|  उन्होंने मटियाए रंग की धारीदार 
                    कमीज़ पहनी थी और बाएँ हाथ से खिड़की की जाली को थाम रखा था। 
                    ट्रेन अभी चली नहीं थी, लिहाज़ा उनका इस तरह हाथों से खिड़की 
                    को थामना कुछ अजीब लगा। वह सहमे हुए कतई नज़र नहीं आ रहे थे। 
                    उन उम्रदराज़ अंगुलियों को अपने सिवाए किसी अन्य सहारे की 
                    ज़रूरत रही होगी, इसका गुमान भी मुश्किल था, बल्कि इस 
                    प्रक्रिया में उनकी एक ऊर्जस्वित तस्वीर उभर रही थी। अगर मैं 
                    विज्ञानकथा लेखक होता, तो उन पर शानदार फंतासी रच सकता था - 
                    लौह ऊर्जा से जीने वाला बायोनिक मैन! मैंने उनमें फौलाद ढूँढने की 
                    कोशिश की। कद काठी से ऐसा बिलकुल नहीं लगता था कि उम्र के किसी 
                    दौर में वह गठीले राजकुमार रहे होंगे या उन्होंने पंजाबी कवि 
                    पाश की तर्ज़ पर बहुत जोशीला जज़्बा दिखाया होगा। मसलन ''आप 
                    लोहे की बात करते हो। मैंने लोहा खाया है।'' इसके बावजूद 
                    उन्हें देखकर गहरी आश्वस्ति मिलती थी। वह गीता के सायबर 
                    संस्करण प्रतीत हो रहे थे। निर्लिप्ति की सुतली में गिरह लगाकर 
                    जिन्होंने कर्मठता में मंतर फूँके होंगे।  अव्वल तो मैं इसी बात पर 
                    हैरान था कि मेरे बेतरतीब बालों और कमीज़ की खुली बटन पर 
                    तवज्जो दिए बगैर उन्होंने मुझसे बात की थी। ज़ाहिर है वह मुझे 
                    अस्पृश्य नहीं मान रहे थे। उनकी नज़रों में वैसा खारखुंदापन भी 
                    नहीं था, जो अक्सर बड़े-बूढे कल के छोकरों के लिए सहेज कर रखते 
                    हैं। ''आप भी उज्जैन जाएँगे?'' उन्होंने पूछा।
 ''जी!'' मैंने सतर्कता के साथ जवाब दिया।
 ''किसी आफिशियल काम से जा रहे होंगे?''
 जाने क्यों इस सवाल ने मेरे 
                    भीतर झुरझुरी-सी उतार दी! ऑफिशियल काम... अपनी ज़िन्दगी में यह 
                    रोमांच मुझे हासिल नहीं हुआ क्यों कि दरअस्ल कोई ऑफिस था ही 
                    नहीं, जिसके लिए मैं कहीं से कहीं भेजा जाता। सरकारी सेवा में 
                    चुना ज़रूर गया था पर अपनी ही गलतियों के हाथ आए इस मौके को 
                    दबोच नहीं सका। अब स्मृतियों में सिर्फ़ उस गलती की मुरझाई-सी 
                    शक्ल थी, जिसे देखकर एक और गलती का अहसास होता था। अपने पेशेवर 
                    जीवन को लेकर मैं लगभग कलर ब्लाइंड रहा हूँ। वर्णांधता यदि 
                    दिलकश नज़ारे हमसे छीन लेती है, तो कई बार इसकी बदौलत हम 
                    वीभत्स से भी बच निकलते हैं।... जी में आया कि कह दूँ, ''हाँ, 
                    ऑफिस का ही कुछ काम हैं।'' कम-अज़-कम इस बहाने दुनियावी दर्प 
                    का क्षणजीवी सुकून तो मिल ही जाएगा। बहरहाल उनसे मिथ्या संभाषण 
                    का विचार मुझे आपराधिक जान पड़ा। खासकर यह देखते हुए कि मेरी 
                    चुप्पी को उन्होंने कुरेदने की कोशिश नहीं की थी। शायद वह मुझे 
                    असहज नहीं देखना चाहते थे, लिहाजा अपने सवाल को ''आप कहाँ काम 
                    करते है'' जैसा मर्मांतक स्वर देने के बजाए उन्होंने बेहद 
                    शालीन अंदाज़ में मुझसे दरियाफ्त की थी। 
 ''जी नहीं।'' मैंने धीमी आवाज़ से जवाब दिया। ''आज वैशाख की 
                    पूर्णिमा है। उज्जैन जाकर सिद्धवट पर जल चढ़ाऊँगा। कुछ 
                    पूजा-अर्चना भी करनी होगी।''
 ''यह कौन-सी जगह है?'' उन्होंने बच्चों-सी उत्सुकता के साथ 
                    पूछा। ट्रेन अब चल पड़ी थी और उनके हाथ खिड़की से छूटकर 
                    परिंदों की शक्ल में घुटनों पर टिक गए थे।
 ''क्षिप्रा किनारे एक बरगद का वृक्ष है। हज़ारों साल पुराना 
                    कहते है, मुगलकाल में उसे सात बार काटा गया। यहाँ तक कि उस पर 
                    लोहे की चादरे ठोंक दी गई, मगर वह उग गया।... विक्रमादित्य ने 
                    इस पेड़ के नीचे बैठकर तपस्या की थी।''
 उन्हें यह फैक्ट फाइल दिलचस्प लगी। चेहरे पर ऐसे भाव आए, जैसे 
                    किसी तार वाद्य को खींचकर रखा दिया गया हो।
 ''इस देश पर अंग्रेजों से ज़्यादा अत्याचार उनके आने से पहले 
                    और जाने के बाद हुए है जी। कोई इसकी बात नहीं करता। अंग्रेज़ 
                    तो वोट देने के लिए यहाँ रहे नहीं। ज़ाहिर है फिरंगी वैशिंग 
                    सबसे मुनाफ़े का सौदा लगता है हमारे सियासतदानों को।''
 उनकी उत्तेजना अप्रत्याशित 
                    थी। मैं ठिठक-सा गया। यद्यपि उनका वक्तत्य मुझे सामान्य नहीं 
                    लगा था। वह क्षण भर के लिए विचलित हुए थे और अपनी जिज्ञासा की 
                    रूह को उन्होंने भटकने नहीं दिया था। ''क्या होता है जी, उस वृक्ष पर जल चढाने से?''
