धर्म का पैरहन भी बदल जाता हैं। तब आप यातना के 
                    कई प्रकाश वर्ष माचिस की डिबिया में रखकर सैर पर निकल सकते 
                    हैं। घटनाओं की विशृंखलित कतार को उन्होंने परत-दर परत अपने 
                    नज़दीक रखा था। वह इस बैगेज से छुटकारा नहीं चाहते थे। सिर्फ़ 
                    उनकी कोशिश उन्हें एक तरतीबवार शक्ल में बाँधने की नज़र आती 
                    थी। जहाँ उम्र के मॉनिटर पर सब-कुछ अर्थपूर्ण तरीके से दर्ज़ 
                    हो सके। चीज़ें अपने-अपने किरदार में पूरी तरह मुब्तिला हों। 
                    जीवन में किसी भी किस्म की ओवरलैपिंग वह शायद नहीं चाहते थे।
                     धड़-गड़, धड़-गड़, धड़-गड़... 
                    ट्रेन शिप्रा के पुल से गुज़र रही थी। ''यह क्षिप्रा है।'' 
                    मैंने अँगुली से इशारा किया। वह कुछ नहीं बोले। सिर्फ़ दोनों 
                    हाथों को ठोड़ी तक उठाकर पिरामिड की शक्ल दे दी। नदी गुज़रने 
                    के बाद भी वह कुछ देर इसी तरह अभिवादन की मुद्रा में रहे। शहर 
                    की देह के संकेत चिह्न किसी वर्ग पहेली के अक्षरों की तरह 
                    धीरे-धीरे उजागर होने लगे थे। स्टेशन से हम साथ ही निकले। ''सिटी बस में साथ चलते हैं। आप इंदौरी गेट उतर जाइएगा। 
                    महाकाल के लिए वहाँ से रिक्शा मिल जाएगा। मैं बुधवारिया तक 
                    जाऊँगा, मुझे सिद्धनाथ के लिए वहीं से नगर सेवा मिलेगी।''
 वह एक भारी सूटकेस थामे थे। 
                    साथ में प्लास्टिक का कंटेनर भी था। ''लाइए, इस मैं ले लूँ।'' 
                    मैंने शिष्टाचारवश पूछा। ''नहीं जी, आदमी को अपना सामान खुद ढोना चाहिए। उन्होंने कंधे 
                    से हल्का-सा झटका दिया और मुस्करा पड़े।''
 सिटी बस में वह मुझसे दूर 
                    बैठे। उन्हें जल्दी उतरना था। वह दरवाज़े के करीब थे। उन्होंने 
                    जेब से कंधा निकाला और अधपके बालों को थपकियाँ देने लगे। कमीज़ 
                    का धारीदार हिस्सा दूर से उस रेलवे ट्रैक की तरह दिखाई दे रहा 
                    था, जो दुनिया जहान की बदहवासी को गठरी में रखकर किसी सुरक्षित 
                    इलाके में अपमार्जन के लिए छोड़ आता है। ''इन्दौरी गेट, इन्दौरी गेट!'' परिचालक की खरखराई आवाज़ सुनकर 
                    वह खड़े हो गए उन्होंने घूमकर मेरी तरफ़ देखा और धीरे से कुछ 
                    बुदबुदाए, ''अच्छा जी। उन्होंने यही कहा होगा। मैं हाथ हिलाकर 
                    उनके अभिवादन का उत्तर देने लगा। वह नीचे सड़क पर उतर चुके थे। 
                    दोपहर की बेधड़क रोशनी में उनकी बूढ़ी - लरजती देह खुद को किसी 
                    अधूरी बहस के संवेदनशीनल सिरों की तरह बटोर रही थी। वह कोई भी 
                    नंगी तार अपने पीछे नहीं छोड़ना चाहते थे।
 क्षण भर को एक कौंध-सी हुई कि 
                    जिस जगह मैं जा रहा हूँ - कहीं यह उसका पूर्वांभास तो नहीं है। 
                    सिद्धवट, मैंने सोचा कि जिस तरह हम बाग-बगीचों में अलग-अलग 
                    दरख़्तों के लिए कोई इंसानी नाम रख छोड़ते हैं - क्या वृक्ष भी 
                    कभी-कभार खुद को इस अंदाज़ को 'केमोफ्लाज' करता है? वह कौन सी 
                    जीवेषणा है, जो अपनी देह पर लोहे की चादरों को ठुकवाने के बाद 
                    भी फूट पड़ती है - किसी रुलाई की तरह नहीं, बल्कि चौरासी लाख 
                    खानों वाले एक विराट मैट्रिक्स की हदों से गुज़रती, उन्हें आपस 
                    में जोड़ती लयबद्ध गूँज बनकर। तब भी, जब किसी हताश शाम के 
                    धुंधले परदे पर स्मृतियों का ड्रैगन अपनी जीभ लपलपाता रहता है।
                     मैं बुधवारिया उतरकर आसपास 