 ''पितरों को शांति मिलती है।'' ''मैं पूरी तरह ज्ञानमुद्रा में 
                    आ गया। मेरी पीठ तन गई और मैंने पैर भी फैला लिए। कुछ अजीब भी 
                    लग रहा था कि एक पितृतुल्य व्यक्ति को धर्म-कर्म सम्बन्धी 
                    ज्ञानामृत पिला रहा हूँ।''
 ''आप हर साल वहाँ जाते हैं?'' वह सच्चे सिक्ख की तरह पूछ रहे 
                    थे।
 ''जी, कोशिश करता हूँ कि हर बार जा सकूँ।''
 मुझे वह दिन याद आ गए जब माँ 
                    मुझसे ऐसे ही अनुष्ठानों की ज़िद किया करती थी और मैं झल्ला 
                    पड़ता था। वह हमारी जिल्लतों का शुरूआती दौर था। पिता गुज़र 
                    चुके थे। माँ अक्सर बीमार रहती थीं। सन एलर्जी की गिरफ्त में 
                    उन्हें सात-आठ साल हो चुके थे। चेहरे और हाथ की रूखी चमड़ी से 
                    लहू पूरी बेरूखी के साथ बहता रहता जैसे कोई एक्टीविस्ट किसी 
                    वीरान शहर में अपनी भूमिगत गतिविधियाँ चला रहा हो। मैं 
                    एम.एस.सी. करने के बाद बेकार बैठा था। तब यह बात ही बेतुकी 
                    लगती थी, कि इस उपद्रव से राहत के लिए हमें, रूठे हुए पुरखों 
                    को मनाना चाहिए। माँ का दिल रखने के लिए मैं नाराज़गी के 
                    बावजूद कभी-कभार यह सब कर लेता था। धीरे-धीरे इसमें लुत्फ़ आने 
                    लगा। इसलिए भी कि इस बहाने किसी अहं पारिवारिक जिम्मेदारी को 
                    निभाने का अहसास होता था। यह तसल्ली ही काफी थी कि सातवें 
                    आसमान के पार भी कोई है, जिसे हमसे कुछ उम्मीद है और जो ऐसा न 
                    होने पर नाराज़ भी होता है। आशीर्वाद भी वहीं से हम तक 
                    गिरते-पड़ते पहुँच ही जाते हैं। अपने छात्र जीवन में यह अफ़सोस 
                    मुझे हमेशा रहा कि कहीं कोई सूरत आस-पास नहीं थी, जिसके रूठने 
                    मनाने को लेकर परेशान या व्यग्र हुआ जा सके। एकतरफ़ा प्रेम 
                    दोतरफ़ा, तितरफ़ा तरीके से किए मगर नतीजा वहीं रहा - सिफर। 
                    गरेबां जो था - कभी सिला नहीं गया।  ...ट्रेन ने रफ़्तार पकड़ ली 
                    थी। गर्म हवा की तपिश उनके चेहरे पर झलकने लगी थी। उन्होंने 
                    होल्डाल से पानी की बोतल निकाली। अपने लिए गिलास भरा और बोतल 
                    मेरी तरफ़ बढ़ा दी। होल्डाल खोलते वक्त उनके हाथ कुछ देर के 
                    लिए काँपे थें। किसी काग़ज़नुमा सतह से टकराकर उनकी जिस्मानी 
                    हरारत बढ़ गई थी। ''पानी पिएँगे?'' वह शायद मेरी तृप्ति के लिए भी मुझसे पूर्व 
                    स्वीकृति चाहते थे।
 ''जी, धन्यवाद! सफ़र में पानी की ज़रूरत मुझे नहीं लगती।'' 
                    मैंने बगैर सोचे-समझे जवाब दे दिया। असल में घर से बाहर कहीं 
                    भी जलपान मुझे गरलपान से कम खतरनाक नहीं लगता था। होटलों, 
                    दफ़्तरों में पानी के गिलास मुझे शत्रुराष्ट्र के बंकर जैसे 
                    लगते थे, जहाँ एज़ीटोबेक्टर, सेल्मोनेला और ईश्चरचेरिया कोलाई 
                    की बटालियन मुझ पर टूट पड़ने के लिए छुपी बैठी होगी। जल सेवन 
                    को लेकर मैं परले दरज़े का संशयावादी रहा हूँ। अलबत्ता 
                    उन्होंने मेरी हठधर्मिता का बुरा नहीं माना। वह बदस्तूर मुझसे 
                    मुखातिब थे। मुझे अपनी स्वास्थ्य भीरुता अपराधिक लग रही थी। 
                    मेरे संकोच को उन्होंने पढ़ लिया। संवाद के सिरे को वह इस 
                    प्रकार बेसबब नहीं छोड़ना चाहते थे। एक बार फिर पहल उनकी तरफ़ 
                    से ही हुई।
 ''यहाँ एक परिचित की बिटिया की शादी में महू आया था। आर्मी 
                    वाले हैं। लद्दाख में उनसे जान-पहचान हुई थी।''
 ''आप भी आर्मी में रहे हैं?'' मेरा डूबता हौसला धूल झाड़कर उठ 
                    खड़ा हुआ। वैसे भी फौजियों के प्रति मेरे मन में कुतूहल और आदर 
                    का भाव रहा है। प्रथम दृष्ट्या वह फौजी नज़र नहीं आ रहे थे। 
                    आर्मी वालों की मूँछें होती है, मैंने सोचा। उन्होंने शायद चंद 
                    घंटों पहले शेव बनाई थी। गेहुँआ त्वचा के सागर में सफेद 
                    स्टबल के अंडे फूटने को थे - कुछ समय बाद वह शिशु हँसों की 
                    तरह तैरेंगे, इस पूर्वानुमान ने मुझे हरहरा दिया।
 ''नहीं जी!'' मैं एल.आई.सी. में था। काफी घूमा-फिरा हूँ। हम 
                    लोग पंजाब से हैं जी। कपूरथला के पाए एक छोटा-सा गाँव है। 
                    हमारे पुरखों ने वहाँ पुश्तैनी मकान बनवाया था। ''एक ही साँस 
                    में वह मेरे सामने अपना इतिवृत्त फैलाकर रख चुके थे। मैं समझ 
                    नहीं पा रहा था कि कहाँ अँगुली रखूँ और मानचित्र का कौन-सा 
                    हिस्सा पहले पढ़ने की कोशिश करूँ।''
 ट्रेन चले आधे-पौन घंटा हो 
                    चुका था। उन्होंने फिर से खिड़की की जाली थाम ली थी। दाएँ हाथ 
                    की अँगुलियों के सहारे वह सीने के बाए हिस्से पर थपकियाँ देने 
                    लगे थे। शायद उन्हें कार्डिएक प्रॉब्लम रही होगी। कुछ पलों के 
                    लिए वह खामोश हो गए। पेशानी पर पसीने की बूँदे किसी प्रिज्म़ 
                    के फलक की तरह चमकने लगी थीं। मैं उनके रंगों को अलग करने में 
                    जुट गया - बैंगनी, नीला, नारंगी, लाल और कुछ अवरक्त किरणें भी 
                    वहाँ होंगी, जो उनकी स्मृतियों के गर्भगृह का जीता-जागता स्कैन 
                    नुमाया कर रही थी। जैविक आँखों से उसे पढ़ पाना मेरे लिए आसान 
                    नहीं था। मैंने सेंधमारी का सहारा लिया - ''उज्जैन में आपके रिश्तेदार रहते होंगे?''
 ''कोई नहीं है जी। इस तरफ़ आया था। सोचा, लौटते हुए महाकाल के 
                    दर्शन करूँगा। सुना है, उज्जयनी में किसी की अकालमृत्यु नहीं 
                    होती। मुझे पहले पता होता, तो वाइफ को ज़रूर लेकर आता।''
 ''सुना तो मैंने भी है कि महांकाल सबकी रक्षा करते है।'' मुझे 
                    इसके पीछे रहस्यपूर्ण गंध आई कि उन्होंने जान-बूझकर उज्जयनी 
                    शब्द का प्रयोग किया था। सम्भवत: भाषा और भृंश के बीच वह 
                    चमत्कारों की प्रायिकता का प्रतिशत भाँप चुके थे। अर्वाचीन से 
                    उन्हें नाराज़गी या शिकायत नहीं थी, पर भरा-पूरा भरोसा भी नहीं 
                    था। मैंने उन पर खुर्दबीन तान दी। क्या वह मृत्युभय से ग्रस्त 
                    थे? उनकी भंगिमाओं में इसका सबूत ढूँढना मुश्किल था। मुझे याद 
                    आया, सेम्युअल जॉन्सन ने शायद कहीं कहा है, ''व्यक्ति जितना 
                    भला होगा, उसे मृत्युभय उतना ही अधिक सताएगा।''
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