                    देखने लगा। नमकीन की एक दुकान के नज़दीक एक गाय और कोई पुराना 
                    हैंडपंप सिर झुकाए खड़े थे। मैंने पानी के कुछ छींटे मुँह पर 
                    डाले और पलटकर देखने लगा, जिधर से आया था। वह अभी महाकाल के 
                    रास्ते पर होंगे, मैंने सोचा। 'सिद्धनाथ! सिद्धनाथ!' सड़क के दूसरे किनारे पर कुछ दूर सुनाई 
                    पड़ रहीं आवाज़ें एक ही आवृत्ति के साथ डोल रही थीं। याद आया, 
                    मैंने उनका नाम नहीं पूछा था। वह खुद भी इसके उत्सुक नहीं लगे 
                    थे। सरीन, भसीन, नारंग, अरोरा या जो भी उनकी वंशावली रही हो। 
                    मैंने पम्प से पानी खींचा, अँगुलियों की एक नाली-सी बनाई और 
                    थोड़ा-सा जल नीचे गिरा दिया। ज़मीन का एक छोटा हिस्सा चटखती 
                    धूप के बीच अपनी देह की बाकी सतह के मुकाबले कुछ गहरा हो गया 
                    था।
 धरती की भीगी देह के जिस 
                    दायरे में चमड़े की चप्पल का सिरा धँसा था, ठीक उससे बगलगीर 
                    होते एक काग़ज़ के टुकड़े की सतह नज़र आ रही थी। यह शायद तब से 
                    मेरे साथ था, जब एक कटी-फटी नोट-बुक पर उन्होंने मुझसे 
                    सिद्धनाथ की जानकारी ली थी। तब उनके सर्द हाथों की जुम्बिश से 
                    ज़रा भी अहसास नहीं हुआ था कि क्या वह कभी यहाँ लौटना चाहेंगे। 
                    ...काश!  हवा पर भी कुछ शपथनामे लिए जा 
                    सकते। काग़ज़ के निचले हिस्से में गाढ़ी काली स्याही से लिखा 
                    था - फ़ुल सर्किल! फिर कुछ थकी-हारी लकीरों के सहारे एक 
                    मछलीनुमा आकृति की रचना की गई थी। इसके ईद-गिर्द कुछ 
                    सर्पिलाकार छवियों का घेरा मौजूद था, जिसे देखकर धुंधली-सी 
                    प्रतीत होती थी मानो रूप और अंतर्वस्तु की प्रदीर्घ यात्रा में 
                    वह किसी ऐसी जगह पर ठिठके हों, जहाँ खो जाने का उन्हें ज़रा भी 
                    अंदेशा नहीं था। चंद फ़ासले पर एक छोटी-सी इबारत के अक्स थे 
                    ''प्रिय आशु, शुभ... शुभमेव!'' काग़ज़ के दूसरे सिरे पर कुछ 
                    बीमा पॉलिसियों के नाम दर्ज़ थे - जीवन सुरक्षा, जीवन सुरभि, 
                    जीवन प्रकाश और इन सबसे परे लाल स्याही से लिखा था जीवन तर्पण। 
                    इस आखिरी शब्द रचना के नीचे एक लकीर-सी खींच दी गई थी। लकीर जो 
                    उन्हें उस जगत से अलग करती थी, जिसे वह पीछे छोड़ आए थे, मगर 
                    जिसका विदीर्ण स्वर अभी टूटा नहीं था। जाने क्या सोचकर मैंने 
                    उस कटे-छिले काग़ज़ को और भी छोटे टुकड़ों में बाँट दिया और 
                    अपनी हथेली पर रखकर खड़ा हो गया। कोई अगर दूर से देखता, तो उसे 
                    लगता जैसे मैं इंसानी जिस्म न होकर पारसी समुदाय का वह 
                    कर्मकाण्ड पात्र हूँ, जिस पर मृत व्यक्ति के निश्चल शरीर को रख 
                    दिया जाता है। हवा में यकायक हरारत-सी हुई और काग़ज़ के वह 
                    लरजते हिस्से काँच की झुलती बूँदकियों की तरह दूर तक फैल गए।
                     सिद्धनाथ के रास्ते पर मेरे 
                    पैर का अँगूठा ज़मीन के झाँकते किसी हड्डी के टुकड़े पर 
                    टकराया। एक पल को मैं सहम-सा गया मगर फिर अँगुली के पोर से उसे 
                    मटियाली सतह के भीतर दबाते हुए मैंने एक पुराना सिक्का भी साथ 
                    रख दिया, जिसे में अपने लिए भाग्यशाली समझता था और जो मुझे 
                    नेहरू पार्क की उस टूटी-फूटी बैन्च पर पड़ा मिला था, जहाँ उस 
                    सिमटती सी शाम को एक अधेड़ महिला अकेली बैठी आसमान की और 
                    ताक़ती रही थी।  |